हिंदी
साहित्य के इतिहास में निर्गुण भक्ति के ज्ञानमार्गी भक्तों को संत कवि कहा गया है
| इन संत कवियों द्वारा प्रतिपादित काव्य धारा को संत काव्य कहा जाता है | ‘संत’ से अभिप्राय उस व्यक्ति या
व्यक्तियों के उस समूह से है जिसने सत्यरूप परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया है और
शुद्ध जीवन जीते हुए निःस्वार्थ भाव से लोक कल्याण में रत है। हिन्दी में ‘संत-काव्य’ से आशय हैᅳ कबीर आदि निर्गुणोपासक ज्ञानमार्गी कवियों द्वारा रचित काव्य। भक्तिकाल
की विषम सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों में इन संत कवियों ने ज्ञान की आंधी और
प्रेम की बारिश के द्वारा जन सामान्य में आशा की ज्योति विखेरने का अतुलनीय कार्य
किया | निर्गुण भक्ति के प्रेममार्गी कवियों को सूफ़ी कवि कहा गया है |
संत काव्य परंपरा
संत
काव्य परंपरा
भक्तिकाल की आरम्भिक काव्यधारा है। इसका संबंध निर्गुण भक्ति से है। आचार्य
रामचंद्र शुक्ल ने इसे ज्ञानाश्रयी शाखा कहा है। निर्गुण भक्त कवि अधिकांश निम्न
जाति के थे। उन्हें मंदिरों में प्रवेश की मनाही थी। ईश्वर से वंचित किये गये इन
जातियों ने तब ईश्वर को अपनी कल्पना में गढ़ा, जिसमें ईश्वर के प्रचलित रूप के
विरोध की भी भावना थी। इसलिए इस धारा के संत कवियों ने अपनी उपासना का आधार
गुणातीत ब्रह्म को बनाया है। संत काव्य तत्कालीन सामंतवादी और रुढ़िवादी परिवेश में
मानवतावादी चेतना की प्रखर अभिव्यक्ति है। यह उस सांस्कृतिक जागरण की सशक्त
अभिव्यक्ति है, जो गहरे मानवीय सरोकारों से उपजी है और सार्वभौमिक मानव मूल्यों को
प्रतिष्ठापित करता है|
वस्तुतः
संत काव्य परम्परा के लिए पृष्ठभूमि बहुत पहले से तैयार हो रही थी | पूर्व में
बौद्ध धर्म वज्रयान और सहजयान में परिणत हो गया था | दक्षिण से चला वैष्णव
संप्रदाय पूरे देश में प्रभाव जमाने लगा था जिसका नाथ पंथ और अन्य सम्प्रदायों से वैचारिक
आदान-प्रदान होने लगा था | इनके बीच में इस्लाम के समानता के सिद्धांत ने अपनी पैठ
बनायीं | इन सभी ने संत काव्य के दार्शनिक आधार को तैयार करने में योगदान दिया |
शंकराचार्य एवं उपनिषदों द्वारा प्रतिपादित अद्वैत दर्शन, नाथपंथ, सूफी धर्म एवं इस्लाम दर्शन
इन सबों का एकीकृत रूप ही संत काव्य का दार्शनिक आधार है। उपनिषदों में वर्णित
ब्रह्म, जीव, जगत एवं माया के स्वरूप को
संतों ने ज्यों का त्यों ग्रहण किया है। इनका साधना पक्ष शंकराचार्य के अद्वैत
दर्शन की देन है। नाथ पंथ से संतों ने शून्यवाद, योगसाधना, गुरू की महिमा का तत्व ग्रहण किया। इस्लाम के प्रभाव से संतों ने
एकेश्वरवाद को स्वीकार किया तथा मूर्तिपूजा एवं अवतारवाद का घोर विरोध किया। सूफी
संतों से प्रेम भावना को ग्रहण करने के साथ-साथ दाम्पत्य प्रतीकों का प्रयोग अपनी
भक्ति की अभिव्यक्ति हेतु किया। बौद्धों एवं वैष्णवों से इन्होंने अहिंसावाद को
ग्रहण किया। सिद्ध सम्प्रदाय की गूढ़ उक्तियाँ, उलटबांसियाँ, वैदिक
परम्पराओं एवं धार्मिक बाह्याचार का विरोध भी संत काव्य में मिलता है।
संत
कवियों की परम्परा का आरम्भ बारहवीं शताब्दी में जयदेव से होता है | उनके निर्गुण
भाव के पद आदिग्रन्थ में संकलित हैं | तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम आदि
संत इस परम्परा को आगे बढ़ाते है | इसके बाद कबीरदास के गुरु रामानंद आते है | लेकिन
हिंदी में संत काव्य की परंपरा के सूत्रपात का श्रेय कबीरदास को है | रविदास,
सेना, पीपा, पद्मावती, सुरसुरी और धन्ना कबीर के गुरु भाई थे | इस परंपरा में आगे
चलकर अनेक पंथों की स्थापना हुई | कबीर के अनुयायियों द्वारा स्थापित कबीर पंथ के
अतिरिक्त नानक के पंथ, दादू के दादू पंथ और मलूक दास के मलूक पंथ अस्तित्व में आते
गए | कबीर ने संत मत के निश्चित सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया | कबीर से शुरू
हुई संत काव्य परंपरा में दादू, गुरु नानक, सुन्दर दास, गरीब दास, धर्मदास, जगजीवन
