Monday 10 December 2018

हिंदुत्व सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना है, राजनीतिक केंचुल नहीं


कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा हालिया विधानसभा चुनावी अभियानों के दौरान जिस तरह से मंदिर दौड़ लगायी जा रही है, हिन्दू दिखाने के लिए खुद को जनेऊधारी हिंदू और शिवभक्त तक बताने से लेकर कई स्थानों पर तो मंच पर जाकर 11 कन्याओं से तिलक और इतने ही ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन, शंख ध्वनि करवा रहे है, जिससे मीडिया से लेकर आम जनों में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या वास्तव में उनकी या उनकी पार्टी की सोच में बदलाव आया है ? उनकी पार्टी कांग्रेस ने हिन्दू प्रतीकों से जुड़े मुद्दों पर अचानक ही ताबड़तोड़ घोषणाएं करने लगी है | मध्यप्रदेश और राजस्थान में गोशालाओं के निर्माण का आश्वासन दे रही है। मध्य प्रदेश में राम वनगमन मार्ग के विकास की घोषणा कर चुकी है। उसने राजस्थान के चुनाव घोषणा पत्र में वेदों के अध्ययन का बोर्ड बनाने और संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने की घोषणा की है। गोशालाओं के लिए सब्सिडी बढ़ाने का वादा भी किया है। कांग्रेस की देखादेखी ममता बनर्जी भी हिंदू दिखने की कोशिश में लगी है | सपा के अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में अंकोरवाट जैसा विष्णु मंदिर बनाने की बात कह चुके हैं।
राहुल गांधी के हिन्दू होने और उनकी कांग्रेस पार्टी के ब्राह्मण डीएनए वाली पार्टी बनने के पीछे के कारणों का खुलासा करते हुए उनके महान बुद्धिजीवी सांसद शशि थरूर ने स्वीकार किया है कि "कांग्रेस को ऐसा करने के लिए बीजेपी ने 'मजबूर' किया है। बीजेपी ने 'सच्चे हिंदू और नास्तिक धर्मनिरपेक्ष' के बीच अंतर दिखाने की यह 'लड़ाई' छेड़ी है|" उनका तर्क है कि "लंबे समय से हमें (कांग्रेस) लगता रहा है कि सार्वजनिक तौर पर अपनी निजी भावनाओं को व्यक्त क्यों करें। हम अपनी आस्था को फॉलो करते हैं लेकिन कभी उसे सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित करने के लिए बाध्य नहीं हुए। ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस नेहरू के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत वाली पार्टी है जिसकी जड़े स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन से जुड़ी हैं।" अब शशि थरूर ने जितना कहा उतना सच है, लेकिन सच के उस बड़े हिस्से को दबा दिया कि जिसके चलते आखिर हिन्दू होने और उसके हितों की तरफदारी करनी पड़ रही है |
यह सही है कि प्रत्येक व्यक्ति की किसी-न-किसी धर्म या संप्रदाय में आस्था होती है और उसे अपनी आस्था या धार्मिक भावना का सार्वजनिक प्रदर्शन करना आवश्यक नहीं होता है | किन्तु समस्या तब होती है जब आपके आचरण, नीतियाँ और वक्तव्य किसी व्यक्ति या समुदाय की धार्मिक आस्था को लगातार हेय व घृणित साबित करते है, उपहास करते है और अपमानित करते है | भाजपा को छोड़कर भले ही कांग्रेस और अन्य दल अपनी आस्था या धार्मिक भावना का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं करते हो, एक धर्मनिरपेक्ष शासन व्यवस्था में ऐसा ही होना चाहिए, किन्तु वोट बैंक के लिए अन्य धर्मों के हितों और मान्यताओं के प्रति सुनियोजित रूप से अतिशय सार्वजनिक पक्षपात का प्रदर्शन कर, जो एक धर्मनिरपेक्ष शासन व्यवस्था में नहीं होना चाहिए, बहुसंख्‍यकों की भावनाओं को चोट पहुंचाने का कार्य भी इन्ही दलों द्वारा किया गया|
