Thursday 24 August 2017

उत्तर भारत में उच्च शिक्षा को लगी बीमारी


केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावडे़कर ने पिछले तीन अप्रैल, 2017 को देश के शीर्षस्थ उच्च शिक्षा संस्थानों और विश्वविद्यालयों की बेहद चौंकाने वाली सूची जारी की,  जिसमें उसमें उत्तर और दक्षिण भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों के बीच भारी गुणात्मक फर्क देखने को मिला | पूरे देश में शिक्षण संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता तय करने वाली भारत सरकार की संस्था नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क यानी एनआईआरएफ-2017 के अंतर्गत देश के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों व कॉलेजों,  शीर्ष 100 इंजीनियरिंग कॉलेजों और 50  श्रेष्ठ प्रबंध संस्थानों व फार्मेसी कॉलेजों की सूची जारी की गई है। गुणात्मक असमानता का स्तर यह है कि इन 100 विश्वविद्यालयों में से 67 दिल्ली सहित केवल आठ राज्यों में स्थित हैं | इसमें सर्वाधिक विश्वविद्यालय तमिलनाडु में स्थित है | तमिलनाडु को विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में 24,  कॉलेजों की रैंकिंग में 37  और इंजीनियरिंग की सूची में 22  स्थान मिले हैं। इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने में दक्षिणी राज्यों, जैसे तमिलनाडु, केरल,  कर्नाटक,  आंध्र प्रदेश,  तेलंगाना और पुडुचेरी ने अग्रणी राज्य है। दूसरी ओर उत्तरी राज्यों, जिसमें अधिकाश हिंदी भाषी राज्य हैं, का प्रदर्शन अत्यंत दयनीय है | बिहार के किसी भी विश्वविद्यालय और कॉलेज को इस रैंकिंग सूची में कोई स्थान नहीं मिला । उत्तर प्रदेश का प्रदर्शन बहुत खराब है। उत्तर प्रदेश में 63 विश्वविद्यालय और 6,026 कॉलेज हैं, किंतु सिर्फ सात विश्वविद्यालयों और छह इंजीनियरिंग कॉलेजों को इस रैंकिंग में स्थान मिला है। उत्तर प्रदेश का कोई भी कॉलेज प्रथम 100 में स्थान नहीं बना पाया | एनआईआरएफ-2017 ने लगभग 20 मानकों के आधार पर यह रैंकिंग तैयार की है | इस रैंकिंग का महत्व इसलिए है कि इन संस्थानों को इसी के आधार पर सरकार धन एवं अन्य सुविधाएँ मुहैया कराती है |  
उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के क्षेत्र में उत्तरी राज्यों की चिंताजनक स्थिति से संकेत मिलता है कि इन राज्यों ने उच्च शिक्षा के मूलभूत ढांचे को सशक्त और कार्यकुशल बनाने पर विशेष ध्यान नहीं दिया है | विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में अध्यापकों की भारी कमी, अध्यापकों की भर्तियों में बड़े पैमाने पर धांधली, परिणामतः योग्य अध्यापकों का अभाव, पर्याप्त भवन की कमी और लाखो नेट उत्तीर्ण बेरोजगार घूमना, संस्थानों में सियासी दांव-पेंच की अधिकता और इस कारण कार्य दिवसों का कम होते जाना, यूजीसी द्वारा नियमों और नीतियों में मनमाना फेरबदल, प्राचार्यों और सहायक प्राचार्यों की नियुक्ति की नीतियों में अस्पष्टता का हर राज्य और विश्वविद्यालय अपनी- अपनी सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल