Monday 29 April 2019

राष्ट्रवाद चुनावी मुद्दा क्यों नहीं

लोकसभा चुनाव 2019 की प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही है और सियासी गर्मी बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे सभी राजीनीतिक दल कई तरह मुद्दों के बहाने अपने तरकश से तरह-तरह के वादों और मुद्दों को निकालने लगे है | चुनाव में किसी मुद्दे का प्रभाव जितना असरदार होता है बाजी भी उसी के पक्ष में जाती है। इन विभिन्न मुद्दों और मसलों के बीच यह बहस जोर पकड़ती जा रही है कि देश की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने जब अपने 5 वर्ष की विकास कार्य के साथ ही पुलवामा आतंकी हमले के बाद बालाकोट में की गई सर्जिकल स्ट्राइक और आतंकवाद से राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता देने की बात कही तो विपक्षी दलों से लेकर कतिपय बुद्धिजीवियों और मीडिया द्वारा यह आरोप भी लगाया जा रहा है कि राष्ट्रवाद को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया जा सकता है | इसके पीछे विरोधी दलों की दलील है कि राष्ट्रवाद हिंदुत्व की भावना का उग्र रूप है | 

प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रवाद के मुद्दे को देश की सुरक्षा से जोड़ते हुए कहा कि जो देश पिछले 40 वर्षों से आतंकवाद से जूझ रहा है और उस आतंकवाद से देश की जनता और जवान ही नहीं मारे जा रहे है, बल्कि देश की संप्रभुता को खतरा है तो क्या राष्ट्रवाद और सैनिकों का बलिदान भी उतने ही महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दे नहीं हैं जितना किसानों की मौत ? यदि कश्मीर में अलगाववादी करतूतें, भाषा और क्षेत्र के नाम पर अलग राज्य और राष्ट्र की मांग, नक्सलवाद यदि चुनावी मुद्दे हो सकते है, यदि किसानों की मौत और उनकी कर्जमाफी का झूठा आश्वासन चुनावी मुद्दा हो सकता है तो जो मुद्दा देश की सुरक्षा और संप्रभुता से जुड़ा है एवं जवानों की जिंदगी और मौत से जुड़ा है, वह चुनावी मुद्दा क्यों नहीं हो सकता है | जब किसान की मौत होती है तो वह चुनावी मुद्दा बन जाता है लेकिन जब एक सैनिक शहीद होता है तो वह चुनावी मुद्दा नहीं बन सकता ?

मौजूदा चुनाव में राष्ट्रवाद का मुद्दा तब अधिक अहम हो गया है जब देश में लंबे समय तक सत्ता में रहने पार्टी अपने चुनावी मेनिफेस्टों में भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए को ख़त्म करने और सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून 1958 में संशोधन करने, जम्मू-कश्मीर जैसे आतंकवाद और अलगाववाद से ग्रस्त राज्य में सशस्त्र बलों की तैनाती की समीक्षा करने और उनकी संख्या में कमी लाने, जम्मू-कश्मीर को आत्मनिर्णय का अधिकार देने और राज्य की बागडोर पुलिस के हाथ में सौंपने का आश्वासन देती है| इस तरह मजहबी तुष्टिकरण की अपनी पारम्परिक राजनीति के वशीभूत होकर राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता को ही कमजोर करने वाला आश्वासन यदि किसी पार्टी का चुनावी घोषणापत्र हो सकता है तो देश की सुरक्षा और अखंडता का मुद्दा चुनावी मुद्दा क्यों नहीं हो सकता है | अगर कांग्रेस देशद्रोह कानून खत्म करने की बात करती है तो जनता को यह बताया जाना आवश्यक है कि अगर इस तरह के कानून खत्म कर दिए जाते हैं तो देश पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा | इसमें कोई शक नहीं कि देश वर्षों से आतंकवाद, अलगाववाद और नक्सलवाद से आहत हो रहा है और कोई सरकार इन गतिविधियों पर सख्त कार्रवाई करके इनकी समाप्ति का दावा करती है तो यह उसकी एक बड़ी उपलब्धि है और अपनी इस उपलब्धि को जनता के बीच उसे ले जाने का अधिकार है | यदि देश को कमजोर करने और टुकड़े-टुकड़े करने का मुद्दा चुनावी मुद्दा हो सकता है तो देश की अखंडता को अक्षुण्ण रखने का मुद्दा भी चुनावी मुद्दा होना चाहिए |

