Sunday 24 February 2019

नामवर जी की नामवरी


कहना न होगा कि हिंदी साहित्य जगत में एक किंवदंती बन चुके प्रख्यात साहित्यकार और समालोचक नामवर सिंह का जाना हिंदी साहित्य की उस बेलौस, बेबाक, निडर और आत्मविश्वासपूर्ण आवाज का जाना है जिसकी आलोचनात्मक भाषा और चिंतन का विस्तार परंपरा से लेकर प्रगतिशीलता के राजमार्ग तक था | लगभग सत्तर वर्षो से अधिक की नामवर जी की साहित्य-यात्रा अपनी विशालकाय परंपरा को आत्मसात करते हुए प्रगतिशीलता के नए-नए आयाम स्थापित करते हुए चलती है | उनका रचना-कर्म ही नहीं, बल्कि व्यक्तित्व भी परंपरा और प्रगतिशीलता का अद्भुत संगम था | धोती-कुर्ता के पारंपरिक परिधान में संभवतः वे जेएनयू के पहले अध्यापक थे और शायद अंतिम भी, जिन्होंने जेएनयू की अंग्रेजियत पर धोती-कुर्ते की धाक जमायी क्योंकि जेएनयू जैसे संस्थान में बहुतों के लिए धोती-कुर्ता तब भी हीन भावना थी और अब भी है |
हिंदी भाषा और साहित्य के अध्यापक होने से पहले वे आलोचना-जगत में अंगद की तरह पांव जमा चुके थे | वे केवल साहित्य के आलोचक नहीं थे, बल्कि एक समग्र साहित्यकार और इस नाते एक संपूर्ण सभ्यता समीक्षक थे | अद्वितीय मेधा-शक्ति के साथ अनवरत अध्यवसाय और अपूर्व वाग्मिता के कारण वे हिन्दी में सबसे ज्यादा पढ़े एवं सुने जाने वाले और बोलने वाले आलोचक रहे हैं| उन्होंने सहृदय के रूप में विभिन्न ज्ञान परंपराओं के परिपाक द्वारा आलोचना-कर्म का एक नया व्याकरण ही नहीं लिखा है, उसके औजार और सरोकार भी बदले हैं। केदारनाथ सिंह जी यह मानते थे कि-"पिछले तीन दशक के इतने बडे़ कालखंड में समकालीन हिंदी साहित्य के केंद्र में एक आलोचक हैं। कोई रचना नहीं।" वे आलोचक कोई नहीं, नामवर सिंह ही थे |
नामवर जी लिखित की तुलना में वाचिक परंपरा के आलोचक थे| वे जितने दुर्लभ पढ़ाकू थे उतने ही प्रखर वक्ता भी | मानो वे बोलने के लिए ही पढ़ते थे | बीच में लेखन शायद छिटक जाता रहा हो या उनका व्याख्यान या भाषण ही इतना रोचक, सहज, सुग्राह्य, बहुआयामी, व्यापक और गंभीर होता था कि उसे लिखने की जरूरत नहीं पड़ी | या लिखने की श्रमसाध्य प्रक्रिया के पचड़े से शायद दूर रहना पसंद करते थे | लेखन के लिए इतना कम समय निकाल पाते थे कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि "छायावाद" और "कविता के नए प्रतिमान" को उन्होंने महज 20-22 दिनों में ही पूरा कर लिया था | 2011 प्रगतिशील लेखक संघ के दो दिवसीय जलसे में जब उनसे पूछा गया कि उनके स्वास्थ्य और ऊर्जा क्या है तो उन्होंने कहा कि "मुझे विरोध सुनते रहना पसंद है। विरोध से मुझे ऊर्जा मिलती है। यह विरोध ही मुझे अपने रास्ते पर चलने के लिए स्वस्थ बनाए रखता है।" साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि "मेरा पढ़ना-लिखना जब तक जारी रहेगा, मैं स्वस्थ्य रहूंगा। दिमाग को मिलने वाली खुराक से बड़ा कुछ नहीं है।" इस तरह उन्होंने पढ़ने और बोलने के बीच संबंध भी स्पष्ट कर दिया | उनके कलम की जादूगरी  पर जितनी अधिक बहस हुई उतना ही उनके बोले गये पर विवाद भी हुआ | यही नहीं, नामवर जी गोष्ठियों में श्रोताओं और वक्ताओं को ध्यान में रखते हुए अवसरानुकूल बोलते थे | वे अपनी वाग्मिता के सहारे श्रोताओं को झटका देने वाले और चौंकाने वाले वक्तव्य भी देते थे | एक तरह से यही उनके वाद-विवाद और संवाद का तरीका था | कहना ना होगा कि उनका परलोक गमन वाद-विवाद और संवाद के सूत्रधार का जाना है|
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से एक बार किसी ने पूछा कि आपकी सर्वश्रेष्ठ कृति क्या है तो उनके मुँह से अचानक ही एक नाम निकला-"नामवर सिंह।" यह वही नामवर थे जिनमें गर्वीली ग़रीबी वाली प्रगतिशीलता, कबीर जैसा साहस एवं वक्तृत्व कला, तुलसी की लोकवादिता, प्रेमचंद का समाजशास्त्र, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का पांडित्य, अभिनवगुप्त की रसधर्मिता, ठेठ देसीपना और भोजपुरिया आत्मीयता थी। जितना अधिकार उनका संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश से लेकर हिंदी पर था उतना ही उन्होंने बंगला, तमिल, मलयालम, मराठी के साथ यूरोपीय, रूसी और चीनी साहित्य को भी आत्मसात किया था | जितनी सहजता से वे कालिदास और भवभूति से लेकर कबीर और तुलसी पर व्याख्यान देते थे, उतनी ही सहजता से वे मार्क्स, ब्रेख्त, ग्राम्शी और लुशुन को भी समझते-समझाते थे। जितनी गहनता से वे भारतीयता अस्मिता, भारतीय परम्परा और उसकी विकासमानता की व्याख्या करते थे उतनी ही व्यापकता के साथ सामाजिक सरोकारों-धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता और फ़ासीवाद-और समकालीन सवालों-भूमंडलीकरण, बहुलतावाद, बाजारवाद, नक्सलवाद, बीसवीं सदी की चिंताओं, दुनिया की बहुध्रुवीयता से भी टकराते रहते थे | इसी कारण उनके भाषण निःसंदेह सर्जनात्मक साहित्य का आनंद देते थे| उनकी इसी विशिष्टता के कारण नागार्जुन ने एक बार उन्हें हिंदी आलोचना का जंगम(चलता-फि़रता)विश्वविद्यालय कहा था | नागार्जुन ने ही यह भी कहा कि भारत जैसे देश में, जहां लिखित साहित्य का प्रसार कम है, वहां कोई आचार्य यदि घूम-घूम कर विचारों का प्रसार करता है, तो यह एक आवश्यकता की पूर्ति है। नामवर का जाना अध्यापन के इस चलते-फिरते विश्वविद्यालय का अंत हो जाना है |
वैचारिक स्तर पर नामवर जी का झुकाव मार्क्सवादी विचारधारा की ओर था| लेकिन वे मार्क्सवादी होते हुए भी जनतंत्र या लोकतंत्रवादी थे| वे धुर मार्क्सवादी कभी नहीं रहे | लोकतंत्र के प्रति उनकी पक्षधरता अन्यतम थी | इसीलिए वे धुर और जड़मति मार्क्सवादियों की क्रांतिकारिता को आईना दिखाते हुए कहते है कि ‘क्रांति बंदूक की गोली से नहीं, बल्कि जनता की क्रांतिकारी चेतना और आन्दोलन से होगी|’ वे ऐसे मार्क्सवादी चिंतक थे, जिन्होंने हिंदी समीक्षा को मार्क्सवादी खांचों में घसीटने का कभी प्रयास नहीं किया| इसके बरक्स उन्होंने मार्क्सवादी मान्यताओं को ही भारतीय या हिंदी साहित्य की परम्परा के सापेक्ष देखने के लिए विवश किया और यदि संभव नही हुआ तो मार्क्सवाद को नकारने में भी उन्होंने कोताही नहीं की | इसका बड़ा कारण यह रहा है कि उनकी आलोचना का लोक ह्रदय से गहरा जुडाव रहा है| वे संगोष्ठियों में अपने भाषणों आदि के माध्यम से सही मायने में हिंदी समीक्षा को लोक के बीच रखकर लोक ह्रदय से जोड़ रहे थे, ठीक उसी तरह से जैसे आचार्य शुक्ल हिंदी साहित्य को लोक ह्रदय से जोड़ना अहम मानते थे | इसके प्रेरणा भी वे आचार्य शुक्ल से ही लेते है | वे कहते है कि "मेरी दृष्टि में हिंदी में आज तक केवल एक ही आचार्य पैदा हुआ और वह है आचार्य रामचंद्र शुक्ल। यहां तक कि मैं अपने गुरु पं हजारी प्रसाद द्विवेदी को भी 'आचार्य' न कहता हूं और न लिखता हूं। अगर हिमालय पृथ्वी का मानदंड है तो हिंदी साहित्य के मानदंड आचार्य रामचंद्र शुक्ल ही हैं" |
विचारों और ज्ञानार्जन के प्रति उनमें खुलापन इतना था कि अपनी ही स्थापनाओं का खंडन अपने व्याख्यानों में कर दिया करते थे। वे इसे अनुचित भी नहीं मानते थे| बकलम ख़ुद, हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, छायावाद, पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, कविता के नए प्रतिमान, दूसरी परंपरा की खोज उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। अपनी कृतियों के बारे में उन्होंने कहा था कि उनकी ज़्यादातर पुस्तकें अपने समय की बहसों में भागीदार होकर लिखी गयी हैं। इसी कारण वे समय और नवीन ज्ञान-विज्ञान के आलोक में अपने विचारों और मान्यताओं में बदलाव भी करते रहते थे| अपनी "छायावाद" पुस्तक में नामवर जी ने छायावाद की विशिष्टताओं का उद्घाटन करते है| लेकिन "कविता के नए प्रतिमान" की शुरुआत में छायावादी संस्कारों का खंडन करते है। बाद में उन्होंने "कविता के नए प्रतिमान" की स्थापनाओं का भी खंडन कर दिया।
नामवरजी बहुत अच्छे शिक्षक ही नहीं थे, बल्कि अपने छात्रों के लिए एक संवेदनशील अभिभावक भी थे | उनकी कक्षाएं भरी होती थीं। दूसरी कक्षाओं के छात्र भी उनकी कक्षाओं चले आते थे। प्रसिद्ध समाजशास्त्री और जेएनयू में प्रो. रहे आनंद कुमार ने नामवर सिंह को ज्ञानसागर और गुरुगरिमा का अद्भुत संगम माना हैं। नामवर जी के अनुसार साहित्य-शिक्षा एकांगी नही हो सकती । अपने विद्यार्थियों को साहित्य के माध्यम से उन्होंने ज्ञान और जीवन के न जाने कितने रूपों से व्यापक जीवन संघर्ष में जीने की कला से अवगत कराया । वे विद्यार्थियों को आलोचना पढ़ाते ही नहीं, आलोचना सिखाते भी रहे। यही नहीं, उन्होंने आलोचना में असहमति के अधिकार को और साथ ही उस असहमति को सम्मान करना भी सिखाया| इसके लिए उन्होंने अपने विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए उनका लिखा पढ़ते रहे और उन्हें सम्मान भी देते रहे | नए कवियों, कहानीकारों, उपन्यासकारों और समीक्षकों के लिखे को पढ़कर उन्हें प्रोत्साहित करने और उनके सर्वश्रेष्ठ कृतियों की विशिष्टताओं को उभारने की उनमें अद्भुत एवं अचूक क्षमता थी | निर्मल वर्मा की कहानी ‘परिंदे’ को पहली नयी कहानी उन्होंने ही ने घोषित किया जो तमाम विवादों के बावजूद आज भी स्वीकार्य है | मुक्तिबोध की कविताओं काव्य की मुख्यधारा में स्थापित करने का श्रेय भी नामवर जी को ही है | धूमिल की कविताओं में निहित क्रांतिधर्मिता और जनपक्षधरता की पहचान भी की | इस तरह नामवर जी ने नए लेखों की एक पूरी खेप तैयार की |