जैसे अहम कारण है | बिहार के कॉलेजों में विगत 10 वर्षों से 5000 से अधिक अध्यापकों की कमी बनी हुई है | उत्तर प्रदेश में हाल ही राजकीय कॉलेजों में पिछले 10-12 वर्षों से मानदेय पर पढ़ा रहे अध्यापकों को नियमित किये जाने के बावजूद उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा आयोग लगभग 3000 से अधिक अध्यापकों की नियुक्ति प्रक्रिया में पिछले 3 वर्षों से लगा हुआ है जबकि इस आयोग पर नियुक्ति प्रक्रिया में धांधली के गंभीर आरोप लगे है और नियुक्ति प्रक्रिया ठप पड़ी है | दिल्ली विश्वविद्यालय में लगभग 1000 अध्यापको के पद खाली है, जिनकी भर्ती के लिए उच्च न्यायालय को आदेश देना पड़ा है | उच्च शिक्षा के लिए हाल में राष्ट्रपति से पुरष्कार प्राप्त करने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शिक्षकों के 300 खाली पदों को भरा जाना है |
यही नहीं, उत्तर भारत के जिन राज्यों में जो थोड़े अध्यापक किसी तरह से पढाई की कमी को पूरा करने में लगे हुए है उन्हें भी समय से वेतन नहीं मिल पाना एक भयानक विडम्बना है | बिहार के अधिकांश कॉलेजों के अध्यापकों और अन्य गैर अध्यापक कर्मचारियों के छः-छः महीने से अधिक समय तक वेतन नहीं मिला पाता है | मशहूर संस्थान टाटा इंस्टीट्यट ऑफ सोशल साइंसेस (टिस) ने यूजीसी से पैसा नहीं मिलने के कारण कई शोध परियोजनाओं को बंद करके अपने 35 अध्यापकों को बर्खास्त कर दिया है। हाल ही में पंजाब विश्वविद्यालय में फ़ीस वृद्धि को लेकर पुलिस और छात्रों के बीच हिंसक झड़प हुई क्योंकि पंजाब विश्वविद्यालय ने चालू वित्त वर्ष (2017-18) में कुल खर्च 516 करोड़ रुपये और सभी स्रोतों से प्राप्त कुल आय 272 करोड़ के अंतर को पाटने के लिए सारा बोझ फ़ीस के रूप में छात्रों पर डाल दिया | आजादी से पहले ही गुलामी के उस दौर में पंडित मदनमोहन मालवीय ने चंदे से एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय खड़ा कर दिया था जो तत्कालीन समय में उपलब्ध समस्त सुविधाओं से युक्त था। गुरुकुल कांगड़ी और शान्तिनिकेतन जैसे विश्वविद्यालय एवं  डीएवी आजादी से पहले ही आंदोलन बन गए थे । दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर कोई उद्देश्यपरक महत्त्व का काम नहीं हुआ क्योंकि हम पूरी तरह सरकार पर निर्भर हो गए जबकि शिक्षा तो सरकार की प्राथमिकताओं में रहा ही नहीं | परिणामतः ज्यादातर सरकारों ने शिक्षा के लिए पर्याप्त वित्तीय साधन और मानव संसाधन उपलब्ध करने नाकामयाब रही | एक समय में उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के कारण ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय को पूर्व का ऑक्सफ़ोर्डका दर्जा दिया गया था |  लेकिन आज यह पूर्व का ऑक्सफ़ोर्ड केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त करने के बावजूद अध्यापको और अन्य जरूरी संसाधनों की कमी के साथ ही बढते सियासी तिकड़मों से जूझ रहा है |  जाहिर तौर पर यह सरकारों की गैर जवाबदेही और वित्तीय अनुशासनहीनता का परिणाम है|

