धर्मवीर भारती के जीवन काल में अंतिम प्रकाशित कृति ‘सपना अभी भी’ (1955 में) उनके सुदीर्घ
लेखन-सक्रियता का प्रमाण है। इस काव्य-संकलन में 1959 से 1993 के बीच लिखी 39 कविताओं को समाविष्ट
किया गया है। इस संग्रह के संक्षिप्त निवेदन में भारती जी लिखते हैं-‘इस संकलन में सन् 59 से लेकर सन् 93 तक की कविताएं हैं-चौंबीस लम्बे वर्ष यानी दो वनवासों की
अवधि से कहीं ज्यादा-इन दो-दो वनवासों की समवेत अवधि के बाद भी घर लौट पाया हूँ या नहीं-पता
नहीं।’ भारती जी संशय में हैं, होना स्वाभाविक भी है। ‘ठंडा लोहा’, ‘अंधायुग’, ‘सात गीत वर्ष’ तथा ‘कनुप्रिया’ की रचना केवल दस वर्षों की अवधि में हुई है। परन्तु भारती
का लेखन-काल काफी लम्बा रहा है। इस लम्बी अवधि में जबकि युगीन संवेदनाएं बदलती रही
हैं तब यह प्रश्न उठता स्वाभाविक है कि क्या रचनाकार का आधुनिक बोध, युगीन स्थितियों से तादात्म्य स्थापित कर पाया है या युगीन
झंझावातों में कहीं भटक सा गया है? भारती की सृजन-यात्र में
इतिहास की शक्तियों के बीच निरन्तर बदलते-बनते मनुष्य के चित्र उकेरे गए हैं। तमाम
युगीन झंझावातों के बीच भारती का रचनाकार मानव-कल्याण, मानवता एवं मानव-जीवन के प्रति आस्था को लेकर पूर्णतः
प्रतिबद्ध है। वह कहीं भी समझौता नहीं करता हैं।
‘सपना अभी भी’ संग्रह से यह प्रमाणित होता है एक सुदीर्घ सृजन-यात्र में भी
भारती जी किसी वाद या विचारधारा के गुलाम नहीं बने। उनकी रचनाएँ किसी विशेष
विचारधारात्मक परिधि के भीतर नहीं आती बल्कि वादों एवं मतवादों से अलिप्त रहकर
युगीन संवेदना को निर्भीक एवं निर्विकल्प भाव से अभिव्यक्त करती हैं।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में सन् 1962 में चीनी आक्रमण तथा सन्
1974-75 में आपातकाल की घोषणा एक
असाधारण घटना थी। इन दोनों घटनाओं में भारत के राजनीतिक परिवेश में विद्यमान
कुटिलता, स्वार्थपरता एवं
विसंगतियों को उजाकर कर दिया। चीनी आक्रमण ने ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के बंधन तथा पंचशील समझौते को खोखला सिद्ध कर दिया। भारती
के अनुसार, ‘हमारी दुखद पराजय ने अब
तक पाले सारे सपनों के मोहजाल को छिन्न-भिन्न कर दिया।’ इस दुखद स्थिति में देश की जनता में व्याप्त निराशा एवं
हीन-भावना को दूर करने के बजाय सत्ता-लोलुपता के चौसर बिछाये जाने लगे। ‘पुराना किला’ उसी भयावह स्थिति की
तस्वीर उपस्थित करती हैः
‘मौत किले के आँगन में आ
चुकी है
और शहंशाह के नक्शानवीश अभी तजवीजें पेश कर रहे हैं।’
भारतीय राजनीति की यह बेडौल असलियत भारती जैसे संवेदनशील रचनाकारों के लिए
अत्यंत तकलीफदेह है। लेकिन एक रचनाकार होने के नाते वे अपनी आंखें फेर नहीं सकते
थे-‘काश कि मैं भी अपनी निगाहें
फेर सकता। मगर मैं क्या करूँ कि तूने मुझे निगाहें दी कि मैं देखूं।’ एक रचनाकार होने के नाते भारती इसे अपना दायित्व मानते हैं
जिसे वे छोड़ नहीं सकते। ‘मानव मूल्य और साहित्य’ में रचनाकार के दायित्व को सामान्य व्यक्ति या राजनेता के
दायित्व से अधिक जटिल मानते हुए लिखते हैं कि ‘साहित्यकार की पक्षधरता
एवं संघर्ष विवेक का स्तर बहुत गहरा है। उसे मानव-अस्तित्व की गहन परतों में उतरकर
