Tuesday 24 September 2019

स्त्री-सुरक्षा की त्रासदी और नवरात्रि का संकल्प


नवरात्रि में नारी शक्ति की उपासना होती है, जो नारी को स्वयं की एवं शेष समाज को उसकी शक्ति की याद दिलाता है, शक्ति को अनुभूत कराता है| शक्ति प्राणी मात्र की सृष्टि और उर्जा की इकलौती स्त्रोत है जिसके बिना प्राणी शव के समान होता है | सृष्टि, रक्षा तथा संहार ये तीनों क्रियाएं शक्ति द्वारा ही संपन्न होती हैं। इसीलिए देवी को त्रिगुणात्मक कहा गया है। नवरात्रि में भारत में कन्याओं को देवी तुल्य मानकर पूजा जाता है| यह सिर्फ मिथकीय पूजा नहीं, यह स्त्री के सम्मान, सामर्थ्य और उसके स्वाभिमान की पूजा है| भारतीय संस्कृति में ईश्वर के रूप की प्रथम कल्पना मातृरूप में की गई है जिसमें कोई दूषित भावना और छल-कपट नहीं रहता| लेकिन त्रासदी यह है कि जिस कन्या को समाज में देवी का रूप माना जाता है, उसके साथ तरह-तरह के जघन्य अपराधों को अंजाम दिया जाता है। नारी शक्ति की मान्यता तथा वास्तविक जीवन में नारी के प्रति आचरण में अंतर की खाई चौड़ी हो गई है, क्योंकि स्त्री के सम्मान के प्रति सामाजिक और राजनीतिक के साथ-साथ मानसिक-आत्मिक संवेदनशीलता कम हो गई है। शर्मनाक तो यह है कि पुरुषों का एक बड़ा वर्ग इसे सामान्य व्यवहार मानता है| कुछ अर्थलोलुप भस्मासुरों ने स्त्रियों के साथ घिनौने कर्मों को अपना व्यवसाय बना लिया है | एक तरफ जहां नवरात्र में देवी मां की बड़ी तन्मयता के साथ पूजा की जाती है, भगवती जागरण होते हैं, वहीं नवरात्र के ठीक बाद से ये लोग उसी देवी के रूप कन्याओं और महिलाओं का शोषण और उनका अपमान करने से थोड़ा भी नहीं हिचकते|

स्वामी विवेकानन्द का कथन है- ''किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है, वहाँ की महिलाओं की स्थिति| जिस समाज में स्त्री का स्थान सम्मान और गौरव का होता है, वही समाज सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होता है। कड़वा सत्य है  कि 21वीं सदी के बदलते भारत में ना तो समाज की सोच बदली है और ना ही हमारे देश की बेटियों के प्रति समाज की दूषित मानसिकता में सुधार आया है। समय बदल रहा है, परंपराएं बदल रही हैं, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य भी बदल रहे हैं। भूमंडलीकरण के प्रभाव से नए दृष्टिकोण और नए मूल्य स्थापित हो रहे हैं, लेकिन महिलाओं की स्थिति में खास बदलाव नहीं आया| सरकारें और प्रशासन महिलाओं की सुरक्षा के लिए अत्यंत ही गैर जिम्मेदार रवैया अपनाती है | हमारे देश में महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर बहुत सी फिल्में बनती हैं। इस विषय पर सेमिनार होते हैं, अनगिनत सम्मेंलन होते हैं लेकिन समाज की सोच में कोई बदलाव नहीं आता| लोग फिल्म देखने के बाद उसके टिकट फाड़ देते हैं, सेमिनार और सम्मेलनों में आंखें बंद करके दूसरे विचारों में खो जाते हैं और कन्याओं और महिलाओं के साथ ऐसे ही अमानवीय व्यवहार होता रहता है| ना तो ज़मीनी हकीकत बदलती है और ना ही महिलाओं की स्थिति में सुधार आता है।

