Sunday 4 December 2016

चेम्मीन: रोमांटिकता और सामाजिक यथार्थ का द्वंद्व

चेम्मीन: रोमांटिकता और सामाजिक यथार्थ का द्वंद्व
मलयालम उपन्यासों में ‘चेम्मीन’ एकमात्र उपन्यास है जिसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि इस उपन्यास का दुनिया की 19 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और इस पर आधारित फिल्में 15 देशों में बनायी गयी हैं। भारत में इस पर बनी फिल्म को 1964 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया है | ‘चेम्मीन’ के रचनाकार तकष़ी शिवशंकर पिल्लै ऐसे संक्रांति काल के साहित्यकार है, जब मलयाली समाज साहूकारी, सामंतवादी, जमींदारी व्यवस्था के साथ-साथ छुआछूत की गंभीर व्याधि से ग्रस्त था | तकषि की रचनाशीलता की खूबी यह है कि उन्होंने हमेशा समाज के बेहद सामान्य चरित्रों को ही अपनी रचनाओं के केंद्र में रखा और सामान्य लोगों के जीवन में व्याप्त विषमता के बीच उनके संघर्ष, उनकी जिजीविषा, उनकी पीड़ा और दुखों का बखूबी वर्णन किया | उल्लेखनीय यह कि उस दौर में दलितों को साहित्य में स्थान देने वाला कोई भी साहित्यकार केरल में नहीं था और तकष़ि जानवर से भी तुच्छ जीवन बिताने वाले लोगों के पक्षकार बनकर सामने आये| इसलिए उन्हें मलयालम उपन्यास का ‘प्रेमचंद कहा जाता है | हिन्दी भाषी उपन्यास सम्राट स्वर्गीय प्रेमचन्द को जितना आदर और पसन्द करते हैं, केरल की मलयालम भाषी जनता के बीच तकष़ी शिवशंकर पिल्लै को उतना ही सम्मान प्राप्त है|
मलयालम में आदिवासी केन्द्रित लेखन की शुरुआत का श्रेय तकषी शिवशंकर पिल्लै को है | चेम्मीन अर्थात मछुआरे को ज्यादातर जगह आदिवासियों में ही गिना जाता है। लेकिन केरल में मछुआरे अनुसूचित जातियों के अंतर्गत आते हैं। ‘चेम्मीन’ उन गरीब मछुआरों के जीवन पर ही केन्द्रित उपन्यास है जो अपने जीवन निर्वाह के लिए समुद्र पर ही आश्रित होते हैं | समुद्र तटीय मछुआरा समाज एक बंद समाज है जो परम्पराओं, रूढ़ियों, अंधविश्वासों और मान्यताओं से इस कदर जकड़ा हुआ है कि वह अपने सदस्यों को और खासतौर से समुदाय की महिलाओं को इसकी रत्ती भर भी छूट नहीं देता है | समुदाय के नियमों और मर्यादाओं का उल्लंघन करने वालों का तिरष्कार करता है| भारत के अन्य अधिकांश पुरुषवादी समुदायों की तरह ऐसे समुदाय निर्मित नियमों और मर्यादाओं का सबसे अधिक शिकार महिलाओं को ही होना पड़ता है| महिलाओं को तुरंत ही पथभ्रष्ट और अपवित्र घोषित कर दिया जाता है | सागर ही मछुआरों का जीवन है और उसी से उनकी जीवन शैली, धारणाएं, अचार-विचार, उम्मीदें और आकांक्षाएं सभी निर्धारित होती है | अनंत विस्तृत सागर की तरंगावर्तनों के साथ खेलते-सोते उनका व्यक्तित्व निर्मित होता है| ये मछुआरे सागर को अपनी माता मानते है क्योंकि उनकी सारी इच्छाओं की पूर्ति सागर करता है | सागर माता के कोप से उन्हें डर भी लगता है इसलिए वे ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकते जो समुद्र को पसंद नहीं है |
