Tuesday 17 May 2022

हिंदी साहित्य में आत्मकथा

 जब कोई व्यक्ति अपने जीवन की घटनाओं का विवरण स्वयं लिखता है तो उसे आत्मकथा कहते हैं। वस्तुतः जब व्यक्ति राजनीति, साहित्य, विज्ञान, सामाजिक कार्य आदि में विशेष महत्व अर्जित करता है तब वह कलात्मक, साहित्यिक ढंग से अपनी जीवनी स्वयं लिखता है, जिसे आत्मकथा कहते हैं। लेखक अपने जीवन में घटित घटनाओं का क्रमिक ढंग से वर्णन कर, उन्हें सजीवता प्रदान करता है। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के शब्दों में–“आत्मकथा लेखक के अपने जीवन से सम्बद्ध वर्णन है, आत्मकथा के द्वारा अपने जीवन का सिंहावलोकन और एक व्यापक पृष्ठभूमि में अपने जीवन का महत्व दिखलाया जाना संभव है। साहित्य की इस विधा में लेखक वर्णनात्मक शैली में अपने जीवन का एक ऐसा क्रमिक ब्यौरा प्रस्तुत करता है जिससे कि न केवल उसके जीवन को संजीवनी प्रदान करने वाली मूल शक्ति का पता चलता है अपितु उसका अंतर्बाह्य व्यक्तित्व भी साकार हो उठता है। आत्मकथा लेखक के अतीत का लेखा-जोखा भर ही नहीं है, यह तो परिवेश विशेष में जिए गए क्षणों का पुनःसृजन है, इस कारण इसकी गणना सर्जनात्मक साहित्य के अंतर्गत की जाती है। चूँकि आत्मकथा में व्यक्ति अपने लम्बे जीवन-अनुभवों का निचोड़ प्रस्तुत करता है, अतः तत्कालीन समाज और परिवेश जीवंत हो उठता है।

प्राचीन साहित्य में आत्मकथा की परम्परा भले ही नहीं रही हो लेकिन ऐसा नहीं है कि कथाकारों ने आत्म वचन को नहीं अपनाया हो। हर्षचरित का वह आरम्भिक हिस्सा है, जिसमें रचयिता बाणभट्ट ने अपमान, वंचना और हताशा में भरे अपने बचपन, विद्यार्थी जीवन और शुरूआती युवावस्था की चर्चा की है। इसी तरह कुछ और नाम भी आते हैं जिनमें बिलहण (विक्रमांकदेव चरित), दण्डी (दशकुमारचरित) आदि प्रमुख हैं।

हिंदी साहित्य में आत्मकथा लेखन के तीन निश्चित चरण हैं

·         आरंभिक युग

·         स्वतंत्रता पूर्व युग

·         स्वातंत्र्योत्तर  युग 

आरंभिक युग

हिंदी साहित्य में आत्मकथा लेखन की शुरुआत सत्रहवीं शताब्दी में बनारसीदास जैनकी अर्द्धकथानक’  (1641ई.) से होती है, जो अपनी बेबाकी में चौंकाने वाली आत्मकथा से मानी जाती है। यह आत्मकथा पद्य में लिखी गयी है जिसमें बड़े ही तटस्थ भाव से अपने गुण और दोषों को बनारसीदास जी ने स्वीकार किया है । बनारसीदास की अर्द्धकथा के बाद एक लंबे कालखण्ड में आत्मकथा लेखन की दृष्टि से मौन मिलता है। इस लंबे मौन को स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सन् 1860 में अपने आत्मचरितसे तोड़ा है। दयानन्द सरस्वती जी का स्वकथित जीवन वृत्तान्त अत्यन्त संक्षेप में भी अपने वर्तमान तक पहुंचने की कथा का निर्वाह निजी विशिष्ट चेतना के साथ करता है।

भारतेंदु ने अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से इस विधा का भी पल्लवन किया। उनकी स्वयं की आत्मकथा ‘एक कहानी: कुछ आपबीती कुछ जगबीतीका आरंभिक अंश प्रथम खेलशीर्षक से प्रकाशित हुआ था। उनकी संक्षिप्त-सी आत्मकथा की भाषा आम-बोलचाल के शब्दों से निर्मित हुई है, जो एक तरह से बाद की आत्मकथाओं के लिए आधार-दृष्टि का काम करती है। अपना परिचय देने के क्रम में आत्मकथाकार ने अपनी सहृदयता का यथेष्ट प्रमाण दिया है-

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भारतेंदु के अतिरिक्त इस काल के आत्मकथाकारों में सुधाकर द्विवेदी कृत रामकहानीऔर अंबिकादत्त व्यासकृत निजवृतांतको महत्वपूर्ण माना जा सकता है। कलेवर की दृष्टि से इन आत्मकथाओं को भी संक्षिप्त कहा जा सकता है।

