साम्प्रदायिकता आधुनिक भारतीय समाज की
एक गंभीर परिघटना है। भीष्म साहनी हिंदी के उन रचनाकारों में से हैं जिनकी रचनाओं
में साम्प्रदायिकता जैसे सामाजिक समस्याओं की असलियत को पहचानने और उससे संघर्ष
करने की कोशिश लगातार बनी रहती है। अंग्रेजों ने अपनी सता को बनाए रखने हेतु
हिन्दू व मुसलमानों में फूट डालने के लिए दोनों सम्प्रदायों के हितों की टकराहट को
हवा दी, जिसकी परिणति भारत विभाजन, भीषण सांप्रदायिक दंगे और लाखों लोगों के
निर्मम विस्थापन के रूप में हुई | भीष्म साहनी स्वयं इस अनचाही और जबरन थोपी गई विभीषिका के
गवाह रहे है जिन्हें अपना रावलपिंडी छोड़कर दिल्ली आना पड़ा था | उन दृश्यों ने न
केवल साहनी की ज़िंदगी को प्रभावित किया बल्कि उनके साहित्य सृजन पर भी उसका गहरा
असर दिखता है | विडंबना यह
है कि आजादी के बाद हमारे देश के राजनीतिक दलों ने कभी वोट बैंक की राजनीति या कभी
तुष्टिकरण के द्वारा इसका घृणित उपयोग करना जारी रखा हैं। ऐसी स्थिति में साम्प्रदायिकता
पर भीष्म साहनी द्वारा कलम का चलाया जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है और वे साम्प्रदायिकता
और सांप्रदायिक मानस की अचूक पहचान करने में समर्थ रचनाकार साबित हुए है | इसी
तथ्य को लक्षित करते हुए हिन्दी के प्रतिष्ठित समीक्षक और आलोचक नामवर सिंह का
मानना है कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी भीष्म साहनी की तुलना किसी अन्य लेखक से नहीं
की जा सकती|
साम्प्रदायिकता और विभाजन की
विभीषिका को लेकर हिंदी-उर्दू में अनेकों रचनायें हुई हैं| सबकी अपनी
विशिष्टता है|
लेकिन
भीष्म साहनी जैसा सूक्ष्म रेखांकन और व्यापक प्रभाव वाली रचनायें अत्यल्प है| इसकी
सबसे बड़ी वजह साम्प्रदायिकता के कारणों और उसके वीभत्स प्रभाव को महज देखा ही नहीं
बल्कि स्वयं उसके दंश को उन्होंने झेला है| खूनी साम्प्रदायिक दंगे, शरणार्थियों
के काफ़िले, विस्थापन की समस्या और घृणा का जहर किसी न किसी रूप में उनकी चेतना को
कचोटता रहा है | इसलिए उनकी रचनाएँ साम्प्रदायिकता का सिर्फ़ निषेध नहीं करतीं, बल्कि उनके
कारणों की तह तक जाती हैं और उस साजिश की भी पहचान करती हैं जिसे राजनीति और धर्म
की जुगलबंदी अंजाम देती हैं और साम्प्रदायिकता की सच्चाई को बेनकाब करती है| ‘अमृतसर
आ गया है’, ‘पाली’, जैसी कहानियाँ, ‘तमस’ जैसा
उपन्यास और ‘आलमगीर’, ‘मुआवजे’, हानूश और ‘कबीरा खड़ा बाजार
में’ जैसे नाटक में किसी भी प्रकार के पक्षपात तथा पूर्वाग्रह से दूर हटकर भीष्म साहनी ने दंगा एवं
साम्प्रदायिकता की असलियत को बेनकाब किया है| वे एक ऐसे साहित्यकार हैं जो समस्या
को मात्र कह कर नहीं छोड़ देते बल्कि उसकी सच्चाई का पर्दाफाश करना भी अपनी
जिम्मेदारी समझते हैं|
‘तमस’
का आधार
