Friday 22 December 2017

सनातन संस्कृति के संवाहक : महामना पंडि‍त मदन मोहन मालवीय

सनातन संस्कृति के संवाहक : महामना पंडि‍त मदन मोहन मालवीय


बहुमुखी प्रतिभा के धनी व सांस्कृतिक धरोहर की प्रतिमूर्ति महामना पंडि‍त मदन मोहन मालवीय का नाम अधि‍कांश लोग अक्सर केवल बनारस हि‍न्दू विश्वविद्यालयके संस्थापक के रूप में ही याद करते है | उनके संघर्ष और सक्रियता के व्‍यापक दायरे से भारतीय समाज एक बड़ा वर्ग अनजान रहा है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान  उन्होंने न सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में नेतृत्व किया, बल्कि वे सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक क्षेत्र में भी मानवता के मार्गदर्शक भी रहे । लेकिन आज़ादी के बाद सत्ताधारी कांग्रेस द्वारा परिवार केन्द्रित राजनीति से असहमति रखने वाले नेताओं को हाशिए पर धकेल देने की नीति अपनायी गई और सत्ता-केन्द्रित इतिहासकारों द्वारा इस नीति का अनुसरण किए जाने के कारण पंडि‍त मदन मोहन मालवीय के बहुआयामी संघर्ष और सक्रियता की अनदेखी की गई | इतिहास के जानकारों को छोड़ दिया जाय तो बहुत कम ही लोग यह जानते है कि मदन मोहन मालवीय जी ने महज 25 वर्ष की आयु में ही 1886 में भारतीय राष्ट्री्य कांग्रेस के दूसरे अधि‍वेशन में भाग लि‍या और उसे संबोधि‍त कि‍या। बाद में वे सन् 1909, 1918, 1932 और 1933 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। वे एक महान देशभक्त, स्वतंत्रता सेनानी, वि‍धि‍वेत्ता, संस्कृत और अंग्रेजी के वि‍द्वान, शि‍क्षावि‍द, पत्रकार और प्रखर वक्ता थे। मालवीय जी केवल भारतीय राष्ट्री्य कांग्रेस के सक्रिय सदस्य बनकर ही नहीं रहे बल्कि हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा का सम्मान, समाज सुधार, पत्रकारिता, शैक्षणिक संप्रभुता और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए श्री गणेश करने वाले अप्रतिम सूत्रधार थे| मालवीय जी के बहुआयामी संघर्ष और परिश्रम के कारण डॉ. राधाकृष्णन ने उन्हें कर्मयोगी कहा था| मदनमोहन मालवीय जी का संपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक जीवन हिंदुस्तान के विलुप्त गौरव और सनातन संस्कृति को स्थापित करने के लिए प्रयासरत रहा। उन्होंने केवल संस्थाएं नहीं बनाईं, बल्कि लोगों को भी बनाया। वे चाहते थे कि भारत के लोगों में हिम्मत पैदा हो, उनका सिर उन्नत हो, उन्हें अपने ऊपर भरोसा हो। यह भारतीय इतिहास की वि‍डम्‍बना ही है कि ऐसे महान कर्मयोगी को वैचारिक पूर्वग्रह के कारण मैकालेवादी-नेहरूवादी-मार्क्सवादी मानसिकता में ढले कुछ इतिहासकारों ने फुटकल खाते में डाल दिया |

1886 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन को संबोधित करते हुए जब कहा कि प्रतिनिधित्व के बिना कोई टैक्स नहीं.......प्रतिनिधि संस्थाओं को प्रतिष्ठित किए बिना भारतवासियों पर टैक्स का बोझ लादते जाना अंग्रेजों के लिए सर्वथा अनुचित है.....अच्छे अंग्रेजों को जानकर यह दुःख होगा कि भारत सरकार निरंकुश है | वह हमारे साथ गुलामों जैसा व्यवहार करती है........प्रतिनिधित्व का अधिकार हमें मिलना चाहिए तब सम्मेलन के अध्यक्ष दादा भाई नैरोजी ने कहा था-इस युवक की वाणी में स्वयं भारत माता मुखरित हो रही है | इसके बाद मालवीय जी कांग्रेस से तमाम मतभेदों के बावजूद स्वराज्य की प्राप्ति के लिए कांग्रेस में बने रहे | मालवीय जी  ने 1932 में दिल्ली अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए स्वीकार किया कि कई अवसरों पर कुछ महत्त्व के प्रश्नों पर मतभेद के बावजूद उसके प्रति मेरी श्रद्धा-भक्ति में कमी नहीं होने पायी है | अतः इस अवसर पर कांग्रेस के सिद्धांत, विचार और कार्य का पथ-प्रदर्शक बनने का आदेश मेरे लिए धर्मादेश है, जिसका पालन करना ही मेरा कर्त्तव्य है |कांग्रेस के प्रति मालवीय जी की प्रतिबद्धता के संबंध में डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने स्वीकार किया है कि जब-जब कांग्रेस का अस्तित्व संकट में पड़ा, मालवीय जी उसका मार्गदर्शन किया | पूराने और नए लोगों के बीच मालवीय जी सेतु का काम करते थे |

मालवीय जी वैसे तो नरमदलीय थे लेकिन अनेक अवसरों पर उनके भीतर की उग्र क्रांतिकारिता प्रकट हो जाती थी | जलियांवाला कांड पर मालवीय जी नेशनल असेम्बली में लगातार तीन दिनों तक बोलते रहे | उनका भाषण सुनकर सरकारी अधिकारियों की आँखों में आंसू आ गए | गृह मंत्री विंसेट स्मिथ की पत्नी यह कहते हुए सुनी गयी कि ‘मेरे पति पंडित जी का मुकाबला नहीं कर सके|’ इंग्लैंड के समाचार पत्रों में मालवीय जी की तुलना उस समय के प्रखर वक्ताओं ग्लेडस्टोन और डिजरायली से की गई | यही नहीं मालवीय जी उग्र क्रांतिकारियों को लगातार संरक्षण, सहयोग और प्रेरणा देते रहे है| महान क्रन्तिकारी चंद्रशेखर आज़ाद अक्सर मालवीय जी परामर्श लेने आया करते थे | इस दृष्टि से वे गाँधी एवं नेहरु जैसे अन्य नरमदलीय नेताओं से अलग थे जो उग्र क्रांतिकारियों से दूरी बनाकर चलना पसंद करते थे | इसके विपरीत स्वाधीनता प्राप्ति के लिए अपनी जान हथेली पर लेकर सशस्त्र क्रांति करने वाले सभी क्रन्तिकारियों को मालवीय जी का सहयोग और आशीर्वाद प्राप्त था |