·     स्वतंत्रता पूर्व युग

सत्यानंद अग्निहोत्री कृत मुझमें देव जीवन का विकासका पहला खण्ड सन् 1909 में और दूसरा खण्ड सन् 1918 में प्रकाशित हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने आर्यसमाज के प्रचार की प्रतिस्पर्द्धा में देव-समाज के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने हेतु इस ग्रन्थ को रचा था। आस्तिकता और वैदिक विचारधारा का खण्डन इस आत्मकथा का प्रमुख हिस्सा है। सन् 1921 में भाई परमानंदकी आत्मकथा आपबीतीप्रकाशित हुई। इसे किसी क्रांतिकारी की प्रथम आत्मकथा माना जा सकता है। स्पष्टवादिता, सच्चाई के लिए प्रसिद्ध, वैदिक धर्म के सच्चे भक्त परमानन्द की आपबीती का अपनी तत्कालीन राजनीतिक स्थिति में एक विशेष राजनीतिक महत्त्व है। सन् 1924 में स्वामी श्रद्धानंद की आत्मकथा कल्याणमार्ग का पथिकप्रकाशित हुई। इसमें उन्होंने अपने जीवन संघर्षों और आत्मोत्थान का वर्णन किया है। 

सन् 1932 में मुंशी प्रेमचंद ने हंसका एक विशेष आत्मकथा-अंक सम्पादित करके अपने यहाँ आत्मकथा विधा के विकास की एक बड़ी पहल की थी। 1941 में प्रकाशित आत्मकथा मेरी आत्म कहानीके आत्मकथाकार प्रसिद्ध साहित्यकार श्यामसुन्दर दास हैं। सम्पूर्ण कृति में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना, विकास, गति, तत्कालीन हिन्दी और हिन्दी की स्थिति की चर्चाएँ हैं। सन् 1942 ई. में बाबू गुलाबराय की आत्मकथा मेरी असफलताएँशीर्षक से प्रकाशित हुई। यह आत्मकथा अत्यन्त ही रोचक एवं व्यंग्य-विनोदपूर्ण है, साथ ही लेखक के व्यक्तित्व, चरित्र, कार्यक्षमता पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रकाश डालती है।

20वीं शती के चौथे दशक में ही महात्मा गांधी ने आत्म-दर्शनकी अपनी जीवनव्यापी कोशिशों को आत्मकथा का रूप दिया, जिसे उन्होंने सत्य के प्रयोगकी संज्ञा दी। मूल रूप से यह आत्मकथा गुजराती में थी जो अनुदित होकर बाद में हिन्दी में भी प्रकाशित होती है। गांधीजी इस बात से सहमत थे कि आत्मकथा लिखने का पश्चिमी ढंग अनिवार्यतः आत्म-केन्द्रित और अहम्मन्यतापूर्ण है। परन्तु गांधी ने अपने व्यक्ति या मैंके बजाय आत्माको आत्मकथा के केन्द्र में लाकर इन पाश्चात्य विकृतियों का प्रतिकार किया। सही मायने में गाँधीजी ने आत्मकथा का भारतीयकरण किया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि भारतीय जनता उनके जीवन-विश्वास और जीवन व्यवहार का अन्धानुकरण न करे, क्योंकि उनकी बातें अन्तिम और सचनहीं है। सत्य को उन्होंने पाया नहीं है, बल्कि उसे पाने की निरन्तर अथक कोशिश की है|

हरिभाऊ उपाध्याय की आत्मकथा साधना के पथ पर1946 ई. में प्रकाशित हुई, जिसमें लेखक ने 1842 से 1945 तक के जीवनानुभवों को लिपिबद्ध किया है। राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा पांच खण्डों में मेरी जीवन यात्राशीर्षक से प्रकाशित हुई। आत्मकथा में राहुल सांकृत्यायन के जीवन के 62 सालों का चित्रण है तथा दक्षिण भारत की यात्रा, मठ का आश्रय, आर्य समाज से सम्पर्क, महात्मा गाँधी के प्रभाव, लंका, तिब्बत, जापान, रूस व यूरोप आदि की यात्रा, किसान सत्याग्रह, जेलयात्रा, बौद्ध धर्म व साम्यवाद से प्रभावित होने की कथा है। इस विशाल और व्यापक आत्मकथा में लेखक की साहित्यिक अभिरुचियों, वैयक्तिक गुण-दोषों, अनुभूतियों, भावनाओं, यात्राओं तथा विशिष्ट उपलब्धियों का विस्तृत वर्णन हुआ है। स्थान-स्थान पर उनकी रचनाधर्मिता, रचना-प्रक्रिया तथा लेखन स्रोतों का भी उल्लेख है।

