Monday 28 October 2019

तमसो मा ज्योतिर्गमय....... चेतना की अंधकारग्रस्तता से मुक्ति का पर्व


प्रकाश भारतीय वांग्मय और विज्ञान की समस्त ज्ञान और ऊर्जा परंपरा का अभिन्न अंग है | छांदोग्य उपनिषद के अनुसार प्रतिपल परिवर्तित प्रकृति का समस्त सर्वोत्तम रूप प्रकाश है। वृहदारण्यक उपनिषद में "तमसो मा ज्योतिर्गमय" अर्थात् 'अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की कामना' है | गीता में अर्जुन ने श्री कृष्ण के विराट रूप देखकर कहा कि दिव्य सूर्य सहस्त्राणि यानी सहस्त्रो सूर्यों का प्रकाश देख रहा हूं। दीपावली भारत की इसी सनातन ज्योतिर्गमय आकांक्षा का सांस्कृतिक पर्व है। भारत की सनातन संस्कृति में दीपावली का धार्मिक ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक, आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से व्यापक महत्व है |
दीप प्रकाश का आदिम एवं लघु स्रोत है जिसके द्वारा मानव ने चिरकाल से अंधकार से लड़ते-जूझते हुए आधुनिक विद्युत् प्रकाश तक सभ्यता की महायात्रा पूरी की है | लेकिन यह महायात्रा महज भौतिक अंधकार को दूर करने की यात्रा नहीं है, यह मनुष्य की विषमताओं (अंधकार) से जूझने की दृढ़ इच्छा शक्ति और अदम्य जिजीविषा का भी परिचायक है | आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, ‘‘दीवाली आकर कह जाती है कि अंधकार से जूझने का संकल्प ही सही यथार्थ है। उससे जूझना ही मनुष्य का मनुष्यत्व है। जूझने का संकल्प ही महादेवता है। उसी को प्रत्यक्ष करने की क्रिया को लक्ष्मी-पूजा कहते हैं।’’
हमारे हर अच्छे-शुभ कार्यों में, निजी या सामाजिक, दीप जलाने की परंपरा है। दीपावली की ऐतिहासिक-पौराणिक पृष्ठभूमि में कई घटनाएँ और मान्यतायें है जिनके उपलक्ष्य में इस दिन राजमहल और अट्टालिकाओं से लेकर गरीब की झोपड़ी तक को दीपों से सजाने की परंपरा है। पूरे भारतवर्ष में अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले लोग अपने-अपने क्षेत्र की मान्यता, संस्कृति, शास्त्र विधि और महत्व के अनुसार दिवाली मनाते हैं | दीया जलाने का एक अहम पहलू यह है कि एक दीये से दूसरा, दूसरे से तीसरा, चौथा या इस तरह अनेक दीये जलाये जाते है | एक विद्युत् बल्ब से दूसरा बल्ब नहीं जलाया जा सकता है लेकिन दीये द्वारा यह संभव है | इस तरह दीये जलाने की प्रक्रिया एक सामाजिकता का सन्देश देती है कि एक प्रकाशवान या चेतना संपन्न व्यक्ति अन्य प्रकाशरहित दीयों अर्थात् निर्धन या अक्षम लोगों को प्रकाशवान या सबल बना सकता है | यह दीपावली की यही सामाजिकता "सर्वे भवंतु सुखिन:" की भावना को चरितार्थ करती है |
वैदिक ऋषियों ने दैवीय सत्ता से "तमसो मा ज्योतिर्गमय" अर्थात् 'अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की कामना' की है। इस कामना का अर्थ यह नहीं है कि वैदिक ऋषियों और मनीषियों ने महज भौतिक अंधकार, जो रात्रि में या प्रकाश की उपलब्धता नहीं होने से होती है, से बाहर निकालने की इच्छा व्यक्त की है | प्रकृति में पूर्णिमा की ज्योत्स्ना और अमावस्या की कालिमा दोनों हैं। अंधकार से प्रकाश और प्रकाश से अन्धकार की ओर जाना अर्थात् निशा के बाद उषा और उषा के बाद निशा का आना प्राकृतिक परिघटना है | लेकिन वैदिक ऋषि की अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की कामना के साथ "असतो मा सद्गमय" और "मृत्योर्मा अमृतं गमय" अर्थात् 'असत्य से सत्य की ओर' और 'मृत्यु से अमरता की ओर' ले चलने की प्रार्थना को भी देखें तो उनकी कामना का मंतव्य समझा जा सकता है| असल में वैदिक ऋषि प्रकृति में सहज रूप से घटित होने वाले अंधकार को लेकर चिंतित नहीं थे, बल्कि वे उस अंधकार से मुक्ति को लेकर चिंतित थे जो मनुष्य की चेतना को, उसकी चिंतन शक्ति को या आत्मा को ग्रसित करता है| भारतीय दर्शन का सम्पूर्ण चिंतन चेतन तत्व को अज्ञान और अविद्या से मुक्ति को लेकर है जो सम्यक ज्ञान और विवेक शक्ति के द्वारा ही संभव होता है | दीपावली में मिट्टी के दीये जलाये जाते है| आध्यात्मिकों के अनुसार हमारा यह शरीर भी मिट्टी से बना है, जो मिट्टी के दीये का प्रतीक है जिसमें आत्मा रूपी लौ जल रही है| लेकिन हमारी आत्मा या चेतना अहंकार, ईर्ष्या, क्रोध, लोभ, मद जैसे नाना प्रकार के व्यामोह से ग्रस्त होती है| जिसके कारण वह सत्य-असत्य, अच्छाई-बुराई, उपकार-अपकार और नाश-निर्माण का भेद नहीं कर पाता है| हमारे वैदिक ऋषियों ने इसी अज्ञान, अविवेक और अविद्या के अन्धकार से मनुष्य की चेतना को बाहर निकालने या आत्मा रूपी लौ को प्रज्जवलित करने की कामना की है | यह सतत चलने वाली प्रक्रिया है क्योंकि हमारी चेतना का अंधकार से प्रकाश की ओर गमन प्रकृति की तरह सहज या स्वाभाविक नहीं है इसलिए प्रकाश की साधना होती रहनी चाहिए| मनुष्य की चेतना के अंधकार ग्रस्त होने के कारण ही समाज में मानव-मूल्यों का ह्रास होता है, समाज में अराजकता होती है, परिवार बिखरने लगता है, नैतिक मूल्य नष्ट हो जाते है, संस्कारविहीनता और भ्रष्ट-आचरण को बढ़ावा मिलता है, रक्तपात, अपराधिक और हिंसक गतिविधियाँ बढ़ती है| ऐसी ही विषम परिस्थितियों, जो सम्पूर्ण मानवता, मानव गरिमा के साथ-साथ पारिस्थितिकी के सम्पूर्ण तंत्र के अस्तित्व के लिए खतरा बन जाती है, के सन्दर्भ में ही वैदिक ऋषियों और मनीषियों ने "तमसो मा ज्योतिर्गमय" की प्रार्थना की है| यह कामना प्रत्येक मनुष्य के भीतर से होनी चाहिए तभी वह प्रकाश की ओर जाने के लिए अग्रसर होगा| गौतम बुद्ध ने जब कहा था कि अप्प दीपो भवः तो उसका तात्पर्य यही था कि अपना दीपक स्वयं बनो| कोई भी किसी के पथ के लिए सदैव मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकता केवल आत्मज्ञान के प्रकाश से ही हम अपने भीतर के अंधियारे को दूर कर सकते है और सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर के अर्थात् के अँधियारेपन के कारणों को स्वयं पहचानना और स्वयं दूर करना पड़ेगा| यही दीपावली के प्रकाश पर्व का सन्देश है कि अंत:करण को शुद्ध एवं पवित्र रखते हुए और अपनी चेतना, अपनी आत्मा में प्रकाश का संचार करते हुए ज्ञान का, धर्म का और कर्म का दीप जलाओ।
जहाँ तक मानव मूल्यों की बात है तो ये सदियों से निरंतर विकसित, परिवर्तित और परिवर्धित होते रहते है लेकिन सबसे बड़ा और शाश्वत मानव मूल्य है परहित अर्थात् दूसरों के कल्याण में रत रहना क्योंकि यह एक ऐसा मानव मूल्य है जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है और मानवीय गरिमा और मानवता को उच्चता प्रदान करता है| इस महान मूल्य से भटक जाना या भूल जाना ही हमारी चेतना की अंधकारग्रस्तता है जिससे मुक्ति की कामना हमारी सनातन परंपरा में बार-बार दोहरायी गई है | चेतना की अंधकारग्रस्तता के कारण मनुष्य की विवेक शक्ति कुंद हो जाती है| अपने अहंकार में वह भूल जाता है कि वह जो कदम उठाने जा रहा है वह उसके लिए या स्वयं उसकी संततियों के लिए या परिवार और समाज के लिए कितना कल्याणकारी है | तात्पर्य यह है कि मनुष्य का अहंकार शाश्वत मानव मूल्य 'परहित' के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बन जाता है | इस अहंकार से मुक्त होना ही अपनी चेतना को प्रकाश की ओर ले जाना है | मनुष्य अपनी ज्ञान-शक्ति और विवेक-शक्ति से जब तक दूसरों के कल्याण या दूसरों के लिए जीने का सत्य का साक्षात्कार नहीं करता है तबतक वह मानव-अस्तित्व और सदियों से संजोयी मानवीय संस्कृति को खोखला करता रहेगा |
भारत में पर्वों और उत्सवों का खास संबंध ऋतुओं की विविधता से होता है | दीपावली का संबंध शरद ऋतु से है जिसके बारे में कहा गया है कि 'जीवेम शरदः शतम्' और इस ऋतु के दौरान प्रकृति के अनुपम सौंदर्य का वर्णन कालिदास के साहित्य में मिलता है | शरद यानी जागृति, वैभव, उल्लास और आनंद का मौसम। गंदेपन से मुक्ति का मौसम। 'रामचरितमानस' में तुलसीदास भी शरद ऋतु के सौन्दर्य पर मोहित हैं-"बरषा बिगत सरद रितु आई, लछिमन देखहु परम सुहाई। फूलें कास सकल महि छाई, जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई।" (हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा ऋतु बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई है। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी आच्छादित है। जैसे वर्षा ऋतु अपना बुढ़ापा प्रकट कर रही हो)। वह आगे लिखते हैं- "रस-रस सूख सरित सर पानी, ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी। जानि सरद रितु खंजन आए, पाई समय जिमि सुकृत सुहाए।" (नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है, उसी तरह जैसे विवेकी पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए, जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ जाते हैं यानी पुण्य प्रकट हो जाते हैं)। दीपावली इसी शरद् ऋतु के अनुपम सौंदर्य और समृद्धि के प्रति मनुष्य के आंतरिक उल्लास की अभिव्यक्ति है|


