दक्षिण के आचार्यो बल्लभचार्य, विट्ठल नाथ और
रामानुज आदि ने अनुभव किया कि हिन्दी भाषा के माध्यम से ही वे अपना संदेश जन-जन तक
पहुंचा सकते हैं।
दक्षिण में बहमनी साम्राज्य दक्खिनी
हिन्दी का प्रमुख केन्द्र था ।
मछलीपट्टनम के नादेल्ल पुरूषोतम कवि
ने 32 हिन्दी नाटकों
की रचना की ।
बंगाल में चैतन्य महाप्रभु ने अपना
प्रचार हिन्दी मिश्रित बांग्ला में किया, जिसे ब्रजबुलि कहा जाता है।
असम के शंकर देव ने भी हिन्दी को
अपने सांस्कृतिक प्रचार और साहित्य का माध्यम बनाया ।
राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के
विकास का इतिहास भारतीय स्वाधीनता संघर्ष से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है।
1857 के विद्रोह के बाद हिन्दुओं और
मुसलमानों ने स्थायी भेद पैदा करने के लिए और मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के
लिए अंग्रेजों ने उर्दू भाषा और पफ़ारसी लिपि को प्रोत्साहन देना शुरू किया ।
बिहार में नागरी लिपि और हिन्दी भाषा
के लिए आंदोलन का नेतृत्व बाबू भूदेव मुखोपाध्याय कर रहे थे ।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र की साहित्य
साधना का मूल मंत्र है: निज भाषा उन्नत अहै निज उन्नत को मूल |
भारतेन्दु हरिश्चंद्र यह चाहते थे कि
हिन्दी भाषा को इतना समृद्ध बना दिया जाय कि वह स्वतः ही राष्ट्रभाषा पद के लिए
दावेदार बन जाय ।
प्रतापानारायण मिश्र ने “हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान” का नारा बुलंद
किया ।
बाबू तोताराम ने हिन्दी भाषा और
नागरी लिपि के प्रचार के लिए अलीगढ़ में “भाषा संवर्द्धनी सभा” की स्थापना की।
इसी उद्देश्य के लिए 1884 में “हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि मध्य सभा” की स्थापना
प्रयाग(इलाहाबाद) में की गई ।
सन् 1893 ई. में नागरी
प्रचार के लिए काशी में “नागरी
प्रचारिणी सभा” की स्थापना हुई
।
1893 ई. में ही ब्रिटिश सरकार ने भारतीय
भाषाओं के लिए रोमन लिपि के प्रयोग का प्रस्ताव रखा ।
नागरी प्रचारिणी ने इस प्रस्ताव को
विरोध करने के लिए “नागरी कैरेक्टर” का प्रकाशन
अंग्रेजी में किया ।
नागरी प्रचारिणी सभा ने 1896 में “नागरी प्रचारिणी पत्रिका” का प्रकाशन शुरू
किया ।
रोमन लिपि का विरोध करने के लिए
नागरी प्रचारिणी ने पं. मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में जोरदार आंदोलन किया ।
केशवचंद्र सेन ने 1873 में अपने
बांग्ला पत्र “सुलभ समाचार” में भारतीय
एकता के लिए हिन्दी को भारत की एकमात्र मानने की अपील की ।
1908 में रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने हिन्दी
को राष्ट्रभाषा मानने का सुझाव दिया ।
तिलक हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानते थे
और नागरी लिपि को राष्ट्रलिपि ।
आचार्य क्षिति मोहन सेन ने कहा कि
हिन्दी का राष्ट्रभाषा बनाने के लिए जो भी अनुष्ठान हुए हैं, उसे मैं राजसूय
यज्ञ मानता हूं ।
खड़ी बोली में काव्य-रचना को आंदोलन
का रूप देने का श्रेय बिहार के बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री को है ।
उन्होने सन् 1888 में “खड़ी बोली आंदोलन” नामक पुस्तक
प्रकाशित किया, जिसमें उन्होने
लिखा हैः “अब तक जो कविता
हुई है वह तो ब्रजभाषा की थी, हिन्दी की नही।“