कहा जाता है कि जब-जब आसुरी शक्तियों के अत्याचार से जीवन, मानवता, समाज और संस्कृति तबाह होती है। तब-तब शक्ति का अवतरण होता है| आधुनिक परिवेश में शाब्दिक अर्थों में अवतरण संभव नहीं बल्कि शक्ति का संधान संभव है | हिंदुस्तान जब गुलाम था तब भारतेंदु से लेकर मैथिलीशरण गुप्त और निराला एवं प्रसाद ने देश की जनता को अपनी शक्तियों को साधने, आराधन करने और समन्वय करने का बार-बार आह्वान किया है | उनका यह आह्वान व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर है, जो इस बात का प्रतीक है कि हमें अपने से बाहर के असुर भाव को नष्ट करना आवश्यक नहीं है बल्कि भीतर के असुर को भी नष्ट करना होगा, तभी महिलाओं और अन्यों के प्रति दूषित मानसिकता से मुक्त हुआ जा सकता है | निराला के राम द्वारा अनन्य समर्पण के साथ शक्ति पूजा के बाद ही शक्ति होगी जय होगी जय हे पुरुषोत्तम नवीन का आश्वासन देती है| वस्तुतः शक्ति मनुष्य में समाहित वह शक्ति है जिसे यदि पहचाना जाय, जगाया जाय तो मनुष्य हर पल और हर क्षण अपने भीतर के दुर्गुणों के ऊपर जीत हासिल कर सकता है | स्त्री शक्ति का आदर एवं सम्मान हमारे स्वभाव में समाहित होना चाहिए | नवरात्र और उसमें शक्ति की आराधना और उपासना से हमें व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर अपने भीतर के आसुरी भाव या दूषित मानसिकता को नष्ट करना होगा | यह सुनिश्चित करना होगा कि देवियों और कन्याओं का पूजन नवरात्र तक ही सीमित न रहे। इसके लिए आवश्यक है कि समाज में स्त्रियों के सम्मान के प्रति एक सकरात्मक वातावरण तैयार हो | इसके बिना समाज में घूम रहे महिषासुरों का वध करना संभव नहीं होगा | महिलाओं के प्रति अपराधों को रोकना अकेले पुलिस, प्रशासन और राजव्यवस्था की ज़िम्मेदारी नहीं है। ये तंत्र हर जगह मौजूद नहीं हो सकते लेकिन समाज हर जगह मौजूद है और समाज को कन्याओं और महिलाओं के प्रति अपनी सोच बदलनी पड़ेगी| कन्याओं और महिलाओं को समाज में गरिमामयी और सुरक्षित स्थान प्रदान किये बिना एक सभ्य समाज और बेहतर मानवीय संस्कृति की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती | यह तभी संभव जब आज की परिस्थितियों में नवरात्र के उपवास और उपासना के बहाने हम अपनी दुष्प्रवृतियों को नष्ट कर आत्मिक शुद्धि कर सकें और अपनी जीवनशैली में सुधार ला सकें | नवरात्रि की उपासना शरीर और आत्मा के बीच एक रागात्मक संबंध स्थापित करती है। दूसरे शब्दों में कहें, यह केवल ईश्वर के प्रति समर्पण नहीं बल्कि स्वयं को अनुशासित करने का संधान भी है।