उत्तर और दक्षिण के राज्यों के बीच उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर यह चिंताजनक अंतर हमारे संघीय ढांचे और मानव विकास के लिए अच्छे संकेत नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण दक्षिणी राज्यों की तुलना उत्तरी राज्यों की सरकारों और सरकारों में बैठे राजनीतिक नेतृत्व का शिक्षा की ओर से मुंह मोड़ लेना है या इन शिक्षा केन्द्रों को राजनीतिक गतिविधियों के लिए इस्तेमाल करना है | राजनीतिक अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार के बावजूद तामिलनाडु, कर्नाटक,  केरल और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने सड़क,  परिवहन,  विद्युत,  संचार,  शिक्षा, आदि के मूलभूत ढांचे को बेहतर बनाने की दिशा में कार्य किया | इन राज्यों की सरकारें और राजनीतिक नेतृत्व देशी-विदेशी उद्योगों और निवेशकों को आकर्षित करने में सफल रहा| इसके साथ ही दक्षिण भारत के स्कूल-कॉलेजों में वहाँ की राज्य सरकारों ने अवरोध पैदा नहीं किया | 

आज़ादी का कॉपीराइट क्यों.........

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भारत छोड़ो आंदोलन की 75 वीं वर्षगांठ पर संसद में आयोजित विशेष आयोजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशवासियों और उनके जनप्रतिनिधियों का आह्वान करते हुए कहा कि जिस तरह से 1942  के जन आंदोलन ने 5 साल में अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिये विवश किया था, यदि वैसा ही संघर्ष हम सब मिलकर 2017 से 2022 के बीच के 5 साल में करें तो देश को भ्रष्टाचार, गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, जातिवाद, सांप्रदायिकता जैसी तमाम बुराइयों और समस्याओं से भी मुक्त कर सकते है। लेकिन दूसरी ओर लोकसभा में विपक्ष का नेतृत्व कर रही कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने मोदी की अपील पर कटाक्ष करते हुए कहा किकुछ ऐसे संगठन भी हैं जिन्होंने आजादी के आंदोलन में कोई योगदान नहीं दिया और आज आजादी की बात करते हैं। ऐसे संगठन आजादी के आंदोलन का विरोध करते थे| जाहिर है सोनिया गांधी का यह बयान विपक्ष की सकारात्मक भावना को प्रदर्शित नहीं करता है| वह भी ऐसे ऐतिहासिक अवसर पर, जब देश को आगे ले जाने का संकल्प लेते समय दलगत राजनीति से ऊपर उठने और साथ आने की जरुरत है| एक ओर जहाँ देश के अधिकतर नेताओं ने देश को स्वतंत्रता के दौर और स्वतंत्रता दिलाने वाले नायकों को याद किया वही कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने सिर्फ पंडित नेहरू समेत अपने परिवार की उपलब्धियों का बखान किया| सवाल यह है कि ऐसे अवसर क्या ये तेरी आज़ादी, ये मेरी आज़ादी की भावना उचित है ? क्या व्यापक राष्ट्रीय एवं जनहित के मुद्दों पर एकजुट नहीं हुआ जा सकता है ? क्या कांग्रेस को इस तथ्य को स्वीकार नहीं करती है कि 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी सभी भारतवासियों को मिली हुई आज़ादी है ? क्या देश के स्वतंत्रता सेनानियों का बंटवारा किया जा सकता है ? क्या देश की आज़ादी का कॉपीराइट किया जा सकता है ?
सोनिया गांधी के तर्क के आधार पर देखा जाय तो स्वाधीनता संग्राम के दौर में सैकड़ों संगठन थे जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से आज़ादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया था लेकिन सामाजिक-धार्मिक और सांस्कृतिक सुधार के उन मुद्दों के लिए अनवरत संघर्ष किया, जिन मुद्दों और समस्याओं को कांग्रेस अक्सर आज़ादी की प्राप्ति के बाद समाधान करने के लिए छोड़ दिया करती थी | सोनिया गांधी के तर्क से तो राजाराम मोहन राय, दयानंद सरस्वती, केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद विद्यासागर, विवेकानंद, अरविंदो घोष, रामास्वामी पेरियार आदि को भी आज़ादी के संघर्ष से बाहर अलग ही स्थान देना पड़ेगा | सोनिया गाँधी के आरोप के पीछे मूल समस्या यह है कि आज़ादी के बाद कांग्रेस पार्टी में सब कुछ नेहरू गांधी परिवार के इर्दगिर्द ही घूमता रहा है। पिछले सत्तर सालों में एक परिवार के दायरे में सीमित रहने और उसके महिमामंडन में तल्लीन रहने के कारण कांग्रेस ने देश के लाखों राष्ट्रनायकों के योगदान को विस्मृत कर दिया | बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, लाला लाजपत राय, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, चंद्रशेखर आजाद, चाफेकर बंधु जैसे अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों को हाशिए पर या फुटकल खाते में डाल दिया गया |
सच तो यह है कि आज़ादी की लड़ाई पूरे देश की लड़ाई थी, आज़ादी के संघर्ष में भारत के सभी जातियों, धर्मों, नस्लों और लिंगों के लोगों ने आहुति दी और पूरे भारतवर्ष की आज़ादी का स्वप्न देखा था | ऐतिहासिक दिवसों पर इस विमर्श का कोई मतलब नहीं कि किसने आज़ादी के लिए संघर्ष किया|  इस पर न तो किसी पीढ़ी का कॉपीराइट है और न किसी दल या समूह का सर्वाधिकार है| विदेशी सत्ता की अधीनता से मुक्त होने का समय निःसंदेह ऐतिहासिक क्षण था, लेकिन आज आज़ादी को किसी समय, दिन और वर्ष से सीमित नहीं किया जा सकता है| आज़ादी का महत्व हर पल, हर दिन और हर वर्ष में उतना ही है जितना 15 अगस्त 1947 को था | इसलिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और महापुरुषों के संघर्ष को, बलिदान को, उनके कर्तव्‍य को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने का दायित्‍व हर पीढ़ी और हर युग को है| अतः ऐसे अवसर प्रत्येक भारतीय के लिए गौरव का क्षण है |