आजादी के पहले भारतीय मूल्यों और परंपराओं के प्रति आदर भाव रखने वाली कांग्रेस में आज़ादी के बाद तुष्टिकरण की सियासत इस कदर शिकार हुई कि वह भूल गई कि सर्वधर्म समभाव भारत की मूल प्रकृति है | उसे यह एहसास नहीं रहा कि सर्वधर्म समभाव ही धर्मनिरपेक्षता का मूल आधार है | यहाँ तक कि धर्मनिरपेक्षता को भी तुष्टिकरण का पर्याय बना डाला | आज़ादी के बाद सोमनाथ मंदिर के नवीनीकरण और पुर्नर्स्‍थापना के कार्य से खुद को अलग करने से लेकर इस देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला हक़ घोषित करने और 2008 के मुंबई हमले को हिन्दू आतंकवाद की साजिश ठहराने तक कांग्रेस ने तुष्टिकरण का जिस तरह से सार्वजानिक प्रदर्शन किया, उससे बहुसंख्यकों की भावनाएं लगातार आहत हुई | मंदिरों में बलात्कार होते हैं (संदर्भ कठुआ), हिंदू पुजारी बलात्कारी होते हैं, लेकिन मदरसों का मौलवी सत्य और अहिंसा का पुतला होता है, चर्चो का पादरी बलात्कार कर ही नहीं सकता, हिन्दू देवी-देवताओं के नग्न चित्र बनाए जा सकते है, मंदिर के कलश को कंडोम से सुशोभित किया जा सकता है, मस्जिद की मीनारों को नहीं।  बहुसंख्यकों के हितों और हिंदुत्व की बात करने वालों को सांप्रदायिक और फासिस्ट भी कहा जाने लगा| यहाँ तक कि गर्व से हिंदू कहना भी सांप्रदायिक माना गया था। जबकि धर्म और मजहब के नाम पर उन्माद पैदा करने वाले और अपनी धार्मिक अस्मिता का दूसरों को चोट पहुँचाने तक प्रदर्शन करने को धार्मिक स्वतंत्रता का दर्जा दिया गया | इस तरह की नैरेटिव-बिल्डिंग के खेल में कांग्रेस अगुआ रही है और इसके लिए मीडिया से लेकर और बुद्धिजीवियों तक का इस्तेमाल किया गया | कांग्रेस की इस छद्म धर्मनिरपेक्षता की नीति का असर दूसरी राजनीतिक पार्टियों पर भी पड़ा | राजनीतिक पार्टियों ने जहाँ मुस्लिम वोट बैंक को आकर्षित करने के लिए हिन्दू हितों से दूरी बना ली वहीँ मीडिया और बुद्धिजीवियों ने हिंदू विरोधी रवैया अपनाकर भारतीय परंपराओं और मूल्यों की अनदेखी करने लगी | धर्मनिरपेक्षता के ऐसे रहनुमा अनवरत चीख-चीखकर हिंदुत्व को राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा घोषित करते रहे है | इसी का परिणाम यह हुआ है कि ये सभी कथित सेकुलर दलों का जनाधार सिकुड़ता जा रहा और हाशिये पर जाने से बचने के लिए स्वयं को हिंदू सिद्ध करने की प्रतिस्पर्धा में लगे हुए है |
महात्मा गांधी ने एक बार कहा था हिंदुत्व छोड़ना असंभव है क्योंकि हिंदुत्व के कारण ही मैं ईसाइयत, इस्लाम और अन्य धर्मों से प्रेम करता हूं।" तात्पर्य है कि हिंदुत्व में ही वह क्षमता, साहस और सहिष्णुता है कि वह अन्य धर्मों को समभाव रूप से स्वीकार करता है | गांधी जी की चेतावनी थी कि हिंदुत्व छोड़ देने पर कुछ भी नहीं बचेगा। आज़ादी के बाद कांग्रेस ने गांधीवाद को तो त्यागा ही, साथ ही हिंदुत्व छोड़ दिया। आज  कांग्रेस अपने अस्तित्व को बचने के लिए उसी हिंदुत्व का दामन थामने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है |
कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दल स्वयं को हिंदूवादी दिखाने को लेकर कितने गंभीर है,  इसका अनुमान ही इस बात से लगाया जा सकता है कि जो स्वयं को ब्राह्मण की तुलना में पारसी को कमतर मानते है ऐसी भेद-बुद्धि वालों से हिंदुत्ववादी होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है | जिस भाजपा की हिंदुत्व पैरोकारी से विवश होकर आज कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी स्वयं को हिंदू सिद्ध करने के लिए अपनी जाति और गोत्र की हास्यास्पद घोषणा कर रहे हैं, उसके किसी भी नेता को स्वयं के जाति और गोत्र की घोषणा कभी नहीं करनी पड़ी | अगर राहुल गाँधी हिंदुत्व को सही अर्थों में समझे होते तो उन्हें आज हिन्दू होने और जाति और गोत्र का प्रदर्शन करने की जरुरत नहीं पड़ती |
अब नैरेटिव बदल गया है | हिंदुत्व की धुर विरोधी रही पार्टियाँ की हिंदू हितैषी होने की छटपटाहट से पता चलता है कि हिंदुत्व राजनीति की मूल धुरी बन गई है। अब कोई भी हिंदुओं या हिंदुत्व को सांप्रदायिकता जैसी गाली देने से बच रहा है | लेकिन इनका पूरी तरह से ह्रदय परिवर्तन हो गया है, ऐसा बिल्कुल नहीं माना जा सकता है | ये अभी हिंदुत्व विरोध का केंचुल उतारने में लगे हैं | इनका विष अभी समाप्त नहीं हुआ है | उन्हें अभी इस कसौटी पर खरा उतरना शेष है कि क्या वे भारत को एक सनातन संस्कृति पर आधारित राष्ट्र मानते हैं या नहीं ?  हिंदुत्व की मूल अवधारणा सांस्कृतिक है, राजनीतिक नहीं । हिंदुत्व की स्वीकृति इस धरातल पर संभव है, अन्यथा हिंदू हितैषी होने का प्रदर्शन वैसा ही होगा जैसे पोशाक के ऊपर धारण किया गया जनेऊ | इसी संदर्भ में यह कहना प्रासंगिक होगा कि लोकतंत्र और हिंदू सनातन परंपरा में बहुत समानता है। लोकतंत्र ऐसे लोगों को भी रहने-जीने-बोलने-संगठित होने का अधिकार दे देता है, जिनका लोकतंत्र में भरोसा ही नहीं हो। हिंदू सनातन परंपरा भी इसी तरह उदार है। आप हमारे भगवान को नहीं मानते, इस या उस भगवान को मानते हैं तो आप अपना अलग उपासना-स्थल बना लीजिए। आप अपना अलग पंथ बना लीजिए। अपने पंथ का प्रचार भी कर लीजिए। हिंदुत्व ने सभी को समभाव से स्वीकार किया है| तात्पर्य है कि हिंदुत्व का सार समझे और जाने बिना केवल मंदिर जाने या फिर पूजा-पाठ करने और चुनावी घोषणाओं में गोशालाओं के निर्माण की घोषणा मात्र से उन भारतीय परंपराओं और मूल्यों से स्वयं को एकाकार नहीं कर सकते है जिसका मूल तत्व वसुधैव कुटुंबकमहै, सर्व-धर्म समभाव है और जो राष्ट्रीयता को धर्म, जाति और नस्ल से परे होकर देखता है | अत: हिंदू होने का ढ़ोल पीटने वाले ये सभी दल जब तक भारतीय संस्कृति, सनातन संस्कृति, से पूरी तरह से जुड़ नहीं पाते हैं, तबतक यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि हिंदुत्व विरोध के नख-दंत से ये विहीन हो चुके है |  