भीष्म साहनी के जीवन के कुछ सच्चे अनुभव है | 'तमस' की कथा परिधि में अप्रैल 1947 के समय के रावलपिंडी
को परिवेश के रूप में लिया गया है। काल-विस्तार की दृष्टि से 'तमस' की केवल पाँच दिनों की कथा में सांप्रदायिकता के
विभिन्न प्रसंग, संदर्भ और पहलू जिस तरह से उदघाटित होते जाते हैं, उससे यह पांच
दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के लगभग सौ वर्षो की कथा हो जाती है। भीष्म साहनी
ने आजादी के समय देश विभाजन की त्रासदी के साथ साम्प्रदायिक दंगों की विभीषिका को
आधार बनाकर इस समस्या का सूक्ष्म विश्लेषण किया है और उन मनोवृत्तियों को उघाड़कर
सामने रखा है जिसका शिकार निर्दोष और गरीब लोग, जो न हिन्दू हैं, न मुसलमान
बल्कि सिर्फ इन्सान हैं, हुए है| ‘तमस’
में साहनी ने
साम्प्रदायिकता के साये तले राष्ट्रीय कांग्रेस की समझौतापरस्त नीति को रेखांकित
करने की कोशिश की है। उस समय कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता से संघर्ष करने के बजाय समझौता
करने की जो नीति अपनायी, बाद के वर्षों में भी वहीँ उसका चरित्र बन गया | ‘तमस’
का जनरैल
हिन्दुस्तान की एकता एवं अखंड़ता को अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है,
और साम्प्रदायिकता
के लिए अन्य कारणों सहित कांग्रेस को भी जिम्मेदार ठहराता है |
यह सच है कि अंग्रेजों की ‘फूट
डालो, शासन करो’ भारत में साम्प्रदायिकता की मूल जड़ है| लेकिन इस जड़ के भारत से
उखड़ जाने के बाद भी साम्प्रदायिकता का अंत नहीं होता बल्कि यह भारतीय समाज का अंग
बन जाता है| ‘तमस’ में साहनी उन कारकों की ओर भी संकेत करते है जिसके कारण साम्प्रदायिकता
भारतीय समाज और सियासत की त्रासदी बन जाती है | भारतीय समाज में साम्प्रदायिकता
धर्म के प्रति नकारात्मक सोच की देन है जो यह स्थापित करती है कि विभिन्न धर्मों,
सम्प्रदायों या मजहब के आर्थिक और सामाजिक हित एक समान नहीं होते है| ‘तमस’ में साहनी
ने दंगा के कारणों में सामाजिक-आर्थिक कारण को ही अहम माना है | मस्जिद के सामने
सूअर मरवाकर रखनेवाला कोई हिन्दू नहीं बल्कि वह मुसलमान है | जब अमन कमेटी बनाकर
सांप्रदायिक हिंसा ख़तम करने की अपीलें की जाती हैं तो वही आदमी अमन के नारे लगाता
मिलता है जिसने दंगा शुरू करवाया था। इससे प्रमाणित होता है कि दंगा का कारण धर्म
नहीं है बल्कि धर्म तो हाथी के सिर्फ दो दिखावटी दांत की तरह है| कट्टर
या साम्प्रदायिक व्यक्ति की शत्रुता दूसरे धर्म के कट्टर और साम्प्रदायिक व्यक्ति
से नहीं होती बल्कि अपने ही धर्म को मानने वाले उदार व्यक्ति और सच्चे धार्मिक से
होती है। साम्प्रदायिकता
का धर्म से गहरा ताल्लुक होते हुए भी धर्म उसकी उत्पति का कारण नहीं है। किसी समाज
में विभिन्न धर्मों के होने मात्र से ही साम्प्रदायिकता पैदा नहीं होती| ‘तमस’ में