‘चेम्मीन’ धर्मवीर भारती द्वारा रचित हिंदी उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ की तरह रोमैंटिक उपन्यास है | लेकिन ‘गुनाहों का देवता’ की रोमांटिकता जहाँ सामाजिक यथार्थ भूमि के संस्पर्शों से पूरी तरह अलग-थलग और वायवीय हो जाती है वहीँ ‘चेम्मीन’ में तकषी ने रोमांटिकता के बहाने मछुआरों के सामाजिक यथार्थ का जिस तरह से विशद चित्रण किया है कि मछुआरा समाज भी एक पात्र के रूप में उभर कर सामने आता है | ‘लरकाई के प्रेम’ से बंधे प्रेमी युगलों के माध्यम से मछुआरा समाज के नियमों, नैतिक मान्यताओं और बन्धनों को चुनौती भी देते है| यहीं चुनौती ‘चेम्मीन’ को ‘गुनाहों का देवता’ से अलग भूमि पर अवस्थित करती है | यहाँ तकषी की संवेदना ने केवल आदिवासी मछुआरा समाज व परिवार ही नहीं, पूरे भारतीय समाज और परिवार में औरत की स्थिति और उसकी अस्मिता जैसे सवाल पर व्यापक विमर्श के लिए प्रेरित किया है |
‘चेम्मीन’ के कथा एक रोमैंटिक करुण कथा है | लेकिन यह कथा मछुआरा समाज में प्रचलित कुछ मान्यताओं, विश्वासों और रीति-रिवाजों से होकर गतिमान होती है और साथ ही उन मान्यताओं, विश्वासों और रीति-रिवाजों के कारण अभिशप्त मछुआरा समाज के दारुण जीवन को अभिव्यक्त करती है | दूसरे शब्दों में तकषी ने प्रेम कथा के बहाने मछुआरा समाज में प्रचलित मान्यताओं, विश्वासों और रीति-रिवाजों को ही उपन्यास के विषय-वस्तु के रूप में अभिव्यक्त किया है | ‘चेम्मीन’ की कथा के तीन कोण है जिसकी शुरुआत केरल के समुद्र तटीय इलाके में रहने वाले एक मछुआरे की महत्वाकांक्षा से शुरू होती है जिसके लिए एक प्रेमी युगल के बीच बढ़ता आकर्षण और अंकुरित होता प्रेम संबंध माध्यम बनता है | इसी के साथ केरल के मछुआरा समाज में प्रचलित वे मान्यतायें और मिथक है जो मछुआरा समाज के जीवन को प्रभावित और नियमित करते है |
मछुआरा समाज में प्रचलित एक मिथक, जो पूरी कथा में आद्यंत एक दु:स्वप्न की तरह मौजूद है जिसके अनुसार सागर देवी उस मछुआरे का जीवन नष्ट कर देती है जिसकी पत्नी अपवित्र हो जाती है अर्थात समुद्र का किनारा पवित्र होना चाहिए और इसकी पवित्रता की नैतिक जिम्मेदारी किनारे पर रहनेवाली स्त्रियों की है|  दूसरी प्रचलित मान्यता सामाजिक है और जिससे भारत का एक बड़ा हिस्सा, खासतौर से ग्रामीण गरीब तबका, आज भी ढोये जा रहा है कि बेटी का विवाह जल्द से जल्द कर देना चाहिए | यह ऐसा नियम था जिसे समुद्र तटीय मछुआरे, जिन्हें घटवार कहा जाता है, उल्लंघन नहीं कर सकते थे | तीसरा नियम कि केवल धीवर (जालिया) समुदाय के मछुआरों को ही नाव और जाल खरीदने और उसका मालिक होने का अधिकार है जो समुदाय विशेष के सामाजिक आर्थिक वर्चस्व को स्थापित करता है | एक अन्य परम्परागत नियम यह था कि कोई भी नया काम करने से पहले समुदाय के मुखिया से औपचारिक अनुमति लेनी पड़ती है |