Tuesday 24 September 2019

स्त्री-सुरक्षा की त्रासदी और नवरात्रि का संकल्प


नवरात्रि में नारी शक्ति की उपासना होती है, जो नारी को स्वयं की एवं शेष समाज को उसकी शक्ति की याद दिलाता है, शक्ति को अनुभूत कराता है| शक्ति प्राणी मात्र की सृष्टि और उर्जा की इकलौती स्त्रोत है जिसके बिना प्राणी शव के समान होता है | सृष्टि, रक्षा तथा संहार ये तीनों क्रियाएं शक्ति द्वारा ही संपन्न होती हैं। इसीलिए देवी को त्रिगुणात्मक कहा गया है। नवरात्रि में भारत में कन्याओं को देवी तुल्य मानकर पूजा जाता है| यह सिर्फ मिथकीय पूजा नहीं, यह स्त्री के सम्मान, सामर्थ्य और उसके स्वाभिमान की पूजा है| भारतीय संस्कृति में ईश्वर के रूप की प्रथम कल्पना मातृरूप में की गई है जिसमें कोई दूषित भावना और छल-कपट नहीं रहता| लेकिन त्रासदी यह है कि जिस कन्या को समाज में देवी का रूप माना जाता है, उसके साथ तरह-तरह के जघन्य अपराधों को अंजाम दिया जाता है। नारी शक्ति की मान्यता तथा वास्तविक जीवन में नारी के प्रति आचरण में अंतर की खाई चौड़ी हो गई है, क्योंकि स्त्री के सम्मान के प्रति सामाजिक और राजनीतिक के साथ-साथ मानसिक-आत्मिक संवेदनशीलता कम हो गई है। शर्मनाक तो यह है कि पुरुषों का एक बड़ा वर्ग इसे सामान्य व्यवहार मानता है| कुछ अर्थलोलुप भस्मासुरों ने स्त्रियों के साथ घिनौने कर्मों को अपना व्यवसाय बना लिया है | एक तरफ जहां नवरात्र में देवी मां की बड़ी तन्मयता के साथ पूजा की जाती है, भगवती जागरण होते हैं, वहीं नवरात्र के ठीक बाद से ये लोग उसी देवी के रूप कन्याओं और महिलाओं का शोषण और उनका अपमान करने से थोड़ा भी नहीं हिचकते|

स्वामी विवेकानन्द का कथन है- ''किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है, वहाँ की महिलाओं की स्थिति| जिस समाज में स्त्री का स्थान सम्मान और गौरव का होता है, वही समाज सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होता है। कड़वा सत्य है  कि 21वीं सदी के बदलते भारत में ना तो समाज की सोच बदली है और ना ही हमारे देश की बेटियों के प्रति समाज की दूषित मानसिकता में सुधार आया है। समय बदल रहा है, परंपराएं बदल रही हैं, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य भी बदल रहे हैं। भूमंडलीकरण के प्रभाव से नए दृष्टिकोण और नए मूल्य स्थापित हो रहे हैं, लेकिन महिलाओं की स्थिति में खास बदलाव नहीं आया| सरकारें और प्रशासन महिलाओं की सुरक्षा के लिए अत्यंत ही गैर जिम्मेदार रवैया अपनाती है | हमारे देश में महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर बहुत सी फिल्में बनती हैं। इस विषय पर सेमिनार होते हैं, अनगिनत सम्मेंलन होते हैं लेकिन समाज की सोच में कोई बदलाव नहीं आता| लोग फिल्म देखने के बाद उसके टिकट फाड़ देते हैं, सेमिनार और सम्मेलनों में आंखें बंद करके दूसरे विचारों में खो जाते हैं और कन्याओं और महिलाओं के साथ ऐसे ही अमानवीय व्यवहार होता रहता है| ना तो ज़मीनी हकीकत बदलती है और ना ही महिलाओं की स्थिति में सुधार आता है।