Wednesday 20 February 2019

वाद-विवाद और संवाद के सूत्रधार का जाना

वर्ष 2015 में जब लेखकों का एक विशेष वर्ग कथित असहिष्णुता के विरोध में पुरस्कार वापसी का देशव्यापी अभियान छेड़े हुए था, तब नामवर जी ही ऐसे शख्स थे जिन्होंने उनके इस अभियान की यह कहकर हवा निकाल दी कि "ये लेखक अपना नाम चमकाने और सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए ऐसा कर रहे हैं" | यह नामवर जी ही थे जिन्होंने इस सच्चाई को पहचान लिया था कि पुरस्कार वापसी का मुख्य मुद्दा सहिष्णुता-असहिष्णुता का नहीं है। यह पूरी तरह से वैचारिक और सियासती मुद्दा था | यदि असहिष्णुता मुद्दा होता तो यह पहले भी व्यक्त हुआ होता क्योंकि सैकड़ों घटनाएं पहले भी घटी थीं। कहना न होगा कि हिंदी साहित्य जगत में एक किंवदंती बन चुके प्रख्यात साहित्यकार और समालोचक नामवर सिंह का जाना हिंदी साहित्य की उस बेलौस, बेबाक, निडर और आत्मविश्वासपूर्ण आवाज का जाना है जिसकी आलोचनात्मक भाषा और चिंतन का विस्तार परंपरा से लेकर प्रगतिशील मूल्यों तक होता था | लगभग सत्तर वर्षो से अधिक की नामवर जी की साहित्य-यात्रा अपनी विशालकाय परंपरा को आत्मसात करते हुए प्रगतिशीलता के नए-नए आयाम स्थापित करते हुए चलती है | उनका रचना-कर्म ही नहीं, बल्कि व्यक्तित्व भी परंपरा और प्रगतिशीलता का अद्भुत संगम था | धोती-कुर्ता के पारंपरिक परिधान में संभवतः वे जेएनयू के पहले अध्यापक थे और शायद अंतिम भी, क्योंकि जेएनयू जैसे संस्थान में बहुतों के लिए धोती-कुर्ता तब भी हीन भावना थी और अब भी है |