साहनी का संकेत है कि साम्प्रदायिकता की असली वजह भौतिक स्वार्थ है
जिससे धर्म का कोई लेना देना नहीं होता है और साम्प्रदायिक लोग अपने भौतिक
स्वार्थों जैसे राजनीति, सत्ता, व्यापार आदि के
लिए समाज में उन्माद और नफ़रत फैलाते है| असल में साम्प्रदायिकता राजनैतिक
और आर्थिक हितों से जुड़ा हुआ है। साम्प्रदायिकता को फैलाने वाले
स्वार्थी लोग इतने चालाकी से इस काम को करते हैं कि उन स्वार्थी-साम्प्रदायिक
लोगों के भौतिक स्वार्थ लोगों को अपने आध्यात्मिक हित नजर आएं और वे इसके लिए धर्म
का सहारा लेते हैं। भीष्म साहनी बताते हैं कि दंगे कभी स्वत: स्फूर्त कभी नहीं
होते बल्कि संस्थाओं द्वारा प्रायोजित होते है |
पूरे उपन्यास में भीष्म साहनी स्वयं
को सामान्य जनता के स्तर पर रखकर लेखन किया है | आम जनता चाहे वह हिन्दू हो या
मुसलमान, चाहे वह गाँव की है शहर की, चैन की जिंदगी जीना चाहती है। लेकिन
सांप्रदायिक वैमनस्य की आग किस प्रकार सामान्य मनुष्य को पूर्णतः जला डालती है, ‘तमस’
में इसका सटिक चित्रण हुआ है | गांव के सारे लोग चाहे वे किसी भी जाति या
सम्प्रदाय के क्यों न हों, आपस में सहानुभूति तथा प्रेम के साथ
जीना चाहते हैं। लेकिन परिस्थितियों के दबाव में उनके आपसी स्नेह सूत्र टूटते-विखरते
चले जाते हैं | हर व्यक्ति चाहे वह हिन्दू हो मुसलमान अपना घर छोड़ते यही सोच रहा
था कि वह इसे सदा के लिए थोड़े ही छोड़ रहा है। जाहिर है,
आम जनता
साम्प्रदायिक नहीं होती शांति चाहती है।
साहनी द्वारा दंगा के कारणों में
सामाजिक-आर्थिक कारकों को महत्वपूर्ण माने जाने और उनके वामपंथी रूझान को देखते
हुए कुछ
विचारकों ने ‘तमस’ को मार्क्सवाद से जोड़कर देखने की जरूरत पर जोर
दिया है| उनका मानना है कि ‘तमस’ में वर्ग संघर्ष है। आदमी को कत्ल करने से ज्यादा मकानों को लूटा
जाता है। यह सब वैसे लोग करते हैं जिनका एकमात्र उद्येश्य लोगों को लूटना होता है।
स्पष्ट है, साम्प्रदायिकता धर्म और सम्प्रदाय का नहीं
आर्थिक हितों का सवाल है। वामपंथी विचारधारा से प्रभावित होने के कारण भीष्म साहनी
द्वारा साम्प्रदायिकता के मूल में केवल आर्थिक कारकों का निहित मानना स्वाभाविक है|
वे साम्प्रदायिकता समस्या की जटिलता से अनभिज्ञ नहीं थे और उन्होंने साम्प्रदायिकता
के बहाने देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कुरूपताओं को प्रखरता से
उजागर किया है| किन्तु वे शायद यह देखने में चूक कर जाते है कि जब राष्ट्रवादी
शक्तियां कमजोर पड़ती हैं तो साम्प्रदायिक शक्तियां स्वयं को राष्ट्रवादी घोषित
करके उनका स्थान लेने की कोशिश करती हैं और कई बार कामयाब भी हो जाती हैं। वामपंथी
सिद्धांतों के अंतर्गत विकास की प्रक्रिया को आर्थिक हितों का टकराव से देखने की कोशिश की जाती है | साम्प्रदायिकता सामाजिक और आर्थिक विकास की प्रक्रिया