साहब, जम्भ दास, मलूक दास, हरिदास, चरण दास, गुलाब साहब आदि कवि हुए है |
कबीर, नानक, दादू, मलूक आदि सभी संत
कवियों की वाणी जीवन के प्रति आस्था से निकली हुई है, मानवीय सरोकारों से गहरे
जुडी हुई है इसलिए वह हृदय की अतल गहराइयों से निकली हुई है। वह “अनभै सांचा” है अर्थात् अनुभव सत्य और
अनभय सत्य से युक्त | संत
कवियों का मूल्य-बोध सामजिक यथार्थ से उपजा है। जिस परिवेश में संत कवियों ने अपनी
पीयूषवर्षिणी वाणी से जन सामान्य को चेतना प्रदान की वह समाज क्षयशील प्रवृतियों
से ग्रस्त समाज था | वह
अज्ञान, अशिक्षा
और अनैतिकता का युग था। जीवन के आदर्शों का पतन होने लगा था, मानवता की भावना का लोप हो
चला था, मानवीय सद्वृतियाँ– प्रेम, क्षमा, करुणा, शील, सेवा, त्याग एवं अहिंसा जैसे
चिरंतन मूल्य लुप्त प्राय होने लगे थे | मानव-धर्म जाति, वर्ग, संप्रदाय आदि में विभक्त हो
चला था और जन समुदाय भावनात्मक रूप से विखरता जा रहा था | ऐसे परिवेश में अंधकार से
प्रकाश की ओर, असत्य से
सत्य की ओर, अधर्म से
धर्म की ओर, पशुता से
मानवता की ओर, विनाश से
सृजन की ओर, और अंत
में असीम से ससीम की ओर ले जाने का श्रेय संत कवियों को है | संत-काव्य
हमारी संवेदनाओं को मानवीयता से जोड़ता है, मनुष्यता की नयी परिभाषा करता है तथा नया धर्म रचता है। यह नया धर्म
ही "लोकधर्म" है और इसी लोकधर्म के प्रति समूचा संत-काव्य समर्पित है।
डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं –
"संत-साहित्य भारतीय जनता के प्रेम, घृणा, आशाओं और वेदना का दर्पण है। वह उसके हृदय की सबसे कोमल, सबसे सबल भावनाओं का
प्रतिबिम्ब है। उसकी मानवीय सहजता लौकिक जीवन में आस्था और उज्ज्वल भविष्य की
कामना का प्रतीक है।"
संत
काव्य की प्रवृतियाँ
संत
कवियों ने धर्म को उत्तुंग शिखर से उतारकर ठोस ज़मीन पर लोक जीवन से जोड़ दिया और
इसके साथ ही धर्म को मनुष्यता से जोड़कर उच्चतर धरातल पर प्रतिष्ठित किया। इस
प्रकार जिस नूतन मानव धर्म की प्रतिष्ठा की वह लोकधर्म ही नहीं अपितु विश्वधर्म
में परिणत हो गया| संत कवियों ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर जोर दिया और निर्गुण
भक्ति का सामंजस्य लोक में स्थापित करने के प्रयत्न किया | इसकी प्रमुख प्रवृतियाँ
इस प्रकार है-
निर्गुण
ब्रह्म में विश्वास
संत
कवियों के उपास्य परं ब्रह्म है जो निर्गुण और निराकार है और जिन्हें केवल ज्ञान
द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है| इसलिए इन्हें ज्ञानमार्गी कहा जाता है| निर्गुण
ब्रह्म की एकमात्र सत्ता मानने के कारण संत कवियों ने अवतारवाद और मूर्तिपूजा जैसे
साकार और सगुण स्वरूपों को सर्वथा त्याज्य बताया| कबीर के उपास्य ‘राम’ है लेकिन
वे निर्गुण है और दशरथ सुत नहीं है|
“दशरथ सुत
तिहूँ लोक बखाना,
राम नाम को मरम है आना |”
वे अगम,
अगोचर और अतीन्द्रिय हैं| लेकिन परम ब्रह्म सर्वत्र मौजूद है | वह घट-घट में
विद्यमान है-
“कस्तूरी
कुंडली बसे मृग ढूंढे बन माहि”
इस
निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति सदगुरु द्वारा दिए ज्ञान द्वारा ही हो सकती है और
मायाजाल के आवरण को भेदकर ज्ञान-चक्षुओं को खोला जा सकता है | निर्गुण ब्रह्म के
प्रति अनुराग प्रकट करने के लिए इन्होने स्वानुभूति परक आत्म निवेदन और नामस्मरण
को ही साधना पद्धति के रूप में स्वीकार किया है| इसके पीछे संत कवियों का उद्देश्य
एक ऐसी सामान्य भक्ति पद्धति का प्रचार करना था, जिसमें भेद-भाव की भावना का
परिहार हो सके |
सामाजिक
चेतना
संत
कवियों का मूल्य-बोध सामजिक यथार्थ से उपजा है। संत कवियों का समाज अज्ञान, अशिक्षा
और अनैतिकता जैसी क्षयशील प्रवृतियों से ग्रस्त समाज था | मानवीय
सद्वृतियाँ– प्रेम, क्षमा, करुणा, शील, सेवा, त्याग
एवं अहिंसा जैसे चिरंतन मूल्य लुप्त प्राय होने लगे थे | मानव-धर्म
जाति, वर्ग, संप्रदाय आदि में विभक्त हो चला था | ऐसे परिवेश
में अंधकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अधर्म से