यह सच है कि आज़ादी के संघर्ष में कांग्रेस धुरी थी| लेकिन अन्य संगठनों के संघर्ष को महत्वहीन नहीं माना जा सकता है | आजादी के आंदोलन में योगदान नहीं करने को लेकर कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी का इशारा जिस संगठन की ओर थे, वह भले ही संगठन के तौर पर आज़ादी के संघर्ष में शरीक नहीं हुआ लेकिन 1925 में स्थापना के बाद से उस संगठन ने कभी भी राष्ट्रीयता और भारतीयता से समझौता नहीं किया | संघ का लक्ष्य व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माणका रहा है|  संघ का मूल विचार राष्ट्रीय पुनरुत्थानके प्रति वचनबद्ध होना है। यहाँ तक कि महात्मा गाँधी और बाबा आंबेडकर ने भी संघ की शाखाओं में अनुशासन और किसी भी प्रकार के भेदभाव रोधी भावना को अहम स्थान दिए जाने को लेकर संघ की प्रशंसा से अपने को रोक नहीं पाए | 31 दिसंबर 1929 को लाहौर में कांग्रेस ने पहली बार पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित करते हुए स्वंतत्रता दिवस बनाने का फैसला किया तो 26 जनवरी 1930 को संघ की प्रत्येक शाखा पर सायं 6 बजे राष्ट्रध्वज फहराकर स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। संघ ने राष्ट्र सेवा के लिए किसी आंदोलन में शामिल होने से अपने स्वयंसेवकों पर कभी भी पाबंदी नहीं लगाई। गांधीजी ने जब 1930 में नमक आन्दोलन शुरू किया तो संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार ने संघचालक का दायित्व डॉक्टर परांजपे को सौंपकर अनेक स्वयंसेवकों के साथ आंदोलन में शामिल हो गए थे और 9 माह का सश्रम कारावास काटा। डॉ. हेडगेवार के इस कदम से ब्रिटिश सरकार का यह भ्रम दूर हो गया कि यह हिन्दू महासभा का पिछलग्गू संगठन है | द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संघ और उसके स्वयंसेवकों ने ब्रिटिश सेना में भर्ती होने का भी बहिष्कार किया | 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्वयंसेवकों की सक्रिय भागीदारी रही | अरुणा आसफ अली, जय प्रकाश नारायण जैसे कांग्रेसी नेताओं को संघ के स्वयंसेवकों ने अपने घरों में रहने की न केवल जगह दी बल्कि उनकी सुरक्षा का भी पूरा ध्यान रखा। इस तरह औपनिवेशिक शासन को खत्म करने के लिए संघ की प्रवृत्ति और महत्वाकांक्षा पर संशय नहीं किया जा सकता है | संघ की कमजोरी स्वतंत्रता आंदोलन से इसकी अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि संघ आज़ादी के बाद कांग्रेस और उनके अनुचर बुद्धिजीवियों व वामपंथियों की छद्म साम्प्रदायिक नीतियों, शिक्षा और संस्कृति के प्रतिष्ठानों पर उनके वर्चस्व, इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने की प्रवृति को बौद्धिक विमर्श के आधार पर चुनौती देने में असफल रहा है | परिणामतः इतिहास के पन्नों से लेकर तमाम बहसों में सांप्रदायिक होने के लगातार गोयबलीकरण से संघ ग्रसित होता रहा | 