वे केवल साहित्य के आलोचक नहीं थे, बल्कि एक समग्र साहित्यकार और इस नाते एक संपूर्ण सभ्यता समीक्षक थे | अद्वितीय मेधा-शक्ति के साथ अनवरत अध्यवसाय और अपूर्व वाग्मिता के कारण वे हिन्दी में सबसे ज्यादा पढ़े एवं सुने जाने वाले और बोलने वाले आलोचक रहे हैं| उन्होंने सहृदय के रूप में विभिन्न ज्ञान परंपराओं के परिपाक द्वारा आलोचना-कर्म का एक नया व्याकरण ही नहीं  लिखा है, उसके औजार और सरोकार भी बदले हैं।
1995 में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में जब मैंने एम ए में दाखिला लिया था, तब वे अध्यापकीय सेवा से अवकाश प्राप्त कर चुके थे| इसलिए कक्षा में उनसे पढ़ने का सौभाग्य तो प्राप्त नहीं हुआ लेकिन वर्ष में 4 या 5 बार कई तरह के समारोहों या सेमिनारों वे जेएनयू अवश्य आते थे, जिसमें वे अक्सर मुख्य वक्ता हुआ करते थे | कई बार भारतीय भाषा केंद्र में नवागंतुक छात्रों के स्वागत समारोह में भी सम्मिलित होने का प्रलोभन वे छोड़ नहीं पाते थे | इन समारोहों या या सेमिनारों में विषय अक्सर हिंदी साहित्य से जुड़े होने के बावजूद सामाजिक सरोकारों से संबंधित हुआ करता था | लेकिन उनका ज्ञान इतना विस्तृत था कि वे अपने व्याख्यान में साहित्य के मुद्दों से लेकर साहित्यकारों की जीवन यात्रा, भारतीय परम्परा से लाकर समकालीन प्रश्नों-धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, और फ़ासीवाद-की प्रस्तुति इतने सटीक ढंग से करते थे कि वह विषय रोचक और सुग्राह्य दोनों हो जाता था | बीच-बीच में व्यंग्य और विनोद द्वारा अपने व्याख्यानों को रोचक बनाए रखते थे तथा कभी-कभी पूर्व वक्ताओं पर हल्के या कड़े प्रहार भी करते थे। उनके व्याख्यान की सहजता इस कदर होती थी कि कई बार ऐसा लगता था कि नामवर जी को पढ़ने से अधिक सुनना अधिक सुग्राह्य है | उनके भाषण निःसंदेह सर्जनात्मक साहित्य का आनंद देते थे | मुझ जैसे अनेक छात्रों के लिए, जिन्हें उनसे पढ़ने का सौभाग्य हासिल नहीं हुआ, चाहे देश के किसी भी विश्वविद्यालय या कॉलेज के छात्र रहे हों, के लिए नामवर जी ने अपने व्याख्यानों से सहज ही अध्यापन का विकल्प उपलब्ध कराया| उनकी इसी विशिष्टता के कारण नागार्जुन ने एक बार उन्हें हिंदी आलोचना का जंगम(चलता-फि़रता)विश्वविद्यालय कहा था | नागार्जुन ने ही यह भी कहा कि भारत जैसे देश में, जहां लिखित साहित्य का प्रसार कम है, वहां कोई आचार्य यदि घूम-घूम कर विचारों का प्रसार करता है, तो यह एक आवश्यकता की पूर्ति है। नामवर का जाना अध्यापन के इस चलते-फिरते विश्वविद्यालय का अंत हो जाना है |
नामवर जी गोष्ठियों में श्रोताओं और वक्ताओं को ध्यान में रखते हुए अवसरानुकूल बोलते थे | वे अपनी वाग्मिता के सहारे श्रोताओं को झटका देने वाले और चौंकाने वाले वक्तव्य भी देते थे | एक बार जेएनयू में इतिहास-विभाग की ओर से भक्ति-आंदोलन पर विचार करने के लिए एक गोष्ठी बुलाई गई थी, जिसमें स्वाभाविक तौर पर हरबंस मुखिया सहित विशेषज्ञ इतिहासकार प्रमुख वक्ताओं में थे | प्रमुख वक्ताओं की सूची में नामवर जी भी थे। गोष्ठी संचालन से लेकर सारा कार्यक्रम अंग्रेजी में हो रहा था और विशेषज्ञ इतिहासकार तो बिना अंग्रेजी के अपना व्याख्यान देने के सोच ही नहीं सकते थे| लेकिन अवसर के अनुकूल अपने वक्तृत्व कौशल का इस्तेमाल करते हुए अपने व्याख्यान से पहले यह कहते हुए अंग्रेजी भाषा की हेकड़ी निकाल दी कि "भक्ति-आंदोलन भारतीय भाषाओं में चला था, इसलिए मै अपना वक्तव्य हिंदी में दूंगा" | इसके बाद भक्ति-आंदोलन पर अपने डेढ़ घंटे तक के व्याख्यान से न केवल विशेषज्ञ इतिहासकारों की विशेषज्ञता को धूल में मिला दिया बल्कि हिंदी भाषा की शक्ति और श्रेष्ठता को भी स्थापित किया |
वैचारिक स्तर पर नामवर जी का झुकाव मार्क्सवादी विचारधारा की ओर था| लेकिन वे मार्क्सवादी होते हुए भी जनतंत्र या लोकतंत्रवादी थे| वे धुर मार्क्सवादी कभी नहीं रहे | वे ऐसे मार्क्सवादी चिंतक थे, जिन्होंने हिंदी समीक्षा को मार्क्सवादी खांचों में घसीटने का कभी प्रयास नहीं किया| इसके बरक्स उन्होंने मार्क्सवादी मान्यताओं को ही भारतीय या हिंदी साहित्य की परम्परा के सापेक्ष देखने के लिए विवश किया और यदि संभव नही हुआ तो मार्क्सवाद को नकारने में भी उन्होंने कोताही नहीं की | इसका बड़ा कारण यह रहा है कि उनकी आलोचना का लोक ह्रदय से गहरा जुडाव रहा है| वे संगोष्ठियों में अपने भाषणों आदि के माध्यम से सही मायने में हिंदी समीक्षा को लोक के बीच रखकर लोक ह्रदय से जोड़ रहे थे, ठीक उसी तरह से जैसे आचार्य शुक्ल हिंदी साहित्य को लोक ह्रदय से जोड़ना अहम मानते थे | इसके प्रेरणा भी वे आचार्य शुक्ल से ही लेते है | वे कहते है कि "मेरी दृष्टि में हिंदी में आज तक केवल एक ही आचार्य पैदा हुआ और वह है आचार्य रामचंद्र शुक्ल। यहां तक कि मैं अपने गुरु पं- हजारी प्रसाद द्विवेदी को भी 'आचार्य' न कहता हूं और न लिखता हूं। अगर हिमालय पृथ्वी का मानदंड है तो हिंदी साहित्य के मानदंड आचार्य रामचंद्र शुक्ल ही हैं" |
विचारों और ज्ञानार्जन के प्रति उनमें खुलापन इतना था कि अपनी ही स्थापनाओं का खंडन अपने व्याख्यानों में कर दिया करते थे। वे समय और नवीन ज्ञान-विज्ञान के आलोक में अपने विचारों और मान्यताओं में बदलाव भी करते रहते थे| वे इसे अनुचित भी नहीं मानते थे| अपनी "छायावाद" पुस्तक में नामवर जी ने छायावाद की विशिष्टताओं का उद्घाटन करते है| लेकिन "कविता के नए प्रतिमान" की शुरुआत में छायावादी संस्कारों का खंडन करते है। बाद में उन्होंने "कविता के नए प्रतिमान" की स्थापनाओं का भी खंडन कर दिया। आज जब वे नहीं हैं, तो उनकी मान्यताएं, उनके भाषण और उनकी कृतियाँ ही अब हमारे मार्गदर्शक है जो आगामी पीढ़ियों को सतत प्रोत्साहित करेंगी कि वे सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक जिम्मेदारियों का सतत निर्वाह करते रहें |




Sunday 17 February 2019

‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक' : 'हाइ इज द जोश'