धर्म की ओर, पशुता से मानवता की ओर, विनाश से
सृजन की ओर, और अंत में असीम से ससीम की ओर ले जाने का श्रेय संत कवियों को है | इस
प्रकार संत काव्य में सांसारिक जीवन के व्यापक क्षेत्र को दृष्टि में रखकर मानवीय
मूल्यों का निरूपण किया है |
विचार और
संवेदना दोनों स्तर पर संत कवि सामाजिक अन्याय का दो-टूक प्रतिरोध करते हैं| संत-काव्य
ने शोषित-पीड़ित तथा वंचित जन-समुदाय के बीच आत्म-सम्मान तथा आत्मविश्वास की भावना
को जागृत किया । संत कवियों ने जिस सार्वभौम मानव धर्म की हिमायत की उसमें सभी
प्रकार की भेद दृष्टि मिथ्या है। मानव-मानव में भेद इस परम अज्ञान का द्योतक है कि
सभी एक परम तत्व से उत्पन्न नहीं है -
‘एक जोति से सब उत्पन्ना, को बाभन
को शूदा’
इसी तत्व
दृष्टि से संत कवियों ने जाति-पाँति, छुआ-छूत, ऊँच-नीच
के भेद का विरोध किया और मानवता की प्रतिष्ठा के लिए भेद बुद्धि के निराकरण को सर्वोच्च
प्राथमिकता देते है | संत कवि अपने युग की पीड़ा का साक्षात्कार कर रहे
थे| इस पीड़ा के कारण उनका ह्रदय दुखी है-
‘सुखिया साब संसार है, खावे और सोवे|
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवे ||’
उन्होंने
धार्मिक मठाधीशों के धार्मिक मनमानेपन, बड़बोलेपन, धूर्तता
और दंभ की आलोचना की और इस बात पर बल दिया कि विभिन्न धर्म मतों में प्रचलित
कर्मकांडों तथा पूजा-पाठ आदि धर्म की मूल्य दृष्टि के पोषक नहीं हैं|
सदगुरु
को महत्व
संत
कवियों ने निर्गुण एवं निराकार ब्रह्म के ज्ञान और साक्षात्कार के लिए सदगुरु की
महत्ता को स्वीकार किया है | कबीर तो अनंत दृष्टि खोलने वाले गुरु के उपकारों का
अनंत मानते है-
‘सतगुरु की महिमा अनत, अनत किया उपगार
लोचन अनत उघाडिया, अनत दिखावणहार’
यह गुरु
ही अज्ञान रूपी अंधकार में भटकते हुए के हाथ में ज्ञान रूपी दीपक प्रदान करता है
जिससे सहज ही सत्य का ज्ञान प्राप्त हो जाता है | इसलिए संत कवियों के गुरु को
गोविन्द से बढ़कर माना है क्योंकि गोविन्द को बताने वाला गुरु ही होता है |
‘गुरु गोविन्द दोऊँ खड़े काके लागूं पाय
बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोविन्द दियो बताय’
रहस्यवाद
निर्गुण
एवं और निराकार ब्रह्म की उपासना में रहस्यवाद का होना स्वाभाविक है | शंकर का
अद्वैतवाद, सूफियों की प्रेम साधना और नाथों की योग साधना संत काव्य के रहस्यवाद
का आधार है | रह्स्यवाद के दो प्रकार माने जाते है- (1) साधात्मक रहस्यवाद (2)
भावात्मक रहस्यवाद | आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार कबीर आदि संत कवियों में कबीर
के साधनात्मक रहस्यवाद है जो स्पष्टतः नाथपंथियों का प्रभाव है| जहाँ कवि योग
साधना, कुंडलिनी योग, षटचक्रों आदि का उल्लेख करता है, वहाँ साधनात्मक
रहस्यवाद है-
रस गगन गुफा में अजर झरै
अजपा सुमिरन जाप करै
आचार्य शुक्ल
ने लक्षित किया है कि “कबीर की वाणी में स्थान स्थान पर भावात्मक
रहस्यवाद की जो झलक मिलती है, वह सूफियों के सत्संग का प्रसाद है|” कबीर ने
स्त्री और पुरुष का रूपक अपनाकर प्रेम की जो व्यंजना की है उसमें सूफी रहस्यवाद
प्रेम-साधना का मर्म ही झलकता है-
“हरि मोर रहता मैं रतन पियरिया
हरि का नाम ले कतक बहुरिया”
संत
कवियों अपनी रहस्यवादी भावनाओं को उलटबांसियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है|
प्रेमलक्षणा
भक्ति
संत
कवियों पर सूफियों के प्रेम दर्शन का भी प्रभाव पड़ा है | सूफियों की प्रेम पद्धति
अभारतीय रही है | फिर भी सूफियों के प्रेम का प्रभाव ग्रहण करते हुए भी संतों ने परमात्मा
को प्रियतम माना है, प्रियतमा नहीं, बल्कि स्वयं को प्रियतमा माना है | कबीर अपने
प्रेम संबंध को व्यक्त करते हुए कहते है-‘हरि मोरा पिउ, मै हरि की बहुरिया|’ इस
प्रकार पूरे संत काव्य में परमात्मा के साथ पति-पत्नी संबंध के अतिरिक्त उसे पिता,
सखा, माता आदि के रूपों में संतों ने देखा है | इसका एक कारण यह भी है कि संत कवि