तकषी इन तीनों कोणों के बीच आपसी टकराव के द्वारा मछुआरा समाज ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय समाज के विश्वासों, मान्यताओं और मूल्यों के खोखलेपन को पर्त-दर-पर्त खोलते जाते है| तकषी ने प्रेम कथा के सापेक्ष मछुआरा समाज के जिस सच्चाई को उजागर करते है वह पूरे भारतीय समाज की सच्चाई है| ‘चेम्मीन’ में मछुआरों की आर्थिक और सामाजिक दुर्बलता, महाजनों द्वारा उनके शोषण, मछुआरा समुदाय के मुखियों द्वारा लोगों जीवन और व्यवसाय पर अनेकानेक प्रतिबंध, सूदखोरी का दुश्चक्र और बिचौलियों के आतंक के कारण मछुआरों के अभिशप्त जीवन का चित्रण ‘गोदान’ के त्रासद कृषक कथा से जुड़कर सम्पूर्ण भारतीय समाज के शोषित और सबसे निचले पायदान के लोगों की जीवन-गाथा बन जाता है| अपने समुदाय के रीति-नीतियों के बंधन से कोई भी व्यक्ति/मछुआरा ऐसे जकड़ा हुआ है कि वह तमाम क्रांतिकारिता के बावजूद अपने आसपास के दुश्चक्र से मुक्त नहीं हो पाता है |
चेम्बनकुंजु जैसे साहसी, चतुर, मेहनती और कुशल नाविक की सबसे बड़ी महत्वकांक्षा अपनी एक नाव और जाल खरीदना है जैसे ‘गोदान’ के होरी की तरह महज गाय पालने की लेकिन सामाजिक मान्यता उसके राह में रोड़ा बनती है | जैसे गाय पालने की लालसा कृषक समाज में प्रतिष्ठा की बात मानी जाती है वैसे ही नाव और जाल का मालिक होना मछुआरा समाज में गर्व और रुतबे की बात हुआ करती है | चेम्बन जिस अरय समुदाय का मछुआरा है उस जाति को नाव और जाल खरीदने और उसका मालिक होने का अधिकार नहीं है | केवल धीवर (जालिया) समुदाय के मछुआरों को ही नाव और जाल खरीदने और उसका मालिक होने का अधिकार था| लेकिन चेम्बन अपनी इस महत्वकांक्षा को पूरा करने के लिए ‘गोदान’ के होरी की तरह कर्ज लेता है, वादा-खिलाफी करता है, कोई भी नैतिक-अनैतिक तरीका अपनाने से परहेज नहीं करता है| ‘होरी’ के पास गाय खरीदने के पैसे नहीं तो चेम्बन के पास भी नाव और जाल खरीदने के पैसे नहीं है | लेकिन वह अपनी इस इच्छा को किसी भी तरह से पूरा करना चाहता है | वह अरय जाति द्वारा नाव और जाल नहीं खरीदने और उसका मालिक नहीं होने की सामाजिक मान्यता को चुनौती देता है | अरय समुदाय में नाव और जाल खरीदने के लिए सामाजिक योग्यता का निर्णय उस समुदाय का मुखिया करता है लेकिन चेम्बन नाव और जाल खरीदने के लिए अपने समुदाय के मुखिया से आज्ञा नहीं लेकर समुदाय के बेमानी नियमों को तोड़ देता है | लेकिन उसकी महत्वकांक्षा की कोई सीमा नहीं है| उसकी यही महत्वकांक्षा उससे सामाजिक रीति-नीतियों, अंधविश्वासों और प्रचलित दकियानूसी मान्यताओं का पालन कराती है| तत्कालीन समाज की विडम्बना कितनी त्रासद है इसका अनुमान