स्वातंत्र्योत्तर  युग

स्वातंत्र्योत्तर  युग में आत्मकथा लेखन में काफी तेजी आई | 1947 में प्रकाशित बाबू राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथामें लेखक के बचपन के तत्कालीन सामाजिक रीति-रिवाजों का, संकुचित प्रथाओं से होने वाली हानियों का, तत्कालीन गँवई जीवन का, धार्मिक व्रतों, उत्सवों और त्यौहारों का, शिक्षा की स्थितियों का हू-ब-हू चित्र अंकित है। 1951 में प्रकाशित स्वामी सत्यदेव परिव्राजक की स्वतंत्रता की खोज में, अर्थात् मेरी आत्मकथाहिन्दी की अत्यन्त महत्वपूर्ण आत्मकथा है। स्वतंत्रता की खोज में भटकते पथिक की यह कथा मानवता से जुड़ी आत्मा की छटपटाहट एवं तत्कालीन भारतीय राजनीतिक स्थितियों से सम्बद्ध है। यशपाल की आत्मकथा सिंहावलोकनउनके उपन्यासों की भाँति रोचक और मर्मस्पर्शी है। सेठ गोविंददास की आत्मकथा के तीन भाग प्रयत्न, प्रत्याशा और नियतारितहै और चतुरसेन शास्त्री की दो आत्मकथाएं: यादों की परछाइयां’ (1956), तथा मेरी आत्म कहानी’ (1963) है | छठे दशक के प्रारम्भ में ही पाण्डेय बेचन शर्मा उग्रकी आत्मकथा अपनी खबरप्रकाशित हुई। पाण्डेय बेचन शर्मा उग्रने मुक्तिबोध के से आत्मीय और आकुल आवेग के साथ अपनी अजीब जिंदगी में आए कुछ प्रमुख व्यक्तियों के चरित्र की गहरी छानबीन की है।

लोकप्रियता में महात्मा गांधी और पण्डित नेहरू के बाद हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा आती है जिनकी क्या भूलूँ क्या याद करूँ(1969 ई.),नीड़ का निर्माण फिर(1970 ई.), बसेरे से दूर(1977ई.) और दशद्वार से सोपान तक(1985 ई.)  ने गद्य की इस विधा के लेखन में नवीन कीर्तिमान स्थापित किए हैं। अत्यंत विस्तृत होने के बावजूद बच्चन जी की आत्मकथा की विशेषता उसका सुव्यवस्थित होना है। उनके बाद प्रकाशित आत्मकथाओं में वृन्दावनलाल वर्मा की अपनी कहानी’ ( (सन् 1970), देवराज उपाध्याय की यौवन के द्वार पर’ (सन् 1970), शिवपूजन सहाय की मेरा जीवन’ (सन् 1985), प्रतिभा अग्रवाल की दस्तक ज़िंदगी की’ (सन् 1990) और भीष्म साहनी की आज के अतीत’ (सन् 2003) प्रकाशित हुई। देश विभाजन की त्रासदी को भीष्म साहनी ने जीवंत भाषा में चित्रित किया है। उनकी शैली मर्मस्पर्शी है।

समकालीन आत्मकथा साहित्य में दलित आत्मकथाओं का उल्लेखनीय योगदान है। ओमप्रकाश बाल्मीकि की जूठन’, मोहनदास नैमिशराय की अपने-अपने पिंजरेऔर कौशल्या बैसंत्री की दोहरा अभिशाप, तुलसीराम की मुर्दहियाऔर मणिकर्णिका’, श्यौराज सिंह बैचेनकी मेरा बचपन मेरे कंधों परआत्मकथाएँ इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण पहल है जो कहीं-न-कहीं इसके उज्जवल भविष्य की ओर इशारा करती है। दलित आत्मकथाओं के बारे में ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं, “किसी भी दलित द्वारा लिखी आत्मकथा सिर्फ उसकी जीवनगाथा नहीं होती, बल्कि उसके समाज की जीवनगाथा भी होती है। लेखक की आत्म अभिव्यक्ति होती है। उसके जीवन के दुःख, दर्द, अपमान, उपेक्षा, आत्मकथा उसकी जाति एवं समाज के दुःख-दर्द और अपमान-उपेक्षा इत्यादि को भी स्वर देता है।

वर्तमान समय में महिला रचनाकारों ने इस विधा को गहरे सामाजिक सरोकारों से जोड़ा है। इस संदर्भ में मैत्रेयी पुष्पा की कस्तूरी कुण्डल बसैका नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं| शिकंजे का दर्दसुशीला टाकभौरे की आत्मकथा नारी के शोषण के विरुद्ध संघर्ष की गाथा है।