निर्गुण ब्रह्म के उपासक हों लेकिन वे उपासना के लिए सामाजिक और पारिवारिक संबंधों
को ही आधार बनाते है |
अभिव्यंजनात्मक
प्रवृति
अधिकांश
संत कवि समाज के निचले वर्ग से आये थे जिनके लिए ‘मसि-कागद’ अस्पृश्य की तरह था | प्राय:
सभी संत अशिक्षित थे। वे कविता लिखने के लिए कविता नहीं लिखते थे | उन्होंने कविता
को साधन के रूप में अपनाया, साध्य के रूप में नही | ऐसी स्थिति में उन्होंने अपने
समय के समाज बोलचाल की भाषा को ही अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया जिसमें लोक व्यवहार
की सादगी और जीवन्तता है । धर्म-प्रचार हेतु वे भ्रमण करते रहते थे । जिस कारण
उनकी भाषा में विभिन्न प्रान्तीय शब्दों का प्रयोग हुआ । इन्हीं कारणों से इनकी
भाषा सधुक्कड़ी या बेमेल खिचड़ी हो गई, जिसमें
अवधी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली, पूर्वी-हिंदी, फारसी, अरबी, संस्कृत, राजस्थानी
और पंजाबी भाषाओं का मेल है । आचार्य शुक्ल इनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा है| फिर
भी संत कवियों का भाषा पर जबर्दस्त अधिकार था | आचार्य द्विवेदी ने तो कबीर को
वाणी का डिक्टेटर कहा है | कविताई साध्य नहीं होने के बावजूद संत काव्य अलंकार
विहीन नहीं है | उनके काव्य में अलंकार बिना प्रयास के सहज रूप से आ गए है | संतों
के काव्य में उपमामूलक और विरोधमूलक अलंकारों की प्रधानता है |
संत
कवियों ने अनुभूत सत्य को सहज-सरल और दो टूक शब्दों में से व्यक्त करने के लिए
मुक्तक काव्य को अपनाया| मुक्तक काव्य के अंतर्गत सबसे अधिक साखी, सबद और रमैनी की
रचना हुई | संत कवियों ने अपने सामाजिक-आध्यात्मिक अनुभवों को साखियों में व्यक्त
किया है | साखी की रचना अधिकतर दोहा छंद में हुई है| सबद गेय पद है जिसमें संतों
ने अपने आत्म-निवेदन को अभिव्यक्त किया है जिसमें राग-रागिनियों का प्रयोग किया
गया है| किसी विषय को लेकर दोहा-चौपाई छंद में लिखी गई विवरणात्मक रचनाएँ रमैनी
कही जाती है |
संतों ने
अपने सामाजिक-आध्यात्मिक अनुभवों को अक्सर प्रतीकों और उलटबांसियों के माध्यम से
व्यक्त किया है | संतों ने अपने अनुभव से जान लिया था कि इस दुनिया को सीधे शब्दों
में समझाया नहीं जा सकता है क्योंकि दुनिया की गति ही उलटी चल रही है| उलटबांसियों
को पहले ‘संध्या भाषा’ कहा जाता था| ‘संध्या भाषा’ से तात्पर्य वैसी भाषा से है,
जिसका कुछ अर्थ समझ में आता है लेकिन कुछ अस्पष्ट है | उलटबांसी में प्रतीकों का
प्रयोग होता है जिनके खुलने पर ही अर्थ स्पष्ट हो पाता है|
‘देखि-देखि जिय अचरज होई, यह पद बूझें बिरला कोई|
धरती उलटि अकासै जाय, चिउंटी
के मुख हस्ति समाय||’
संतों ने
अक्सर आत्मा, परमात्मा, संसार आदि के लिए कमलिनी, सरोवर, जल, नागिन, समुद्र,
कुम्भ, कुत्ता आदि का इस्तेमाल प्रतीक के रूप में किया है |
‘जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर
भीतर पानी
फूटा कुम्भ जल जलहीं समाना, यह तथ
कथौ गियानी।‘
संत
कवियों प्रतीकों और उलटबांसियों का प्रयोग अक्सर नाथों, योगियों और सहजयानी
तांत्रिकों को फटकारने के लिए किया करते हैं | उनका लक्ष्य पोथी ज्ञान से दबे
पंडित थे क्योंकि उनकी उलटबांसियों के अर्थ पोथियों में नहीं थे | इसलिए पंडितों
के अहंकार को ये उलटबांसियाँ तोड़ती हैं, उनके
सारे ज्ञान की पोल खोल देती है।
सूफ़ी का
तात्पर्य और सूफ़ी काव्य परंपरा
सूफी
काव्यधारा निर्गुण भक्ति की दूसरी शाखा है। सूफ़ी काव्य की मूल चेतना प्रेम होने के
कारण इसे प्रेममार्गी और प्रेमाख्यानक काव्य के रूप में जाना जाता है | आचार्य
रामचंद्र शुक्ल ने इसे प्रेमाश्रयी शाखा कहा है | ‘सूफ़ी’ शब्द के अर्थ को लेकर
विद्वानों में मतभेद है | ‘सूफ़ी’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘सफ़’ शब्द से मानी गई है जिसका
अर्थ है जीवनपर्यंत स्वच्छ और पवित्र जीवन व्यतीत करने वाला | इसप्रकार सूफ़ी
उन्हें कहा गया है जो मनसा, वाचा और कर्मणा पवित्र जीवन व्यतीत करते है | कुछ