रेगिस्तानीकरण की ओर बिहार


एक समय था जब बिहार के गांवों में बच्चे काल्पनिक नदी के पानी की थाह लगाने वाला खेल-घोघो रानी कितना पानी, कितना पानी-का खेल खेला करते थे। यह खेल अब भी खेलते है लेकिन अब इसके खेल के अवसर कम हो गए हैं क्योंकि तब बिहार में बरसात खूब हुआ करती थी। पिछले कुछ वर्षों से बिहार में मानसूनी बारिश लगातार कम होती जा रही है जिसके कारण बिहार की धरती पानी के एक-एक बूँद के लिए मोहताज होती जा रही है। बिहार के गांवों के पारंपरिक जलस्रोत कुओं-तालाबों धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे है | हिमालय से निकलकर बिहार से गुजरने वाली नदियाँ भी पानी के लिए तरसने लगी है | एक ओर बारिश की कमी एवं सतही जल को रोककर रखने की व्यवस्था के अभाव और दूसरी ओर बढ़ती आबादी के लिए पानी की मांग, कृषि कार्य के लिए भूमिगत जलस्रोतों के अतिशय दोहन, और भूमिगत जल के प्रदूषित होते जाने के कारण पानी का संकट विकराल होता जा रहा है|
इस वर्ष मानसूनी सीजन में एक तो देर से (जुलाई में) बारिश शुरू हुई, दूसरे सीजन की समाप्ति (सितम्बर के अंत में) तक सामान्य से 40-85 फीसदी तक कम बारिश हुई है| कई जिलों बारिश की यह कमी 70-75 फीसदी रही है | इसे देखते हुए बिहार के आपदा प्रबंधन विभाग ने हाल ही में राज्य के 23 प्रभावित जिलों के 206 प्रखण्डों को सूखाग्रस्त घोषित किया है। बारिश कम होने से नहरों से भी पानी गायब हो गया | कई जिलों में किसानों ने अपनी धान की फसलों को बचाने के लिए बोरिंग चलाकर भूमिगत जल का इस कदर दोहन किया कि कई इलाकों में कुओं का जल स्तर काफी नीचे चला गया और कहीं-कहीं तो चापाकलों से पानी निकलना भी बंद हो गया है | शोध पत्रिका करंट साइंस के ताजा अध्ययन के अनुसार बिहार के कई जिलों में भूमिगत जल स्तर की स्थिति पिछले 30 सालों में चिंताजनक हो गई है | कुछ जिलों में भूजल स्तर दो से तीन मीटर तक गिर गया है| पिछले 25-30 वर्षों में सतही जल के समुचित उपयोग और इसे रोककर रखने की व्यवस्था के अभाव के अभाव और नहर-तंत्र के पूरी तरह से ध्वस्त हो जाने के कारण लोग यहां सिंचाई के लिए पूरी तरह भूमिगत जल पर आश्रित हो गए हैं| पहले जहाँ दस से लेकर तीस फीट नीचे ही भूजल मिल जाता था, वही अब सौ से डेढ़ सौ फीट नीचे पानी मिलता है। अब स्थिति यह है कि बोरिंग के पानी के बिना रबी की बुवाई शायद ही हो सके। अब यदि जाड़े के दौरान होने वाली बारिश भी दगा दे जाती है तो रबी फसलों की क्या दशा होगी, जबकि नहरों में पानी की उपलब्धता नहीं होने से किसानों को भूमिगत जल के दोहन के सिवा कोई विकल्प नहीं होगा, जो पहले से ही अतिशय दोहन और रिचार्ज के अभाव में संकट ग्रस्त हो गया है | फिर अगले वर्ष में मानसून के आने के पहले गर्मी के दिनों में पानी को लेकर होने वाले संकट की गंभीरता काफी भयावह है | बिहार की अधिकांश आबादी के लिए भूजल ही पेयजल का एकमात्र बारहमासी स्रोत है। ग्रामीण इलाकों में पीने के पानी के रूप में 85 प्रतिशत भूजल का इस्तेमाल होता है | भूमिगत जल का प्रदूषित होना एक अलग समस्या है |
मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार बिहार में हर साल लगभग 1200  मिलीमीटर बारिश होती है| बिहार के उत्तरी इलाकों से होकर हिमालय की कई नदियां निकलती हैं | लेकिन अब तक बारिश से पानी की पर्याप्त उपलब्धता की वजह से इस क्षेत्र में भूजल के पुनर्भरण को नजरअंदाज किया जाता रहा है। एक ओर कृषि क्षेत्र के दायरे में लगभग 950 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी हुई है तो दूसरी ओर जल निकायों का क्षेत्र 2029 वर्ग किलोमीटर से सिमटकर 1539 वर्ग किलोमीटर रह गया है| एक अनुमान के अनुसार 2050 तक बिहार में पानी की मांग 145 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) रहेगी। 105 बीसीएम पानी कृषि कार्य के लिए जरूरी होगा, जबकि 40 बीसीएम गैर कृषि कार्य के लिए। इसकी तुलना में बारिश के बाद सतह जल की उपलब्धता 132  बीसीएम है। मांग और उपलब्धता में इस अंतर को पाटने के लिए भूमिगत जल के दोहन में बढ़ोतरी होगी और अंततः संकट भी बढ़ेगा |
बिहार में बारिश के बाद सतह के जल को रोककर रखने को लेकर कतिपय प्रयासों को छोड़कर न तो जागरूकता है और न व्यवस्था है। बिहार सरकार के जल प्रबंधन की दशा और दिशा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है है कि बारिश के इस पानी को प्रभावकारी ढंग से रोककर जलाशय में रखने की क्षमता एक बिलियन क्यूबिक मीटर से भी कम है। नदियों और जलाशयों में तेजी से बढ़ते गाद के कारण उनकी जल धारण क्षमता कम हुई है, जिससे बारिश का पानी जल्दी बाढ़ का रूप लेकर तेजी से बह जाता है | नीति आयोग द्वारा तैयार किए गए समग्र जल प्रबंधन के सूचकांक के आधार पर जल प्रबंधन, जल संचयन के क्षेत्र में गुजरात का स्थान प्रथम है | इसके बाद मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र का स्थान है|
बिहार सरकार को परम्परागत जल निकायों-तालाबों, कुंडों, जोहड़ आदि-को पुनर्जीवित करने की दिशा में तेजी से अभियान शुरू किया जाना चाहिए | गाँव स्तर पर सरकारी स्कूललों, मदरसों, निजी स्कूरलों, आंगनबाडियों, स्वालस्य्य   केंद्रों, थानों और प्रखंड कार्यालयों में सोक पिट (सोख्ता) के निर्माण द्वारा जल संरक्षण का प्रयास किया जा सकता है | इस दिशा में राजस्थान सरकार द्वारा केवल 2 वर्ष पहले शुरू की गई जल स्वालंबन योजना को बेहतर तरीके से लागू किया गया है, जिसके कारण बिहार की तुलना कम नदियों और कम मानसूनी बारिश वाले इस राज्य के कई इलाकों के भूमिगत जल स्तर लगभग 4-66 फुट बढ़ा है | राज्य के 33 में से 21 जिलों के भूजल में बढ़ोतरी यह रेगिस्तानी राज्य जल संरक्षण और संचय की अद्भुत मिसाल बन गया है |


Monday 26 November 2018

साम्प्रदायिकता के खिलाफ मानव संघर्ष के रचनाकार