महामना के अनुसार, राष्ट्रीय जागरण के लिए राष्ट्रीय शिक्षा भी आवश्यक है। उनका तर्क था- देश में उच्च शिक्षा के विकास के साथ राष्ट्रीयता की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए,  जिससे क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद तथा बहुधर्मवाद वाले भारत देश में सबसे ऊपर राष्ट्रीय चरित्र का विकास हो और देश में एकता स्थापित हो। जर्मनी, फ्रांस, जापान, अमेरिका आदि देशों ने अपने स्कूलों में देशभक्ति की शिक्षा देकर अपनी राष्ट्रीय शक्ति तथा दृढ़ता का निर्माण किया है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना मालवीय जी के इसी प्रगतिशील और सृजनशील व्यक्तित्व का प्रतीक है| इस विश्वविद्यालय के मानचित्र से लेकर प्राचीन धर्म-दर्शन के साथ ही आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था मालवीयजी की कल्पना का साकार प्रतिबिंब है| उन्होंने वर्तमान की आवश्यकता और भविष्य की उम्मीदों को ध्यान में रखते हुए भवनों के निर्माण की ऐसी योजना बनायीं कि सौ वर्ष बाद भी विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों की होने वाली भीड़ को नियंत्रित किया जा सके| मालवीयजी इस विश्वविद्यालय को आधुनिक युग का गुरुकुल कहते थे| इस विश्वविद्यालय का उद्देश्य अन्य विश्वविद्यालयों से भिन्न है| इसका उद्देश्य गुरुकुलों की भांति शिक्षा के साथ-साथ चरित्र-निर्माण और विकास भी करना है| इस महामानव ने जिस विश्वविद्यालय की स्थापना की उसमें उनकी परिकल्पना ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षित करके देश सेवा के लिये तैयार करने की थी जो देश का मस्तक गौरव से ऊँचा कर सकें। उनका स्पष्ट मानना था कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों और अधिकारों का समुचित पालन तभी कर सकता है जब वह शिक्षित होगा। विश्वविद्यालय की 31 दिसम्बर 1905 की योजना के अनुसार ज्ञान के व्यापक प्रसार के साथ हिन्दू धर्म की पुरानी प्रतिष्ठा को फिर से स्थापित करना है | यहाँ मालवीय जी प्राचीन भारतीय धर्मं, दर्शन, साहित्य और कलाओं के साथ-साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा द्वारा नैतिक और भौतिक समृद्धि होते देखना चाहते थे| तत्कालीन ब्रिटिश सरकार भारत में भौतिक विकास भारतवासियों के लिए नहीं बल्कि अपने औपनिवेशिक हितों को साधने के लिए करती थी | मालवीय जी की दूरदर्शिता ने ब्रिटिश सरकार की इस धूर्तता की पहचान करने में कोई चूक नहीं की और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ही वह पहला विश्वविद्यालय है जहाँ देश में आधुनिक टेक्नोलॉजी की शिक्षा और प्रशिक्षण का सूत्रपात हुआ |

मालवीय जी चरित्र-निर्माण के लिए भारतीय विद्याओं की शिक्षा पर बल देते है| वे जहाँ धर्म, दर्शन एवं चरित्र-निर्माण को मानवता और मानव सभ्यता के विकास के लिए आवश्यक मानते थे वहीँ ज्ञान-विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी की शिक्षा को भौतिक विकास एवं समृद्धि का कारक मानते थे| पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान को स्वीकार करते हुए वे भारतीय धर्म-दर्शन आदि का समन्वय करते है |

मालवीय जी गंगा की धारा के निर्बाध प्रवाह के प्रबल हिमायती थे | बहुत कम लोग इस तथ्य से अवगत होंगे कि गंगा नदी पर बांध निर्माण करने और नहर बनाने के ब्रिटिश सरकार की योजना का सर्वप्रथम विरोध पंडि‍त मदन मोहन मालवीय के दूरदर्शी नेतृत्व में ही हुआ| वैचारिक पूर्वग्रह के कारण कुछ इतिहासकारों ने भले ही इस आधार पर मालवीय जी के इस संघर्ष को महत्त्व नहीं दिया कि गंगा नदी को हिन्दू धर्मं में पवित्र स्थान प्राप्त है और गंगा नदी अविरल प्रवाह के बचाव के लिए संघर्ष में उन्हें साम्प्रदायिकता की बू आती हो, लेकिन मालवीय जी के जेहन में इस तरह की भावना परिकल्पना से परे है | गंगा नदी की जीवनदायिनी शक्ति के महत्त्व को समझते हुए उन्होंने गंगा के अविरल प्रवाह के पक्ष में जागरूकता के प्रसार के लिए 1905 में हरिद्वार में गंगा महासभा की स्थापना की | उन्होंने देश के सभी विद्वानों,  नेताओं और गुणग्राही राजाओं-महाराजाओं को गंगा महासभा के अधीन संगठित किया | उन्होंने ब्रिटिश सरकार को यह समझौता करने के लिए बाध्य कर दिया कि गंगा की धारा का प्रवाह निर्बाध होना चाहिए | इस समझौते को अविरल गंगा रक्षा समझौता 1916 कहा जाता है | इस समझौते के तहत ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार किया किया कि गंगा की निर्बाध जल धारा पर भविष्य में किसी प्रकार का रोक नहीं लगाया जाना चाहिए | साथ ही यह प्रावधान किया गया कि गंगा की चौड़ाई में कमी या सतह में किसी भी परिवर्तन के सन्दर्भ में हिन्दू समुदाय के पूर्व सलाह के बिना कोई निर्णय नहीं लिया जायेगा | शासन को यह भी वायदा करना पड़ा कि अंग्रेजी हुकुमत 40 प्रतिशत गंगाजल प्रयाग तक पहुंचाएगी | यह समझौता भारतीय संविधान की धारा 363 के अंतर्गत आज भी मौजूद है | लेकिन विडंबना यह है कि जो काम ब्रिटिश सरकार नहीं कर सकी, उसे स्वतंत्र भारत की सरकार ने किया | स्वतंत्र भारत की सरकारों ने इस समझौते का बार-बार उलंघन करते हुए टिहरी सहित कई बांधों के द्वारा गंगा नदी के जल प्रवाह को कैद कर लिया |