उसकी रक्त शिराओं में चलने वाली भय और साहस के संघर्ष में भय को पराजित करना है, उसके छोटे-छोटे क्षण में जीवन-प्रक्रिया को उद्बुद्ध करना
है। उसकी भावनाओं के सूक्ष्म से सूक्ष्म तन्तु में स्फुरित होने वाले मानवीय मूल्य
की विशदता को पहचानना है।’ इसी दायित्व बोध के कारण
वे राजनीति की बेडौल असलियत के विरोध में मुखर हो जाते हैं और लोकतंत्र का गला घोट
देने वाली तत्कालीन राजनीतिक हुकूमत के खिलाफ ‘मुनादी’ छेड़ देते हैं। तत्कालीन
राजनीतिक-सामाजिक परिवेश में दिवालिएपन के कारण ही देश की राजनीतिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार लाने के नाम पर
लोकतंत्र का गला घोंटने का प्रयास किया गया। तानाशाही का एक खौफनाक आंतक पूरे देश
पर छा गया था। ‘मुनादी’ उसी आपातकालीन तानाशाही आंतक की एक-एक पर्त को उघाड़ती है।
जनता के दुख-दर्द को अनदेखा करने वाली, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
का हनन करने वाली तथा व्यक्ति की स्वातंत्र्य-चेतना पर आघात करने वाली तथाकथित
लोकतांत्रिक सरकार के विरूद्ध ‘मुनादी’ एक प्रश्नचिह्न है। पूरी कविता आपातकाल की राजनीतिक एवं
प्रशासनिक विद्रूपता एवं अनैतिकता को एक साहस भरी नैतिक चुनौती है। आपातकाल का
चक्रव्यूह रचनेवाली तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के चारण सांसदों ने इस बात
का भारी यत्न किया था कि कवि और लेखक आपातकाल के समर्थन एवं सरकार की उपलब्धियों
के पक्ष में साहित्य-सृजन करें। परन्तु लोकतांत्रिक अधिकारों एवं मानवाधिकारों के
प्रबल समर्थक भारती जी ने आपातकाल का समर्थन नहीं किया। जो आलोचक भारती जी को ‘सत्ता-प्रतिष्ठान का सुविधा-भोगी मखमली कवि’ कहते रहे है-उनके बौद्धिक दिवालिएपन को यह कविता को न केवल
झकझोरती है बल्कि सत्ता के चारणों को भी तिलमिला देती है। ‘मुनादी’ जन कल्याण के नाम पर
सत्ता की कुर्सी पर चिपके हुए लोगों की सामाजिक निष्क्रियता, अकर्मण्यता और निर्लज्जता को अत्यंत सहजता से उघाड़ती है।
शहर का कोतवाल आगाह करता हैः
‘आखिर क्या दुश्मनी है
तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानुषों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए रात-रात जागते हैं
और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लंदन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं।’
ऐसी दरियादिली एवं नेकी के बाजवूद अपनी किवाड़ों की कुंडी अन्दर से बन्द नहीं
करने, खिड़कियों के परदे नहीं
गिराने और बूढ़े आदमी की आवाज से आवाज मिलाती हुई सड़कों पर सच बोलने के लिए निकल
पड़ने का दुःसाहस करने वाली रियाया को कोतवाल धमकी देता है-
‘तोड़ दिए जाऐंगे पैर/और
फोड़ दी जाएगी आँखें
अगर तुमने अपने पाँव चलकर
महलसरा की चहार दीवानी फलाँगकर अन्दर झाँकने की कोशिश की।’
सच बोलने की स्वतंत्रता को दी जा रही इस धमकी को भारती जी ने ‘प्रार्थना’ कविता में चिडि़याँ की
चहक पर प्रहार के रूप में देखा है। ‘अंधायुग’ में युद्धोपरांत अवतरित अंधेयुग की परिणतियाँ हमें इस
प्रकार अगाह करती हैः-
‘जिनके नकली चेहरे होंगे
केवल उन्हें महत्व मिलेगा----
राजशक्तियाँ लोलुप होंगी