साम्प्रदायिकता आधुनिक भारतीय समाज की एक गंभीर परिघटना है। भीष्म साहनी हिंदी के उन रचनाकारों में से हैं जिनकी रचनाओं में साम्प्रदायिकता जैसे सामाजिक समस्याओं की असलियत को पहचानने और उससे संघर्ष करने की कोशिश लगातार बनी रहती है। अंग्रेजों ने अपनी सता को बनाए रखने हेतु हिन्दू व मुसलमानों में फूट डालने के लिए दोनों सम्प्रदायों के हितों की टकराहट को हवा दी, जिसकी परिणति भारत विभाजन, भीषण सांप्रदायिक दंगे और लाखों लोगों के निर्मम विस्थापन के रूप में हुई | भीष्म साहनी स्वयं इस अनचाही और जबरन थोपी गई विभीषिका के गवाह रहे है जिन्हें अपना रावलपिंडी छोड़कर दिल्ली आना पड़ा था | उन दृश्यों ने न केवल साहनी की ज़िंदगी को प्रभावित किया बल्कि उनके साहित्य सृजन पर भी उसका गहरा असर दिखता है | विडंबना यह है कि आजादी के बाद हमारे देश के राजनीतिक दलों ने कभी वोट बैंक की राजनीति या कभी तुष्टिकरण के द्वारा इसका घृणित उपयोग करना जारी रखा हैं। ऐसी स्थिति में साम्प्रदायिकता पर भीष्म साहनी द्वारा कलम का चलाया जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है और वे साम्प्रदायिकता और सांप्रदायिक मानस की अचूक पहचान करने में समर्थ रचनाकार साबित हुए है | इसी तथ्य को लक्षित करते हुए हिन्दी के प्रतिष्ठित समीक्षक और आलोचक नामवर सिंह का मानना है कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी भीष्म साहनी की तुलना किसी अन्य लेखक से नहीं की जा सकती|
साम्प्रदायिकता और विभाजन की विभीषिका को लेकर हिंदी-उर्दू में अनेकों रचनायें हुई हैं|  सबकी अपनी विशिष्टता है|  लेकिन भीष्म साहनी जैसा सूक्ष्म रेखांकन और व्यापक प्रभाव वाली रचनायें अत्यल्प है| इसकी सबसे बड़ी वजह साम्प्रदायिकता के कारणों और उसके वीभत्स प्रभाव को महज देखा ही नहीं बल्कि स्वयं उसके दंश को उन्होंने झेला है| खूनी साम्प्रदायिक दंगे, शरणार्थियों के काफ़िले, विस्थापन की समस्या और घृणा का जहर किसी न किसी रूप में उनकी चेतना को कचोटता रहा है | इसलिए उनकी रचनाएँ साम्प्रदायिकता का सिर्फ़ निषेध नहीं करतीं,  बल्कि उनके कारणों की तह तक जाती हैं और उस साजिश की भी पहचान करती हैं जिसे राजनीति और धर्म की जुगलबंदी अंजाम देती हैं और साम्प्रदायिकता की सच्चाई को बेनकाब करती है| ‘अमृतसर आ गया है’, पाली’, जैसी कहानियाँ, ‘तमस’ जैसा उपन्यास और ‘आलमगीर’, मुआवजे’, हानूश और ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ जैसे नाटक में किसी भी प्रकार के पक्षपात तथा पूर्वाग्रह से दूर हटकर भीष्म साहनी ने दंगा एवं साम्प्रदायिकता की असलियत को बेनकाब किया है| वे एक ऐसे साहित्यकार हैं जो समस्या को मात्र कह कर नहीं छोड़ देते बल्कि उसकी सच्चाई का पर्दाफाश करना भी अपनी जिम्मेदारी समझते हैं|  
तमसका आधार भीष्म साहनी के जीवन के कुछ सच्चे अनुभव है | 'तमस' की कथा परिधि में अप्रैल 1947 के समय के रावलपिंडी को परिवेश के रूप में लिया गया है। काल-विस्तार की दृष्टि से 'तमस'  की केवल पाँच दिनों की कथा में सांप्रदायिकता के विभिन्न प्रसंग, संदर्भ और पहलू जिस तरह से उदघाटित होते जाते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के लगभग सौ वर्षो की कथा हो जाती है। भीष्म साहनी ने आजादी के समय देश विभाजन की त्रासदी के साथ साम्प्रदायिक दंगों की विभीषिका को आधार बनाकर इस समस्या का सूक्ष्म विश्लेषण किया है और उन मनोवृत्तियों को उघाड़कर सामने रखा है जिसका शिकार निर्दोष और गरीब लोग, जो न हिन्दू हैं, न मुसलमान