कहा जाता है कि जब-जब आसुरी शक्तियों के अत्याचार से जीवन, मानवता, समाज और संस्कृति तबाह होती है। तब-तब शक्ति का अवतरण होता है| आधुनिक परिवेश में शाब्दिक अर्थों में अवतरण संभव नहीं बल्कि शक्ति का संधान संभव है | हिंदुस्तान जब गुलाम था तब भारतेंदु से लेकर मैथिलीशरण गुप्त और निराला एवं प्रसाद ने देश की जनता को अपनी शक्तियों को साधने, आराधन करने और समन्वय करने का बार-बार आह्वान किया है | उनका यह आह्वान व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर है, जो इस बात का प्रतीक है कि हमें अपने से बाहर के असुर भाव को नष्ट करना आवश्यक नहीं है बल्कि भीतर के असुर को भी नष्ट करना होगा, तभी महिलाओं और अन्यों के प्रति दूषित मानसिकता से मुक्त हुआ जा सकता है | निराला के राम द्वारा अनन्य समर्पण के साथ शक्ति पूजा के बाद ही शक्ति होगी जय होगी जय हे पुरुषोत्तम नवीन का आश्वासन देती है| वस्तुतः शक्ति मनुष्य में समाहित वह शक्ति है जिसे यदि पहचाना जाय, जगाया जाय तो मनुष्य हर पल और हर क्षण अपने भीतर के दुर्गुणों के ऊपर जीत हासिल कर सकता है | स्त्री शक्ति का आदर एवं सम्मान हमारे स्वभाव में समाहित होना चाहिए | नवरात्र और उसमें शक्ति की आराधना और उपासना से हमें व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर अपने भीतर के आसुरी भाव या दूषित मानसिकता को नष्ट करना होगा | यह सुनिश्चित करना होगा कि देवियों और कन्याओं का पूजन नवरात्र तक ही सीमित न रहे। इसके लिए आवश्यक है कि समाज में स्त्रियों के सम्मान के प्रति एक सकरात्मक वातावरण तैयार हो | इसके बिना समाज में घूम रहे महिषासुरों का वध करना संभव नहीं होगा | महिलाओं के प्रति अपराधों को रोकना अकेले पुलिस, प्रशासन और राजव्यवस्था की ज़िम्मेदारी नहीं है। ये तंत्र हर जगह मौजूद नहीं हो सकते लेकिन समाज हर जगह मौजूद है और समाज को कन्याओं और महिलाओं के प्रति अपनी सोच बदलनी पड़ेगी| कन्याओं और महिलाओं को समाज में गरिमामयी और सुरक्षित स्थान प्रदान किये बिना एक सभ्य समाज और बेहतर मानवीय संस्कृति की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती | यह तभी संभव जब आज की परिस्थितियों में नवरात्र के उपवास और उपासना के बहाने हम अपनी दुष्प्रवृतियों को नष्ट कर आत्मिक शुद्धि कर सकें और अपनी जीवनशैली में सुधार ला सकें | नवरात्रि की उपासना शरीर और आत्मा के बीच एक रागात्मक संबंध स्थापित करती है। दूसरे शब्दों में कहें, यह केवल ईश्वर के प्रति समर्पण नहीं बल्कि स्वयं को अनुशासित करने का संधान भी है।


Sunday 15 September 2019

भारतीय भाषाओँ की अस्मिता की समग्रता है हिन्दी

नई शिक्षा नीति के ड्राफ्ट में हिंदी को प्रमुखता देने की खबर के बाद मैकाले मानस-पुत्रों को अन्य भाषाओँ का गला घोंटने और रोजी रोटी छीनने के षड्यंत्र का एहसास होने लगा । इस हाय-तौबा में उन लोगों की आवाज सबसे अधिक ऊँची थी, जिनका भारतीय भाषाओँ से संबंध मात्र उतना ही है जितना वह भाषा उनकी सियासी जरूरतों एवं आकांक्षाओं को पूरा करने का माध्यम भर है या उन लोगों की थी जो अंग्रेजी को काबिलियत की एकमात्र कसौटी मानते है| दक्षिण भारतीय नेताओं, लोगों और पार्टियों ने बेसुरा राग अलापते हुए हिंदी विरोधी गैर जिम्मेदाराना बयान दिया भी दिया था |
आजादी के बाद से ही गैर हिंदी विशेषकर दक्षिण भारतीय नेताओं और पार्टियों को जब भी हिंदी के विरोध से सियासी रोटी के पकने की संभावना दिखी, तब-तब उन्हें कथित भाषाई अस्मिता को हिंदी से खतरा नजर आने लगता है। आजादी के आंदोलन में और आजादी के पूर्व भी गैर-हिंदी भाषी लोगों ने हिंदी को अपनाया। माधवराव सप्रे, विनोबा भावे, बाबूराव विष्णु पराड़कर, वी. कृष्णस्वामी अय्यर, शारदाचरण मित्र, सुनीतिकुमार, पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, केशवचंद्र सेन ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं कि गैर हिंदी प्रदेशों के विद्वानों और नेताओं ने हिंदी को लेकर पूरे देश को एकजुट करने का उपक्रम किया था। शंकरराव कप्पीकेरी ने तो यहाँ तक माना है कि हिन्दी का पौधा दक्षिणवालों ने त्याग से सींचा है| अनंत गोपाल शेवड़े ने स्वीकार किया है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी का किसी क्षेत्रीय भाषा से कोई संघर्ष नहीं है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ एक दूसरे की हमजोली हैं | लेकिन कालांतर में इस तथ्य की उपेक्षा कर भाषा को राजनीति के औजार के तौर पर उपयोग किया गया। वास्तव में राजनीतिक, प्रशासनिक और व्यावसायिक हितों को बनाए रखने के लिए दक्षिण भारतीय राजनीतिज्ञों ने हिंदी का विरोध किया और अपनी मातृभाषाओँ के बजाय अंग्रेजी को प्रश्रय दिया | इसकी परिणति आज यह हुई है कि हिंदी के प्रभाव से नहीं बल्कि अंग्रेजी के वर्चस्व से दक्षिण भारतीय भाषाएँ हाशिए पर सिमटने को विवश है। अंग्रेजी का वर्चस्व इतना है कि उसके सामने सभी भारतीय भाषाओं की सामूहिक शक्ति भी लाचार सी हो गई है।
सच्चाई यह है कि जब भी अंग्रेजी के प्रभाव से मुक्त होने की बात या कोशिश होती हैकुछ लोगों और क्षेत्रों को हिंदी थोपे जाने का डर सताने लगता है। इसका कारण यह है कि मैकाले मानस-पुत्रों ने सम्पूर्ण प्रशासनिक या राजनीतिक मशीनरी को इस तरह से अपने शिकंजे में जकड़ रखा है कि हमारे नेता उनके जाल में उलझ गये है तात्पर्य है कि अंग्रेजीदां लोगों ने बड़े ही धूर्ततापूर्ण तरीके से एक ओर भाषा के प्रश्न को सियासत का प्रश्न बना दिया है और विकल्प के रूप में अंग्रेजी से चिपकने के लिए विवश किया है। दरअसल ये पूरे तौर पर एक षड्यंत्र है, और षड्यंत्रकारियों को पता है कि अंग्रेजी को विस्थापित करने का काम भारतीय भाषाओं की एकजुटता के बगैर संभव ही नहीं है, इसलिए वे हिंदी के वर्चस्व का भ्रम फैलाते है| ऐसी स्थिति में भारतीय भाषाओं के बीच ये विश्वास पैदा करने का काम हिंदी का है कि हिंदी किसी भी अन्य भारतीय भाषा के विकास में बाधक नहीं, बल्कि साधक है| भारतीय भाषाओं और हिंदी के ऐतिहासिक संबंधों की पड़ताल करें तो यह पाते हैं कि हिंदी ने किसी भी अन्य भारतीय भाषा का कभी कोई अहित नहीं किया। न ही उनके अस्तित्व को कभी चुनौती दी। हिंदी समावेशी भाषा है। हिंदी अन्य देशी-विदेशी भाषाओँ के नवीन प्रचलित शब्दों को तेजी से अपने भाषा भंडार या भाषा चेतना में शामिल कर लेती है, लेकिन उस भाषा विशेष के अस्तित्व के लिए कभी खतरा नहीं बनती।
अँगरेजी मानसिकता से पोषित तथाकथित विद्वानों और नेताओं का तर्क है कि आधुनिक ज्ञान विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी का विकास अंग्रेजी बोले जाने वाले देशों में ही हुआ है जिसके कारण यह भाषा आधुनिक ज्ञान विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी के विकास की सहगामिनी है । लेकिन यह कपटी तर्क है। जापान, जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, दक्षिण कोरिया और चीन जैसे देशों ने विकास के लिए कभी भी अंग्रेजी को माध्यम नहीं बनाया । फिर भी ये देश आधुनिक ज्ञान विज्ञान और उच्च प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकसित देशों की क़तार में खड़े है और आर्थिक विकास की दौड़ में तो भारत से काफ़ी आगे है जहाँ अंग्रेजी के पीछे अंधी दौड़ बच्चे के जन्म लेने के साथ ही शुरू हो जाती है। भाषा और भावना साथ-साथ चलती है| अपनी भावना को व्यक्त करने के लिए भाषा बहुत जरूरी है और यह मातृभाषा में ही संभव है| वर्तमान समय भारतीय समाज में जो मूल्यहीनता है वह इसी जमीन से कटे होने का परिणाम है। ये अच्छा नहीं है, देशहित में नहीं है|
हिंदी या कोई भारतीय भाषा यदि इस क्रांति के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल रही है तो यह उस भाषा की कमी नही है बल्कि उस समाज की कमी है जो उस भाषा में अपने को संप्रेषित या अभिव्यक्त करता है और अपनी भाषा को पिछड़ा हुआ मानकर सूचना, संचार और आधुनिक नवीन प्रौद्योगिकी से जुड़ने की चाहत में इस कपटी तर्क को सत्य मान लेता है कि अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ही विकास के शीर्ष स्तर पर पहुंचा जा सकता है। भारतीय भाषाएँ अतीत काल से ही समृद्ध रही है। इतिहास गवाह है कि मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण हडप्पा काल से ही भारत ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अन्यों से काफी आगे रहा है और भारतीय भाषाएँ इसकी वाहक रही है । पुरातात्विक खुदाइयों से प्राप्त शिलालेखों और मृदभांडों से लेकर प्राचीन ग्रंथों में जिस तरह से राजनीति, अर्थनीति, सैन्य नीति, सामाजिक रीति-रिवाजों, नैतिक मान्यताओं, रहन-सहन, खान-पान और वेश-भूषा की अभिव्यक्ति हुई है वह न केवल भारतीय भाषाओँ के ऐतिहासिक विकास का साक्ष्य है बल्कि इन भाषाओँ की अभिव्यक्ति क्षमता का निदर्शन भी है । भारतीय भाषाओँ की यह समृद्धि उस मानसिकता पर सवालिया निशान खड़ा करती है जो हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओँ को आधुनिक ज्ञान विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी के विकास को अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं मानते है। 