लोगों ने ‘सफ़’ शब्द का अर्थ निष्कपट भाव भी किया है और माना है कि सूफ़ी वह है जो
परमात्मा सहित समस्त प्राणियों के प्रति निर्मल भाव रखता है | एक अन्य मत के
अनुसार ‘सूफ़ी’ शब्द ‘सोफ़िया’ से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ है ज्ञान | इसके अनुसार
निर्मल प्रतिभा संपन्न व्यक्ति को ही सूफ़ी कहा जाता है | कुछ विद्वानों ने ‘सूफ़ी’
शब्द की व्युत्पत्ति ‘सूफ़’ से मानी है, जिसका अर्थ है ‘ऊन’| इसके अनुसार मोटे सफ़ेद
ऊन के बने कपड़े पहनकर परमात्मा के प्रेम मगन रहने वाले फ़कीर ही सूफ़ी कहलाए | जायसी
ग्रंथावली में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि “आरम्भ में सूफ़ी एक प्रकार
के फ़कीर या दरवेश थे, जो खुदा की राह पर अपना जीवन चलाते था, दीनता और नम्रता के
साथ बड़ी फटी हालत में दिन बिताते थे | ऊन के कम्बल लपेटे रहते थे |” सूफी
परमात्मा को प्रेम का स्वरूप मानते हैं और उसे प्रेम द्वारा पाने की बात कहते हैं
। प्रेम की पीर इस साधना का सबसे बड़ा सम्बल है ।
सूफीमत
इस्लाम धर्म की एक उदार शाखा है जिसका उदय इस्लाम के अस्तित्व में आने के बाद हुआ।
सूफियों के चार सम्प्रदाय भारत में मिलते हैं- चिश्ती सम्प्रदाय, सोहरावर्दी सम्प्रदाय (12वीं शती),
कादरी सम्प्रदाय (15वीं शती), नक्सबंदी
सम्प्रदाय (15वीं शती)। इन सूफी संतों के उच्च विचार, सादा जीवन और व्यापक प्रेम के तत्वों ने भारतीय जन-जीवन को आकृष्ट
किया। इन सूफियों के ‘अनलहक’ अर्थात् ‘मैं
ब्रह्म हूँ’ भारतीय अद्वैतवाद
के ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात् ‘मैं
ब्रह्म हूँ’ की ही
घोषणा है | इसलिए अपने दार्शनिक समानता के कारण सूफी संत भी भारतीय भक्ति आन्दोलन के
प्रमुख अंग बन गए | जायसी सूफ़ी काव्य परम्परा के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं, जिनके
यहाँ इस काव्य परम्परा का चरमोत्कर्ष दिखाई पड़ता है | इसलिए जायसी को केंद्र में
रखकर काव्य परम्परा को दो भागों-जायसी पूर्व सूफ़ी काव्य परम्परा और जायसी बाद सूफ़ी
काव्य परम्परा-में विभाजित करके देखा जा सकता है |
जायसी से
पूर्व सूफ़ी काव्य की समृद्ध परम्परा पर प्राकृत एवं अपभ्रंश के भारतीय
प्रेमाख्यानक काव्यों का असर दिखाई पड़ता है | भारतीय परम्परा में लोकगाथात्मक
प्रेम काव्यों-‘ढोला मारू रा दूहा’, ‘सन्देस-रासक’ और ‘वीसलदेव रासो’ की रचना हुई है
| सूफ़ी काव्य में भी लोकगाथात्मक प्रेमाख्यानों की ही अभिव्यक्ति हुई है | भारतीय
लोकगाथात्मक प्रेम काव्यों से सूफ़ी काव्य के प्रेमाख्यानों का प्रमुख अंतर यह है
कि सूफ़ी काव्य मसनवी शैली में रचित है जिसमें लौकिक प्रेम कथाओं (इश्कमजाजी) से
अलौकिक प्रेम (इश्कहकीकी) की ओर यात्रा है | इस परम्परा की शुरुआत मुल्ला दाऊद की
रचना “चंदायन” (1374
ई.) से होती है | लोरिक और चंदा की प्रेमकथा होने के कारण इसे “लोरिकहा” भी कहा
गया है | इसमें भारतीय प्रेमाख्यानों की अनेक प्रवृतियों का निरूपण हुआ है| इसके
बाद दामोदर कवि द्वारा रचित “लक्ष्मण सेन पद्मावती” शेख रिजकुल्ला मुश्ताकी की “प्रेमवनजोब निरंजन”, नारायण दास की “छिताई
वार्ता”, कुतुबन कृत “मृगावती”, ईश्वर दास रचित “सत्यवती
कथा” और चतुर्भुज दास द्वारा रचित “मधुमालती” सूफ़ी
काव्य की समृद्ध परम्परा की प्रमुख कड़ियाँ है | स्वयं जायसी ने “पद्मावत” में अपने
से पूर्व सूफ़ी काव्य परम्परा का उल्लेख किया है| लेकिन जायसी पूर्व सूफ़ी
प्रेमाख्यानक काव्यों में कुतुबन कृत “मृगावती” सर्वाधिक लोकप्रिय रचना
है|
इसके साथ
ही सूफ़ी काव्य परम्परा के चरमोत्कर्ष के रूप में जायसी आते है जिनकी “पद्मावत” भारतीय
जमीन पर रचित सबसे बड़ी त्रासद कथा मानी जाती है | “पद्मावत” में राजा रत्न सेन और सिंहलगढ़ की राजकुमारी पद्मावती
की प्रेम कथा है | इस त्रासद कथा में
‘‘मानुष प्रेम’ को ही वैकुंठी प्रेम के रूप स्थापित कर जायसी ने “पद्मावत”
रचनात्मक ऊंचाई प्रदान की| “पद्मावत” में प्रेम की पीर की जिस