बल्कि सिर्फ इन्सान हैं, हुए है| तमसमें साहनी ने साम्प्रदायिकता के साये तले राष्ट्रीय कांग्रेस की समझौतापरस्त नीति को रेखांकित करने की कोशिश की है। उस समय कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता से संघर्ष करने के बजाय समझौता करने की जो नीति अपनायी, बाद के वर्षों में भी वहीँ उसका चरित्र बन गया | तमसका जनरैल हिन्दुस्तान की एकता एवं अखंड़ता को अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है, और साम्प्रदायिकता के लिए अन्य कारणों सहित कांग्रेस को भी जिम्मेदार ठहराता है |
यह सच है कि अंग्रेजों की ‘फूट डालो, शासन करो’ भारत में साम्प्रदायिकता की मूल जड़ है| लेकिन इस जड़ के भारत से उखड़ जाने के बाद भी साम्प्रदायिकता का अंत नहीं होता बल्कि यह भारतीय समाज का अंग बन जाता है| ‘तमस’ में साहनी उन कारकों की ओर भी संकेत करते है जिसके कारण साम्प्रदायिकता भारतीय समाज और सियासत की त्रासदी बन जाती है | भारतीय समाज में साम्प्रदायिकता धर्म के प्रति नकारात्मक सोच की देन है जो यह स्थापित करती है कि विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों या मजहब के आर्थिक और सामाजिक हित एक समान नहीं होते है| ‘तमस’ में साहनी ने दंगा के कारणों में सामाजिक-आर्थिक कारण को ही अहम माना है | मस्जिद के सामने सूअर मरवाकर रखनेवाला कोई हिन्दू नहीं बल्कि वह मुसलमान है | जब अमन कमेटी बनाकर सांप्रदायिक हिंसा ख़तम करने की अपीलें की जाती हैं तो वही आदमी अमन के नारे लगाता मिलता है जिसने दंगा शुरू करवाया था। इससे प्रमाणित होता है कि दंगा का कारण धर्म नहीं है बल्कि धर्म तो हाथी के सिर्फ दो दिखावटी दांत की तरह है| कट्टर या साम्प्रदायिक व्यक्ति की शत्रुता दूसरे धर्म के कट्टर और साम्प्रदायिक व्यक्ति से नहीं होती बल्कि अपने ही धर्म को मानने वाले उदार व्यक्ति और सच्चे धार्मिक से होती है। साम्प्रदायिकता का धर्म से गहरा ताल्लुक होते हुए भी धर्म उसकी उत्पति का कारण नहीं है। किसी समाज में विभिन्न धर्मों के होने मात्र से ही साम्प्रदायिकता पैदा नहीं होती| ‘तमस’ में साहनी का संकेत है कि साम्प्रदायिकता की असली वजह भौतिक स्वार्थ है जिससे धर्म का कोई लेना देना नहीं होता है और साम्प्रदायिक लोग अपने भौतिक स्वार्थों जैसे राजनीति, सत्ता, व्यापार आदि के लिए समाज में उन्माद और नफ़रत फैलाते है| असल में साम्प्रदायिकता राजनैतिक और आर्थिक हितों से जुड़ा हुआ है। साम्प्रदायिकता को फैलाने वाले स्वार्थी लोग इतने चालाकी से इस काम को करते हैं कि उन स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोगों के भौतिक स्वार्थ लोगों को अपने आध्यात्मिक हित नजर आएं और वे इसके लिए धर्म का सहारा लेते हैं। भीष्म साहनी बताते हैं कि दंगे कभी स्वत: स्फूर्त कभी नहीं होते बल्कि संस्थाओं द्वारा प्रायोजित होते है |