हम इस वास्तविकता से लगा सकते है कि आधुनिक सूचना और ज्ञान क्रांति के समय में भी सामाजिक स्तर पर कुछ लोग प्रगतिशीलता और बौद्धिकता के बावजूद व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर ठेठ दकियानूसी आचरणों की अनवरत गुलामी से बंधे होते है | यहाँ चेम्बन कुंजु तो केवल महत्वाकांक्षी है, प्रगतिशील नहीं है | बिना बौद्धिक और तार्किक सजगता के महत्वाकांक्षा का कोई मूल्य नहीं है | चेम्बन लकीर का फ़क़ीर भी नहीं है लेकिन वह धन-लोलुपता में इस कदर जकड़ा हुआ है कि उसकी संवेदनशीलता नष्ट हो जाती है जिसकी अंतिम परिणति मानसिक विक्षिप्तता और आर्थिक दिवालिएपन में होती है | चेम्बन कुंजु की महत्वकांक्षा, धन-लोलुपता और सामाजिक रीति-नीतियों के समक्ष विवाह, परिवार और प्रेम के समस्त मूल्य दफ़न हो जाते है | अपनी बेटी करुतम्मा और अन्य धर्मी परीक्कुट्टी के प्रेम सबंधों में जो भी घटनाएँ घटित होती हैं वे सभी उसकी महत्वकांक्षा के कारण घटित होती हैं | सबसे पहले उसकी महत्वकांक्षा को समझते हुए ही उसकी बेटी करुतम्मा परीक्कुट्टी से आर्थिक मदद मांगती है| परीक्कुट्टी मुस्लिम युवक है जो करुतम्मा के साथ समुद्र तट पर घूमते-खेलते बड़ा हुआ है | अर्थात् दोनों के बीच एक-दूसरे के प्रति आकर्षण है, ‘लरकाई का प्रेम’ है | करुतम्मा के आग्रह पर परीक्कुट्टी नाव और जाल खरीदने के लिए चेम्बन की आर्थिक मदद करता है | यह आर्थिक मदद ही उन दोनों के प्रेम संबंधों की त्रासदी का कारण बन जाता है | चेम्बन शर्त के मुताबिक पैसे के बदले परीक्कुट्टी को न तो मछलियाँ देता है और न पैसे लौटाता है | परीक्कुट्टी पैसे-पैसे का मोहताज होकर दर-दर भटकने के लिए अभिशप्त होता है | मुसलमान होने के कारण कोई भी मछुआरा न तो मछलियाँ उधार देता है और न पैसे उधार देता है ताकि वह जीवन यापन कर सके | दूसरी ओर वह सामाजिक बहिष्कार के भय से और महत्वाकांक्षा के कारण करुतम्मा और परीक्कुट्टी के बीच वैवाहिक संबंध को स्वीकृति नहीं देता है | बड़े निर्लज्ज तरीके से अपनी बेटी करुतम्मा और उसके प्रेम को भी बलि देने के लिए मजबूर करता है|
एक सामान्य मछुआरे से एक सूदखोर महाजन में चेम्बन कुंजु की परिणति वस्तुतः एक वर्गीय परिवर्तन है जिसका तकषी ने अत्यंत तल्ख़ चित्रण किया है | दूसरों की मज़बूरी और कमजोरी का फायदा उठाना सूदखोर महाजनों का वर्गीय चरित्र होता है | चेम्बन कुंजु भी पूरी तरह से महाजन की तरह सोचता और आचरण करता है | पैसे की बढ़ती प्यास के कारण उसके स्वभाव एवं व्यवहार में अंतर आ जाता है, वह अपने बच्चों के प्रति भी निर्मम हो जाता है | वह एक ओर करुतम्मा से उम्मीद करता है कि वह बाप की मर्यादा का ख्याल रखने के लिए परिक्कुट्टी के साथ प्रेम संबंधों से दूर रहे जबकि वह स्वयं बाप की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है