जनता उनसे पीडि़त होकर
गहन गुफाओं में छिन-छिनकर दिन काटेगी।’
जब ये पंक्तियाँ लिखी गई थी तब यह प्रश्न उठता था कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था
में क्या सचमुच ऐसा होगा? परन्तु इमर्जेंसी लागू
होने के बाद यह निश्चित हो गया कि ‘पीडि़त जनता’ सचमुच गुफाओं में ही छिपकर दिन काटेगी।
इमर्जेंसी को जहाँ आचार्य विनोबा भावे अनुशासन-पर्व के रूप में स्वीकार करने
की सलाह दे रहे थे, वहीं सत्ता के दलाल एवं
चारण मुल्क के विकास के लिए व्यवस्था कानून एवं नैतिकता को पुनर्स्थापित करने वाले
माध्यम के रूप में घोषित कर रहे थे, जबकि सारी व्यवस्थागत, प्रशासनिक, राजनीतिक एवं आर्थिक
अराजकता और दिवलिएपन के कारण ये स्वयं हैं। अपनी काली करतूतों, निर्लज्जता एवं असमर्थता को छिपाने के लिए लोकतंत्र एवं
मानवाधिकारों का गला घोट रहे थे। वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का
प्रतिवाद करते हुए भारती जी कहते हैं कि एक मामूली इंसान के पास ‘सिर्फ एक मुकम्मल चीज थी-ईमान’ परन्तु सत्ता के स्वार्थ लोलुपों के लिए ईमान बेमतलब की चीज
है इसीलिए इमर्जेंसी लागू कर तथाकथित सर्वोच्चता सिद्ध करने वाली सत्ता को ‘प्रभु’ संबोधित करते हुए भारती
प्रश्न करते हैं-‘और ईमान की कोई गिनती है
भी तुम्हारी पद्धति में?’ शायद है, लेकिन उनकी नजर में कबाड़ की चीजें हैं-
‘आपके घर में जो भी बेकार
का समान हो
सपने हो, सच्चाई हो, आत्मा हो, ईमान हो
बेहिचक ले आइए/हम उसे तोलकर वाजिब मोल देंगे
आपके लिए समृद्धि का द्वार खोल देंगे।’
अर्थात् इस अनुशासन पर्व के अवसर पर इन चीजों का जनता के पास होने से इनका कोई
मूल्य नहीं है। जनता के सपने, सच्चाई, आत्मा और ईमान को खरीदकर उन्हें समृद्ध बनानेवाली इस
आपातकालीन व्यवस्था को अनुशासन-पर्व के रूप तथा मुल्क के विकास के रूप में देखने
की बात कितनी शर्मनाक है। ‘पर्व’ कविता में भारती प्रश्न करते हैं कि अनुशासन पर्व में-
‘तो क्या शब्दकोश से मिटा
दिया गया
एक गैर जरूरी शब्द-स्वतंत्रता।’
एक ऐसी स्वतंत्रता, जो एक इंसान का स्वरूप
लक्षण है। अर्थात् इंसान होने के नाते उसका नैसर्गिक अधिकार है और जिसे सुरक्षित
रखने के लिए जनता ने अनगिनत कुर्बानियाँ दी और ‘जिसे पुराणों के
अपराजेय ईमान की तरह पाया है/जिसे उगते सूरज के जयगान की तरह गाया है/हर हारती
सचाई को बचाने के लिए जो ढ़ाल की तरह उठी है/बड़े से बड़े झूठ के खिलाफ जो महाकाल
की तरह उठी है।’ ऐसी फौलादी ताकत, जो सत्ता की ताकत से भी बड़ी है तथा सत्ता को भी ताकत
प्रदान करती है, को निरर्थक एवं जनता को
बरगलाने वाली ताकत मानकर उसका नामोनिशान मिटा देने का प्रयत्न किया गया। भारती
सत्ता के तथाकथित पहरूओं एवं विकास-पुरुषों से प्रश्न करते हैं:
‘वह क्या ज्वार के साथ रेत
के पगचिन्ह की तरह बह जाएगी
क्या सिर्फ झूठ, सिर्फ, झूठ, सिर्फ झूठ की आवाज बाकी
रह जाएगी।’
भारती का यह प्रश्न हर युग, हर समाज, हर देश की राजनीतिक कुटिलताओं की खबर लेता है। परन्तु भारती
का रचनाकार मानवता की जययात्र के प्रति आस्थावान है। वह किसी भी प्रतिकूल
परिस्थिति में प्रतिक्रियावादी शक्तियों के समक्ष पराजय-बोध से ग्रस्त नहीं होता।