किसी फिल्म की सफलता का एक बड़ा पैमाना यह होता है कि उसके डायलॉग बच्चों से बूढ़ों तक, गाँव की गलियों से शहरों के आलीशान चमचमाती भवनों तक लोगों की जुबां पर किस कदर चढ़ जाता है | फिल्म उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक' का बेहद लोकप्रिय डायलॉग 'हाउ इज द जोश' (How's the Josh) राजनीतिक हलकों से लेकर आम जनजीवन में धूम मचा रहा है, जो महज फिल्म की सफलता को ही बयां नहीं कर रहा है बल्कि उस संदेश का भी बयां है जो भारतीय सेना के जवानों ने अपने अदम्य साहस के साथ दुश्मनों को उनकी कायराना हरकतों के बदले दिया था | 'हाउ इज द जोश' आज केवल देश की आम जनता की जुबां पर ही नहीं है, बल्कि यह देश में उत्साह, साहस, त्याग, वीरता और अदम्य ऊर्जा का 'टैग लाइन' या मुहावरा बन चुका है | देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई बार अपने भाषणों के दौरान इस डायलॉग को दोहरा चुके हैं।
फिल्म उरी: द सर्जिकल स्ट्राइकमहज़ एक आम युद्ध फ़िल्म नहीं बल्कि भारतीय सेना के शौर्य और साहस की एक अमर गाथा है जो उस मानसिकता और नैरेटिव या प्रोपेगंडा का प्रतिवाद करती है जिसके तहत 26/11 के मुंबई हमले को हिन्दू आतंकवाद या भगवा आतंकवाद के रूप में प्रचारित-प्रसारित करने की कोशिश की जाती है | यह फिल्म दुश्मनों को उन्ही की सरजमीं में घुसकर मुंहतोड़ जवाब देने के लिए सेना द्वारा की गई सफल कार्रवाई की दास्तां है। इसी कारण इस फिल्म को देशभर के दर्शकों से बहुत प्यार और अपार स्नेह मिल रहा है। इस फिल्म की सफलता इसमें निहित नहीं है कि यह देशवासियों की देशभक्ति के जज्बातों को कुरेदती है बल्कि देशवासियों में यह विश्वास जगाती है कि सेना पराक्रम करती है और कर सकती है | इस फिल्म का उद्देश्य देशवासियों के ज़ेहन में सिहरन पैदा करना नहीं है, बल्कि देश के टुकड़े करने वाले और उन्हें पोषित करने वाले गिरोहों को जवाब भी देना है जो दुनिया की ताकतवर सेना के जज़्बों में भी राजनीति ढूँढने में गर्व महसूस करता है।
हमारे देश का सदियों से यह स्वभाव रहा है कि हम कभी आक्रामक नहीं रहे हैं| हमारा देश बहुत ही सहनशील रहा है | भारत किसी भी अन्य देश के भू-भाग पर कब्जा करने के बारे में नहीं सोचता | हमने हमलावरों से अपने राष्ट्र की सुरक्षा के लिए संघर्ष किया है| लेकिन इसका हमें अक्सर नुकसान उठाना पड़ा है | यूनानियों से लेकर शकों, कुषाणों और बाद में अरबों, तुर्कों और अंत में अंग्रेजों ने तक इस देश के हमलावर नहीं होने और सहनशील होने का नाजायज फायदा उठाकर इस देश में कत्लो-गारद मचाया है | इस देश का दुर्भाग्य है कि इसमें हमारे देश के आम्भियों से लेकर जयचंदों और मीरजाफरों ने भी कम योगदान नहीं किया| ये उसी मानसिकता के लोग है जिन्होंने सीमापार आतंकवाद के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के बजाय हिन्दू आतंकवाद और भगवा आतंकवाद का नैरेटिव गढ़ते और प्रचारित करते रहे है |
उरी घटना के बाद आतंकवादियों को सबक सीखाने के लिए सेना की कार्यवाही इस मानसिकता को और सहनशीलता के मिथ को अचानक भंग कर देती है | सर्जिकल स्ट्राइक को परदे पर उतारकर निर्देशक ने देशवासियों को विश्वास का संदेश और देशद्रोहियों एवं दुश्मनों को सख्त कार्रवाई की चेतावनी दी है कि या नया हिंदुस्तान है जो घर में घुसेगा भी और घुसकर मारेगा भी।
फिल्म पर कई तरह के आरोप भी लग रहे हैं कि यह प्रोपेगंडा फिल्म है जो केंद्र सरकार के एजेंडा को प्रचारित कर रही है| कुछ को फिल्म में थ्रिल नहीं दीखता है क्योंकि सबकुछ एक्सपेक्टेड ही होता है | यह फिल्म एक सत्य घटना पर आधारित है, इसका कोई कल्पित स्क्रिप्ट नहीं है | फ़िल्मकार ने इस अत्यंत ख़ुफ़िया ऑपरेशन को फिल्माने के लिए एक मनोरंजक कहानी गढ़ने के बजाय सार्वजनिक स्तर पर उपलब्ध तथ्यों का बखूबी इस्तेमाल किया हैं। फ़िल्म को देखने से पता चलता है कि सर्जिकल स्ट्राइक कोई खेल नहीं था जिसे आसानी से अंजाम दिया गया हो। इसके पीछे पुराने ऑपरेशन में शामिल सेना के जवान, सैटेलाइट उपकरणों एवं ख़ुफ़िया एजेंसियों के बीच का तालमेल, अत्याधुनिक युद्ध हथियारों के संचालन में कुशलता  और जबरदस्त रणनीतिक सूझबूझ शामिल रहे हैं। इसमें प्रक्रिया में समस्त अनएक्सपेक्टेड को एक्सपेक्टेड करने की सुविचारित योजना बनायी गई थी | यह सही है कि सेना की सर्जिकल स्ट्राइक में कुछ भी एक्सपेक्टेड नहीं था, लेकिन यही तो सेना की उपलब्धि है कि उसने शौर्य, साहस और सजगता से अनएक्सपेक्टेड को एक्सपेक्टेड में बदल दिया | यदि आर्मी ऑफिसर कहता है कि मेरी टीम के हर एक बंदे को ज़िंदा वापस लाने की ज़िम्मेदारी मेरी है तो यह उस सर्जिकल स्ट्राइक का पूर्व नियोजित हिस्सा था | देश के प्रधानमंत्री भी यह स्वीकार कर चुके है कि उन्होंने सेना को निर्देश दे रखा था कि सर्जिकल स्ट्राइक की योजना सफल हो या न हो, सभी को सूर्योदय से पहले वापस आ जाना है | 
यह फिल्म उस दोषारोपण का भी प्रतिवाद करती है जो मेजर नितिन गोगोई द्वारा कश्मीरी पत्थरबाजों से अपने साथी जवानों के सुरक्षा के लिए एक पत्थरबाज को जीप के बोनट पर बांधने को भारतीय सेना पर मानवाधिकारों का हनन ठहराती है | यह फिल्म 2014 में रिलीज हुई 'हैदर' फिल्म में कश्मीरी समाज के भारतीय सेना द्वारा पीड़ित होने के कथित आरोप में देशभक्ति देखने वाली मानसिकता पर तुषारापात करती है |
संघर्ष के दृश्यों को फिल्माने के लिए बाहुबली की तरह उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक' में वीएफएक्स तकनीक का लाजवाब इस्तेमाल हुआ हैं। जिसके कारण फ़िल्म देखते वक़्त आप उसी जज़्बात और रोमाँच से स्वयं को बंधा अनुभव करते हैं जो सर्जिकल स्ट्राइक के समय भारतीय सेना के जवानों के भीतर होता है | अब यदि देश की सेना के शौर्य, साहस और दक्षता को दिखाना जहरीला राष्ट्रवाद, जैसा कि कुछ कथित बौद्धिकों के पेट में ऐठन होती है, तो ऐसे जहर का होना देश की एकता, अखंडता, संप्रभुता और अस्मिता के लिए उतना ही अनिवार्य है जितना साँस लेने के लिए ऑक्सीजन की | ऐसी स्थिति में उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक' फिल्म को लेकर लोगों में जो जबर्दस्त आकर्षण है वह कोई कोरी भावुकता नहीं बल्कि देश की जनता का उस सेना के अद्भुत और अदम्य जज्बे को सैलूट है जो अपने फ़र्ज़ के लिए हर वक्त कुर्बान रहता है |