नहीं है| इसके बरक्स जिन राष्ट्रों ने धर्म को सर्वोच्चता प्रदान की है, वह आर्थिक
हितों के टकराव का अधिक शिकार हुआ है, परिणामतः आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन से
अभिशप्त होता गया है| वर्तमान समय में देश के विभिन्न हिस्सों में नक्सलवाद के
विस्तार के मूल में उन इलाकों के आर्थिक पिछड़ेपन को माना जाता रहा है | लेकिन
सच्चाई है कि सरकारें जब उन इलाकों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए
आधारभूत संरचना (बिजली, सड़क, स्कूल, हॉस्पिटल और मोबाइल टावर आदि) स्थापित करने की
कोशिश करती है तो नक्सली उन प्रतिष्ठानों को नष्ट कर देते है | तात्पर्य है कि सब
कुछ आर्थिक कारण नहीं होता है | वास्तव में साम्प्रदायिक
शक्तियां संस्कृति और धर्म के तत्वों को आपस में घालमेल करती है और धर्म को
संस्कृति से श्रेष्ठ या ऊपर मानती है जबकि धर्म संस्कृति का एक अंश मात्र है|
‘तमस’ में भीष्म साहनी संस्कृति
और धर्म को एक दूसरे के पर्याय के तौर पर प्रयोग करके भ्रम पैदा करने की कोशिश के
साथ ही साम्प्रदायिकता के कारण संस्कृति के खंडित होने पर नजर तो रखते है लेकिन
साम्प्रदायिकता के उत्स में केवल आर्थिक कारकों को मान लेना उनके वैचारिक
आग्रह को ही दर्शाता है | इसके उलट इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है साम्प्रदायिकता
की मानसिकता के उभार के साथ ही आर्थिक
हितों के टकराव भी प्रबल होता जाता है| अर्थात् यह उतना ही सच है कि साम्प्रदायिकता
अपने पीछे आर्थिक हितों के टकराव को लेकर आती है |
‘तमस’
में आज़ादी से कुछ पहले और कुछ बाद की साम्प्रदायिकता केंद्र में है | लेकिन भीष्म
साहनी ने आज़ादी के वर्षों बाद भारतीय समाज और राजनीति में स्थायी तौर अपना स्थान
सुरक्षित कर चुकी साम्प्रदायिकता का भी पर्दाफाश किया है | ‘आलमगीर’ नाटक में भीष्म साहनी ने मुगल सम्राट औरंगजेब के माध्यम से वर्तमान
भारतीय राजनीति के साम्प्रदायिक चरित्र को पहचानने की कोशिश की है। यह एक साथ
सत्ता और व्यक्ति के कट्टर होने पर उसकी पतन की अनिवार्य नियति को दर्शाता है। औरंगजेब
और दारा शिकोह धार्मिक कट्टरता और उदारता के प्रतिनिधि हैं। वे मात्र दो
व्यक्तित्व नहीं, बल्कि
दो जीवन-दृष्टियाँ हैं। औरंगजेब संस्थागत धर्म का प्रतिनिधित्व करता है।
साम्प्रदायिक-उन्मादी शक्तियां संस्थागत धर्म को अपनाती हैं| इस्लाम के मूल्यों से
उसका वास्ता नहीं है| इस्लाम और अल्लाह उसकी राजनीतिक स्वार्थ और पैतरेबाजी का
हिस्सा है, वह अपने
हर अमानवीय कृत्य को खुदा के नाम पर वैध ठहराता है। साम्प्रदायिक-उन्मादी शक्तियां
संस्थागत धर्म को अपनाती हैं तथा धर्म के मानवीय पहलुओं से उसका कोई सरोकार नहीं