काले कारनामों को छुपाने के बहाने आपातकाल का फोबिया पैदा करने की कोशिश



हाल ही में समाचार चैनल एनडीटीवी के संस्थापक और वरिष्ठ पत्रकार प्रणय रॉय और उनकी पत्नी राधिका रॉय के घरों और ठिकानों पर वितीय अनियमितता के आरोप में जब प्रवर्तन एजेंसियों और सीबीआई द्वारा छापे मारे गए तो कुछ बुद्धिजीवियों, कई राजनेताओं और मीडिया समूहों ने इसे ‘आपातकाल' जैसी स्थिति करार देते हुए भारत में लोकतंत्र और आज़ाद आवाज़ को कुचलने के प्रयास करने का आरोप लगाया जबकि वे अभिव्यक्ति के अधिकारों का अधिकतम उपयोग कर रहे हैं और ऐसा करते हुए भारतीय इतिहास की सर्वाधिक 'काली अवधि'(लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने यह नाम दिया था) आपातकाल से सुनियोजित ढंग से या तो अनजान बनने की कोशिश कर रहे है या राजनीतिक दुराग्रह के कारण मौजूदा परिवेश में आपातकालीन भयावह स्थितियां होने का गोयबल्सीकरण कर रहे हैं |
1971 में रायबरेली लोकसभा सीट के चुनाव में धांधली तथा सरकारी मशीनरी के उपयोग के मामलों में दोषी पाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 12 जून 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जीत को अवैध करार दिया था और उन्हें अगले छह वर्षों तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दिया था | उसके बाद स्वतंत्र भारत के इतिहास में काले दौर की शुरुआत हुई, जब 25 और 26 जून 1975 की आधी रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शासन में बने रहने के लिए देश पर आपातकाल थोप दिया, जो लगभग 21 महीने (26 जून 1975 से 21 मार्च 1977) तक चला था| इसके साथ ही संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया सहित सभी प्रमुख लोकतांत्रिक संस्थाओं एवं पद्धतियों को एक झटके में कुचल कर रख दिया। लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गई 8 गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया | संसद को रबर स्टैंप बना दिया गया जिसने 38 वें, 39 वें और 41 वें संशोधन द्वारा न्यायपालिका को शक्तिहीन करते हुए आपातकाल की घोषणा और राष्ट्रपति तथा राज्यपालों द्वारा जारी किए गए अध्यादेशों और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानूनों के न्यायिक पुनरविलोकन और प्रधानमंत्री के खिलाफ किसी भी याचिका पर सुनवाई पर रोक लगा दिया | प्रधानमंत्री द्वारा पदभार ग्रहण करने के पूर्व और बाद में किए गए किसी भी कार्य के लिए उनके खिलाफ किसी भी फौजदारी या आपराधिक कार्यवाही को निषिद्ध करके उन्हे संविधान और कानून से ऊपर कर दिया गया और इसप्रकार संविधान के बुनियादी ढांचे को ही तहस-नहस कर दिया गया | सर्वोच्च न्यायालय कायरता का पर्याय बनते हुए इस काले दौर के अनैतिक निर्देशों का समर्थन किया और अपने फैसले में राज्य को बिना किसी जवाबदेही के हत्या का अधिकार भी दे दिया | किसी भी नागरिक को अपनी नजरबंदी को चुनौती देने या बंदी प्रत्यक्षीकरण संबंधी याचिका दाखिल करने का अधिकार समाप्त कर दिया गया | भारत की जनता के लिए यह अविश्वसनीय था कि आजाद भारत में भी उसकी आजादी एक झटके में छीनी जा सकती है| सरकार का विरोध करने पर दमनकारी कानून मीसा और डीआईआर के तहत देश में एक लाख ग्यारह हजार लोग जेल में ठूंस दिए गए। न अपील, न वकील, न दलील | कारावास अवधि और दण्ड का पता नहीं होता था कि वे कब तक जेल में रहेंगे ?
आज कुछ मीडिया और बुद्धिजीवी अपनी अवसरवादी सुविधा के अनुसार आपातकाल की उन क्रूरताओं का मौजूदा छापेमारी से घालमेल करने कोशिश कर रहे है जब सेंसरशिप द्वारा प्रेस और पत्रकारिता का गला घोंट दिया गया और किसी भी विरोध को वितीय प्रतिबंधों या कठोर पुलिसिया कार्रवाई द्वारा दमन कर दिया गया था | कई विदेशी संवाददाताओं को हटा दिया गया और 40 से अधिक रिपोर्टरों की अधिकारिक मान्यता रद्द कर दी गई| यहाँ तक की सामाजिक और देशभक्त संगठनों जैसे आरएसएस को भी प्रतिबंधित कर दिया गया और हजारों स्वयंसेवकों को उनकी उम्र का ध्यान रखे बिना गिरफ्तार कर लिया गया | सबसे ज़्यादा भयावह क्रूरतापूर्वक नसबंदी अभियान था, जिसमें कई लोगों को लालच, धोखे या जबरन नसबंदी करने पर मजबूर किया गया| सफ़ाई के नाम पर झुग्गियों को गिरा दिया गया | वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपने एक संस्मरण लिखा है कि इंदिरा गाँधी के पुत्र संजय गाँधी ने उन्हें एक नोट दिया था जिसमें उन्होंने ऐसी नई व्यवस्था की योजना बनायीं थी जो संसदीय नहीं, बल्कि अध्यक्षीय थी यानी समग्र शक्तियां एक व्यक्ति पर ही केंद्रित थीं | यदि वर्तमान समय में वितीय फर्जीवाड़े के आरोप में किसी मीडिया, संस्थान या व्यक्ति के ठिकानों पर छापा मारा जाना आपातकाल है तो 1975 में जो कुछ हुआ था, वह क्या था ?
आज बॉलीवुड के जिन फिल्मकारों को बात-बात पर असहिष्णुता और अभिव्यक्ति पर खतरा दिखने लगता है उन्हें 75 के आपातकाल की देखना चाहिए जब फिल्मकारों को सरकार की प्रशंसा में गीत लिखने-गाने पर मजबूर किया| किशोर कुमार ने आदेश नहीं माना। उनके गाने रेडियो पर बजने बंद हो गए| अमृत नाहटा की फिल्म 'किस्सी कुर्सी का' को सरकार विरोधी मान कर उसके सारे प्रिंट जला दिए गए। गुलजार की आंधी पर भी पाबंदी लगा दी गई।