Monday 11 February 2019

भक्ति आंदोलन


भक्ति आन्दोलन कोई कोरा धार्मिक आन्दोलन नहीं था| यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन था | सर्वप्रथम यह दक्षिण भारत में उत्पन्न और प्रसारित आंदोलन था। यह शंकराचार्य के ज्ञानमार्गीय अद्वैतवाद की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ था, जिसने भक्ति की संभावना को अवरुद्ध कर दिया था| रामानुज, निम्बार्क, मध्व और वल्लभ आदि आचार्यों ने शंकर के अद्वैतवाद के बरक्स भक्ति की पुनःस्थापना की| इसमें पहले से चली आ रही आलवार और नयनवार संतों की परम्परा ने अहम भूमिका निभायी, जिन्होंने हिंदू समाज की जातिगत संकीर्णता से विद्रोह करते हुए भक्ति का मार्ग अपनाया| दूसरा उल्लेखनीय तथ्य यह कि जिस रामानंद के माध्यम से भक्ति का आगमन दक्षिण से उत्तर की ओर हुआ, उनके विचारों की भी इस भक्ति आन्दोलन के स्वरूप निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका रही है| रामानंद जन्म-आधारित भेद-भाव और अस्पृश्यता के खिलाफ थे। सभी वर्णों और जातियों के एक साथ उठने-बैठने, खाने-पीने के पक्ष में थे वे। पूरे भक्ति आन्दोलन और भक्ति साहित्य में व्यक्त चेतना पर गौर करें तो किसी भी प्रकार के भेद-भाव का विरोध और सभी वर्णों और जातियों के बीच समानता की भावना सर्वप्रथम है| इस भावना को व्यापक महत्व देते हुए सभी भक्त कवियों ने भगवान या परम सत्ता के समक्ष सभी प्राणी समुदाय को समान घोषित किया और मानव-मात्र को एक ही ज्योति से उत्पन्न माना| अपनी सीमा के कारण वे भले ही व्यावहारिक स्तर पर भेद-भाव का विरोध और समानता की भावना को स्थापित करने में सफल नहीं हो पायें हो लेकिन अध्यात्म और साहित्य के स्तर पर दृढ़ता से ‘हरि को भजै सो हरि का होई’ की भावना को प्रसारित किया |
भक्ति आन्दोलन के स्वरूप के संबंध में के. दामोदरन का मानना है कि भक्ति के मूल में वैष्णवों के सिद्धांत होने के बावजूद यह मूलतः सामाजिक-सांस्कृतिक आदर्शों की अभिव्यक्ति थी| दामोदरन के अनुसारसांस्कृतिक क्षेत्र में उन्होंने राष्ट्रीय नवजागरण का रूप धारण किया| सामाजिक विषय-वस्तु में वे जातिप्रथा के अधिपत्य और अन्यायों के विरुद्ध अत्यंत महत्वपूर्ण विद्रोह के द्योतक थे| इस आन्दोलन ने भारत में विभिन्न राष्ट्रीय इकाइयों के उदय को नया बल प्रदान किया| साथ ही राष्ट्रीय भाषाओँ और उनके साहित्य को अभिवृद्धि का मार्ग भी प्रशस्त किया| व्यापारी और दस्तकार सामन्ती शोषण का मुकाबला करने के लिए इस आन्दोलन से प्रेरणा प्राप्त करते थे| यह सिद्धांत कि ईश्वर के सामने सभी मनुष्य, फिर वे ऊँची जाति के हों या नीची जाति के, समान हैं, इस आन्दोलन का केंद्रबिंदु बन गया, जिसने पुरोहित वर्ग और जाति के आतंक के विरुद्ध संघर्ष करने वाले आम जनता के व्यापक हिस्सों को अपने चारो ओर एकजुट किया| इस प्रकार इस आन्दोलन ने सामंती उत्पीड़न के विरुद्ध संयुक्त संघर्ष चलाने का मार्ग प्रशस्त किया और|
भक्ति आन्दोलन फैलाव राष्ट्रव्यापी था| इसने देश के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम सभी ओर स्पंदित किया | दक्षिण में रामानुज ने ब्राह्मण-अब्राह्मण सभी को अपनी शिष्य परंपरा में शामिल किया और दक्षिण में व्याप्त जातिगत कट्टरता और अस्पृश्यता जैसी विकृतियों पर प्रहार किया| उत्तर में रामानंद ने क्रांतिकारी सामाजिक विचारों का प्रसार किया| तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम आदि संतों ने इस आन्दोलन के माध्यम से महाराष्ट्र में जातीय और सांप्रदायिक एकता को मजबूत किया | इसकी तरह बंगाल में चंडीदास से लेकर चैतन्य तक सभी भक्तों ने मनुष्य मात्र की समानता जोर देते हुए भक्ति आन्दोलन को सशक्त बनाया | सबसे महत्वपूर्ण यह कि चाहे उत्तर हो, दक्षिण हो या पूर्व और पश्चिम हो, भक्ति आन्दोलन का मुख्य नेतृत्व नीची कही जाने वाली जातियों के हाथ में ही रहा | इन संतों ने आम जनता को वर्ग, धर्म, जाति और संप्रदाय की संकीर्णता से मुक्त करते हुए उनके बीच समरसता का प्रसार किया और सामंतवाद की जड़ों पर कड़ा प्रहार किया | भक्ति-आंदोलन ने शोषित-पीड़ित, उपेक्षित और अपमानित जनता को जगाया और सामाजिक समानता की आवाज मुखरित की। जन्मजात समानता है, तो जीवन में भी समानता हो। इस महान उद्देश्य को साधने के लिए जनता को जगाना भी भारतीय इतिहास में महात्मा बुद्ध के बाद ही हुआ।
भक्ति आन्दोलन की कतिपय मूलभूत प्रवृतियां थी| अलग-अलग धार्मिक विचारों के बावजूद ईश्वर के समक्ष सबकी समानता का प्रतिपादन, प्रत्येक व्यक्ति की अस्मिता और उसके सदगुणों को महत्त्व, जाति-प्रथा का विरोध, बाह्याचारों, कर्मकांडों और अंधविश्वासों की भर्त्सना, मनुष्य सत्य को सर्वोपरि मानना, आराधना के स्तर पर भक्ति को सर्वोच्च महत्त्व, जातिगत, वर्गगत और धर्मगत भेदभाव एवं उत्पीड़न का दृढ विरोध आदि भक्ति आन्दोलन के सभी पुरस्कर्ताओं के मूल प्रस्थान बिंदु हैं | भक्ति आंदोलन का नारा था -
जात-पांत पूछे नहिं कोई
हरि को भजै सो हरि का होई।।
जाहिर है कि हिंदू समाज की जाति प्रथा के खिलाफ विद्रोह का स्वर था भक्ति-आंदोलन। इस नारे और विद्रोह ने मुख्यतः सामंती वर्चस्व को चुनौती दी। सबसे महत्वपूर्ण यह कि भक्ति आंदोलन के संतों और भक्तों में नामदेव दर्जी, नानक बनिया, कबीर जुलाहा, रैदास चमार, दादू दयाल धुनिया, सेना नाई, साधना कसाई थे। इनमें नानक को छोड़कर सभी समाज में प्रायः निचले पायदान पर थे|  उन्हें मंदिर में प्रवेश करके ईश्वर से अपना दुखड़ा सुनाने का, प्रार्थना करने का भी अधिकार नहीं था।
भक्ति के प्रसार और उसके आन्दोलन  बन जाने में तत्कालीन जनभाषा की अहम भूमिका रही है | समाज में प्रायः निचले पायदान के संतों और भक्तों के द्वारा शिष्ट या संस्कृत भाषा का अपनाया जाना संभव नहीं था| एक तो तत्कालीन शिष्ट भाषा समाज के तथाकथित उच्च वर्ग की भाषा थी, दूसरे जन-जागरण के लिए जन-भाषा या लोक भाषा की जरूरत थी। भक्त कवियों ने लोक-भाषा को काव्य-भाषा बना दिया। इससे जन-चेतना के विकास की प्रक्रिया भी आगे बढ़ी। अंधविश्वासों और रूढ़ियों पर धार्मिक आडंबर पर जमकर चोट की गई।
भक्ति आंदोलन के कवि राज्याश्रित नहीं थे, बल्कि उसके खिलाफ थे। तुलसी ने तो कहा ही कि हम नर के मनसबदार नहीं बन सकते| कुंभन दास ने भी कहा-'संतन को कहाँ सीकरी सो काम' और कबीर ने कहा -'प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय| राजा-परजा जेहि रुचै सीस देई लै जाय॥'
कुलमिलाकर भक्ति-आंदोलन और भक्ति-काव्य हमारी विरासत है। हम उस महान जागरण और सृजन के वारिस हैं। भक्ति-आंदोलन ने जनता के हृदय में श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, जिजीविषा जागृत की, साहस, उल्लास, प्रेम भाव प्रदान किया, अपनी मातृभूमि, इसकी संस्कृति का विराट एवं उत्साहवर्धक चित्र प्रस्तुत किया और प्रकारंतर से लोगों के हृदय में देशप्रेम को भी जागृत किया।
उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि भक्ति आन्दोलन का स्वरुप अखिल भारतीय और बहुआयामी था| भक्तिकालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परिस्थितियों ने भक्ति आन्दोलन के उदय और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी | आचार्य शुक्ल भक्ति आन्दोलन के उदय में तत्कालीन परिस्थितियों को अहम मानते है तो आचार्य द्विवेदी परिस्थितियों को नहीं नकारते हुए भी परंपरा पर जोर देते है| इस आन्दोलन में अवर्ण से लेकर सवर्ण, महिला से लेकर पुरुष, शिक्षित से लेकर अशिक्षित और हिन्दू से लेकर मुसलमान तक सभी शामिल थे | कुलमिलाकर यह आन्दोलन अपने स्वभाव में जनतान्त्रिक था | भक्ति साहित्य इसी आन्दोलन की देन है |