तरह से अभिव्यक्ति हुई है वह सूफ़ी काव्य परम्परा की अन्यतम धरोहर है | इस काव्य
में इतिहास और कल्पना का अद्भुत समन्वय हुआ है | जायसी के बाद प्रेम गाथाओं की
सूफ़ी परम्परा अनवरत रूप से गतिमान रहती है| जायसी के बाद मंझन ने “मधुमालती”,
उसमान ने “चित्रावली”, जान कवि ने 21 सूफ़ी काव्यों की
रचना की | “मधुमालती” में कुनेसर के राजा सूरज भान के
पुत्र मनोहर और महारस नगर की राजकुमारी मधुमालती के प्रेम की कथा है, जिसमें विरह
के साथ आध्यात्मिक तथ्यों का सुन्दर निरूपण हुआ है| उसमान की “चित्रावली” सूफ़ी काव्य परम्परा की कथा-रुढियों
का अच्छे ढंग से निर्वाह हुआ है | तदन्तर शेख नबी ने “ज्ञानदीप” की रचना की और उसके बाद कासिम शाह ने “हंस जवाहिर” की रचना के द्वारा सूफ़ी काव्य
परम्परा को समृद्ध किया | कुछ समय बाद नूर मुहम्मद ने “इन्द्रावती” और “अनुराग बांसुरी” जैसे प्रेम काव्यों की रचना की| इसी परम्परा में निसार कवि ने शामी
परम्परा की मूल कथा पर आधारित “युसूफ जुलेखा” की रचना की| इसके अनंतर सूफ़ी काव्य परम्परा को ख्वाजा अहमद ने “नूरजहाँ”, शेख रहीम ने “प्रेमरस”, हुसैन अली ने “पुहुपावती” जैसे प्रेम काव्यों के द्वारा आगे बढाया| इस सूफ़ी काव्य
परम्परा में अनुभूति की सघनता और मार्मिकता से भक्ति काव्य के प्रेम वर्णनों को
नवीन दृष्टि प्रदान की । साथ ही सबसे अहम कि सभी सूफी कवियों में धार्मिक
संकीर्णता का नामों-निशान तक नहीं है।
सूफ़ी काव्य
की प्रवृतियाँ
मसनवी
शैली
सूफ़ी
काव्य धारा के सभी काव्य भारतीय चरितकाव्यों की सर्गबद्ध शैली पर न होकर फारसी की
मसनवी शैली में लिखे गए हैं, जिनमें कथारम्भ के पहले ईश्वरस्तुति, मुहम्मद
साहब की स्तुति, तत्कालीन बादशाह की प्रशंसा और गुरु परम्परा का परिचय दिया जाता है। इसमें
कथा सर्गों या अध्यायों में विभक्त नहीं होती, बराबर
चली चलती है, केवल स्थान स्थान पर घटनाओं या प्रसंगों का उल्लेख शीर्षक के रूप में
रहता है। रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार “इस शैली के पीछे देसी लोक गाथाओं का संस्कार भी
देखा जा सकता है, जिनमें शास्त्रीय दृष्टि से कोई विभाजन नहीं, कथा लगातार चलती
रहती है |” लेकिन हिंदी
काव्यधारा के प्रभाववश सूफ़ी कवियों ने महाकाव्य (प्रबंध) पद्धति को अपनाया ।
पद्मावत में ग्रीष्म-वर्णन, नगर-वर्णन, समुद्र-वर्णन, विरह-वर्णन, युद्ध-वर्णन
आदि भारतीय महाकाव्य शैली में लिखे गए हैं। मसनवी काव्य में जिस प्रकार पाँच-सात
छंदों के बाद विराम आता है, यहाँ कुछ चौपाइयों के बाद दोहा रखा गया है । ये
बातें पद्मावत, इन्द्रावत, मृगावती इत्यादि सबमें पाई जाती हैं।
प्रेम
पद्धति
सूफ़ी
कवियों ने प्रेम-चित्रण में भारतीय और फारसी दोनों शैलियों को अपनाया। मसनवी
काव्यों में प्रेमिकाओं द्वारा आध्यात्मिक -प्रेम की व्यंजना होती है, यहाँ भी
ऐसा ही हुआ है । इन प्रेम गाथाओं में नायक को नायिका की प्राप्ति के लिए
प्रयत्नशील दिखाया गया है, यह भी फारसी साहित्य का प्रभाव है । सूफ़ी काव्यों
में प्रेम गुणश्रवण, चित्रदर्शन, स्वप्नदर्शन
आदि से बैठे बिठाए उत्पन्न होता है और नायक या नायिका को संयोग के लिए प्रयत्नवान
करता है। आचार्य रामचन्द्र के अनुसार “फारस के प्रेम में नायक के प्रेम का वेग अधिक दिखाई देता है, भारत के
प्रेम में नायिका के प्रेम का”| सूफ़ी काव्यों में दोनों के समन्वय का प्रयास दृष्टिगत होता है| जायसी
ने नायक और नायिका के प्रेम को एकसमान तीव्रता के साथ चित्रित किया| नागमति तथा
पद्मावती जैसी नायिकाओं के प्रेम चित्रण में फारस और भारतीय-पद्धति का समान रूप से
उपयोग किया है| यही नहीं, फ़ारसी की मसनवियों के ऐकांतिक, लोकबाह्य और आदर्शात्मक
प्रेम को सूफ़ी कवियों ने भारतीय प्रेम पद्धति के लोकबद्ध एवं व्यावहारिक रूप से
संबंधित कर दिया| सूफ़ी कवियों ने ऐकान्तिक प्रेम की गूढ़ता और गम्भीरता के बीच में
जीवन के और अंगों के साथ भी उस प्रेम के सम्पर्क का स्वरूप कुछ दिखाते गए हैं, इससे