क्या अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किसी भी मीडिया, संस्थान, या व्यक्ति, चाहे वह किसी भी जाति और संप्रदाय का हो या चाहे वह उद्योगपति हो या माफिया, को क्या किसी भी तरह के वितीय फर्जीवाड़े या अपराधिक कृत्य के लिए छूट दी जा सकती है ? भारतीय संविधान में अनु. 19 के तहत व्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं है वह भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था, न्यायालय की अवमानना, मानहानि या अपराध के लिए प्रोत्साहन देने वाले शब्दों पर प्रतिबन्ध द्वारा सीमित भी है | आजादी की यह सीमा व्यक्ति से विवेकशील और क़ानूनी रूप से उचित व्यवहार की अपेक्षा करती है| आज यदि किसी व्यक्ति या समूह को लगता है कि उसके अधिकारों के हनन हो रहा तो उसे आपातकाल की तरह अपील, वकील और दलील से प्रतिबंधित नहीं किया गया है | यदि उसे विश्वास है कि उस पर लगे वितीय अनियमितता और लोगों की भावनाओं के भड़काने के आरोप गलत है या बदले की भावना से लगाये गए है तो स्वयं को सही साबित करने के लिए न्यायालय के दरवाजे सदैव खुले हुए है | 

भगवान जगन्नाथ और रथयात्रा : आध्यात्म, संस्कृति और पर्यटन का महा संगम


पुरी के भगवान जगन्नाथ का मंदिर और उनकी रथयात्रा केवल ओड़िशा ही नहीं, बल्कि विश्व के सभी हिन्दू धर्मावलम्बियों के ज़ेहन में रची बसी धार्मिक-सांस्कृतिक शक्ति है | इसकी अहमियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पुरी का जगन्नाथ मन्दिर धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय का अद्भुत उदाहरण है और उनकी रथयात्रा सांस्कृतिक एकता तथा सहज सौहार्द्र की एक महत्वपूर्ण कड़ी  है | इसका कारण भी अत्यंत रोचक है | लोक प्रचलित अनेक कथाओं, विश्वासों और अनुमानों से यह ज्ञात होता है कि भगवान जगन्नाथ विभिन्न धर्मो, मतों और विश्वासों का अद्भुत समन्वय है। जगन्नाथ मन्दिर में पूजा पाठ, दैनिक आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन यहाँ तक तांत्रिकों ने भी प्रभावित किया है। वैसे तो इसे वैष्णव परम्परा का मंदिर माना जाता है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। लेकिन एक कहानी के अनुसार जगन्नाथ की आराधना एक सबर आदिवासीविश्वबसुके द्वारानील माधवके रूप में की जाती रही है | सबर जनजाति के देवता होने की वजह से यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है | साक्ष्य स्वरुप आज भी जगन्नाथ पुरी के मंदिर में अनेकों सेवक हैं जो  “दैतपतिनाम से जाने जाते हैं| इन्हें आदिवासी मूल का ही माना जाता है| ऐसी परंपरा किसी अन्य वैष्णव मंदिर में नहीं है| बौद्ध साक्ष्यों में यह भी स्वीकार किया गया है कि पुरी के विश्व प्रसिद्द रथ यात्रा का आयोजन  भी एक बौद्ध परंपरा ही है| बौद्ध परंपरा में गौतम बुद्ध के दन्त अवशेषों को लेकर रथ यात्रा का आयोजन होता था | बौद्ध परंपरा के अनुसार पूर्वी भारत में पुरी बौद्धों की वज्रयान परंपरा का एक बड़ा केंद्र था, जहाँ  “इंद्रभूतिने बौद्ध धर्म केवज्रायनपरंपरा की नीवं डाली थी| इंद्रभूति ने बुद्ध स्वरुप जगन्नाथ की आराधना करते हुए  ही अपने प्रसिद्द ग्रन्थज्ञानसिद्धिकी रचना की थी जिसमें उन्होंने यत्र-तत्र जगन्नाथ का संबोधन गौतम बुद्ध के लिए ही है| भगवान जगन्नाथ के बुद्ध होने का एहसास जन मानस पर बहुत ही गहराई से उतरा  हुआ था| बौद्ध परंपरा के विद्वानों का मत  है कि जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा वास्तव में बौद्ध धर्म केबुद्ध”, “संघऔरधर्म” (धम्म) के परिचायक हैं| १५ से लेकर १७ वीं सदी के मध्य भी ओडिया साहित्य में इसकी अभिव्यक्ति हुई है|