और दूसरी ओर करुतम्मा एवं परिक्कुट्टी के संबंधों का नाजायज तरीके से इस्तेमाल भी करता है | उसके भीतर एक मालिक की मानसिकता का संचार होने लगा | यह केवल चेम्बन कुंजु की समस्या नहीं है बल्कि पूरे मछुआरा समाज और सूक्ष्मता में देखें तो पूरे भारतीय समाज की संकीर्ण मानसिकता की समस्या है | एक ओर मछुआरे करुतम्मा और परिक्कुट्टी के संबंधों को लेकर करुतम्मा के पति पलनी पर ताने मारते हैं जबकि करुतम्मा और परिक्कुट्टी का प्रेम विशुद्ध रूप से अशरीरी है, शारीरिक स्तर पर कभी नहीं उतरता है | इस ताने से पलनी अपमानित होकर अवसादग्रस्त हो जाता है और करुतम्मा से दूर होता जाता है | मछुआरा समाज करुतम्मा को अपवित्र घोषित कर देता है और करुतम्मा एवं पलनी का वैवाहिक जीवन नष्ट हो जाता है | दूसरी ओर मछुआरा समाज चेम्बन कुंजु के निर्लज्जतापूर्ण आचरणों को स्वीकार करता जाता है जिसके संवेदनहीन एवं कठोर व्यवहार के कारण उसकी पत्नी चक्कि मर जाती है और वह एक विधवा से विवाह कर लेता है और अपनी दूसरी बेटी पंचमी को भी तरह तरह की यातनाएं सहने के लिए मजबूर कर देता है और संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त मछुआरा समाज यह सब देखता रह जाता है |
यहाँ उल्लेखनीय है कि तकषी ने ‘चेम्मीन’ में इतनी सतर्कता बरती है कि वे किसी भी पात्र को अपनी सोच या मानसिकता का प्रतिनिधित्व नहीं करने देते हैं| वे अतार्किक और असंगत सामाजिक रीति-रिवाजों, मान्यताओं और विश्वासों पर प्रहार करने और उन्हें ख़ारिज करने के लिए लगभग सभी पात्रों का उपयोग करते है | ‘चेम्मीन’ विशुद्ध रूप से रोमैंटिक प्रेम कथा है जिसमें करुतम्मा के स्वयं के प्रेम का बलिदान और आत्मशोधन, परिक्कुट्टी का आदर्श प्रेम, समुद्र देवी की दंड प्रक्रिया और चेम्पन की विलेन भूमिका सब कुछ फ़िल्मी और यथार्थ से दूर लगता है| फिर भी तकषी ने इस प्रेम कथा को समाज में प्रचलित विश्वासों और रीति रिवाजों का छौंक देकर उसे जीवन की यथार्थ भूमि पर उतार दिया है | तकषी करुतम्मा और परीक्कुट्टी के बीच प्रेम सबंधों के बरक्स ही भारतीय मानस और समाज में प्रचलित ‘स्त्री की पवित्रता’ की संकल्पना को खड़ा करते है जिसे जायज ठहराने के लिए मछुआरा समाज में कई तरह की कहानियाँ गढ़ी गई है और उन्हें सती, सावित्री, दुर्गा और सीता के आदर्शों को उनके मानस में भर दिया जाता है| करुतम्मा की माँ चक्कि भी उसे बताती है कि मछुआरों का जीवन वास्तव में तट पर रहने वाली उनकी स्त्रियों के हाथ में होता है | हालाँकि मछुआरा समाज के कुछ प्रतिनिधियों ने अपवित्र होनेवाली औरतों के पतियों को सागर देवी द्वारा दण्डित करने के मिथ को फर्जी करार दिया है लेकिन तकषी इस मान्यता की अतार्किकता के प्रति न तो रोष प्रकट करते है और न ही इसे ख़ारिज करते है | वे ‘चेम्मीन’ के अंत में इस मान्यता को घटित