Wednesday 7 August 2019

भारतीय राजनीति की सुषमा चली गई


जम्मू-कश्मीर के संवैधानिक दर्जे में बदलाव को लेकर देश भर में ख़ुशी और उत्साह की लहर पूरे उफान पर थी तभी भारतीय राजनीति की सबसे लोकप्रिय और महिला नेताओं के लिए रोल मॉडल सुषमा स्वराज की असामयिक निधन की दुखद खबर ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया | हृदयाघात से कुछ ही घंटे पहले किए अपने अंतिम ट्विट में कश्मीर के मुद्दे पर सुषमा जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रिया अदा करते हुए लिखा कि 'मैं अपने जीवन में इस दिन को देखने का इंतजार कर रही थी|' इससे पता चलता है कि पूरे राजनीतिक कार्यकाल के दौरान कश्मीर उनके दिल के कितना करीब रहा| अटल बिहारी वाजपेयी के इस्तीफ़े के बाद नई सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर 11 जून 1996 को उन्होंने लोकसभा में कश्मीर मसले पर जो जोरदार भाषण दिया था, वह इतिहास में दर्ज है| सुषमा स्वराज ने अपने इस भाषण में धारा 370 की समाप्ति को लेकर बीजेपी के उस बड़े फैसले की नींव रखी थी, जिसे मौजूदा सरकार ने पूरा कर उनके सपने को उनकी आंखों के सामने ही पूरा किया |
मात्र 25 साल की उम्र में चौधरी देवीलाल के हरियाणा सरकार में मंत्री बनने से लेकर भारत की विदेश मंत्री बनने तक असीम गरिमा और शालीनता की प्रतिमूर्ति सुषमा स्वराज सच्चे अर्थों में भारतीय परंपरा और आधुनिकता की मिसाल थीं। सुषमा के व्यक्तित्व की खास पहचान थी अनुशासन और पाबंदी के साथ विलक्षण भाषण-शैली और अद्भुत ज्ञान, जिसके कारण वह संसद से लेकर सड़क तक बेहद लोकप्रिय थी | ट्विटर और सोशल मीडिया जैसे तकनीकी माध्यमों में दक्ष सुषमा स्वराज ने आजीवन परंपराओं का भी निर्वाह किया। साड़ी के साथ मंगलसूत्र, सिंदूर और गोल बिंदी उनकी पहचान थी। अपने राजनीतिक सफ़र में सात बार संसद सदस्य और तीन बार विधान सभा सदस्य रही| अटल सरकार में स्वराज ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में दूरसंचार, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण और संसदीय मामलों के विभागों की मंत्री रही जबकि 2014 में मोदी सरकार में विदेश मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने भारत-पाक और चीन-भारत संबंधों सहित कई रणनीतिक-संवेदनशील मुद्दों को संभाला। भारतीय और चीनी पक्षों के बीच सबसे चुनौती पूर्ण डोकलाम गतिरोध को सुलझाने में एक सख्त सेनानी की तरह अडिग रही |
उनकी तथ्यों और तर्कों के साथ वाक्पटुता और हाजिरजवाबी का ही कमाल रहा है कि उनके जीते जी सोशल मीडिया पर उनके ऐतिहासिक भाषणों और साक्षात्कारों का विडियो माननीय अटल जी के बाद सर्वाधिक शेयर किया जाता रहा है और आज जब वे नहीं तो भी उनके ऐतिहासिक भाषणों और साक्षात्कारों का विडियो शेयर कर भी लोग उन्हें याद कर रहे हैं| इन्हीं में से एक विडियो करगिल युद्ध के बाद का है, जिसमें सुषमा स्वराज पाक की धरती पर ही वहां के एक न्यूज चैनल के साथ इंटरव्यू में आतंकवाद, करगिल युद्ध और सीमा पर सीजफायर उल्लंघन सहित कई मुद्दों को लेकर पाकिस्तानी हुक्मरानों और उनके रवैये को लेकर मुंहतोड़ जवाब देती दिख रही हैं। इस इंटरव्यू को सोशल मीडिया पर खूब पसंद किया जा रहा है। इस वीडियो में भारत द्वारा परमाणु बम बनाने और  हथियार खरीदने के आरोप का जवाब देते हुए सुषमा स्वराज सुप्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता के माध्यम से भारत की विदेश नीति को भी बड़े ही रोचक और सरल अंदाज में स्पष्ट कर दिया है- क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो...उसको क्या जो दंतहीन,विषरहित, विनीत, सरल हो। इसका मतलब यह है कि अगर आप शक्तिशाली हैं तभी लोग आपका सम्मान करेंगे। इसलिए हम परमाणु बम भी बनाते हैं लेकिन शांति को लेकर हमारी निष्ठा पर कोई सवाल भी नहीं उठा सकता है।
11 जून 1996 को लोकसभा में सांप्रदायिकता के आरोपों का जवाब देते हुए सुषमा स्वराज ने धर्मनिरपेक्षता की छद्मता को पोलपट्टी खोल कर रख दी थी| उन्होंने कहा था, 'हम सांप्रदायिक हैं, क्योंकि हम आर्टिकल 370 को खत्म करना चाहते हैं| हम सांप्रदायिक हैं क्योंकि हम देश में जाति-पंथ के आधार पर भेदभाव को खत्म करना चाहते हैं | हम सांप्रदायिक हैं, क्योंकि हम कश्मीर रिफ्यूज़ी के आवाज़ को सुनना चाहते हैं| हम गोरक्षा की बात करते हैं इसलिए सांप्रदायिक हैं। इस देश में समान नागरिक संहिता की बात करते हैं इसलिए सांप्रदायिक हैं। लेकिन ये लोग जो इस सरकार पर आरोप लगा रहे हैं वो लोग दिल्ली की गलियों और सड़कों पर तीन हजार से ज्यादा सिखों के कत्लेआम के लिए जिम्मेदार हैं और वो धर्मनिरपेक्षता की वकालत करते हैं| अपनी मधुर लेकिन ओजस्विता पूर्ण आवाज में जब बोलतीं तो संसद भवन हो या संयुक्त राष्ट्र, हर जगह अपने शब्द एवं विचार प्रवाह में सुननेवालों को अपने साथ बहा ले जाती | कई मुद्दों पर वह आक्रामक जरूर होती थीं, उनके द्वारा शब्दों के चयन इतना मर्यादापूर्ण होता था कि जहाँ कचोट लगनी होती है वहाँ लग जाती थी और कडुवाहट भी नहीं होती थी | राष्ट्रवाद की प्रखर प्रवक्ता सुषमा जी ने 23 सितम्बर 2017 को संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक मंच से बोलते हुए पाकिस्तान की असलियत और दोमुंहेपन को जब विश्व के सामने उजागर किया तो उस समय संयुक्त राष्ट्र की सभा में उपस्थित अनेक देशों के प्रतिनिधियों ने खड़े होकर करतल ध्वनि के साथ सुषमा स्वराज के उस भाषण का स्वागत किया था।
इंदिरा गांधी के बाद विदेश मंत्रालय संभालने वाली केवल दूसरी महिला सुषमा स्वराज ने दुनिया के किसी भी कोने में संकट में फंसे भारतीयों की मदद के लिए व्यक्तिगत मुहिम छेड़ दिया- खाड़ी युद्ध की विभीषका रही हो या नेपाल में भूकम्प की प्रलयंकारी विनाशलीला हो, बांग्लादेश के शेल्टर होम से बच्चे सोनू को वापस लाना हो या यमन में फंसे भारतीयों की सुरक्षित घर वापसी, पाकिस्तान से लायी गई  मूक-बधिर गीता के परिवार की तलाश हो, हामिद निहाल अंसारी की पाकिस्तान से सुरक्षित रिहाई या नाइजीरिया के समुद्री डाकुओं से वाराणसी के संतोष छुड़ाकर सुषमा ने भारतीय परिवारों के जीवन में पैठ बनायी और केवल अंतरराष्ट्रीय स्तर तक सीमित रहने वाले विदेश मंत्रालय को उन्होंने आम आदमी के सरोकारों के बेहद करीब ला दिया |
पार्टी से लेकर सरकार तक जब भी कोई मुश्किल दौर आता था, संकटों के सामने एक दीवार की तरह अडिग रहने वाली स्वराज को ही याद किया जाता रहा है | 1999 के लोकसभा चुनावों में बेल्लारी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने की चुनौती रही है, दिल्ली में भाजपा सरकार की गिरती लोकप्रियता हो या डोकलाम गतिरोध हो या दुनिया के किसी भी कोने में संकट में फंसे भारतीयों को उबारने का मुद्दा रहा है, सुषमा जी संकटमोचक के रूप में चुनौती स्वीकार करती रही है |
 


