हाल ही हुए विधानसभा चुनावों के बाद भाजपा संसदीय दल की बैठक को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय राजनीति में परिवारवाद की प्रवृति पर प्रहार करते हुए कहा कि विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी के नेताओं के बेटे-बेटियों के टिकट उनके कहने पर ही काटे गए क्योंकि परिवारवाद भारतीय राजनीति को खोखला कर रहा है और इससे निपटने के लिए कहीं से तो शुरुआत करना ही होगा | यह बेशक सराहनीय कदम है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसकी शुरुआत अपनी ही पार्टी से करके अन्य दलों के लिए ऐसा करने के लिए मिसाल पेश की |
वैसे तो लोकतंत्र में
परिवारवाद का कोई आधार नहीं होना चाहिए, लेकिन आज शायद ही
कोई पार्टी हो, जहां परिवारवाद नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी इस
तथ्य से पूरी तरह से अवगत है कि भारतीय जनता पार्टी भी इस परिवारवाद की बीमारी से
अछूती नहीं रही हैं | कांग्रेस को ग्रैंड ओल्ड पार्टी के नाम से जाना जाता है और आजादी
के बाद इस पार्टी में गांधी-नेहरू परिवार का खासा दबदबा है और 3 लोग प्रधानमंत्री
बन चुके हैं| आजादी के तुरंत बाद शुरू हुई वंशवाद की यह अलोकतानात्रिक परंपरा अब
काफी मजबूत रुप ले चुकी है। नेहरू द्वारा परिवारवाद के जिस रक्तबीज को भारतीय
राजनीति और लोकतंत्र में बो दिया गया था, वह बीज बढ़कर भारतीय राजनीति और लोकतंत्र को
पूरी तरह से अपने शिकंजे में कसकर लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों में फैल चुका हैं। राष्ट्रीय
राजनीति के साथ-साथ राज्य और स्थानीय स्तर पर इसकी जड़े इतनी जम चुकी है कि देश का
लोकतंत्र परिवारतंत्र नजर आता है। भारतीय जनता पार्टी समेत विपक्ष के कई दल
कांग्रेस की आलोचना इसलिए करते रहे हैं कि इस पार्टी में गांधी-नेहरू परिवार के
सदस्यों के आगे किसी अन्य नेता को महत्व नहीं दिया गया| विडंबना यह है कि एक समय
जो नेता चाहे वे कांग्रेस के भीतर या बाहर कांग्रेस की परिवारवाद की राजनीति की
आलोचना किया करते थे और इस मुद्दे पर कांग्रेस से विद्रोह अलग राह चुनी, वे भी आज उसी की
राह पर चल रहे हैं। जब इनके पास सत्ता आयी तब ये खुद ही परिवारवाद को बढ़ावा देने और
परिवारवाद पर आधारित राजनीतिक पार्टियां खड़ी करने में लग गये। वे यह देखने को
तैयार नहीं कि परिवारवाद की राजनीति ने कांग्रेस को किस तरह पतन की राह पर धकेल
दिया है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री मोदी ने
राज्यसभा में जवाब देते हुए ऐसे नहीं कहा कि अगर कांग्रेस न होती तो लोकतंत्र
परिवारवाद से मुक्त होता, बल्कि उनकी जेहन में कांग्रेस द्वारा बोया और पोषित किया
गया परिवारवाद का रक्तबीज था| कांग्रेस पार्टी अभी भी राहुल गांधी और प्रियंका
गांधी वाड्रा से आगे की नहीं सोच पा रही है| उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बिहार में
राष्ट्रीय जनता दल, महाराष्ट्र में
शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक
पार्टी, तेलंगाना में
तेलंगाना राष्ट्र समिति और आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम पार्टी, पंजाब में अकाली
दल और हरियाणा में आईएनएलडी समेत ऐसे ढेरों राजनीतिक दल हैं जो प्राइवेट लिमिटेड
कंपनियों की तरह काम कर रहे हैं और पिता या मां के बाद बेटे-बेटी को ही पार्टी की