भारत में क्रिकेट: तब और अब


एक स्वस्थ और आंनदमय जीवन में खेलों का उतना ही महत्त्व है जितना खेलों का मनोरंजक और रोमांचक होना | लोकप्रियता, दीवानगी और रोमांचकता के मामले में फुटबाल के बाद दुनिया में सबसे ज्यादा लोकप्रिय खेल क्रिकेट है। क्रिकेट की रोचकता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब तक अंतिम गेंद नहीं डाली जाती, तब तक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है | कई बार तो दोनों टीमों की जीत सिर्फ अंतिम गेंद पर ही टिकी हुई होती है | वर्तमान समय में क्रिकेट अब केवल खेल नहीं रहा, यह जुनून बन चुका है, इसमें अपार यश है, लोकप्रियता है और दौलत है। कभी गोरे अंग्रेजों का खेल कहलाने वाला क्रिकेट आज एशियाई देशों में आम आदमी की आत्मा में बस चुका है। भारत में इस खेल के प्रति जुनून का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह भारत की लगभग हर गली-गूचों, सड़कों और गांवों में खेला जाता है | भारत में क्रिकेट से दीवानगी इस कदर है कि इस देश में क्रिकेटरों की पूजा की जाती है| भारतीय क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को तो क्रिकेट के भगवान का ही दर्जा दे दिया गया |