Tuesday 23 July 2019

घुसपैठ पर सख्ती........ अभी नहीं तो कभी नहीं


गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी से संबंधित एक प्रश्न जवाब देते हुए को कहा कि देश की इंच -इंच जमीन पर जितने भी घुसपैठिए रह रहे हैं, उनकी पहचान कर कानून के तहत देश से निर्वासित किया जाएगा। शाह ने एनआरसी को असम समझौते, जिसके तहत 24 मार्च 1971 की आधी रात तक राज्‍य में प्रवेश करने वाले लोगों को भारतीय नागरिक माना जाएगा, का हिस्सा बताते हुए कहा कि यह भाजपा के घोषणापत्र का भी हिस्सा है। इस तरह शाह ने एनआरसी को असम से बाहर पूरे देश में लागू करने का एक तरह से संकेत कर दिया | दरअसल घुसपैठियों को देश से निर्वासित करने का काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था। लेकिन इस देश के अनेक सत्ता और वोट लोलुप नेताओं व दलों और उनके टुकड़ों पर पोषित बुद्धिजीवियों ने ऐसा होने नहीं दिया। नेताओं और दलों ने जहाँ घुसपैठियों को खुली सीमा के जरिए प्रवेश दिलवा कर उन्हें यहां जहां-तहां बसाया और उनके वोटर कार्ड बनवाए, वहीँ सुविधाभोगी और अर्थलोलुप बुद्धिजीवियों और मीडिया ने छद्म धर्मनिरपेक्षता और कथित मानवता के नाम पर अवैध घुसपैठियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने का माहौल बनाया | इनकी एक दलील यह भी हुआ करती थी कि घुसपैठियों के खिलाफ कार्रवाई करने या उन्हें सीमा पर ही रोक देने से पूरी दुनिया में भारत की छवि खराब हो जाएगी। ये घुसपैठिये एक धर्म विशेष के हैं। इसीकारण तुष्टिकरण के वशीभूत कुछ नेता और उनके दल सरकार के एनआरसी को पूरे देश में लागू करने के इस फैसले के विरोध में संसद से लेकर सड़क तक बयानबाजी कर रहे हैं | दुनिया के किसी अन्य देश में यह शायद ही ऐसा संभव हो कि वोट के लिए एक धर्म विशेष के करोड़ों घुसपैठियों, जो देश की सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक ढांचे के लिए खतरा बन रहे हों, को अपने देश में वहां के सत्ताधारी राजनीतिक दल ही बसने दे, जबकि इस देश के कश्मीरी पंडित अपने ही गृह राज्य से बाहर रहने को मजबूर कर दिये गये है | घुसपैठियों के समर्थन को लेकर संवैधानिक पद पर बैठे कुछ नेताओं का रवैया भी बेहद आपत्तिजनक है, वो इस मुद्दे पर गृहयुद्ध होने की धमकी दे रही है । ये नेता देश हित और संवैधानिक पद की गरिमा को नजन्दाज कर इस मुद्दे को हिन्दू-मुस्लिम रूप देकर अपनी छवि को मुस्लिमों के कथित मसीहा के रूप में पेश करते हैं जबकि यह मुद्दा हिन्दू-मुस्लिम का नहीं है |
इसका परिणाम यह हुआ है कि असम, पश्चिम बंगाल व पूर्वोत्तर के राज्यों में घुसे बांग्लादेशी देश के सामने बड़ी समस्या बन गए हैं। 2016 में केंद्र सरकार द्वारा दी जानकारी के अनुसार उस वक्त देश में दो करोड़ से अधिक बांग्लादेशी अवैध रूप से रह रहे थे| कुछ ही महीने पहले मिजोरम सरकार ने स्वीकार किया है कि बांग्लादेश से आए घुसपैठियों ने मिजोरम के दक्षिणी इलाके में स्थित लुंगलेई जिले में 16 गांव बसा लिए हैं। इन गांवों में बांग्लादेशी घुसपैठियों के साथ म्यांमार से आए रोहिंग्या भी रह रहे हैं। सबसे बड़ी विडंबना तो अब यह है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐसा पीआईएल स्वीकार किया है जिसमें कहा गया है कि भारत में अवैध रूप से घुसे रोहिंग्याओं को निर्वासित नहीं किया जाय और उन्हें शरणार्थी का दर्जा दिया जाय | जाहिर है इसके पीछे कथित लिबरल और छद्म बुद्धिजीवी व मीडियाकर्मी गिरोह है जो देश की सुरक्षा, शांति और अखंडता को दांव पर लगाकर धर्म और मानवता की आड़ में अवैध घुसपैठियों का हमदर्द बन बैठा है | यह देश के लिए दुर्भाग्य है |
एनआरसी पर सारी कार्यवाही सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में हो रही है | गनीमत है कि मौजूदा सरकार प्राथमिकता देते हुए इसे लागू करने की पहल कर रही है अन्यथा पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गाँधी के काँग्रेस शासन में ही इसकी शुरूआत के बावजूद अपने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के तहत उसने इसे लागू नहीं किया । असम में इन अवैध घुसपैठियों के खिलाफ 1979-85 के बीच छह साल लंबा आंदोलन भी चला था| अभी भी बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ पूर्वोत्तर में कई छात्रों, सामाजिक और राजनीतिक संगठनों के लिए एक प्रमुख मुद्दा रहा है।