जिम्मेदारी मिलती है|
भारतीय राजनीति में परिवारवाद
का विरोध करने वाले सबसे कद्दावर राजनीतिज्ञ राम मनोहर लोहिया थे | उनका मानना था की
राजनीति में वंशवाद नहीं होना चाहिए| जिसमे नेतृत्व की क्षमता हो वह आगे बढ कर
राजनीति को थाम ले, साथ ही जनता के हित में काम करे ना कि अपने और अपने परिवार की वैशाखी
को थामकर राजनीति में प्रवेश करने सुविधा का लाभ उठाये| लेकीन समाजवाद के
पुरोधा डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचार को आज उनके चेले मानने को तैयार नहीं | लोहिया के सबसे
करीबी चेलो में शुमार रहे और खाटी समाजवाद की कोख से कथित रूप से पैदा हुए मुलायम
सिंह यादव ने लोहिया के समाजवाद की धज्जियाँ उडा दी| आज मुलायम सिंह
यादव ने जनता को अपने समाजवाद का ऐसा चेहरा दिखाया है कि परिवारवाद को
बढावा देने वालो में मुलायम के आगे कोई नहीं टिकता है |
इस परिवारवादी दलों के
लिए सिर्फ राजनीति या सत्ता अहम हो गई है, विचारधारा के लिए शायद कोई जगह नहीं बची
है| देश का विकास और सुरक्षा का इनके एजेंडे में नहीं होता है, बल्कि सत्ता की
मलाई किसी भी तरह से परिवार के किसी न किसी सदस्य को मिले, इसका पुख्ता इंतजाम ही
इनका प्रमुख उद्देश्य होता है | राजनीति इनके लिए वह पेशा है जिसे वह अपने
पारिवारिक लोगो को हस्तानांतरित करते रहते हैं | सत्ता में रहे या न रहे, पार्षद से
लेकर विधायक और सांसद की कुर्सी पर चिपके रहने का मोह अब हर उस छोटे-बड़े नेता को
है चाहे वह किसी भी पार्टी में है | इस कारण अब एक ही परिवार के लोग दो अलग-अलग
विचारधारा या विरोधी पार्टियों में शामिल होने लगे हैं, ताकि उन्हें टिकट
मिल सके या कुर्सी बची रह सके |
इसका मतलब यह नहीं है कि
एक परिवार में से एक से अधिक लोग राजनीति में नहीं आ सकते है | बेशक आ सकते है
लेकिन योग्यता के आधार पर, जनता का विश्वास पाकर, उनके संघर्ष का साथी
बनकर किसी परिवार से एक से अधिक लोग राजनीति में आ सकते है | इससे पार्टी
परिवारवादी नहीं बन जाती है| इसके विपरीत जब कोई पार्टी, पीढ़ी दर पीढ़ी
एक ही परिवार की जागीर बनी रहती है यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा संकट हैं|
राजनीति में परिवाद से
लोकतंत्र को गंभीर खतरा पैदा हुआ है | सबसे पहले इन परिवारवादी दलों और नेताओं ने
अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सामाजिक न्याय के नाम पर जातिवाद और कथित
अल्पसंख्यक सुरक्षा के नाम पर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया| कुलमिलाकर इन परिवारवादी
दलों और नेताओं ने अपराधीकरण, जातिवाद, परिवारवाद और
भ्रष्टाचार का एक घातक मिश्रण तैयार किया, जिसके तले दशकों तक राज्यों का शोषण
किया, दमन किया और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया| परिवारवादी राजनीति
के कारण सबसे अधिक नुकसान जमीनी स्तर पर आम जनता से जुड़कर ईमानदारी से काम करने
वाले पार्टी कार्यकर्ताओं को होता है | उनका पार्टियों से मोहभंग होता है और समाज
के अपराधिक तत्वों और चाटुकारों को अधिक महत्व मिलने लगता है | परिणाम यह होता है कि पार्टियाँ जनता के समस्याओं, उनके दुखों, उनकी भावनाओं
से दूर हो जाती है | हाल के विधानसभा चुनाओं में जनता ने जनादेश दिया है, उससे साबित
होता है कि परिवारवादी पार्टियों जनता से दूर पड़ती जा रही है |