होता। दीन का शासन स्थापित करने की बात की जाति है, लेकिन इस्लाम के मूल्यों से उसका वास्ता नहीं होता । औरगंजेब के लिए रिश्ते-नाते, इंसानियत या मानवीय संवेदनाओं का कोई
मूल्य नहीं है| वह भारतीय इतिहास का एक ऐसा पात्र है जो
भारत की बहुलतावादी संस्कृति पर कठिन प्रहार करते हुए धार्मिक असहिष्णुता की सारी सीमाओं
को पार कर जाता है।
भीष्म साहनी ‘मुआवजे’ और ‘कबीरा
खड़ा बाजार में’ भी साम्प्रदायिकता
की समस्या से टकराते हैं। ‘कबिरा
खड़ा बजार में’ कबीर
की आध्यात्मिक ऊँचाई एवं समर्थ कवि व्यक्तित्व के बरक्स उनके समकालीन राजसत्ता एवं
समाजसत्ता के उस अविवेकी, दुराग्रही, अहंग्रस्त एवं असहिष्णु स्वरूप को
उजागर करते है समाज में साम्प्रदायिक विभेद को पोषित और सिंचित करते रहते हैं |
यही नहीं साहनी ने कबीर के क्रान्तिदर्शी सामाजिक पक्ष के बरक्स तत्कालीन समय और
समाज ही नहीं बल्कि अपने भी समय समाज की चेतना, द्वन्द्व एवं विद्रूप को अभिव्यक्त कर दिया है । कबीर के बहाने भीष्म
साहनी ने सत्ता के विरुद्ध विशेष रुप से धार्मिक सत्ता, धर्म के आडम्बर, ढोंग, धर्म के नाम पर ठगी,
सबका विरोध किया। वे कबीर की बातों के माध्यम से जनता तक सन्देश
पहुंचाते है कि ‘मजहब’ इंसानों के बीच का आपसी सद्भाव नष्ट कर
रहे हैं। कबीर के साथ समाज जुड़ जाता है और इसलिए उनकी आवाज़ समूह की, समाज की आवाज़ बन जाती है। यह नाटक इसी
युग चेतना की प्रस्तुति है|
‘मुआवज़े’ नाटक का ताना–बाना स्वातन्त्र्योत्तर भारत में साम्प्रदायिक दंगे भड़कने की आशंका के
बीच राजनीति, प्रशासन, आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न वर्ग, अपराधी और नागरिक समाज किस प्रकार इस
तनावपूर्ण स्थिति का सामना करते हैं, इसी यथार्थ को आधार बनाकर बुना गया है । यहाँ तमस की ही वेदना का
विस्तार नाटक ‘मुआवजे’ में होता है जिसमें सियासती तिकड़मों पर करारा व्यंग्य है और
साथ ही उसके साये में मानवता की कराहटें शिद्दत से उभरती हैं| विभाजन का दंश झेलने वाले भीष्म साहनी
ने जिस स्वतंत्र एवं समरसतापूर्ण भारतीय समाज की कल्पना की थी, वह आज़ाद भारत के
बाद भी पूरी होती नहीं दिखी | इस नाटक की घटनाएँ दंगे के बाद मिलने वाले मुआवज़े के
चारों तरफ घूमती हैं और इसी के साथ नेताओं, अफसरों, व्यापारियों, दलालों, अपराधियों और जनता की बदलती
मनोवृत्ति की भी गहराई से पड़ताल करती है जो छोटे–छोटे स्वार्थों के लिए तरह–तरह की चालाकियाँ बुनती रहती है । यह वह वर्ग है जिसे दंगा होने का
इंतजार रहता है | दरअसल दंगा एक ऐसा अवसर है जिसमें राजनीति को चमकाने, चुनाव में उसकी फसल काटने, कालाबाजारी
करने और लूट–खसोट
करने का सुनहरा मौका मिलता है| इसलिए राजनीतिक दल और नेता से लेकर सरकारी अधिकारी,
दलाल, व्यापारी और गुण्डे तक सभी एक दूसरे का भरपूर सहयोग करते है| ‘मुआवज़े’ के पहले दृश्य में कमिश्नर को टेलीफोन पर निर्देश देते दिखाया गया है