Sunday 15 September 2019

भारतीय भाषाओँ की अस्मिता की समग्रता है हिन्दी

नई शिक्षा नीति के ड्राफ्ट में हिंदी को प्रमुखता देने की खबर के बाद मैकाले मानस-पुत्रों को अन्य भाषाओँ का गला घोंटने और रोजी रोटी छीनने के षड्यंत्र का एहसास होने लगा । इस हाय-तौबा में उन लोगों की आवाज सबसे अधिक ऊँची थी, जिनका भारतीय भाषाओँ से संबंध मात्र उतना ही है जितना वह भाषा उनकी सियासी जरूरतों एवं आकांक्षाओं को पूरा करने का माध्यम भर है या उन लोगों की थी जो अंग्रेजी को काबिलियत की एकमात्र कसौटी मानते है| दक्षिण भारतीय नेताओं, लोगों और पार्टियों ने बेसुरा राग अलापते हुए हिंदी विरोधी गैर जिम्मेदाराना बयान दिया भी दिया था |
आजादी के बाद से ही गैर हिंदी विशेषकर दक्षिण भारतीय नेताओं और पार्टियों को जब भी हिंदी के विरोध से सियासी रोटी के पकने की संभावना दिखी, तब-तब उन्हें कथित भाषाई अस्मिता को हिंदी से खतरा नजर आने लगता है। आजादी के आंदोलन में और आजादी के पूर्व भी गैर-हिंदी भाषी लोगों ने हिंदी को अपनाया। माधवराव सप्रे, विनोबा भावे, बाबूराव विष्णु पराड़कर, वी. कृष्णस्वामी अय्यर, शारदाचरण मित्र, सुनीतिकुमार, पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, केशवचंद्र सेन ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं कि गैर हिंदी प्रदेशों के विद्वानों और नेताओं ने हिंदी को लेकर पूरे देश को एकजुट करने का उपक्रम किया था। शंकरराव कप्पीकेरी ने तो यहाँ तक माना है कि हिन्दी का पौधा दक्षिणवालों ने त्याग से सींचा है| अनंत गोपाल शेवड़े ने स्वीकार किया है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी का किसी क्षेत्रीय भाषा से कोई संघर्ष नहीं है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ एक दूसरे की हमजोली हैं | लेकिन कालांतर में इस तथ्य की उपेक्षा कर भाषा को राजनीति के औजार के तौर पर उपयोग किया गया। वास्तव में राजनीतिक, प्रशासनिक और व्यावसायिक हितों को बनाए रखने के लिए दक्षिण भारतीय राजनीतिज्ञों ने हिंदी का विरोध किया और अपनी मातृभाषाओँ के बजाय अंग्रेजी को प्रश्रय दिया | इसकी परिणति आज यह हुई है कि हिंदी के प्रभाव से नहीं बल्कि अंग्रेजी के वर्चस्व से दक्षिण भारतीय भाषाएँ हाशिए पर सिमटने को विवश है। अंग्रेजी का वर्चस्व इतना है कि उसके सामने सभी भारतीय भाषाओं की सामूहिक शक्ति भी लाचार सी हो गई है।
सच्चाई यह है कि जब भी अंग्रेजी के प्रभाव से मुक्त होने की बात या कोशिश होती हैकुछ लोगों और क्षेत्रों को हिंदी थोपे जाने का डर सताने लगता है। इसका कारण यह है कि मैकाले मानस-पुत्रों ने सम्पूर्ण प्रशासनिक या राजनीतिक मशीनरी को इस तरह से अपने शिकंजे में जकड़ रखा है कि हमारे नेता उनके जाल में उलझ गये है तात्पर्य है कि अंग्रेजीदां लोगों ने बड़े ही धूर्ततापूर्ण तरीके से एक ओर भाषा के प्रश्न को सियासत का प्रश्न बना दिया है और विकल्प के रूप में अंग्रेजी से चिपकने के लिए विवश किया है। दरअसल ये पूरे तौर पर एक षड्यंत्र है, और षड्यंत्रकारियों को पता है कि अंग्रेजी को विस्थापित करने का काम भारतीय भाषाओं की एकजुटता के बगैर संभव ही नहीं है, इसलिए वे हिंदी के वर्चस्व का भ्रम फैलाते है| ऐसी स्थिति में भारतीय भाषाओं के बीच ये विश्वास पैदा करने का काम हिंदी का है कि हिंदी किसी भी अन्य भारतीय भाषा के विकास में बाधक नहीं, बल्कि साधक है| भारतीय भाषाओं और हिंदी के ऐतिहासिक संबंधों की पड़ताल करें तो यह पाते हैं कि हिंदी ने किसी भी अन्य भारतीय भाषा का कभी कोई अहित नहीं किया। न ही उनके अस्तित्व को कभी चुनौती दी। हिंदी समावेशी भाषा है। हिंदी अन्य देशी-विदेशी भाषाओँ के नवीन प्रचलित शब्दों को तेजी से अपने भाषा भंडार या भाषा चेतना में शामिल कर लेती है, लेकिन उस भाषा विशेष के अस्तित्व के लिए कभी खतरा नहीं बनती।
अँगरेजी मानसिकता से पोषित तथाकथित विद्वानों और नेताओं का तर्क है कि आधुनिक ज्ञान विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी का विकास अंग्रेजी बोले जाने वाले देशों में ही हुआ है जिसके कारण यह भाषा आधुनिक ज्ञान विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी के विकास की सहगामिनी है । लेकिन यह कपटी तर्क है। जापान, जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, दक्षिण कोरिया और चीन जैसे देशों ने विकास के लिए कभी भी अंग्रेजी को माध्यम नहीं बनाया । फिर भी ये देश आधुनिक ज्ञान विज्ञान और उच्च प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकसित देशों की क़तार में खड़े है और आर्थिक विकास की दौड़ में तो भारत से काफ़ी आगे है जहाँ अंग्रेजी के पीछे अंधी दौड़ बच्चे के जन्म लेने के साथ ही शुरू हो जाती है। भाषा और भावना साथ-साथ चलती है| अपनी भावना को व्यक्त करने के लिए भाषा बहुत जरूरी है और यह मातृभाषा में ही संभव है| वर्तमान समय भारतीय समाज में जो मूल्यहीनता है वह इसी जमीन से कटे होने का परिणाम है। ये अच्छा नहीं है, देशहित में नहीं है|
हिंदी या कोई भारतीय भाषा यदि इस क्रांति के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल रही है तो यह उस भाषा की कमी नही है बल्कि उस समाज की कमी है जो उस भाषा में अपने को संप्रेषित या अभिव्यक्त करता है और अपनी भाषा को पिछड़ा हुआ मानकर सूचना, संचार और आधुनिक नवीन प्रौद्योगिकी से जुड़ने की चाहत में इस कपटी तर्क को सत्य मान लेता है कि अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ही विकास के शीर्ष स्तर पर पहुंचा जा सकता है। भारतीय भाषाएँ अतीत काल से ही समृद्ध रही है। इतिहास गवाह है कि मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण हडप्पा काल से ही भारत ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अन्यों से काफी आगे रहा है और भारतीय भाषाएँ इसकी वाहक रही है । पुरातात्विक खुदाइयों से प्राप्त शिलालेखों और मृदभांडों से लेकर प्राचीन ग्रंथों में जिस तरह से राजनीति, अर्थनीति, सैन्य नीति, सामाजिक रीति-रिवाजों, नैतिक मान्यताओं, रहन-सहन, खान-पान और वेश-भूषा की अभिव्यक्ति हुई है वह न केवल भारतीय भाषाओँ के ऐतिहासिक विकास का साक्ष्य है बल्कि इन भाषाओँ की अभिव्यक्ति क्षमता का निदर्शन भी है । भारतीय भाषाओँ की यह समृद्धि उस मानसिकता पर सवालिया निशान खड़ा करती है जो हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओँ को आधुनिक ज्ञान विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी के विकास को अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं मानते है।