उनकी प्रेमगाथा पारिवारिक और सामाजिक जीवन से विच्छिन्न होने से बच गई है। उसमें
भावात्मक और व्यवहारात्मक दोनों शैलियों का मेल है। इश्क की मसनवियों के समान 'पदमावत' लोकपक्षशून्य
नहीं है।
सूफ़ी
कवियों ने भारतीय जन-जीवन में प्रचलित कथाओं के द्वारा प्रेमी और प्रेमिका के
उत्कट प्रेम, उनके मिलन की मार्ग की बाधाओं और फिर मिलन का रोचक ढंग से वर्णन किया
है | आचार्य रामचन्द्र के अनुसार, “ये प्रेम कहानियाँ हिन्दुओं के ही घर की थीं। इनकी मधुरता और कोमलता
का अनुभव करके इन कवियों ने दिखला दिया कि एक ही गुप्त तार मनुष्य मात्र के हृदयों
से होता हुआ गया है जिसे छूते ही मनुष्य सारे बाहरी रूपरंग के भेदों की ओर से ध्यान
हटा एकत्व का अनुभव करने लगता है|” इनकी दृष्टि में लौकिक
प्रेम और ईश्वरीय प्रेम में कोई फर्क नहीं है। जायसी की दृष्टि में ‘‘मानुष प्रेम’ को ही “वैकुंठी प्रेम” है-
“मानुष प्रेम भयऊ वैकुंठी प्रेम
नाहि त काह छार एक मुट्ठी”
गुरू (पीर) की महत्ता का प्रतिपादन
भक्ति काल के सभी भक्ति कवियों ने गुरु की महिमा को भगवान से भी
बढ़कर माना है | लेकिन सूफ़ी कवियों ने काल्पनिक पात्रों को भी गुरु माना है | जायसी
के ‘पद्मावत’ में ‘हीरामन तोता’ (गुरु सुआ
जेहि पंथ दिखावा) एक
काल्पनिक पात्र है | लेकिन पूरे कथा विधान में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण है |
रहस्यवाद
की भावना
लौकिक-प्रेम
कथाओं द्वारा ही अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति होने के कारण इन कवियों में रहस्यवाद
की भावना आ गई है। आचार्य शुक्ल के अनुसार सूफियों का रहस्यवाद भावनात्मक रहस्यवाद
है। इन्होंने आत्मा को पुरुष और परमात्मा को नारी के रूप में चित्रित किया है।
साधक के मार्ग की कठिनाइयों को नायक के मार्ग की कठिनाइयों के रूप में चित्रित
किया गया है। सूफी शैतान को आत्मा-परमात्मा के मिलन में बाधक समझते हैं और इस
शैतान रूपी बाधा को सच्चा गुरु ही दूर कर सकता है। गुरु की सहायता लेकर
साधना-मार्ग पर आरुढ़ होकर ईश्वर तक पहुँचने का प्रयत्न करता है । सूफी मत के
अनुसार ईश्वर एक है, आत्मा उसी का अंश है। वह ईश्वर प्राप्ति में
संलग्न रहता है । जब तक वह ईश्वर-मिलन नहीं कर लेता, उसकी विरह-वेदना का मार्मिक चित्रण इन काव्यों
में मिलता है। सूफ़ी कवि संयोग, क्या वियोग दोनों
में प्रेम के उस आध्यात्मिक स्वरूप का आभास देते है, जिसकी
छाया से जगत के समस्त व्यापार होते प्रतीत होते हैं। वियोगपक्ष में जब कवि लीन
होता है तब सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र सब उसी परम विरह में जलते और चक्कर लगाते दिखाई
देते हैं, प्राणियों का लौकिक वियोग जिसका आभास मात्र है|
“बिरह के
आगि सूर जरि काँपा । रातिउ दिवस जरै ओहि तापा ||”
काव्यभाषा
सूफी
कवियों का मुख्य केंद्र अवध था । इसलिए अधिकांश सूफी कवियों ने अवधी भाषा में ही काव्य
रचना की | नूर मुहम्मद ने ब्रजभाषा का भी प्रयोग किया । अरबी और फारसी के शब्द भी
इनके काव्यों में बहुधा प्रयुक्त होते हैं। जायसी की भाषा में अवधी का ठेठ और स्थानीय
रूप मिलता है । इनकी अधिकांश रचनाओं में दोहा-चौपाई शैली का प्रयोग मिलता है । जायसी ने सात चौपाइयों (अधार्लियों) के बाद एक एक दोहे का क्रम रखा
है। जायसी के पीछे गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने 'रामचरितमानस' के लिए
यही दोहे-चौपाई का क्रम ग्रहण किया। अलंकारों के चुनाव में समासोक्ति और अन्योक्ति
के अलावा उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति
आदि अलंकारों भी आए हैं ।
कथानक रुढ़ियाँ
का प्रयोग
प्रेमाख्यान
काव्य में कथानक को गति देने के लिए कथानक-रुढ़ियों का प्रयोग किया गया है । ये
कथानक रुढ़ियाँ भारतीय साहित्य परम्परा के साथ-साथ ईरानी-साहित्य परम्परा से भी ली
गई हैं । जैसे चित्र-दर्शन , शुकसारिका आदि द्वारा नायिका का रूप श्रवण कर नायक
का उस पर आसक्त होना, मंदिर में प्रिय युगल का मिलन आदि भारतीय कथानक