इसलिए यह अकारण नहीं है कि जब आदि शंकराचार्य ने जब बौद्धों के विरुद्ध आध्यात्मिक विजय यात्रा के क्रम में उन्होंने पूरब में पुरी को केंद्र बनाया और बौद्धों की आध्यात्मिक सत्ता को चुनौती देते हुए सनातन धर्म की पुनर्स्थापना सुनिश्चित की और इसे हिन्दुओं के चार धामों में से एक धाम घोषित किया जिसका अन्य तीन धामों की तुलना में विशिष्ट स्थान है | संभवतः इस धार्मिक विजय के स्मरण में ही श्री शंकर एवं पद्मपाद की मूर्तियाँ जगन्नाथ जी के रत्न सिंहासन में स्थापित की गयीं थीं. मंदिर द्वारा  ओडिया में प्रकाशित अभिलेखमदलापंजीसे ज्ञात होता है कि पुरी के राजा दिव्य सिंह देव द्वितीय (१७९३१७९८) के शासन काल में उन दो मूर्तियों को हटा दिया गया था|

एक महत्वपूर्ण तीर्थ के रूप में पुरी (जगन्नाथ पुरी) का उल्लेख सर्वप्रथम महाभारत के वनपर्व में दृष्टिगोचर होता है और इस क्षेत्र की पवित्रता का बखान कूर्म पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण, आदि में यथेष्ट रहा है| पुरी के सांस्कृतिक इतिहास के ठोस प्रमाण वीं सदी से ही उपलब्ध हैं| पुराणों में उल्लेख आता है कि अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांची, उज्जैन, जगन्नाथ पुरी ये सात नगर मोक्ष प्रदान करते हैं। इस सम्बन्ध में एक श्लोक मिलता है-
अयोध्या मथुरा माया काशी काची अवन्तिका,
पुरी द्वारावती चैव सप्तयन्ते मोक्षदायिनी।
इसे  शंखक्षेत्र भी कहा जाता है, क्योंकि इस क्षेत्र की आकृति शंख के समान है। शाक्त इसे उड्डियान पीठ कहते हैं। यह 51 शक्तिपीठों में से एक पीठ स्थल है, यहां सती की नाभि गिरी थी।

तात्पर्य यह है कि किसी अन्य मूर्ति को लेकर कभी भी इतने सारे सम्प्रदायों का दावा नहीं था,  कहीं भी कोई देवता इतने संप्रदायों की निष्ठा का पालन नहीं किया था| फिर भी यह आश्चर्यजनक है कि श्री जगन्नाथ के बीच या उन्हें लेकर कभी भी कोई सांप्रदायिक संघर्ष नहीं रहा। उन्हें सभी विचारों और आदर्शों के प्रकाश में देखा गया और भगवान जगन्नाथ ने चुपचाप अवशोषित उन सभी को अपने भीतर समावेशित कर लिया, जिस पर उन्हें अलग-अलग समय और अलग-अलग लोगों द्वारा देखा गया। प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय के भक्तों ने उन्हें अपनी भक्ति का उद्देश्य देखा था। दूसरे शब्दों में, देवता ने सर्वशक्तिमान के प्राथमिक गुणों में से एक को पूरी तरह से संतुष्ट किया है | शंकराचार्य से चैतन्य देव तक, महान रहस्यवादियों ने अपने अनुभव के प्रतीक देवता में देखा है, यह गैर द्वैतवाद की गहराई या द्वैतवाद की परमात्मा है।

इसलिए यह अनायास नहीं है कि रथयात्रा में जगन्नाथ जी को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है। इन अवतारों में विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध को भी शामिल किया जाता है। जगन्नाथ जी की रथयात्रा पुरी का प्रधान महोत्सव है जिसका आयोजन आषाढ़ शुक्ल की द्वितीया को किया जाता है। कहते हैं माता सुभद्रा को अपने मायके द्वारिका से अत्यंत प्रेम था इसलिए उनकी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्राजी ने अलग रथों में बैठकर द्वारिका का भ्रमण किया था। तब से माता सुभद्रा की नगर भ्रमण की स्मृति में पुरी में हर वर्ष रथयात्रा निकाली जाती है। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होती है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करती है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उस माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है।