हिन्दी भाषा के उत्थान और हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित कराने में मालवीय जी की भूमिका ऐतिहासिक है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को स्थापित करने के प्रयत्न को उन्होंने राष्ट्र की संप्रभुता से जोड़ कर देखा | साहित्य सृजन के स्तर पर हिंदी की अस्मिता और संप्रभुता को स्थापित करने का जो प्रयास भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनकी मंडली ने किया, उस संघर्ष को राजनीतिक और सामाजिक आन्दोलन के रूप में परिणत करने का श्रेय मदन मोहन मालवीय को है | भारतेन्दु के सपने निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कै मूल  को साकार करने का भागीरथ कार्य मालवीयजी तथा उनके सहयोगियों ने अपने हाथों में लिया ।

19 वीं शताब्दी तक उत्तर प्रदेश की राजभाषा के रूप में हिन्दी का कोई स्थान नहीं था। हि‍न्दी को अदालतों से बाहर नि‍कालने के कार्य में तो मुसलमानों को सफलता मि‍ल चुकी थी, अब वे इसे शि‍क्षा क्षेत्र से बाहर नि‍कालने में प्रयत्नशील थे। राजा शि‍व प्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह एवं अन्य मनीषियों ने अदालतों में देवनागरी लि‍पि‍ के प्रवेश के लि‍ये जब-तब छि‍टपुट प्रयत्न कि‍या लेकि‍न सभी असफल रहे। अदालत व सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी किले को ढहाने के लिए महामना मदन मोहन मालवीय ने इस प्रयास को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ दिया | उन्हीं के प्रयास से सन् 1884 में प्रयाग में हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि मध्य सभा की स्थापना हुई | काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना सन् 1893 ई. में हुई थी। यह हिन्दी के लिए पहली सुनियोजित लड़ाई थी, जिसने जनमानस में हिन्दी के प्रति अपराजेय लालसा को जन्म दिया। मालवीयजी के परामर्श से बाबू श्यामसुन्दर दास ने कार्यक्रम को आन्दोलन के रूप में चलाने के लिए नगरों में समितियाँ गठित कीं। इस सभा के माध्यम से एक ओर तो मालवीय जी ने देवनागरी लि‍पि‍ के पक्ष में हस्ताक्षर अभि‍यान चलाया, दूसरी ओर गहरी छानबीन के साथ नागरी के पक्ष में प्रमाण और आंकड़े इकट्ठे कि‍ये। बहुत सी सामग्री एकत्रि‍त कर कोर्ट कैरेक्‍टर एण्‍ड प्रायमरी एजुकेशन इन नार्थ वेस्‍टर्न प्रौवि‍न्‍सेज नाम की पुस्तक लि‍खी और पश्चिमोत्तर प्रदेश व अवध के गवर्नर सर एंटोनी मैकडोनेल के सम्मुख विविध प्रमाण प्रस्तुत करके 1898 ई0 में देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा को कचहरियों में प्रवेश दिलाने में सफल हुए | 18 अप्रैल सन् 1900 ई. को सरकारी गजट के तहत अदालतों, शासकीय कार्यालयों को निर्देश दे दि‍या गया कि‍ सभी कागजात जैसे सम्‍मन आदि‍, जो सरकार की ओर से जनता के लि‍ए नि‍काले जायेंगे वह दोनों लि‍पि‍यों यानी नागरी और फारसी में होंगे। सरकार ने इसके साथ ही यह भी घोषणा कर दी कि‍ आगे कि‍सी भी व्‍यक्‍ति‍  को तभी सरकारी नौकरी मि‍ल सकेगी जब वह हि‍न्‍दी भाषा का भी जानकार हो। जो कर्मचारी हि‍न्‍दी नहीं जानते थे उन्‍हें एक साल के भीतर हि‍न्‍दी सीखने को कहा गया अन्‍यथा वे नौकरी से अलग कर दि‍ए जायेंगे। इस प्रकार मालवीय जी के अथक प्रयास से हि‍न्‍दी का प्रवेश संयुक्‍त प्रान्‍त के शासकीय कार्यालयों में हुआ।

हिन्दी उत्तर प्रान्त की भाषा तो बन गई, परन्तु मालवीयजी उसे राष्ट्र की भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने के साथ ही हिंदी को विश्व भाषा बनाने का स्वप्न देखते थे | सन् 1910 में काशी में आयोजित प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अपने अध्यक्षीय भाषण में मालवीयजी ने हिन्दी अपनाने, सरल हिन्दी का प्रयोग करने तथा अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्द ग्रहण करने की अपील की। सन् 1919 में बम्बई में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए मालवीयजी ने कहा कि सभी भारतीय भाषाएँ आपस में बहने हैं तथा हिन्दी उनमें बड़ी बहन है। अन्य प्रादेशिक भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी बोलने वालों की संख्या अधिक है। अत: देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी भाषा को राष्ट्र भाषा का स्थान दिया जाना चाहिए। उन्होंने उम्मीद थी कि किसी दिन ऐसा होगा जब अंग्रेजी की तरह हिन्दी भी विश्व भाषा बनेगी। सन् 1939 में काशी में पुन: आयोजित 18 वें हिन्दी साहित्य सम्मेलन में भारतीय संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में अभिहित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया।