। वह कह रहा है कि -‘अगर
हालात इसी तरह बिगड़ते गये तो सोमवार तक दंगा हो जाना चाहिए’ ।––––‘अबकी बार दंगा ज़बर्दस्त होगा’ .........‘उम्मीद है, सोमवार तक दंगा हो जाएगा’ | यानी, दंगा कराने की योजना पहले से
बना ली गयी है जिसमें मन्त्री, अफसर,
व्यापारी और गुण्डे सही शामिल हैं| सेठ को अपनी फैक्टरी से जुड़ी सरकारी जमीन पर
कब्जा करना है जो अफसरों तथा गुण्डों के सहयोग के बिना नहीं हो सकता है। इसके लिए
उसे दंगे का शिद्दत से इंतजार है और उसे भी पक्का यकीन है कि ‘दंगा होकर रहेगा’ । यही नहीं, दंगा होने से पहले ही मुआवज़ा
देने की तैयारी कर ली गयी है, ताकि मुआवजे के नाम पर लूट–खसोट का बंदर-बाँट किया जा सके | यह इक्कीसवीं सदी के भारत के लोकतान्त्रिक समाज एवं व्यवस्था का
ज्वलन्त सच है जो भीष्म साहनी की सर्जनात्मक दृष्टि में रच–बस कर अपनी पूरी विद्रूपता
के साथ अभिव्यक्त हुआ है ।
साम्प्रदायिकता व्यक्ति के मन-मस्तिष्क
को किस प्रकार प्रभावित करती है कि एक परिवेश में जिस व्यक्ति में भय होता है वही
भय परिवेश बदलते ही हिंसा में परिणत हो जाता है | भीष्म साहनी “अमृतसर
आ गया” जैसी कहानी के आधार पर आम आदमी की मानसिकता पर साम्प्रदायिकता के
कब्जा करते जाने और उसकी वीभत्स परिणति का मार्मिक चित्रण करते है | “अमृतसर
आ गया” में
गाड़ी जब हिन्दू बहुल इलाके में प्रवेश करती है तो दुबले बाबू का भयातुर चेहरा
क्रूर हो जाता है| कहानी में वजीराबाद एक प्रतीक है मुस्लिम बहुल
इलाके और साम्प्रदायिक सोच का और अमृतसर एक दूसरा प्रतीक है हिंदू बहुल इलाके और साम्प्रदायिक
सोच का | इन दोनों धरातलों पर साम्प्रदायिक सोच का स्तर अलग-अलग होता है | साम्प्रदायिक
सोच का एक स्तर तब देखने को मिलता है जब गाड़ी वजीराबाद रेलवे स्टेशन से निकलती है
और पठानों की अन्तश्चेतना में हिंदू-मुस्लिम दंगों के दौरान विकसित तनाव मौजूद है
और इसीलिए वे एक ओर दुबले बाबू का उपहास करते हैं। उसे दाल पीने वाला कहते हैं और
दूसरी गरीब हिंदू औरत की छाती पर लात मारकर संतोष महसूस करते हैं। कहानी में दूसरा
स्तर तब
देखने को मिलता है जब गाड़ी हरबंसपुरा से निकलकर अमृतसर की ओर जाती है जो हिंदू और
सिक्ख बहुल शहर है और जहाँ दुबला बाबू साम्प्रदायिक उन्माद से ग्रस्त हो जाता है
और अंतत: उसका क्रूर चेहरा सामने आता है। दरअसल अमृतसर आते ही दुबले बाबू में
अचानक ऊर्जा और शक्ति का आ जाना हमारी सामूहिक सोच और सामाजिक स्थितियों का द्योतक
है। साम्प्रदायिकता का जहर सामूहिक शक्ति बनकर हमारी चेतना का नाश करता है और
मनुष्य को विवेकहीन बनाता है। हत्या करके दुबले बाबू का मुस्कराना साम्प्रदायिक
वीभत्सता को और अधिक बढ़ाता है। साम्प्रदायिक मानसिकता का जितना गहरा