रथ यात्रा के लिए तीन विशाल रथ सजाए जाते हैं। पहले रथ पर श्री बलराम जी, दूसरे पर सुभद्रा एवं सुदर्शन चक्र तथा तीसरे रथ पर श्री जगन्नाथ जी विराजमान रहते हैं। भगवान जगन्नाथ का रथ नंदीघोष है। देवी सुभद्रा का रथ दर्पदलन है और भाई बलभद्र का रक्ष तल ध्वज है। संध्या तक ये रथ गुंडीचा मंदिर (वृंदावन का प्रतीक) पहुंच जाते हैं। रानी गुंडिचा भगवान जगन्नाथ के परम भक्त राजा इंद्रदयुम्न की पत्नी थी इसीलिए रानी को भगवान जगन्नाथ की मौसी कहा जाता है। दूसरे दिन भगवान से उतरकर मंदिर में पधारते हैं और सात दिन वहीं विराजमान रहते हैं। दशमी को वहां रथ से लौटते हैं। इन नौ दिनो में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़पदर्शन कहते हैं। जगन्नाथ जी के इस रूप का विशेष माहात्म्य है।
तीनों रथों के निर्माण के लिए भी लकड़ियों का ही इस्तेमाल होता है। इसमें कोई भी कील या कांटा, किसी भी धातु का प्रयोग करना वर्जित माना गया है। यह रथ बनाने की प्राचीन भारतीय कला का उत्कृष्ट नमूना है । इसमें आकर्षक चित्रकारी और लकडी की अनेक मनमोहक नक्काशी की गई है ।

श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतः प्रसाद ही कहा जाता है। महाप्रसाद मानने के पीछे कई किंवदंतियाँ प्रचलित है | इनमें से एक यह माना जाता है कि यह प्रसाद भगवान जगन्नाथ से पहले देवी बिमला को चढ़ाया जाता है | कहा जाता है कि इस महाप्रसाद को बिना किसी संदेह एवं हिचकिचाहट के उपवास, पर्व आदि के दिन भी ग्रहण कर लेना चाहिए। एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद नाम महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला। महाप्रभु बल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मन्दिर में ही किसी ने प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ| जिस श्रद्धा और भक्ति से पुरी के मन्दिर में सभी लोग बैठकर एक साथ श्री जगन्नाथ जी का महाप्रसाद प्राप्त करते हैं उससे वसुधैव कुटुंबकम का की भावना स्वत: परिलक्षित होती है। 

विश्व का सबसे बड़ा रसोईघर जगन्नाथ मंदिर में है जहां सैकड़ों बावर्ची और सेवक काम करते हैं। प्रतिदिन लाखों लोग भगवानजी का महाप्रसाद ग्रहण करते हैं। रसोई का इतना विशाल और व्यवस्थित प्रबंधन विश्व के किसी भी कोने में उपलब्ध नहीं है | प्रबंधन पढ़ने वालों को पांच सितारा होटलों के बजाय यहां आकर बहुत कुछ सीखना चाहिये कि पेशेवर प्रबंधन होता क्या है | सबसे अहम यह कि भोजन की सूची(मेन्यू) भी कोई साधारण नहीं होती है बल्कि 56 स्वादिष्ट व्यंजनों की होती है जो प्रतिदिन तैयार की जाती है |
षड रस व्यंजन नानाजाति, छप्पन भोग लगे दिन राति
भारतीय परम्परा के अनुसार भोजन में सभी छह रस- मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय-होने चाहिए। छह रस युक्त आहार से ही आयुष्य, तेज, उत्साह, स्मृति, ओज (जीवनीशक्ति) और जठराग्नि की वृद्धि होती है। ये छह रस ही शरीर के छह विकारों-ईर्ष्या, शोक, भय, क्रोध, अहंकार, द्वेष-को दूर करने के लिए आवश्यक है | तात्पर्य है कि जगन्नाथ के महाप्रसाद में स्वस्थ और दीर्घायु जीवन की परिकल्पना निहित है |

कोई भी पांच सितारा होटल शायद ही हजारों लोगों के लिए 56 व्यंजन प्रतिदिन तैयार करता होगा | यह वह प्रबंधन है जिसका अध्ययन किसी भी बड़े से बड़े मैनेजमेंट कॉलेज में शायद ही पढाया जाना संभव होगा | यह शाकाहारी भोजन की ओड़िशा की उत्कृष्ट पाक संस्कृति की सदियों पुरानी परंपरा है जो सुविधाजनक तैयारी से युक्त, पोषक तत्वों से भरपूर, और कम खर्चीली है |