हिंदी भाषा की गरिमा को स्थापित करने के लिए मालवीय जी परम्पराओं को तोड़ने में भी अग्रणी रहे | इतिहासकारों ने मालवीय जी के इस योगदान का उल्लेख करना उचित नहीं समझा कि जो भाषा राष्ट्रीय चेतना और अस्मिता का पर्याय बन चुकी थी, उस भाषा के साहित्य के अध्ययन एक विषय के रूप में मान्यता भारत के वि‍श्वविद्यालयों में प्राप्त नहीं थी, जिसे मालवीय जी ने बनारस हि‍न्दू‍ वि‍श्वविद्यालय में हि‍न्दी को सर्वप्रथम एक वि‍षय के रूप में अध्ययन को मान्यता दी। 1937-38 में मालवीय जी को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दीक्षांत भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया था। विश्वविद्यालय के इतिहास में अभी तक दीक्षांत भाषण अंग्रेजी में ही दिए जाने की परंपरा रही। लेकिन मालवीय जी ने उस परंपरा को तोड़ हिंदी में भाषण देकर देशभक्ति का अनूठा उदाहरण पेश किया। भाषण देते समय ‘सर स्पीक इन इंगलिश, वी कांट फॉलो योर हिंदी जैसे ही श्रोताओं के बीच से यह आवाज गूंजी तो पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने जवाब दिया महाशय, मुझे भी अंग्रेजी बोलना आता है। शायद हिंदी की अपेक्षा मैं अंग्रेजी में अपनी बात अधिक अच्छे ढंग से कह सकता हूँ लेकिन मैं एक पुरानी अस्वस्थ परंपरा को तोड़ना चाहता हूँ | उनकी हिंदी के प्रति संवदेनशीलता और संघर्ष से ज्ञात होता है कि आजादी के बाद कोई दूसरा महामना नहीं हुआ, जो हिंदी को देश में बाध्यकारी भाषा बना दे।
यही नहीं शिक्षा के माध्यम के प्रश्न पर अंग्रेजों ने जब सन् 1882 ई्. में शि‍क्षा कमीशन का गठन किया तो इस आयोग में साक्ष्‍य के लिए पंडित मदनमोहन मालवीय तथा भारतेन्‍दु हरि‍श्‍चन्‍द्र चुने गए थे। भारतेन्‍दु  अस्‍वस्‍थता के कारण आयोग के सम्‍मुख उपस्‍थि‍त  नहीं हो पाये। परन्‍तु महामना आयोग के सामने उपस्‍थि‍त होकर इस बात पर जोर दि‍या था कि‍ शि‍क्षा हि‍न्‍दी भाषा में हो।

सनातन धर्म व हिन्दू संस्कृति की रक्षा और संवर्धन में मालवीयजी का योगदान अनन्य है। हिंदू समाज और भारत की प्राचीन सभ्यता तथा विविध विधाओं एवं कला की रक्षा के लिए मालवीयजी ने विशेष कार्य किया। वे  सनातन संस्कृति को पुनर्स्थापित होते देखना चाहते थे | 1923 और 1936 में वे दो बार हिंदू महासभा के प्रधान चुने गए। उनका कहना था मैं चाहता हूं कि भारत के गांव-गांव में हिंदू सभाएं स्थापित हों और हिंदुओं के शक्तिशाली संगठन हों|  लेकिन उनका हिंदुत्व संकीर्ण परिधि में सीमित नहीं था। उन्होंने एक संस्था की स्थापना की थी जिसका काम उन अस्पृश्यों को हिंदू धर्म में दीक्षित करना था, जिन्हें ईसाई मिशनरियों ने ईसाई बना दिया था। मालवीय जी में देश के विविध धर्मावलम्बियों की अनेकता को एकता के सूत्र में बांधने की अद्भुत शक्ति थी | उनके धर्म सम्मेलनों में हिन्दू के साथ ही मुसलमान और इसाई भी समान रूप से भाग लेते थे | देश के विविध धर्मावलम्बियों को वे राष्ट्रीयता के नाम पर संगठित करना चाहते थे |

मदनमोहन मालवीय के अनुसार राष्ट्रीयता और धार्मिक सहिष्णुता में कोई विरोध नहीं है | यह केवल हिन्दुओं का देश नहीं है। हिन्दुस्तान जैसे हिन्दुओं का प्यारा जन्म स्थान है, वैसे ही मुसलमानों का भी है। यह दोनों जातियां यहां बसती हैं और बसती रहेंगी। जितनी ही इन दोनों में परस्पर मेल और एकता बढ़ेगी, उतनी ही देश की उन्नति में हमारी शक्ति बढ़ेगी और इनमें जितना बैर या विरोध या अनेकता रहेगी, हम उतने ही दुर्बल होंगे। धर्म का देशभक्ति से अन्योन्याश्रित संबंध है। धर्म का परिष्कृत स्वरूप देशभक्ति में परिलक्षित होता है। यही देशभक्ति जन-जन में करुणा के रूप में परिप्लावित होती है। आज जबकि विगत कई वर्षों से सत्ता-सुख की मलाई का भोग करने वाले एवं तुष्टिकरण को धर्मनिरपेक्षता का पर्याय मानने वाले नेता और विदेशी फंडों से पोषित कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी राष्ट्रीयता की भावना को साम्प्रदायिक और तानाशाही घोषित करने लगे है, कुछ मीडिया चैनल राष्ट्रीयता के नाम से ही अपना स्क्रीन काला करने लगे है, राष्ट्रवादी होना तथाकथित वामपंथी वैचारिक विमर्श में अपराध घोषित किया जाने लगा है, देश को टुकड़े टुकड़े करने के नारे को कुछ सिरफिरे युवाओं की नजर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समझा जाने लगा है, अपनी आतंकी करतूतों से देश का खून बहाने वाले आतंकियों को फांसी दिए जाने के फैसलों को मानवाधिकार का हनन घोषित करने लगे है,  ऐसे समय में पंडित मदन मोहन मालवीय के विचार बेहद प्रासंगिक हो जाते है। ‘अभ्युदय’ में ‘राष्ट्रीयता और देशभक्ति’ शीर्षक से अपनी संपादकीय टिप्पणी में ‘राष्ट्रीयता’ को समझाते हुए मालवीयजी कहते है कि राष्ट्रीयता उस भाव का नाम है जो कि देश के सम्पूर्ण निवासियों के हृदयों में देश-हित की लालसा के साथ व्याप रहा हो’ जिसके आगे अन्य भावों की श्रेणी नीची ही रहती हो| वे राष्ट्रीयता की भावना को एक विराट भावना मानते है जो हमें केवल राष्ट्रभक्ति का नारा बुलंद करने की नहीं बल्कि सदैव राष्ट्रहित में चिंतन करने की प्रेरणा देने, देशहित में जीने और समाज-हित में योगदान करने की शक्ति और प्रेरणा प्रदान करती है। मौजूदा दौर में शिक्षण संस्थानों में राष्ट्रीयता की भावना के विरुद्ध जिस तरह से घृणा, तनाव और विद्वेष का माहौल बनाकर पूरे देश में जातीय एवं साम्प्रदयिक तनाव और क्षेत्रीय विभेद पैदा करने की कोशिश की जा रही है, ऐसे समय में मालवीय जी का चिंतन एक समरसता पूर्ण मार्ग प्रशस्त करता है |