भारत में क्रिकेट की शुरुआत
यह तो एक शाश्वत सत्य है कि क्रिकेट की शुरुआत 16 वीं शताब्दी में इंग्लैंड में हुई, जो कि मौज-मस्ती या मन बहलाने के लिए खेला जाता था | बाद में यह खेल उन देशों में तेजी से बढ़ा, जो ब्रिटेन के उपनिवेश थे |
भारत में पहली बार 1721 में ईस्ट इंडिया कंपनी के नाविकों द्वारा बड़ौदा के पास कैम्बे में क्रिकेट खेले जाने की जानकारी मिलती है | साल 1792 में कलकत्ता क्रिकेट क्लब की स्थापना की गई। जहां आज ईडेन गार्डन मैदान है वहीं कलकत्ता क्रिकेट क्लब की शुरुआत हुई। इसके पांच सालों के बाद बॉम्बे (अब मुंबई) में पहले मैच का आयोजन हुआ । इस तरह सबसे पहले क्रिकेट खेलने वाला भारतीय शहर बॉम्बे बना। 18वीं शताब्दी के खत्म होते ही पारसियों ने भी इस खेल में अपनी रुचि दिखाई और ओरिएंट क्लब की स्थापना की | भारत में फर्स्ट क्लास क्रिकेट की शुरूवात 1864 में हुयी जो मैच अंग्रेजो द्वारा मद्रास क्लब और कलकत्ता क्लब के बीच खेला गया | 1895 में भारत में प्रेसीडेंसी मैचेज नाम से घरेलू टूर्नामेंट की शुरुआत हुई | इस टूर्नामेंट में पहला मैच यूरोपियों और पारसियों के बीच ही खेला गया।
प्रथम भारतीय क्रिकेट खिलाड़ीश्री रणजीत सिंह जी
भारत में सबसे पहले क्रिकेट खेलने वाले खिलाड़ी कुमार रणजीत सिंह जी थे | उस समय रणजीत सिंह अपने क्रिकेट करियर के चरम पर थे। श्री रणजीत सिंह जी को सभी अंग्रेज खिलाड़ी प्यार से रणजी कहकर पुकारते थे| रणजी का नाम क्रिकेट के महान बल्लेबाजो में से गिना जाता था, जिनकी आक्रामक बल्लेबाजी से विरोधी टीम पस्त हो जाती थी | रणजी लेट कटमें एक माहिर बल्लेबाज थे जिन्होंने लेग ग्लांसका भी अविष्कार किया था | 1896 में उन्होंने पहला मैच इंग्लैंड की तरफ से आस्ट्रेलिया के खिलाफ खेला था |
साल 1907 में भारतीय लोगों ने अपनी टीम बनाई और यूरोपीय और पारसियों के साथ त्रिकोणीय श्रृंखला खेलना शुरू किया | वर्ष 1911 में एक ऑल इंडिया टीम ने पटियाला के महाराजा की अगुआई में इंग्लैंड का दौरा किया था। लेकिन उस दौरान हुए मैचों को कोई अधिकारिक मान्यता प्राप्त नहीं थी | धीरे धीरे यह खेल पूरे भारत मे लोकप्रिय हो गया।
भारत का टेस्ट क्रिकेट में पदार्पण
भारत में किक्रेट का प्रचार-प्रसार करने के लिए 1928 में बोर्ड ऑफ़ कंट्रोल फ़ॉर क्रिकेट इन इंडिया (बीसीसीआई) की स्थापना हुई। भारत ने टेस्ट क्रिकेट में पहला क़दम इंग्लैंड के विरुद्ध लॉर्ड्स के मैदान पर  सन् 1932 में रखा था। इसी साल भारत को टेस्ट देश का दर्जा हासिल हुआ। इस टेस्ट में भारतीय टीम के कप्तान सी0 के0 नायडू थे। एक टेस्ट की शृंखला में भारत यह टेस्ट 158 रन से हारा। इसी टेस्ट मैच में अमर सिंह पहला अर्धशतक लगाने वाले भारत के पहले खिलाड़ी बने थे | उस समय टेस्ट तीन दिनों का हुआ करता था | टेस्ट मैचो में भारत की ओर से गेंद फेंकने वाले पहले गेंदबाज मोहम्मद निसार थे | भारत के लिए पहला टेस्ट विकेट (इंग्लैंड के होम्स का) भी मोहम्मद निसार ने ही इसी टेस्ट में लिया था | 1952 तक भले ही टेस्ट मैचों में भारत के हाथों से जीत फिसलती रही लेकिन भारतीय क्रिकेटरों ने अपने अविस्मरणीय प्रदर्शनों से क्रिकेट जगत में धूम मचाये रखा | टेस्ट क्रिकेट में भारत की ओर से पहला शतक लाला अमरनाथ ने 1933-34 में मुम्बई में इंग्लैंड के विरुद्ध बनाया था| विदेशी धरती पर भारत के लिए पहला शतक बनाने वाले बल्लेबाज मुश्ताक अली थे उन्होंने यह शतक 1936 में इंग्लैंड के विरुद्ध मैनचेस्टर टेस्ट में बनाया था| टेस्ट मैच की दोनों पारियों में शतक बनाने वाले पहले भारतीय बल्लेबाज विजय हजारे थे|
उन्होंने यह शतक (116 रन और 145 रन) 1947-48 में ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध एडिलेड टेस्ट में बनाए थे| साल 1934 में बीसीसीआई ने भारत के राजकुमारों और रियासतों के मध्य एक राष्ट्रीय टूर्नामेंट का आयोजन किया। इसी टूर्नामेंट का नाम भारत के महान खिलाड़ी के एस रणजीत सिंह के नाम पर रणजी ट्रॉफी पड़ा। इसके अलावा बोर्ड ने अंतः विश्वविद्यालयीन प्रतियोगिताओं की शुरुआत भी की।
आजादी के बाद भारतीय क्रिकेट
भारत को पहली टेस्ट जीत आजादी के बाद 1952 में इंग्लैंड के खिलाफ हासिल हुई थी। भारत ने मद्रास में इंग्लैंड को एक पारी से हरा दिया था | इंग्लैंड के साथ भारत यह टेस्ट श्रृंखला तो नहीं जीत पाया| लेकिन पहली टेस्ट श्रृंखला-जीत का यह इंतजार तुरंत ही समाप्त हो गया जब लाला अमरनाथ की कप्तानी में ही 1952-1953 में पाकिस्तान के खिलाफ खेली गई पहली टेस्ट श्रृंखला को भारत ने जीत लिया | इसके बाद पूरे 50 के दशक में कई टेस्ट श्रृंखलाओं में हार के बावजूद भारत ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और धीरे-धीरे क्रिकेट जगत में अपनी धमक बनाता गया |
विजय हजारे, विनू मांकड, गुलाम अहमद, पॉली उमरीगर, हेमू अधिकारी, दत्ता गायकवाड़, पंकज रॉय, गुलाब राय रामचन्द जैसे क्रिकेटरों ने अपने प्रदर्शनों से भारतीय क्रिकेट को मजबूती प्रदान की | पॉली उमरीकर पहले भारतीय बल्लेबाज थे जिन्होंने टेस्ट मैचो में दोहरा शतक लगाया था | उन्होंने यह उपलब्धि 1955-56 में हैदराबाद में न्यूजीलैंड के विरुद्ध प्राप्त की थी| 
1959-60 में भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने जेड. ई. ईरानी, जो भारतीय क्रिकेट बोर्ड के आजीवन सदस्य थे, के नाम पर ईरानी ट्रॉफी की शुरुआत की जो रणजी चैंपियन और शेष भारत की टीम के बीच खेला जाता है| 
1960 के दशक में भारतीय क्रिकेट
1960 के दशक में भारतीय क्रिकेट टीम में सुधार होने लगा और 1961-62 में इंग्लैंड के खिलाफ पहली बार टेस्ट श्रृंखला में जीत ली| भारतीय टीम ने विदेशी धरती पर पहली जीत मंसूर अली ख़ान पटौदी, जिन्हें टाइगर पटौदी भी कहा जाता था, के नेतृत्व में न्यूजीलैंड के खिलाफ 1967 में की थी| टाइगर पटौदी ने ही भारतीय टीम में तेज गेंदबाजों की कमी को पूरा करने के लिए चार स्पिनर्स या स्पिन क्वॉर्टेट का मशहूर फ़ॉर्मूला लागू किया जिसका परिणाम हमें 70 के दशक में देखने को मिला |
नारी कॉन्ट्रेक्टर, चन्दू बोर्डे, हनुमंत सिंह, सुभाष गुप्ते और बापू नादकर्णी इस दौर के प्रमुख क्रिकेटर रहे है| 1961-62 में ही घरेलू स्तर पर प्रथम श्रेणी के क्रिकेट के लिए कुमार दिलीप सिंह जी की याद में दिलीप ट्रॉफी की नींव रखी, जो भारत के भौगोलिक क्षेत्रों की टीमों के बीच खेला जाता है |
रन मशीन सुनील गावस्कर और स्पिन चौकड़ी की हेकड़ी
70 के दशक में भारतीय टीम की बागडोर अजीत वाडेकर ने संभाली और अपने पुराने सिपाही दिलीप सरदेसाई, और नए खिलाड़ी सुनील गावस्कर की अविस्मरणीय पारियों एवं भागवत चंद्रशेखर के बेहतरीन प्रदर्शन की मदद से नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया| भारत ने वेस्टइंडीज में अपनी पहली जीत दर्ज की और इसके तुरंत बाद उन्होंने इंग्लैंड में उसके खिलाफ भी सीरीज जीत ली | सुनील गावस्कर और गुंडप्पा विश्वनाथ जैसे करिश्माई बल्लेबाजों ने रनों का पहाड़ खड़ा करना शुरू किया और भारतीय बल्लेबाजी अभेद्य बन गई |
सुनील गावस्कर और गुंडप्पा विश्वनाथ
सुनील गावस्कर को 'लिटिल मास्टर' और 'रन मशीन' की उपाधि से नवाजा गया | दूसरी ओर भागवत चंद्रशेखर, बिशन सिंह बेदी, प्रसन्ना और वेंकट राघवन की चौकड़ी ने विपक्षी टीमों की नाक में दम करके रख दिया | भारतीय टीम ने एक दिवसीय (वनडे) क्रिकेट की दुनिया में अपने सफ़र की शुरुआत 1974 में की
| एक दिवसीय टीम के पहले कप्तान अजित वाडेकर थे | 1978 में भारतीय क्रिकेट को कपिल देव के रूप में तेज रफ़्तार, जिसके कारण उन्हें 'हरियाणा हरिकेन' कहा जाता था, मिली, जिसने अपनी घातक गति से दुनिया भर के बल्लेबाजों में खौफ पैदा कर दिया |
विश्व कप में बादशाह की शुरुआत
80 के दशक में कपिल देव के नेतृत्व में 1983 में भारतीय क्रिकेट टीम ने उस समय की ताकतवर और लगातार तीसरी बार विश्व कप की विजय की हक़दार मानी जाने वाली वेस्टइंडीज को हराकर एक दिवसीय मैचों का विश्व कप जीतकर धमाकेदार शुरुआत की और वेस्टइंडीज के साथ ही इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया के वर्चस्व को भी हिला दिया|