भारती स्वीकार करते हैं कि जीवन संघर्षों में असहाय होना, असफल होना, अकेले होना, पराजित होना, जीवन की अंतिम परिणति
नहीं है। उनका आधुनिक बोध संघर्षरत रहने का संकल्प प्रदान करता है। इसलिए तमाम
चुनौतियों-संघर्षों के बावजूद संकल्पवान मन में जीवन जीने का, उसे सार्थक बनाने का,
उसके लिए युद्ध
करने का सपना अभी शेष है-
‘क्योंकि सपना है अभी भी
इसीलिए तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएँ
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है।’
इसी संकल्प का परिणाम है कि जीवन के दुर्दम्यनीय संघर्ष भरे क्षणों में थकन, पीड़ा, उदासी, तड़प की तपन और स्मृतियों की दहाड़ होने के बावजूद
व्यर्थता-बोध नहीं है। कवि का पूरा सपना इसी संकल्प पर केन्द्रित है कि जीवन को
पूरी जिजीविषा एवं आस्था-भाव से जीना है। कवि को विश्वास है कि जीवन का सच्चा
स्वाद इन्हीं से बनता है। इसीलिए हर बार पंख बांँधकर सूर्य तक उड़ने की तमन्ना है।
इसीलिए वे कहते हैं कि इस ‘बेपनाह लड़ाई’ में हर मोड़ पर पैरों को तोड़ दिए जाने के बावजूद-
‘कौन सा हिमालय है जिस पर
मैं मरण-राही अर्जुन की तरह नहीं गला
पर उस खूँखार बर्फ में खुद समूचा गल जाने की शर्त
पाल कर भीबचा लाया हूँ ऊष्मा की एक पर्त’
इस प्रकार ‘अंधायुग’ की मूल्यांधता के बीच मानव-जीवन तथा मानवता के प्रति आस्था
रखनेवाला रचनाकार लम्बे रचनाकाल में युगीन-चुनौतियों-संघर्षों से जूझते हुए भी
अपने जीवन-संकल्प को छोड़ नहीं पाया है।
‘अंधायुग’ के सर्व विनाशकारी महाभारत में तटस्थ होने की जिस त्रासद
परिणति को संजय एवं विदुर के माध्यम से भारती जी अभिव्यक्त करते हैं, उसकी अन्य स्थितियों को रूक्मि की सेना, बलराम एवं सम्पाती की त्रसदी द्वारा पूरा करते हैं। ‘तटस्थताः तीन आत्मकथ्य’
में वे सिद्ध
करते हैं कि जीवन में तटस्थता भी एक भयानक यातना हैं। रूक्मि की सेना के महान
योद्धा दोनों पक्षों को अस्वीकार होने के कारण छावनी में पड़े-पड़े ‘दर्शन हाँकते थे/कौन कहाँ सही है, कौन कहाँ गलत है/बड़ी निष्पक्षता से बैठकर आँकते थे।’ यह वातानुकूलित कक्षों में बैठे बुद्धिजीवियों की मानसिक
दिवालिएपन की ओर संकेत है। कृष्ण के क्रोधी भाई बलराम भी युद्ध के दौरान कंधे पर
हल लेकर दूर-दूर घूमते रहे। बलराम स्वयं स्वीकार करते है कि ‘न मैं पक्ष में हूँ,
न मैं विरोधी हूँ/युग
से असंगत हूँ।’ फिर भी युद्ध पर
बहस-विचार-निर्णय से नहीं चूकते हैं-‘बीच-बीच में मैंने युद्ध
पर निर्णय दिए/भीम है गलत और सही है दुर्योधन’
अर्थात् बलराम उस
नेता का प्रतीक है जो जीवन-युद्ध में अलिप्त रहकर गाँव-गाँव, खेत-खेत की पदयात्रा करके समाज का सेवक कहलाने लगा परन्तु
जनता का दुख-दर्द कभी नहीं झेलने के कारण युग से असंगत बन गया। बलराम की तटस्थता
आज के सामाजिक-राजनीतिक परिवेश में मानवीय संवेदना, मानवीय मूल्यों
तथा समाज में रचनात्मक भूमिका निभाने से परामुख राजनीतिज्ञों एवं बुद्धिजीवियों की
अकर्मण्यता को दर्शाती है जो सामाजिक-राजनीतिक परिवेश में सकारात्मक बदलाव लाने के
बजाय आत्ममुग्ध एवं आत्मसंतुष्ट बने रहते हैं-‘जिसे युग बदलना हो/वह रहे