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने “सरस्वती” के माध्यम से
हिन्दी के ज्ञानात्मक साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास किया है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने स्वयं
अर्थशास्त्र विषय पर “सम्पतिशास्त्र” नामक पुस्तक की
रचना की ।
नागरी प्रचारिणी सभा ने हिन्दी में
पारिभाषिक शब्दों की कमी को दूर करने के लिए 1906 में “वैज्ञानिक कोश” का प्रकाशन
किया ।
नागरी प्रचारिणी सभा ने हिन्दी के
अनेक पुराने ग्रंथो की खोज और प्रकाशन का महत्वपूर्ण कार्य किया, जिससे हिन्दी
के इतिहास लेखन में सहूलियत हुई ।
शब्दकोश की कमी को पूरा करने के लिए
नागरी प्रचारिणी सभा ने “हिन्दी शब्द
सागर” का निर्माण
कराया, जिसकी भूमिका
के रूप में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने “हिन्दी साहित्य का इतिहास” लिखा।
हिन्दी के मानक स्वरूप को स्थिरता
प्रदान करने का श्रेय महावीर प्रसाद द्विवेदी को है।
10 अक्टूबर 1910 को हिन्दी
साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की
स्थापना हुई, जिसके पहले
अधिवेशन के अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय थे और महामंत्री पुरूषोत्तम दास टंडन थे ।
पुरूषोत्तम दास टंडन को हिन्दी का
प्रहरी माना जाता है।
इस अधिवेशन हिन्दी साहित्य के लिए एक
कोश के निर्माण के लिए “हिन्दी पैसा फ़ंड
समिति” की स्थापना
हुई।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दी को
आर्यभाषा कहा और अपना सम्पूर्ण धार्मिक साहित्य हिन्दी में लिखा ।
सन् 1918 ई- में हिन्दी
साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में गांधीजी ने प्रतिवर्ष छह दक्षिण भारतीय
युवकों को हिन्दी सीखने के लिए प्रयाग आने और छह हिन्दी भाषी युवको को दक्षिण की
भाषाएं सीखने और हिन्दी का प्रचार करने के लिए भेजने का प्रस्ताव रखा, जिसे स्वीकार कर लिया गया ।
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास की स्थापना महात्मा गांधी ने
ही की ।
सन् 1936 ई. में अखिल
भारतीय साहित्य परिषद की स्थापना हुई ।
1942 में काका साहब
कालेलकर ने वर्धा में “हिन्दुस्तानी
प्रचार सभा” की स्थापना की
।
काका साहब कालेलकर और मोटूरी
सत्यनारायण दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार के प्रमुख नेता थे ।
हिन्दी प्रचार के प्रमुख नेता होने
के कारण मोटूरी सत्यनारायण का दक्षिण भारत का टंडन कहा जाता था ।
किसी भाषा को राष्ट्रभाषा होने के
लिए निम्न योग्यताएं होना आवश्यक है
·
वह राष्ट्र में बहुसंख्यक जनता
द्वारा बोली जाती हो,
·
उसका अपने क्षेत्र से बाहर भी
विस्तार हो,
·
वह राष्ट्र की सांस्कृतिक और भाषिक
विरासत की सशक्त उतराधिकारी हो,
·
उसकी लिपि पूर्ण और वैज्ञानिक हो,
·
शब्द सामर्थ्य तथा अभिव्यंजनात्मक
क्षमता उत्तम हो,
·
उसकी व्याकरणिक संरचना सरल, सुबोध और
वैज्ञानिक हो,
·
उसमें नए शब्दों और प्रयोगों को
आत्मसात करने की क्षमता हो,
·
उसमें अन्य भाषाओं के उपयुक्त शब्दों
को आत्मसात करने की क्षमता हो,
किसी बहुभाषीय राष्ट्र के विभिन्न
प्रांतों के बहुभाषी लोग आपसी संपर्क एवं लोक व्यवहार के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल
करते हैं, उसे संपर्क
भाषा कहते हैं।
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