कपिल देव के आलावा मोहिंदर अमरनाथ, मदनलाल और रोजर बिन्नी के हरफनमौला प्रदर्शनों के बदौलत ने भारत ने सभी देशों को धूल चटा दिया| इस दशक में लगातार 28 टेस्ट मैचों में बिना किसी जीत के बावजूद भारत ने 1984 में एशिया कप और 1985 में आस्ट्रेलिया में हुए बेंसेन एवं हेजेज विश्व कप को भी जीत लिया, और एक दिवसीय मैचों का बादशाह बन गया | रविशास्त्री अपने हरफनमौला प्रदर्शन के बल पर चैम्पियन ऑफ़ चैम्पियंस बनकर उभरे| 1986 में भारत ने इंग्लैंड को उसकी धरती पर हराकर 19 वर्षों के बाद टेस्ट श्रृंखला जीत ली लेकिन अपनी ही जमीन पर 1987 में हुए रिलायंस विश्व कप जीतने में नाकामयाब रहा | इसी दशक में  सुनील गावस्कर टेस्ट क्रिकेट में दस हजार रन बनाने वाले दुनिया के पहले क्रिकेटर बने और रिकॉर्ड 34 शतक भी बनाए | कपिल देव भारत के पहले सफल ऑलराउंडर के रूप में उभरे जो उस समय तक 434 विकेट लेकर विश्व के सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले खिलाड़ी बने थे| लेकिन इस दशक के मध्य में मो.अजहरुदीन और दशक के अंत में सचिन तेंदुलकर ने भारती क्रिकेट ही नहीं, विश्व क्रिकेट में धमाकेदार आगाज किया | मो.अजहरुदीन ने अपने पदार्पण टेस्ट के साथ ही प्रथम तीन टेस्टों में तीन शतक जमकर विश्व रिकॉर्ड बना दिया |
सचिन तेंदुलकर: क्रिकेट का भगवान
90 के दशक में मो.अजहरुदीन की कप्तानी को सचिन तेंदुलकर की धुंआधार बल्लेबाजी का साथ मिला | उनकी कप्तानी में भारत घर पर बिलकुल नही हारा था लेकिन उनके मैच फिक्सिंग में शामिल होने के आरोप से भारतीय क्रिकेट के स्वर्णिम इतिहास पर एक धब्बा भी लगा | कपिल देव के सन्यास लेने के बाद तेज गेंदबाजी की बागडोर जवागल श्रीनाथ और वेंकटेश प्रसाद संभाली, वही स्पिन गेंदबाजी में अनिल कुंबले बल्लेबाजों के लिए खौफ बन गए | इस दशक में भारत ने घरेलू मैदानों पर 30 में से 17 टेस्टों में शानदार जीत दर्ज की| इस बीच सचिन तेंदुलकर, जिन्हें 'मास्टर ब्लास्टर' भी कहा गया, ने तकनीक और आक्रामकता की दृष्टि से सुनील गावस्कर को भी पीछे छोड़कर विश्व के सर्वकालिक महानतम बल्लेबाज बन गए | सचिन तेंदुलकर ने न केवल सुनील गावस्कर के सर्वाधिक शतकों और सर्वाधिक रनों के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ा, बल्कि टेस्ट और एक दिवसीय मैचों दोनों में कुल 100 शतकों के साथ 34000 से अधिक रन बनाकर आगामी बल्लेबाजों के लिए एक नया मानक भी निर्धारित कर दिया |
अपने निर्दोष और विस्फोटक शैली से तेंदुलकर ने क्रिकेट के सर्वकालिक डॉन ब्रेडमैन को भी अपना मुरीद बना लिया | सचिन तेंदुलकर को सौरभ गांगुली और राहुल द्रविड़ जैसे बल्लेबाजों का साथ मिला, जिसने भारतीय बल्लेबाजी को नयी ऊंचाई प्रदान की | इनके दम पर भारतीय टीम ने टेस्ट मैचों में घरेलू मैदानों पर अपने वर्चस्व को बनाए रखा और साथ ही विदेशों में भी बराबरी का टक्कर देना शुरू किया | लेकिन विश्व कप नहीं जीतने के बावजूद एक दिवसीय मैचों में एक प्रमुख शक्ति बनी रही | इस दशक के अंत तक भारतीय क्रिकेट पर मैच फिक्सिंग पर बदनुमा दाग भी लगा, जिसके कारण मो.अजहरुदीन और अजय जडेजा सहित कई खिलाडियों को क्रिकेट से प्रतिबंधित कर दिया गया |
2000 के बाद गांगुली की दादागिरी   
मैच फिक्सिंग के कलंकों के बीच सौरभ गांगुली ने भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तानी संभाली और साथ ही भारतीय क्रिकेट के इतिहास में पहली बार विदेशी कोच के रूप में न्यूजीलैंड के क्रिकेटर रहे जॉन राइट की नियुक्ति की गई | गांगुली और जॉन राइट की युगलबंदी ने भारतीय क्रिकेट के मिजाज को बदल दिया जो अब किसी भी स्थिति में जीत दर्ज करने की मानसिकता के साथ मैदान में उतरने लगी |
इसका परिणाम यह हुआ कि लगातार 15 टेस्ट मैचों में जीत के साथ विश्व-विजय पर निकली आस्ट्रेलियाई टीम से एक टेस्ट में मात खाने के बावजूद वीवीएस लक्ष्मण, राहुल द्रविड़, तेंदुलकर, कुंबले और हरभजन सिंह के जुझारू प्रदर्शनों के बल पर उसके विजय-रथ को रोक दिया | यही नहीं, 2003 विश्व कप में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते हुए फाइनल तक का सफ़र पूरा किया | इस दौरान युवराज सिंह, जहीर खान, मोहम्मद कैफ, गौतम गंभीर, वीरेंद्र सहवाग और महेंद्र सिंह धोनी जैसे कई युवा खिलाडियों ने अपनी चुस्ती और स्फूर्ति से भारतीय टीम को एक नई ऊर्जा प्रदान की |
2002-03 में सुप्रसिद्ध क्रिकेटर विजय हजारे के नाम पर विजय हजारे ट्रॉफी की शुरुआत हुई जो सीमित ओवरों का रणजी ट्रॉफी है और राज्यों की टीमों के बीच खेला जाता है |
धोनी के धमाके
भारतीय क्रिकेट में महेंद्र सिंह धोनी का आगाज कतिपय शुरुआती असफलताओं के बाद धमाकेदार अंदाज में हुआ, जिससे लंबे समय से एक विस्फोटक विकेटकीपर-बल्लेबाज की भारतीय टीम की खोज पूरी हो गई | 2007 विश्व कप में भारतीय टीम के पहले ही दौर में बाहर हो जाने के बाद टीम बड़े बदलाव की जरुरत महसूस की गई | इसी दौरान विश्व क्रिकेट में सीमित ओवरों वाले एक नए फॉर्मेट टी-20(T20) का आगाज हुआ, जिसके विश्व कप का आयोजन भी 2007 में हुआ | भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने टी-20 के लिए युवा जोश और दमखम वाली टीम की जरुरत को ध्यान में रखते हुए महेंद्र सिंह धोनी के नेतृत्व में एक ऐसी टीम चुनी जिसमें वीवीएस लक्ष्मण, राहुल द्रविड़, तेंदुलकर, कुंबले जैसे धुरंधर नहीं थे | इस टीम के अधिकांश खिलाडियों के पास कोई बड़ा अनुभव नहीं था लेकिन अपने जोश और जुनून के दम पस इस टीम ने पहले ही टी-20 विश्व कप को जीतकर फिर से इतिहास रच दिया|
स्वयं महेंद्र सिंह धोनी ने बिजली जैसी स्फूर्ति के साथ विकेटकीपिंग का नया स्टैण्डर्ड स्थापित किया है जिसके नजदीक दुनिया का कोई भी विकेटकीपर अभी तक पहुँच नहीं पाया है| कोई इसके बाद महेंद्र सिंह धोनी को बाद में क्रिकेट के तीनो फॉर्मेट का कप्तान बना दिया गया जिनके नेतृत्व भारत ने 2011 में एक दिवसीय मैचों के आईसीसी विश्वकप को जीत लिया बल्कि 2007-2008 में कॉमनवेल्थ बैंक सीरिज, 2010 और 2016 में एशिया कप और 2013 में आईसीसी चैंपियन ट्रॉफी भी जीतकर विश्व क्रिकेट भारतीय क्रिकेट टीम की बादशाहत को पुनः स्थापित कर दिया | इस दौरान धाकड़ क्रिकेटर युवराज सिंह ने अपने हरफनमौला प्रदर्शन से अपना लोहा मनवाया | जहीर खान, वीरेंद्र सहवाग, गौतम गंभीर, इरफ़ान पठान, रविचंद्रन अश्विन ने क्रिक्रेट के सभी फॉर्मेट में उम्दा प्रदर्शन किया | यही नहीं, धोनी की कप्तानी में भारतीय टीम ने टेस्ट मैचों में जो विश्व-विजय का अभियान शुरू किया, उस अश्वमेघ को 2016 के बाद विराट कोहली के नेतृत्व में भारतीय टीम आगे बढाने का काम कर रही है |
2008 में टेस्ट कप्तानी संभालने के बाद धोनी की टीम ने न्यूजीलैंड और वेस्टइंडीज को उन्ही की जमीन उन्हें परास्त किया | इसके साथ ही 2008, 2010 और 2013 में ऑस्ट्रेलिया को हराकर और बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफी पर कब्ज़ा करते हुए धोनी ने 2009 में ICC टेस्ट रैंकिंग में पहली बार भारतीय टीम को नंबर एक स्थान पर पहुंचा दिया। धोनी की कप्तानी में भारतीय टीम ने 2013 में टेस्ट श्रृंखला में ऑस्ट्रेलिया को व्हाइटवॉश करने करने वाली 40 से अधिक वर्षों में पहली टीम बन गई |
2008 में घरेलू स्तर पर भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने टी-20 को बढ़ावा देने के लिए आईपीएल(इंडियन प्रीमियर लीग) की शुरुआत की, जो देश के 8 शहरों की टीमों के बीच खेला जाता है जिनका स्वामित्व पूरी तरह से निजी हाथों में होता है और टीम का चुनाव देशी-विदेशी खिलाडियों की निलामी द्वारा किया जाता है| आईपीएल से न केवल क्रिकेटरों को अपार शोहरत और दौलत मिली बल्कि छोटे शहरों के प्रतिभावान क्रिकेटरों को उभरने का भी अवसर मिला | 
कोहली का विराट युग
2014 में टेस्ट और 2016 में एकदिवसीय कप्तानी से धोनी के स्वैच्छिक अवकाश लेने के बाद युवा विराट कोहली ने सभी फॉर्मेट में टीम का नेतृत्व संभाला | कोहली के नेतृत्व और महेंद्र सिंह धोनी के कुशल मार्गदर्शन में भारतीय टीम के विजय अश्वमेध आगे बढ़ता जा रहा है | रोहित शर्मा, शिखर धवन, भुवनेश्वर कुमार, जसप्रीत बुमरा, मोहम्मद शामी के विस्फोटक प्रदर्शनों के बल पर भारतीय टीम नया इतिहास रच रही है |
टेस्ट क्रिकेट के 87 वर्षों के अब तक के सफ़र में भारतीय टीम ने कुल 533 टेस्ट मैच खेले है, जिसमें उसे 150 में जीत और 165 में हार का सामना करना पड़ा है जबकि भारत ने कुल 961 एक दिवसीय मैच खेले हैं जिसमें 498 में जीत हासिल हुई है और 414 में हार का सामना करना पड़ा है | भारतीय टीम (Indian Test Cricket) का सर्वोच्च स्कोर 726 रन (9 विकेट पर घोषित ) रहा है जो दिसम्बर 2009 में मुम्बई में श्रीलंका के विरुद्ध बनाया था | दूसरी तरफ सबसे कम स्कोर 1974 में लॉर्ड्स के मैदान पर इंग्लैंड के खिलाफ केवल 42 रन बनाये थे |
आज हमारे देश में क्रिकेट एक जुनून,  दीवानगी और धर्म की तरह है और इसलिए ही शायद इस वक्त हम क्रिकेट में एक महाशक्ति हैं| आज भारत में हर माता-पिता चाहते है कि उनका बच्चा क्रिकेट खिलाडी ही बने | आज क्रिकेट हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बन गया है। लाला अमरनाथ से लेकर सुनील गावसकर, कपिल देव, तेंदुलकर, धोनी और विराट कोहली जैसे खिलाड़ियों की क्रिकेट उपलब्धियों पर गर्व किया जा सकता है।