लोकसभा का चुनाव देश के लिए एक लोकतांत्रिक सरकार के लिए होता है जो देश की सुरक्षा, एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार होती है | इस चुनाव में मोहल्ले की नाली और सड़क के गड्ढों की तुलना में व्यापक राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दे अहम होते है | केंद्र के चुनाव में रक्षा-नीति, आर्थिक-नीति, विदेश-नीति, आतंकवाद, नक्सलवाद,  महंगाई, नेशनल हाईवे जैसे मुद्दे अहम होते है, जो सीधे तौर राष्ट्रीय महत्त्व के होते है | अगर लोकसभा में चुनाव में हम मोहल्ले की नाली, शहर के नाले, सफाई व्यवस्था, स्ट्रीट लाइट, सड़क के गड्ढों पर वोट करेंगे, नगर निगम के चुनाव में क्या मुद्दा होना चाहिए | क्या पार्षदी के चुनाव में देश की रक्षा नीति और विदेश नीति पर मतदान किया जाता है ? देश की रक्षा नीति, आर्थिक नीति, विदेश नीति, आतंकवाद और नक्सलवाद को चुनावी मुद्दा होने के मतलब यह नहीं होता कि केंद्र की सरकार नगर निगम के मुद्दों के खिलाफ है | 

असल में राष्ट्रवाद को लेकर उन कथित सिक्यू-लिबरल बुद्धिजीवियों के पेट में ऐंठन हो रही है जो पश्चिमी मानसिकता से पोषित है जिसके अनुसार  राष्ट्रवाद एक खतरनाक, प्रतिगामी और विभाजनकारी विचार या भावना है | ये ऐसे लोग है जिन्होंने राष्ट्रवाद को भारतीयता के सन्दर्भ में देखने की कभी कोशिश नहीं की है | विडम्बना यह है कि जिस राष्ट्रवादी चेतना के बलबूते तह देश आजाद हुआ, आजादी के बाद से ही उदारवादी अभिजात वर्ग को वही राष्ट्रवाद शब्द अजीब लगता है। इनके भारत में राष्ट्रीयता जैसी अवधारणा कभी रही ही नहीं है | जाहिर है यह भी औपनिवेशिक मानसिकता की मान्यता है | इन सिक्यू-लिबरलों ने सदा ही देशभक्ति और राष्ट्रवाद के बीच अंतर किया है | वे मानते है कि देशभक्ति स्वभाव, दोनों सैन्य और सांस्कृतिक रूप, से रक्षात्मक होती है जबकि  राष्ट्रवाद सत्ता की इच्छा से प्रेरित होता है। प्रत्येक राष्ट्रवादी का उद्देश्य अधिक शक्ति और अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करना है| मेरा मानना है कि देशभक्ति राष्ट्रवाद में ही निहित होती है। एक राष्ट्र के बिना देशभक्ति का अस्तित्व नहीं हो सकता है, और एक राष्ट्र बिना राष्ट्रवाद के जीवित नहीं रह सकता है। यह आधुनिक विश्व के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है। राष्ट्रवाद ने आधुनिक राज्य प्रणाली को जन्म दिया और दुनिया भर में उपनिवेशवाद विरोधी स्वतंत्रता संघर्ष में राष्ट्रवाद ही मुक्ति का माध्यम बना था | आजादी के बाद सिक्यू-लिबरलों ने राष्ट्रवाद को नकारात्मकता, भाषावाद, धार्मिक और जातीय वर्चस्ववादियों के साथ जोड़ना शुरू कर दिया। ऐसा करते हुए, भारतीय राष्ट्रवाद की समृद्ध और समावेशी विरासत से खुद को काट लिया | यहाँ तक कि भारतीय राष्ट्रवाद को हिंदुत्व वर्चस्व की भावना से घालमेल करके सांप्रदायिक भी घोषित कर दिया | अब सवाल यह है कि यदि साम्प्रदायिकता चुनावी मुद्दा हो सकती है, यदि चुनावों में जाति और धर्म के समीकरणों के आधार पर गठबंधन किया जा सकता है तो राष्ट्र के नाम पर वोट मांगने का अधिकार किस आधार पर जायज नहीं है |
यदि राष्ट्र के ढांचे को मजबूत और सुरक्षित नींव पर खड़ा करना है तो अन्य कई पहलुओं की तरह राष्ट्रवाद का अहम स्थान होगा | यदि राष्ट्र मजबूत नहीं होगा तो जाति, धर्म, संप्रदाय, मजहब, भाषा, नस्ल, और क्षेत्र के सारे समीकरण धरे के धरे रह जायेंगे | जिन लोगों को भारत का राष्ट्रवाद हिन्दू राष्ट्रवाद का पर्याय प्रतीत होता है वे अभी भी आज़ादी से पहले की मजहबी राष्ट्रवाद की मानसिकता से ग्रस्त है और साथ ही कुछ ऐसे भी है जो अभी भी भारत को एक राष्ट्र मानने से परहेज करते है |