लब्बोलुआब यह है कि अब पानी सर से ऊपर बहने लगा है और विशेष रूप से म्यांमार और बांग्लादेश से बड़े पैमाने पर आए अवैध प्रवासियों के कारण सीमावर्ती जिलों की जनसांख्यिकीय संरचना खतरे में पड़ गई है | बंगाल और असम के कुछ हिस्से मिनी पाकिस्तान बन गए है | कुछ घुसपैठी उस इलाके में गम्भीर गैर कानूनी गतिविधियों-गौतस्करी, देहव्यापार, नकली नोटों, नशीले पदार्थों और अवैध हथियारों के कारोबार और देश में कट्टरता एवं सांप्रदायिक हिंसा फैलाने में लगे हुए हैं।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों को लेकर भारतीय गृह मंत्रालय के पास अभी तक कोई प्रमाणित आंकड़ा नहीं है। इसके अलावा देश के कई हिस्सों में स्थापित होने के कारण इनकी पहचान बड़ी मुश्किल है । यह किसी भी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है क्योंक भारत में नागरिकता की पहचान के जो प्रमाण होते हैं वह सभी इनके पास मौजूद हैं ।
मोदी सरकार ने प्रवासियों के राहत एवं पुनर्वास बजट में कटौती कर यह संकेत दिया है कि अब घुसपैठियों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यही नहीं इस राशि में कटौती से यह संकेत भी मिलता है कि मोदी सरकार की पूरे देश में एनआरसी को लागू करने की मंशा है। हाल ही में सरकार ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के माध्यम से असम के अलावा पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और पूर्वोत्तर के कुछ अन्य हिस्सों में चरणबद्ध रूप से एनआरसी लागू करने की प्रतिबद्धता जतायी है | एनआरसी की सबसे बड़ी सफलता यह है कि बांग्लादेश से अवैध प्रवेश 90 फीसद तक रुक गया है। उम्मीद की जानी चाहिए देश हित में सभी दल और उनके नेता वोट बैंक की क्षुद्र राजनीति से ऊपर उठकर मोदी सरकार की इस पहल में सहयोग करेंगे और सरकार जल्द से जल्द घुसपैठ के बढ़ते नासूर को समाप्त करने के शुभ कार्य में सफल होगी | अगर मौजूदा सरकार घुसपैठियों को निर्वासित करने का काम नहीं करती है, यह आगे की सरकारों के लिए यह नासूर कैंसर बन जायेगा और शायद ही कोई सरकार यह बीड़ा उठाने की कोशिश करेंगी |

Monday 1 July 2019

देवकीनन्दन खत्री: हिन्दी के 'शिराज़ी'


औपनिवेशिक शासन के जिस दौर में प्रशासनिक कार्यों के लिए हिंदी भाषा और उसकी लिपि ‘देवनागरी’ को स्थापित करने के अभियान की शुरुआत हुई तो उस समय हिन्दी का महिमा-मंडन और उर्दू के विरोध के बजाय हिंदी के पक्ष को रचनाशीलता के माध्यम से सशक्त करने वालों में बाबू देवकीनन्दन खत्री का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। मुस्लिम शासन के समय से फ़ारसी ही कई रियासतों की राजभाषा बनी हुई थी। अंग्रेज़ों ने भी सशक्त अरबी-फ़ारसी में लिखी उर्दू को ही संपर्क भाषा के रूप में बनाये रखा था। तत्कालीन समय में हिन्दुस्तान में साक्षरों की संख्या महज़ छः प्रतिशत ही थी और नौकरियों आदि के लिए उर्दू और फ़ारसी के ज्ञान की अनिवार्यता के चलते देश का युवा-वर्ग हिन्दी और नागरी लिपि से दूर होता जा रहा था। ऐसे समय में खत्री जी अपने पठनीय और रोचक उपन्यासों, विशेषकर चन्द्रकान्ताऔर चन्द्रकान्ता संतति के द्वारा तिलिस्म और ऐयारी का ऐसा जादू बिखेरा कि लाखों युवा और पाठक सम्मोहित होकर हिन्दी भाषा और उसकी लिपि देवनागरीसीखने के लिए विवश हो गए | चन्द्रकान्ता मूलत: एक प्रेम कथा है। इस अभूतपूर्व लोकप्रियता से प्रेरित होकर उन्होंने इसी कथा को आगे बढ़ाते हुए चौबीस भागों वाला दूसरा उपन्यास चन्द्रकान्ता सन्तति (1894 1904) लिखा जो चन्द्रकान्ता की अपेक्षा कई गुणा अधिक रोचक और लोकप्रिय भी हुआ। यही नहीं इन कालजयी रचनाओं का रसास्वादन करने के लिए कई गैर-हिन्दी भाषियों ने हिन्दी भाषा सीखी। 'अंग्रेजी ढंग का नावेल' लिखने की आतुरता के बजाय पुरागाथाओं, मिथकों, किंवदन्तियों, लोककथाओं, स्‍मृतियों और पुराणों आदि के माध्यम से कथा की पुरानी परम्परा के आधार पर उन्होंने जिन कथाकृतियों की रचना की, उनका सारा रचना तंत्र बिलकुल मौलिक और स्वतंत्र है। उनका महत्त्व इस आधार पर समझा जा सकता है कि हिन्दी भाषा और उसकी लिपि देवनागरीसे सबसे अधिक संख्या में पाठकों को जोड़ने में बाबू देवकीनन्दन खत्री का योगदान अन्य किसी भी साहित्यकार से अधिक है | यही कारण है कि हिन्दी के सुप्रसिद्ध उपन्यास लेखक श्री वृंदावनलाल वर्मा ने उन्हें हिन्दी का 'शिराज़ी' कहा है। देवकीनन्दन खत्री द्वारा तैयार की गई इसी भूमि पर प्रेमचंद का औपन्यासिक भवन स्थापित होता है जिसे वे भाव और भाषा के संस्कार और परिमार्जन द्वारा स्थापित करते है| 