मालवीय जी के जीते जी भारत स्वाधीन नहीं हो सका जबकि वे भारत को स्वाधीन होते देखना चाहते थे| उनकी इस अदम्य जिजीविषा के कायल महात्मा गाँधी भी थे | मालवीय जी वृद्धावस्था में जब अपने जीवन के अंतिम क्षणों में थे, तब महात्मा गाँधी उनसे मिलने गए थे और उन्होंने मालवीय जी से आग्रह किया कि-आप देश की चिंता कब छोड़ेगे.......आप मेरे ऊपर जो भार छोड़ना चाहते हो, छोड़ दो | लेकिन जब आप चिंता छोड़ दें तब अपनी शक्ति मुझे दे दें|  यह वही अदम्य शक्ति थी जिसके कारण उनके व्यक्तित्व में प्रगतिशीलता, राष्ट्रीयता और सृजनशीलता का अद्भुत संगम संभव हो सका था | उन्होंने जो कुछ भी किया, उसके मूल में केवल सेवा भावना समाहित हुआ करती थी | उन्होंने पाश्चात्य आधुनिक विचारों और व्यवहारों को भारतीय देश-काल की परिधि में और भारतीय सांस्कृतिक सांचे में ढ़ालकर ही अपनाया | 

Thursday 16 November 2017

कृष्णा सोबती : लीक से हटकर स्त्री मन को अभिव्यक्त करने वाली कथाकार

कृष्णा सोबती : लीक से हटकर स्त्री मन को अभिव्यक्त करने वाली कथाकार

भारतीय भाषाओं के साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए दिया जाने वाला देश का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार वयोवृद्ध कथाकार कृष्णा सोबती को दिए जाने की घोषणा की गयी है| हिंदी कथा साहित्य की मजबूत स्वर रही कृष्णा सोबती को यह पुरस्कार महज उनकी सृजनशीलता की उत्कृष्टता का सम्मान नहीं है अपितु उन्हें यह पुरस्कार दिये जाने से स्वयं में ज्ञानपीठ पुरस्कार ही अधिक गौरवान्वित हुआ है | इसके पहले साहित्य अकादमी सम्मान सहित कई साहित्यिक पुरस्कारों से नवाजी जा चुकी हैं| 18 फरवरी 1924 को गुजरात (वर्तमान पाकिस्तान) में जन्मी कृष्णा सोबती की जीवन यात्रा 93 वर्ष पूरी हो गई है और 1950 में कहानी लामासे साहित्यिक सफर शुरू करने वाली सोबती की साहसपूर्ण सर्जनात्मकता अपनी सम्पूर्ण प्रखरता और उर्जा के साथ अभी भी अक्षुण्ण है| सूरजमुखी अँधेरे के’, ‘दिलोदानिश’, ‘ज़िन्दगीनामा’, ‘ऐ लड़की’, ‘समय सरगम’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘जैनी मेहरबान सिंह’, ‘हम हशमत’, ‘बादलों के घेरे और हाल ही प्रकाशित बुद्ध का कमंडल लद्दाखऔर गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान उनकी कालजयी रचनाएं हैं जिसमें युग-बोध और भाव बोध जीवन की सहज लय में रच-बस कर अभिव्यक्त हुआ है |
कृष्णा सोबती स्त्री की आजादी और न्याय की पक्षधर है| आज से चार-पांच दशक पहले किसी महिला रचनाकार द्वारा प्रेम और अपने शरीर की जरूरतों या यौन जीवन के अनुभवों पर लेखन करना अत्यंत ही दुर्लभ था | लेकिन कृष्णा सोबती की सृजन यात्रा किसी भी तरह के संकोच या अपराधबोध के बिना स्त्री मन की गांठ खोल देने के लिए सन्नद्ध हो चुकी थी | साठ के दशक में आए उनके उपन्यास मित्रो मरजानीने यौनिकता के खुलेआम इजहार से हिंदी जगत में उस समय तहलका ही मचा दिया था | स्त्री होकर ऐसा साहसी लेखन करना सभी लेखिकाओं के लिए सम्भव नहीं है। यही नहीं, गुलाम भारत में जन्मीं और देश विभाजन के बाद पाकिस्तान के गुजरात की अपनी स्मृतियों की पोटली बांधकर पहली नौकरी के लिए सिरोही पहुंचने वाली कृष्णा सोबती के पास उन्ही की तरह शरणार्थी बनी और पंजाब से लेकर दिल्ली तक की हजारों महिलाओं के साझा और व्यक्तिगत अनुभव हैं| विभाजन की त्रासदी के बाद दोनों ओर महिलाओं के साथ किस तरह से असंवेदनशील और अमानवीय व्यवहार हुआ, यह अनुभव ही कृष्णा सोबती को इस महाद्वीप में विशिष्ट बनाते हैं| उन्होंने स्वीकार किया है कि मैं उस सदी की पैदावार हूं जिसने बहुत कुछ दिया और बहुत कुछ छीन लिया यानि एक थी आजादी और एक था विभाजन । मेरा मानना है कि लेखक सिर्फ अपनी लड़ाई नही लड़ता और न ही सिर्फ अपने दु:ख दर्द और खुशी का लेखा जोखा पेश करता है। लेखक को उगना होता है, भिड़ना होता है। हर मौसम और हर दौर से नज़दीक और दूर होते रिश्तों के साथ, रिश्तों के गुणा और भाग के साथ. इतिहास के फ़ैसलों और फ़ासलों के साथ। मेरे आसपास की आबोहवा ने मेरे रचना संसार और उसकी भाषा को तय किया। जो मैने देखा, जो मैने जिया वही मैंने लिखा|