होता दिखाते है लेकिन इसके माध्यम से वे यह उजागर करते है कि किस प्रकार समाज की झूठी नैतिकता व्यक्ति, परिवार और समाज की जीवन व्यवस्था का छिन्न-भिन्न कर देती है और इनके गर्भ से दूसरी अनेक समस्याएँ पैदा होती है| ‘पवित्रता’ की इस संकल्पना के कारण न केवल मछुआरा समाज की बल्कि सम्पूर्ण भारतीय समाज की स्त्रियां भयानक त्रासद जीवन जीने को अभिशप्त होती है| उपन्यास के अंत में करुतम्मा के अपवित्र होने के अपराध के साथ ही समुद्र में पलनी की मौत से पहली नजर में ऐसा प्रतीत होता है कि तकषी इस अन्धविश्वास के साथ खड़े है और उसे बढ़ावा दे रहे है | लेकिन वे करुतम्मा, परिक्कुट्टी और पलनी के त्रासद अंत के द्वारा वे पाठक के भीतर इस मिथक के प्रति आक्रोश की सृष्टि कर देते है और साथ ही भारतीय समाज में स्त्री को वश में रखने की पुरुष वर्ग की सदियों पुरानी मानसिकता को भी उजागर कर देते है | मछुआरा समाज न तो करुतम्मा और परिक्कुट्टी के प्रेम को स्वीकार कर पा रहा था और न करुतम्मा एवं पलनी के दाम्पत्य जीवन का सम्मान कर रहा था | तकषी ने इन तीनों की त्रासद परिणति के द्वारा भारतीय समाज की विसंगतियों को उघाड़कर रख दिया है |
सामान्यतः कोई रचनाकार अपनी रचना में किसी मिथक का उपयोग अपनी जीवन दृष्टि, युगीन मूल्य-बोध एवं युगीन यथार्थ की आवश्यकता के अनुकूल करता है | भारत ही नहीं, दुनिया भर की अनेक कालजयी कृतियाँ, मसलन-होमर का ‘इलिएड’ एवं ‘ओडिसी’, दांते का ‘डिवाइन कामेडिया’, इलिएट का ‘वेस्ट लैंड’ इत्यादि-मिथकों के आधार पर ही लिखी गई हैं | भारत में भी रामायण, महाभारत, रामचरितमानस, कामायनी और राम की शक्ति पूजा जैसी कालजयी रचनाएँ मिथक प्रधान हैं | युगीन सन्दर्भों में मिथकों के उपयोग का मूल कारण यह होता है कि मिथकों के पात्र और कथ्य शताब्दियों से हमारे जातीय मानस में इस कदर आत्मीय हो चुके हैं कि उनके माध्यम से कही जाने वाली बात संस्कारी पाठक के मन को कई स्तरों पर अधिक गहराई से झंकृत करती है | ‘चेम्मीन’ में मिथक के उपयोग को लेकर तकषी का तरीका बिल्कुल अलग है | वे युगीन मूल्य-बोध के सन्दर्भ में मिथक की तार्किकता और प्रासंगिकता पर कोई सवाल खड़ा नहीं करते है बल्कि उसके माध्यम से तत्कालीन सामाजिक विसंगतियों को उजागर कर देते है |
‘चेम्मीन में तकषी का जीवन दृष्टिकोण स्पष्ट और सहज मानवीय भावनाओं के अनुकूल है | ‘आधुनिक मलयालम साहित्य का इतिहास’ के लेखक पी. के. परमेश्वरन नायर के अनुसारआज तक प्रकाशित तकषी के उपन्यासों में चेम्मीन प्रथम है | इस रचना में तकषी की यथातथ्य रीति चरम सीमा तक पहुँच गई है | लेकिन कहानी का आरम्भ और विकास एक रूमानी कथा के रूप में है | उनके अन्य उपन्यासों की तरह इसमें वर्ग-संघर्ष की प्रतिध्वनि नहीं है लेकिन जीवन के गहरे मनोभावों को लेखक ने अधिकाधिक रूप से व्यक्त किया है |