खत्री जी ने कालजयी उपन्यासों चन्द्रकान्ताऔर चन्द्रकान्ता संतति के अलावा ‘कुसुम कुमारी’, ‘नरेंद्र मोहिनी’, ‘भूतनाथ’, ‘वीरेंद्र वीर’, ‘गोदना’ और ‘काजल की कोठारी’ की भी रचना की | उनकी अधिकांश रचनाओं में तिलिस्म और ऐयारी का सम्मोहन है। 'ऐयारी' को उपन्यास का विषय बनाए जाने को लेकर चन्द्रकान्ता उपन्यास में देवकीनन्दन खत्री ने स्पष्ट किया है कि " आज तक हिन्दी उपन्यास में बहुत से साहित्य लिखे गये हैं जिनमें कई तरह की बातें व राजनीति भी लिखी गयी है, राजदरबार के तरीके एवं सामान भी जाहिर किये गये हैं, मगर राजदरबारों में ऐयार (चालाक) भी नौकर हुआ करते थे जो कि हरफनमौला, यानी सूरत बदलना, बहुत-सी दवाओं का जानना, गाना-बजाना, दौड़ना, अस्त्र चलाना, जासूसों का काम देना, वगैरह बहुत-सी बातें जाना करते थे। जब राजाओं में लड़ाई होती थी तो ये लोग अपनी चालाकी से बिना खून बहाये व पलटनों की जानें गंवाये लड़ाई खत्म करा देते थे। इन लोगों की बड़ी कदर की जाती थी। इसी ऐयारी पेशे से आजकल बहुरूपिये दिखाई देते हैं। वे सब गुण तो इन लोगों में रहे नहीं, सिर्फ शक्ल बदलना रह गया है, और वह भी किसी काम का नहीं। इन ऐयारों का बयान हिन्दी किताबों में अभी तक मेरी नजरों से नहीं गुजरा। अगर हिन्दी पढ़ने वाले इस आनन्द को देख लें तो कई बातों का फायदा हो। सबसे ज्यादा फायदा तो यह किऐसी किताबों को पढ़ने वाला जल्दी किसी के धोखे में न पड़ेगा। इन सब बातों का ख्याल करके मैंने यह चन्द्रकान्तानामक उपन्यास लिखा|"  
देवकीनन्दन खत्री जी की भाषा और शैली को लेकर आलोचकों के बीच काफी बहस हुई | उनकी भाषा-शैली को हिंदी भाषा की हत्या के रूप में भी देखा गया | उनका ध्यान कथाक्रम की तरफ अधिक रहा है, भावचित्रण की ओर कम । वे एक साथ अनेक समांतर घटनाक्रमों और पात्रों को लेकर चलते हैं। पात्रों और घटनाओं के इस अंतर्जाल में वे विभिन्न पात्रों के भावों को चित्रित करने का बहुत कम अवकाश पाते हैं। इसी कारण हिन्दी के विशाल पाठक समूह तैयार करने में खत्री जी के योगदानों की प्रशंसा करते हुए भी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इनकी रचनाओं को विशुद्ध साहित्य की श्रेणी में स्वीकार नहीं करते हैं। तिलिस्म और ऐयारी के अन्य रचनाकारों से या बहुचर्चित हैरी पौटरश्रृंखला की रचनाओं के विपरीत खत्री जी की रचनाओं में तिलिस्म और ऐयारी के चमत्कारों में भी किसी न किसी रूप में विज्ञान और तकनीकी कौशल का वर्णन अवश्य है | चन्द्रकान्ता संतति में तरह तरह के जिन यंत्रों की परिकल्पना की गई है, उन पर वैज्ञानिक अविष्कारों की छाया है और बहुत चीजें ऐसी भी है जो उनकी उर्वर कल्पना शक्ति का परिचायक है | उनकी रचनाओं में जब भी कोई पात्र किसी तिलिस्म को तोड़ता है तो उसे संचालित करने वाली मशीनों व कल-पुर्जों को भी देखता है। इस तरह तत्कालीन दौर में खत्री जी विज्ञान और फैंटेसी के अन्यतम रचनाकार थे | यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं होगा कि खत्री जी की रचनाशीलता तत्कालीन हिंदी भाषा और समाज की अनिवार्यता थी, जिसे खत्री जी अनन्य समर्पण के साथ निर्वाह किया |