विभाजन की त्रासदी को इसी नजरिये से परखते हुए कृष्णा सोबती ने हाल ही में एक अद्भुत आत्मकथात्मक उपन्यास गुजरात पकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तानलिखा है जिसमें उन्होंने युवा दिनों की उन घटनाओं को याद किया है जो भारत और पाकिस्तान की आजादी के अंतिम दो-तीन वर्षों में घट रही थी| खासतौर से 16 अगस्त 1946 के डायरेक्ट एक्शन डेके बाद लाहौर से लेकर बिहार और बंगाल तक हिंसा और उस धर्म विशेष की महिलाओं के साथ अमानुषिक अत्याचार के व्यापक परिप्रेक्ष्य में स्त्री देह और मन पर क्या गुज़री है, को कृष्णा सोबती ने अत्यंत ही मनोवैज्ञानिकता के साथ बयान किया है | उपन्यास कदम दर कदम इस सवाल से जूझता चलता है, ‘बेदखल होने का मतलब क्या होता है?’ लेकिन विभाजन के बाद बेदखल होने का दर्द कुछ ऐसा था कि ‘ना कोई यहां था आंसू पोंछने के लिए और न ही कोई वहां था कंधा देने के लिए’| इस प्रकार यह उपन्यास कृष्णा सोबती की जिंदगी के एक अत्यंत ही संवेदनशील पहलू से हमें रूबरू कराता है| इस उपन्यास में उनकी कहानी सिक्का बदल गया के मानवीय संवेदनाओं के ह्रास और नैतिक मूल्यों के पतन से आगे बढ़ते हुए रिश्तों में आए बदलाव को व्यापक फलक पर अभिव्यक्त किया गया है | ‘सिक्का बदल गया’ में उस दर्द को बयान किया गया है जो सत्ता(व्यवस्था) का सिक्का बदलते ही अपने साथ के लोगों का व्यवहार कैसे बदल जाता है | दरअसल यह कहानी राजनीतिक सत्ता परिवर्तन या बदलाव की ओर संकेत करने की अपेक्षा सैंकड़ों सालों से रह रहीं दो भिन्न संस्कृतियों और धर्मों के लोगों की मनःस्थिति में आए बदलाव की ओर संकेत करती है। कुल मिलाकर यह कहानी उस तोड़-फोड़ को अभिव्यक्त करती है जो विभाजन के दौरान राजनीतिक स्तर से अधिक मानसिक और नैतिक मूल्यों के स्तर पर हुई।
स्त्री की अस्मिता और मुक्ति के सवाल के साथ स्त्री चरित्रों को लेकर निर्भिकता और  खुलापन कृष्णा सोबती के रचनाकर्म का अभिन्न अंग रहा है| स्त्रियों की मुक्ति की छटपटाहटों और घर की चहारदीवारी से बाहर निकलने की हसरतें उनके कथा साहित्य में अनायास ही नहीं चली आती हैं बल्कि उसे उन्होंने एक पारदर्शी भाषा के द्वारा महिलाओं की कल्पना के सांचे में ढाल दिया है| स्त्री मन की ग्रंथियों और उलझनों को समझने और अभिव्यक्त करने में सिद्धहस्त कृष्णा सोबती का सूरजमुखी अंधेरे के  विभाजन के बाद परिवेश में एक ऐसी लड़की की है जो बाल यौन शोषण का शिकार होती है जिसका उसकी मनःस्थिति ऐसा असर होता है कि यौनावस्था में खुद के शरीर को हर तरह से प्रयोग कर फेक दिए गए चिथड़े के समान समझने लगती है, जिसमे न कोई आकर्षण होता है, न जिसका कोई प्रयोग हो और न ही जिसकी कोई ज़रूरत महसूस करता है| मित्रो मरजानी साहित्य और देह के वर्जित प्रदेश की यात्रा है जिसमें मध्य वर्गीय/संयुक्त पारिवारिक परिवेश में मित्रो बड़ी बेबाक, निडर और सक्षम रूप से अपनी देह की माँग को किसी अपराध बोध से जोड़कर नहीं देखती । मित्रो की इस मुखरता एक ओर न केवल रुढ़िवाद को सकते में डाल देता है बल्कि लकीरवादी स्त्री चेतनावादी भी ठगी रह गई| मानवीय स्वातंत्र्य की हिमायत और रूढ़ि का प्रतिरोध कृष्णा सोबती जी के कथा साहित्य की मौलिक विशेषता है। ‘दिलोदानिश’ और ‘डार से बिछुड़ी’ नारी-उत्पीड़न की गाथाएँ हैं | ‘डार से बिछुड़ी’ में अपने मूल जड़ से कटी, बाजार में खरीदी-बेचीं, लूटी और भगाई स्त्री की कहानी है जो एक कुत्ते की तरह वफ़ादार बनकर अपने हर ‘मालिक’ को सुखी रखने की कोशिश करती है और उनके सुख-दुःख को अपना मानकर अपनी जिंदगी सार्थक करती है लेकिन अपनी सूक्ष्मता में पुरुषवादी समाज की सामंती और ऐय्याश मानसिकता की विद्रूपता को भी परत-दर-परत उघाडती भी है|  नारी मनोविज्ञान की विशेषज्ञ सोबती ने ‘दिलोदानिश’ में नारी समाज की इस विडम्बना का साक्षात्कार करती है कि नारी चाहे पत्नी हो या प्रेमिका, उपेक्षा, शोषण और उत्पीड़ित होने के लिए अभिशप्त है |    
‘समय सरगम’ जीवन के अंतिम पड़ाव पर खड़ी अरण्या के अकेलेपन के माध्यम से एक पुरानी और नई सदी के दो छोरों को समेटता हुआ और जीए हुए अनुभव की तटस्थता और सामाजिक परिवर्तन से उभरा एक अनूठा उपन्यास है। वृद्ध अरण्या अविवाहित रहने के बावजूद जीवन को अपनी शर्त्तों पर जीने में भरोसा करती है | धर्म, अध्यात्म और सामाजिक नियमों का उसके सामने कोई मूल्य नहीं है | दूसरे शब्दों में, परंपरा और आधुनिकता का समन्वय ही ‘समय सरगम’ है। `ऐ लड़की' (1991) जीवन के अंतिम पड़ाव पर एक बीमार बूढी महिला की अदम्य जिजीविषा का महाकाव्य है | वह अपनी लड़की के संवाद में अपने बीते जीवन की स्मृतियों से गुजरती है और ज़िन्दगी के सभी आयामों को छूती हैं फिर चाहे वो दुःख हो या ख़ुशी या जीवन हो या मौत, प्रेम हो या विवाह | उस बूढी महिला का दर्द न जाने कितनी सारी