बदलता/मैं तो संतुष्ट हूँ।’ परिणाम यह होता है कि
समूची राजनीतिक एवं सामाजिक स्थितियाँ उनके नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं और वे
संवेदनशील एवं विक्षिप्त हो जाने के लिए अभिशप्त हैं-
‘नहीं किसी पर कुछ मेरा वश
चलता
इसीलिए क्रोधी हूँ’
ऐसे लोग अपनी असहायता के कारण विकास एवं संघर्ष के किसी भी
प्रयास को हतोत्साहित करते हैं। वे जीवन संघर्षों से जूझनेवाले तथा मानव की
जययात्र के प्रति संकल्पवान लोगों के उत्साह को हेय दृष्टि से देखते हैं। उनकी इस
प्रतिक्रियावादी एवं प्रगतिविरोधी मानसिकता को भारती ‘सम्पाती’ के माध्यम से भी व्यक्त
करते हैं जो लोगों के उत्साह को हिकारत से देखता है। सम्पाती एवं बलराम की
मानसिकता उन लोगों पर व्यंग्य है, जो खुद जीवन-संघर्षों से
दूर रहते हैं परन्तु चुनौती भरे जीवन को अत्यंत ईमानदारी से जीनेवालों एवं जीवन को
सार्थक बनाने वालों के विषय में दार्शनिक भरी मुद्रा में निर्णय दिया करते हैं।
इतना ही नहीं, सम्पाती अपने को प्रामाणिक
विद्रोही मानता है क्योंकि सूर्य को पहली बार चुनौती देने के प्रयास में अपने
पंखों को झुलसा चुका है और उन्हें सनद मानता हैः
‘क्योंकि वे सनद है
कि प्रामाणिक विद्रोही मैं ही था, मैं ही हूँ’
उसके झुलसे पंखों के कारण उसे एकाकी जीवन जीना पड़ रहा है।
एकाकीपन के कारण उसमें यह धारणा घर कर गई है कि चुनौती स्वीकार कर विद्रोह करने का
कोई भी प्रयास व्यर्थ है। वह सीता के लिए जटायु के संघर्षों को भी व्यर्थ मानता है
क्योंकि ‘निरादृत तो दोनों ही
करेंगे उसे/रावण उसे हर कर और राम उसे जीतकर’
अर्थात् किसी की
दृष्टि में मानवता की अस्मिता एवं मानव-मूल्य के प्रति सम्मान नहीं है। सम्पाती का
जीवन-दर्शन जीवन से पलायन कर चुके तथा विद्रोह को बेमानी समझने वाले लोगों पर
व्यंग्य है। लेकिन साथ ही सत्ता के लिए संघर्षरत राजनीतिज्ञों एवं युद्धरत
राष्ट्रों की ओर संकेत करता है जो घोषित रूप से जनकल्याण या लोकतांत्रिक व्यस्था
एवं मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत है परन्तु वास्तव में इनमें से किसी भी चीज के
प्रति उनमें सम्मान भाव नहीं हैं। इसीलिए उनके लिए लड़ने वाले लोगों से सम्पाती कहता
है-
‘कौन हैं ये समुद्र पार
करने के दावेदार
कह दो इनसे कि अब यह सब बेकार है
साहस जो करना था कब का कर चुका मैं’
ऐसे परिवेश में, जिसमें मानव की मानवता का
कोई सम्मान नहीं है, सम्पाती का कथन प्रासंगिक
है, भले ही एकाकीपन की यातना
या ‘फ्रस्टेशन के कारण है’। लेकिन भारती जैसे रचनाकार के लिए सम्पाती के कथन
युक्तिसंगत नहीं है। मनुष्य की संघर्ष क्षमता और उसकी जिजीविषा का कोई अन्त नहीं
है। अंततः संघर्ष में परास्त होने का अर्थ यह नहीं है कि चुनौतियों को स्वीकार
करना ही व्यर्थ है। मानव की मानवता एवं अस्मिता के लिए संघर्ष एक सतत प्रक्रिया
है।
इस प्रकार एक लम्बी रचनात्मक अवधि में भारती मानव अस्तित्व, मानव-गौरव तथा मानव-अधिकारों के प्रश्न से विचलित नहीं होते
हैं। उनके आधुनिक भाव-बोध के केन्द्र में मानवीय गौरव की प्रतिष्ठा के लिए न केवल
स्वप्न है बल्कि उसके लिए संघर्ष करने का संकल्प भी कायम है।