Sunday 23 June 2019

एक देश-एक चुनाव : सार्थक लेकिन जटिल प्रक्रिया


हाल ही में देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से बुलाई गई सर्वदलीय बैठक का कांग्रेस, तृणमूल, सपा, बसपा और आप समेत 16 दल शामिल नहीं हुए। बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा कि एक देश-एक चुनाव सरकार का नहीं बल्कि देश का एजेंडा है। प्रधानमंत्री ने जहाँ इस पर विचार के लिए समिति बनाने की घोषणा की है, जो निर्धारित समय में सभी पक्षों के साथ विचार कर अपने सुझाव देगी, वहीँ भाकपा व माकपा ने इसके क्रियान्वयन पर आशंकाएं जाहिर की हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि राजनीतिक दलों के बीच आपसी संवाद के जरिए इस मुद्दे पर एक समझौते का प्रयास किया जाना चाहिए, क्योंकि बार-बार चुनाव होने से विकास की रफ्तार बाधित होती है | इसके पहले मोदी सरकार ने अक्टूबर २०१७ में अपने वेबपोर्टल ‘My Gov’ पर इस मुद्दे पर जनता से अपने-अपने विचार भेजने की अपील की थी और बजट सत्र(2018-19) की शुरुआत में संसद के दोनों सदनों को संबोधित करते हुए रामनाथ कोविंद ने लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने की चर्चा की थी| पिछले कुछ समय से केंद्र सरकार इस बात के लिए अनुकूल माहौल तैयार करने की कोशिश कर रही है | चुनाव आयोग ने भी अधिकारिक रूप से कहा है कि अगर राजनीतिक सहमति बनती है तो वह लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के लिए तैयार है| उसका कहना था कि इसके लिए संविधान में संशोधन की जरूरत भी होगी| नीति आयोग ने राष्ट्रीय हित में वर्ष 2024 से लोकसभा और विधानसभाओं के लिए दो चरणों में चुनाव करवाने का समर्थन किया है ताकि चुनाव के कारण प्रशासन और विकास प्रक्रिया में कम से कम व्यवधान सुनिश्चित हो सके। इस मसले पर तेलंगाना राष्ट्र समिति ने मोदी सरकार का समर्थन करते हुए कहा था कि इससे हम पांच साल विकास पर ध्यान दे सकेंगे| ओडिशा के सत्तारूढ़ बीजू जनता दल ने बल विचार का जोरदार समर्थन किया है। बीजू जनता दल का तो कहना है कि हमने 2004 से ही इसे अमल में कर लिया है- 2004 में जब हमारी विधानसभा के एक साल बचे हुए थे, तब हमने विधानसभा का चुनाव एक साल पहले करवाया था जिससे कि लोकसभा के साथ ये चुनाव भी हो सके। तब से 2009, 2014 और 2019 में ओडिशा में दोनों चुनाव साथ-साथ हुए। इससे ओडिशा को काफी फायदा हुआ।
आजादी के बाद तकरीबन 15 साल तक विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ चले लेकिन बाद में कुछ राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता की वजह से एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला और कुछ सरकारें अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले गिर गईं| यही नहीं केंद्र में भी कई बार सरकारें अपने 5 वर्ष की अवधि को पूरा करने में सक्षम नहीं हो सकीं | इसका परिणाम यह हुआ कि न केवल लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव करवाना संभव नहीं सका बल्कि केवल सभी राज्यों के चुनाव भी एक साथ नहीं होने की बाध्यता हो गई | लेकिन अब बार-बार होने वाले चुनावों में आर्थिक और मानवीय संसाधनों के बढ़ते व्यय एवं विकास की प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाली बाधाओं को देखते हुए लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है |
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क आर्थिक और मानव संसाधनों की बचत का है | सेंटर फॉर मीडिया स्टटडी (सीएमएस)  की स्टडी के अनुसार 1998 से लेकर 2019 के बीच लगभग 20 साल की अवधि में चुनाव खर्च में 6 से 7 गुना की बढ़ोतरी हुई| 1998 में चुनाव खर्च करीब 9 हजार करोड़ रुपये था जो अब बढ़कर 55 से 60 हजार करोड़ रुपये हो गया है| इसके साथ ही बड़ी संख्या में शिक्षकों सहित एक करोड़ से अधिक सरकारी कर्मचारियों के चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने से न केवल विकास और शिक्षा को अधिकतम नुकसान होता है बल्कि सुरक्षा बलों को भी बार-बार चुनाव कार्य में लगाए जाने देश की सुरक्षा के लिए भारी खतरा का सामना करना पड़ता है | एक साथ चुनाव होने से राजनीतिक दलों को भी दो अलग-अलग चुनावों की तुलना में हर स्तर पर दोहरे खर्च के बजाय कम पैसे खर्च करने होंगे| सबसे अहम यह कि चुनाव कार्य के लिए बार-बार सुरक्षा बलों की अनावश्यक तैनाती से बचा जा सकेगा, जिनका उपयोग बेहतर आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए किया जा सकेगा |
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के दूसरा सबसे प्रबल तर्क यह है कि इससे चुनावों में आम लोगों की भागीदारी बढ़ सकती है| देश में बहुत से लोग हैं जो रोजगार या अन्य वजहों से अपने वोटर कार्ड वाले पते पर नहीं रहते, वे अलग-अलग चुनाव होने की स्थिति में बार-बार मतदान करने नहीं जाते| एक साथ चुनाव होने पर पूरे देश में एक मतदाता सूची होगी जो लोकसभा और विधानसभा के लिए अलग-अलग होती हैं| चुनाव के दौरान आचार संहिता लागू रहने के दौरान विकास संबंधित कई निर्णय बाधित हो जाते है | इसके साथ ही प्रशासनिक मिशनरी के चुनाव कार्यों में व्यस्त होने और शासन तंत्र के प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाने से सामान्य और पहले से चले आ रहे विकास कार्य भी प्रभावित होते है| चुनावी रैलियों से यातायात के बाधित होने और सुरक्षा प्रतिबंधों के कारण आम जनजीवन को कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है | लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग होने से व्यवधान की यह प्रक्रिया दोहरी हो जाती है, जिससे आम जन जीवन त्रासद बन जाता है | ऐसे में अगर एक बार में दोनों चुनाव होते हैं तो जन-धन की बचत के साथ ही आम जीवन में अपेक्षाकृत कम अवरोध होगा और चुनावों में मत प्रतिशत में इजाफा हो सकता है |  
लेकिन क्या वास्तव में देश को लोकसभा और विधानसभाओं के अलग-अलग होने वाले चुनाव से मुक्ति मिल सकेगी| अब मान लीजिए कि 2024 में केंद्र में किसी पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिलता है या गठबंधन की सरकार बनने के बावजूद 2025, 2026, या 2027 में बहुमत खो बैठती है तो ऐसे में क्या होगा ? क्या अल्पमत वाली सरकार को 5 साल के कार्यकाल को पूरे करते दिया जाना संवैधानिक है ? ऐसी अल्पमत वाली सरकार न कानून पास करवा सकेगी और न ही बजट ही पास करवा सकेगी | यही समस्या राज्यों में खड़ी हो सकती है| बहुमत नहीं होने की स्थिति में क्या राज्य को अगले पांच साल तक विधानसभा चुनाव के लिए इंतजार करना उचित है ? यह एक गंभीर संवैधानिक संकट होगा जिसका एकमात्र समाधान चुनाव है जो फिर से लोकसभा और विधानसभाओं के अलग-अलग चुनाव की संभावना को बढ़ा देता है | सभी राज्य विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने से भी अल्पमत वाली सरकार की समस्या का समाधान तबतक नहीं होता हैं जबतक कि सरकार की अस्थिरता से निपटने का कोई विकल्प नहीं खोजा जाता है | कार्यकाल का निश्चित किया जाना अल्पमत सरकार की समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। राज्यों में निर्वाचित सरकार के असफल होने या अल्पमत में आने पर चुनाव होने तक अवधि के लिए राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है | किन्तु केन्द्र में राष्ट्रपति शासन का प्रावधान नहीं है और इससे अधिक समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इस प्रकार लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने से राजनीतिक स्थिरता का तर्क ख़ारिज हो जाता है | 
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अगर देशभर में एक साथ चुनाव हो, तो राज्यों के मुद्दों और हितों की अनदेखी हो सकती है| सारा ध्यान लोकसभा के चुनाव पर होगा | यही नहीं वोट देते समय ज्यादातर लोगों द्वारा एक ही पार्टी को वोट कर सकते हैं | कई बार मतदाता राज्य में किसी क्षेत्रीय पार्टी के मुद्दों के साथ जाता है जबकि केंद्र में किसी मजबूत राष्ट्रीय पार्टी के मुद्दों को तरजीह देते हुए उसके पक्ष में मतदान करते है | इससे मतदाताओं में भ्रम भी पैदा हो सकता है| इससे बड़े राजनीतिक दलों को ज्यादा फायदा होने की उम्मीद है और छोटे क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व खतरे में पद जायेगा| लेकिन 2019 में ओडिशा के मतदाताओं ने अनन्य जागरूकता का परिचय देते हुए क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मुद्दों को अलगाते हुए मतदान किया | फिर भी एक साथ चुनाव होने से केंद्र के साथ ही राज्यों में एक ही पार्टी के बहुमत में आने की संभावना बढ़ सकती है, जो अप्रत्यक्ष रूप से सरकार या एक पार्टी की तानाशाही को बढ़ावा दे सकता है | यह लोकतंत्र के लिए हमेशा हितकर नही होता है |
लोकसभा और विधानसभा दोनों का चुनाव एक साथ कराना निःसंदेह राष्ट्रीय हित में होगा। अब तक का अनुभव यही रहा है कि सरकारें जातीय, सामुदायिक, धार्मिक, क्षेत्रीय समीकरणों को देखते हुए राष्ट्रीय हित में नीतियाँ बनाने और उनके कार्यान्वयन से बचती रही हैं। हो सकता है नई व्यवस्था से निजात मिले | लेकिन इसपर अमल करने से पूर्व संसद और संसद से बाहर गहन विचार विमर्श की जरुरत है | इसके लिए सांगठनिक और संवैधानिक बदलाव करने की भी जरुरत होगी जैसा कि दिसंबर, 2015 को संसद की स्थायी समिति की 79वीं रिपोर्ट में कहा है|