स्त्रियों का दर्द है, जिसने अपने हिस्से का जीवन जीया ही नहीं। फिर भी यह कहानी मौत से डरने की नहीं, बल्कि उससे जूझनेजीतने और उसके निषेध की कहानी बन जाती है| इन दोनों उपन्यासों के माध्यम से कृष्णा सोबती ने बुजुर्गों की कथा के माध्यम से जीवन के अंतिम छोर पर जी रहे लोगों की उलझनों, मानसिक द्वंद्वों, जीवन-शैली, मृत्युमय आदि कई विषयों पर दार्शनिक चिंतन प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही नारी जीवन की बदलती सोच एवं अपने अधिकारों के प्रति सजगता को भी रेखांकित किया है। ‘बादलों के घेरे’ की कहानियों में सामाजिक परिवेश और पारिवारिक दायरे को स्वानुभूति के स्तर पर लाकर अभिव्यक्त करने के कारण इनमें नारी जीवन के प्रति गहरी संवेदनात्मक प्रतिक्रिया है | ये कहानियाँ संवेदना और शिल्प दोनों स्तरों पर कहानी के परंपरागत स्वरुप को काफी सार्थकता से तोड़ती है|
‘ज़िंदगीनामा’ (1979) में उन्होंने अपने जीवन से छूटे हुए परिवेश का रोमांटिक चित्रण करके पंजाबी समाज की साझी संस्कृति और अतीत के प्रति एक प्रकार का नॉस्टेलजिया पैदा किया है| पंजाबी संस्कृति को सम्पूर्णता में अभिव्यक्त करने वाला यह एक महाकाव्यात्मक उपन्यास है| डॉ. देवराज उपाध्याय के अनुसार-यदि किसी को पंजाब प्रदेश की संस्कृति, रहन-सहन, चाल-ढाल, रीति-रिवाज की जानकारी प्राप्त करनी हो, इतिहास की बातजाननी हो, वहाँ की दन्त कथाओं, प्रचलित लोकोक्तियों तथा 18वीं, 19वीं शताब्दी की प्रवृत्तियों से अवगत होने की इच्छा हो, तो जि़न्दगीनामासे अन्यत्र जाने की ज़रूरत नहीं|’ इसी उपन्यास के लिए सोबती को हिंदी में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला जो यह पुरस्कार पाने वाली पहली महिला लेखिका बनीं|
बुद्ध का कमंडल लद्दाखभी एक तरह से नारी दृष्टि से लद्दाख की संस्कृतिक, सामाजिक राजनीतिक यात्रा है| कृष्णा सोबती के अनुसार स्त्रियों की देह प्रकृति और हमारे बीच एक फिल्टर की तरह हो जाती है और तब हम न देह का आनंद पा पाते हैं, और न प्रकृति का | वे मानती है कि स्त्रियों के लिए यात्राएं आसान नहीं नहीं हैं, बाहर से बचते हुए स्त्री अक्सर अपनी देह में कैद हो जाती है, उस देह को होनेवाले खतरों की कल्पना में और विडम्बना यह कि खतरा किसी कीड़े-मकोड़े या भालू से नहीं बल्कि पुरुष से | नारी स्वतंत्रता और अस्मिता की पक्षकार सोबती खुद को पाने के लिए, खुद से प्यार करने के लिए, तयशुदा जवाबों को घर पर छोड़ कर सिर्फ सवालों को पाने के लिए कभी खुद से बाहर निकलने का समर्थन करती हैं |
कृष्णा सोबती का रचनात्मक विकास वस्तु के स्तर पर ही नहीं, भाषा और शिल्प के स्तर पर होता रहा है। उनके रचनाकर्म में भाषागत प्रयोगशीलता स्पष्ट परिलक्षित होती है| उनकी भाषिक रचनात्मकता का ताना-बाना कथ्य के अनुरूप रुपांतरित होता जाता है | उनकी हर कृति में भाषा बदलती है क्योंकि हर कृति में नए-नए चरित्रों को गढ़ने की कारीगरी और उस चरित्र का दबाव भाषिक संरचना को बदलने के लिए विवश करता है| कृष्णा सोबती के चरित्रों के संवाद ऐसे मालूम होते हैं जैसे ये संवाद स्वयं उनके सामने बोले या कहे गये हों। ‘मित्रो मरजानी’ की भाषा सोबती की भाषा नहीं है बल्कि उपन्यास की मित्रो की भाषा है जबकि ‘ए लड़की’ में भाषा का तेवर और गहराई बिल्कुल अलग है| ज़िंदगीनामा की भाषा खेतिहर समाज की भाषा है और बोलियों का अद्भुत संसार है तो ‘यारों के यार’ में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ है,  जो कुछ लोगों को बोल्ड, अश्लील और मर्दानी गालियों से अचंभित कर देने वाली भाषा लगती है| ‘दिलोदानिश’ की भाषा पुरानी दिल्ली की शहराती उर्दू की भाषा है | ‘सिक्का बदल गया’ पंजाब की पृष्ठभूमि और विभाजन के पश्चात वहाँ के माहौल को लेकर लिखी गयी है। इसकी भाषा में पंजाबी तड़का को महसूस किया जा सकता है | साथ ही विभाजन के ध्वंस के बाद विभाजन के पश्चात अपनी जड़ों से अलग होने पर मजबूर हो गये लोगों की मनःस्थिति का असल हकीकत बयान करने में सक्षम है |
इसप्रकार नूतन जीवन बोध के साथ एक विशिष्ट शिल्प विधान में कृष्णा सोबती की कथा-भूमि न केवल पाठकों और आलोचकों को चौंकाती है बल्कि एक अभिनव संदेश भी देती है | एक ओर बेखौफ और बेलौस लेकिन दूसरी ओर बिल्कुल तटस्थ रूप से स्त्री चरित्र की सहजता और संवेदना का आख्यान करने वाली इस उस्ताद कारीगर को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना स्वागत योग्य है, वे निःसंदेह इसकी हक़दार है |