और सूक्ष्म चित्रण भीष्म जी की कहानियों में देखने को मिलता है उतना शायद किसी
अन्य कथाकार की कहानियों में नहीं।
‘पाली’, ‘माता
विमाता’ और ‘वांग्चू’ जैसी कहानियाँ भी सभी प्रकार की कट्टरता के खिलाफ मानवीय मूल्यों को
स्थापित करती हैं। उन्हें साम्प्रदायिकता एक बड़ी समस्या लगती है क्योंकि इसके कारण
हमारा समाज विखरता जा रहा है जिसे समाप्त किए बिना कोई भी देश और समाज प्रगति की
राह पर बढ़ नहीं सकता है | ‘पाली’ में परस्पर विरोधी साम्प्रदायिक मानसिकता के कारण एक बच्चे की
मन:स्थिति का बड़ा सूक्ष्म और मार्मिक अंकन किया गया है| सांप्रदायिक मानसिकता का चित्रण करते
समय भीष्म जी उन स्थितियों व कारणों का उल्लेख नहीं करते जिनके कारण ऐसी मानसिकता
बनी बल्कि उस मानसिकता की विद्रूपता का संकेत करते हैं और बताते हैं कि यह
मानसिकता किस तरह पूरे समाज के लिए घातक है। ‘माता विमाता’
मातृभूमि के विभाजन के बहाने माँओं के भी बंट जाने की मर्मस्पर्शी कहानी है |
आज फिर हमारे समाज में सांप्रदायिक
ताकते बहुत तेजी से सक्रिय हो गर्इ हैं। सांप्रदायिक सोच हमारे सामने एक विकराल
रूप में आज भी है। असहिष्णुता, असंवेदनशीलता
और संकीर्णता हमारे समय और समाज में फिर से व्याप्त हो रहे हैं। वर्तमान समय में
तमाम मीडिया समूह जिस तरह से घटनाओं और ख़बरों को जाति, धर्म, संप्रदाय और मजहब के
खांचों में बांटकर परोसते है, लगातार परोसते है उससे आम आदमी की मानसिकता का
प्रभावित होना स्वाभाविक है | कुछ मीडिया समूह ही नहीं बल्कि कुछ तथाकथित
बुद्धिजीवी और महत्वाकांक्षी मुसलमान नेता तो किसी संप्रदाय विशेष की घटनाओं को
लेकर इतने सेलेक्टिव हो जाते है कि संप्रदाय विशेष के किसी भी सदस्य के साथ होने
वाली मारपीट को भी वे सांप्रदायिक फसाद के रूप में परोस देते है जो मनुष्यता के
प्रति जघन्य अपराध है | यही नहीं, आज सोशल मीडिया की भूमिका कम खतरनाक नहीं है,
जहाँ एक सोची समझी साज़िश के तहत साम्प्रदायिक विचारों का प्रसार किया जा रहा है | भीष्म
साहनी की यह रचनाएँ हमें ताकीद करती है कि मौजूदा समय में देश की सामासिक संस्कृति
को बचाए रखने के लिए ऐसी साम्प्रदायिक मानसिकता के प्रवाह को रोकने की जरुरत है |
समग्रता में देखें तो भीष्म साहनी एक
जिम्मेदार रचनाकार रहे हैं | इसलिए मानव की समस्त श्रेष्ठ और उज्जवल संस्कृति को
धूमिल करने वाली धार्मिक कट्टरताओं, संकीर्ण धार्मिक दृष्टियों, क्रूर
साम्प्रदायिकता और विकृत परम्पराओं एवं रुढियों जैसे समाज और देश प्रतिरोधी तत्वों
का पर्दाफाश करना अपना कर्तव्य मानते रहे है | साम्प्रदायिकता जिस तरह से आज हमारे
समाज और राजनीति ही नहीं बल्कि मानसिकता में घुसपैठ कर गई है और आज हमारे आसपास
जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं वे भीष्म साहनी जैसे रचनाकार को और प्रासंगिक बना
देती हैं|