रुढ़ियाँ हैं तथा प्रेम-व्यापार में परियों और देवों का सहयोग, उड़ने
वाली राजकुमारियाँ, प्रेमा मार्ग में बाधक शैतान, आदि फ़ारस साहित्य की कथानक
रुढ़ियाँ हैं । इसके अतिरिक्त कथारम्भ के पहले ईश्वरस्तुति, मुहम्मद
साहब की स्तुति, तत्कालीन बादशाह की प्रशंसा, ग्रंथकार और उसके गुरु परम्परा का परिचय,
कथा का प्रयोजन, धार्मिक और नैतिक तत्वों का समायोजन, कथा का समापन शांत रस में
करना भी सूफ़ी प्रेमाख्यानों के अन्तर्वर्ती तत्व हैं |
प्रतीकात्मकता
सूफ़ी
काव्य में लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की व्यंजना होने से पूरी काव्य
प्रक्रिया का प्रतीकात्मक होना स्वाभाविक है | समस्त सूफ़ी काव्य प्रकृतितः
कथा-रूपक हैं| सभी प्रेमाख्यानों के ऐतिहासिक और काल्पनिक पात्र प्रतीकात्मक हैं |
‘पद्मावत’ में अलाउद्दीन, रत्न सेन, पद्मावती, नागमती, हीरामन तोता आदि सभी के
अपने-अपने प्रतीकार्थ है-
“तन चितउर, मन राजा
कीन्हा। हिय सिंहल, बुधि पदमिनि चीन्ह॥
गुरु सुआ जेहि पंथ देखावा। बिन गुरु जगत को निरगुन पावा॥
नागमती यह दुनिया
धंधा। बाँचा सोइ न एहि चित बंधा॥
राघव दूत , सोइ सैतानू। माया अलादीन सुलतानू||”
इन
कवियों को अपनी कथाओं में जहाँ कहीं दिव्य, अलौकिक
अनुभुतियों को व्यक्त करने का अवसर मिला, उसको
उन्होंने समासोक्ति और अन्योक्ति के माध्यम से पूर्ण किया । प्रस्तुत के माध्यम से
अप्रस्तुत का संकेत और प्रस्तुत के साथ-साथ अप्रस्तुत का संकेत सूफ़ी काव्यों की
प्रमुख प्रवृति रही है |
भावव्यंजना
सूफ़ी
काव्यधारा की मूल विषय-वस्तु प्रेम है | इनके प्रेम भावना जीवन के समस्त भावों में
सर्वोपरि है | उनके अनुसार प्रेम भावना अपनी व्यापकता में अन्य समस्त भावों को
आच्छादित कर लेता है-
“प्रीति
बेलि जिन अरुझै कोई। अरुझै, मुए न छूटै सोई॥
प्रीति बेलि ऐसे तन डाढ़ा। पलुहत सुख, बाढ़त दुख
बाढ़ा॥
प्रीति अकेलि बेलि चढ़ि छावा। दूसर बेलि न सँचरै पावा||”
इसीकारण इनके यहाँ मानुष प्रेम ही वैकुंठी प्रेम हो जाता
है | कव्यशास्त्र में प्रेम को श्रृंगार के अंतर्गत माना गया है| इसलिए सूफ़ी
कवियों ने प्रेम के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का पूरे मनोयोग से चित्रण किया है
| लेकिन सबसे अधिक मन वियोग पक्ष में रमा है | सूफ़ी कवियों ने नायिका को अलौकिक
शक्ति का प्रतीक मानकर उसमें अनुपम सौन्दर्य का विधान किया है | इनके यहाँ नख-शिख,
हाव-भाव और रूप-रंग जैसे शारीरिक सौन्दर्य का वर्णन तो है ही लेकिन मानसिक और
नैतिक सौन्दर्य के वर्णन में इनकी विदग्धता अद्भुत है | विरह दशाओं के वर्णनों में
इन्होने जीवन के क्षुद्र स्वार्थों को पाटने का प्रयास किया है |
मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन को व्यापक धार्मिक सांस्कृतिक
स्वरूप प्रदान करने में संत और सूफ़ी काव्य धारा की अहम भूमिका रही है | संतों ने
जहाँ ज्ञान की आंधी से समाज और धर्म की कुरीतियों और आडम्बरों के जंजाल को उड़ा
देने का प्रयास किया वहीँ सूफियों की मान्यता थी कि
मनुष्य हृदय की क्षुद्रताओं को प्रेम ही हटा सकता है। कुलमिलाकर संत और सूफ़ी
कवियों ने देश के अस्थिर और निराशाजनक माहौल में जनता के ह्रदय को संभालने की अनथक
कोशिश की| अनुभूति की सहजता के साथ भाषा की
सहजता और लोकपक्षधरता के कारण इन कवियों की वाणी न केवल सशक्त हो गई है, वरन इनका
काव्यत्व भी उत्कर्ष पर पहुँच गया है |
बहुत ही अच्छा post है।
ReplyDeleteबिलकुल आसान भाषा में है जो सभी को समझ में आजायेगा।
Super
ReplyDeleteबहुत ही ज्ञानवर्धक ... हर तथ्य पुष्ट एवं सही है..... भाषा भी सहज ...बहुत बहुत आभार ऐसे लेख पोस्ट करने के लिए..आगे भी हिंदी साहित्य के लिए लेख भेजते रहिए...
ReplyDeleteGgytt
ReplyDeleteबहुत अछी जानकारी हासिल हुई धन्यवाद
ReplyDeleteThank you for helping me in my assignments through your blog��
ReplyDeleteVery nice content
ReplyDeleteSuper
ReplyDeleteउत्तम
ReplyDelete