Monday 23 October 2017

स्वच्छता दायित्व-बोध के बिना स्वच्छ भारत का सपना अधूरा

स्वच्छता दायित्व-बोध के बिना स्वच्छ भारत का सपना अधूरा

2 अक्‍टूबर, 2017 को गाँधी जयंती के साथ ही स्वच्छता के औपचारिक अभियान की भी तीसरी वर्षगांठ थी | इसके ठीक दो दिन पहले बुराई पर अच्छाई का पर्व दशहरा भी मनाया गया | अधिकांश धार्मिक पर्वों और त्योहारों में अन्य मान्यताओं के साथ-साथ स्वच्छता भी एक अहम हिस्सा रहा है| धार्मिक मान्यताओं से अलग देखा जाय तो जीवन में स्वच्छता का व्यापक महत्व होता है। यह अक्सर कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास होता है और साफ-सुथरे घर में लक्ष्मी। लेकिन दशहरा के दौरान रावण के पुतलों के दहन में शामिल होनेवाली भीड़ ने चारों ओर पानी बोतल, खाद्य वस्तुओं के पैकेट-प्लास्टिक-रैपर-थैली-बोतल या कैन के कूड़े का जो ढेर फैलाया, गंदगी का जो वीभत्स रूप अपने पीछे छोड़ा, वह शंका के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ता है कि लोग स्वच्छता के प्रति जागरूक है या उनके मन-मस्तिष्क कही भी स्वच्छता के लिए कोई स्थान शेष बचा है |  
तकरीबन तीन साल पहले जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गाँधी जयंती के दिन ही देश को स्वच्छ बनाने की प्रक्रिया का सूत्रपात किया था, तब वह बेशक एक ऐसा क्रन्तिकारी कदम था जिसको लेकर कल्पना करना असंभव था कि देश में सफाई को लेकर कभी अभियान भी छेड़ा जा सकता है | महात्मा गाँधी ने एक स्वच्छ भारतका सपना देखा था और वे इसके लिए प्रयासरत भी थे, लेकिन आजादी के बाद सरकारों ने स्वच्छता के महत्व को समझने की कोशिश भी नहीं की, इसलिए हमारे देश में स्वच्छता कभी भी प्राथमिकता नहीं रही | इसके लिए संकल्प करने की बात तो दूर की कौड़ी थी | फिर भी स्‍वच्‍छ भारत अभियान शुरू हुआ | नेता से लेकर व्यापारी, फिल्म स्टार और अधिकारी सब झाड़ू लेकर सड़क साफ करने, दिखावटी ही सही, लगे। यह उम्मीद बंधी कि यह अभियान लोगों की आदतों, व्यवहार, आचरण, मानसिकता, जीवन पद्धति और संस्कार का अहम हिस्सा बनकर एक सकारात्मक बदलाव की दिशा तय करेगा | लेकिन वास्तविकता यह है कि सफाई को लेकर लोगों की सोच एवं व्यवहार में बदलाव की प्रक्रिया अत्यंत ही निराशाजनक है |
ऐसा नहीं है कि लोग स्वच्छता की महता से अपरिचित है या स्वच्छता के प्रति जागरूक नहीं है। अक्सर सभी लोग अपने घरों या दूकानों या निजी परिसरों की साफ-सफाई करते हैं लेकिन समस्या तब खड़ी होती है जब वे अपने घरों या दूकानों के दायरे से बाहर होते है तब उनका स्वच्छता-बोध अचानक ही विलुप्त हो जाता है| दीपावली से पहले या अन्य अवसरों पर हम अपने-अपने घरों को साफ करके कूड़ा सड़क पर, मोहल्ले में या सार्वजानिक स्थलों पर फेंक देते है| बड़ी-बड़ी महंगी गाड़ियों में बैठे लोग खाली बोतल या चिप्स के खाली पैकेट बाहर सड़क पर गिरा देते हैं या कही भी दरवाजा खोलकर गुटके का थूक सड़क पर निकाल देते हैं और शान से आगे बढ़ जाते हैं। आज नगरों में यह समस्या अत्यंत गंभीर है, जहाँ तमाम प्रचार तंत्र, सफाई के इन्फ्रास्ट्रक्चर के बावजूद लोग कूड़ा फ़ैलाने से बाज नहीं आते है| दिल्ली की मेट्रो सेवा साफ-सफाई रखने में एक मिसाल है| मेट्रो परिचालन के दौरान हर क्षण लोगों से गंदगी नहीं फ़ैलाने या यत्र-तत्र नहीं थूकने की अपील की जाती है| फिर भी कुछ लोग पानी बोतल, खाद्य वस्तुओं के पैकेट-प्लास्टिक-रैपर-थैली-बोतल या कैन फेंकने और कहीं भी गुटखे की पीक थूकने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते है | ऐसे लोगों में मेट्रो की सफाई देखकर भी स्वच्छता-बोध नहीं होता है| उनके अचेतन में यह भाव निहित होता है कि सार्वजानिक स्थलों की सफाई करना हमारा नहीं, दूसरों का या सरकार का काम है। यह उनका स्वच्छता-बोध उस दायित्व-बोध से रहित होता है जो यह समझता है कि स्वच्छता सबकी नैतिक जवाबदेही है। अर्थात् स्वच्छता की सामूहिक जिम्मेदारी से मानसिकता से रहित होना सबसे बड़ी समस्या है |
महात्मा गांधी ने सफाई को आजादी के आंदोलन का हिस्सा इसलिए बनाया था, क्योंकि समाज की बाहरी गंदगी उसके अंदर व्याप्त गंदगी को ही दिखाती है। गांधीजी सफाई को हमारे समाज में व्याप्त कुरीतियों और कमजोरियों को दूर करने का माध्यम बनाना चाहते थे। वे पहले लोगों के संस्कार और स्वभाव में बदलाव के द्वारा स्वच्छता को जीवन पद्धति का एक हिस्सा बनाकर एक सर्व स्वीकृत सामाजिक मूल्य के रूप में देखना चाहते थे| अंत:करण की शुद्धता से शुरू होने वाला यह अभियान एक दिन के लिए किया जाने वाला नाटक नहीं है। इस मानसिकता में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए जरुरी है कि साफ-सफाई की जिम्मेदारी समाज के एक खास वर्ग या सरकार पर डालकर स्वयं को कथित सभ्य समाज बनने की प्रवृति से मुक्त होने का संस्कार विकसित करना होगा | इसके लिए दंड और प्रोत्साहन की दोतरफा नीति को प्रभावी ढंग से अमल में लाए जाने की जरुरत है| एक ओर कूड़ा और गंदगी फैलाने वालों से सख्ती से निपटा जाना चाहिए तो दूसरी ओर स्वच्छता की संस्कृति की नींव स्कूलों और शिक्षा संस्थानों से ही डाली जानी चाहिए, तभी आने वाली पीढ़ी स्वच्छता को एक जीवन मूल्य के रूप में अपना सकेगी। गांधीजी ने भी स्वच्छता के लिए कठोर नियमों के पालन की वकालत की थी। दूसरी ओर यदि स्वच्छता की मानसिकता और हमारे स्वास्थ्य से उसके संबंध को हमारी शिक्षा-व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा बनाया गया होता तो लोगों के लिए गंदगी साफ करना अपमान नहीं, सम्मान की बात होती | साफ-सफाई को महज धार्मिक आयोजनों तक सीमित रहने न देकर उसे व्यापक सामाजिक आचरण के रूप में सुनिश्चित किया जाना चाहिए|