पूरे उपन्यास में भीष्म साहनी स्वयं को सामान्य जनता के स्तर पर रखकर लेखन किया है | आम जनता चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, चाहे वह गाँव की है शहर की, चैन की जिंदगी जीना चाहती है। लेकिन सांप्रदायिक वैमनस्य की आग किस प्रकार सामान्य मनुष्य को पूर्णतः जला डालती है, ‘तमस’ में इसका सटिक चित्रण हुआ है | गांव के सारे लोग चाहे वे किसी भी जाति या सम्प्रदाय के क्यों न हों, आपस में सहानुभूति तथा प्रेम के साथ जीना चाहते हैं। लेकिन परिस्थितियों के दबाव में उनके आपसी स्नेह सूत्र टूटते-विखरते चले जाते हैं | हर व्यक्ति चाहे वह हिन्दू हो मुसलमान अपना घर छोड़ते यही सोच रहा था कि वह इसे सदा के लिए थोड़े ही छोड़ रहा है। जाहिर है, आम जनता साम्प्रदायिक नहीं होती शांति चाहती है।
साहनी द्वारा दंगा के कारणों में सामाजिक-आर्थिक कारकों को महत्वपूर्ण माने जाने और उनके वामपंथी रूझान को देखते हुए कुछ विचारकों ने तमसको मार्क्सवाद से जोड़कर देखने की जरूरत पर जोर दिया है| उनका मानना है कि ‘तमस’ में वर्ग संघर्ष है।  आदमी को कत्ल करने से ज्यादा मकानों को लूटा जाता है। यह सब वैसे लोग करते हैं जिनका एकमात्र उद्येश्य लोगों को लूटना होता है। स्पष्ट है, साम्प्रदायिकता धर्म और सम्प्रदाय का नहीं आर्थिक हितों का सवाल है। वामपंथी विचारधारा से प्रभावित होने के कारण भीष्म साहनी द्वारा साम्प्रदायिकता के मूल में केवल आर्थिक कारकों का निहित मानना स्वाभाविक है| वे साम्प्रदायिकता समस्या की जटिलता से अनभिज्ञ नहीं थे और उन्होंने साम्प्रदायिकता के बहाने देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कुरूपताओं को प्रखरता से उजागर किया है| किन्तु वे शायद यह देखने में चूक कर जाते है कि जब राष्ट्रवादी शक्तियां कमजोर पड़ती हैं तो साम्प्रदायिक शक्तियां स्वयं को राष्ट्रवादी घोषित करके उनका स्थान लेने की कोशिश करती हैं और कई बार कामयाब भी हो जाती हैं। वामपंथी सिद्धांतों के अंतर्गत विकास की प्रक्रिया को आर्थिक हितों का टकराव से देखने की कोशिश की जाती है | साम्प्रदायिकता सामाजिक और आर्थिक विकास की प्रक्रिया नहीं है| इसके बरक्स जिन राष्ट्रों ने धर्म को सर्वोच्चता प्रदान की है, वह आर्थिक हितों के टकराव का अधिक शिकार हुआ है, परिणामतः आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन से अभिशप्त होता गया है| वर्तमान समय में देश के विभिन्न हिस्सों में नक्सलवाद के विस्तार के मूल में उन इलाकों के आर्थिक पिछड़ेपन को माना जाता रहा है | लेकिन सच्चाई है कि सरकारें जब उन इलाकों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए आधारभूत संरचना (बिजली, सड़क, स्कूल, हॉस्पिटल और मोबाइल टावर आदि) स्थापित करने की कोशिश करती है तो नक्सली उन प्रतिष्ठानों को नष्ट कर देते है | तात्पर्य है कि सब कुछ आर्थिक कारण नहीं होता है | वास्तव में साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति और धर्म के तत्वों को आपस में घालमेल करती है और धर्म को संस्कृति से श्रेष्ठ या ऊपर मानती है जबकि धर्म संस्कृति का एक अंश मात्र है| ‘तमस’ में  भीष्म साहनी संस्कृति और धर्म को एक दूसरे के पर्याय के तौर पर प्रयोग करके भ्रम पैदा करने की कोशिश के साथ ही साम्प्रदायिकता के कारण संस्कृति के खंडित होने पर नजर तो रखते है लेकिन साम्प्रदायिकता के उत्स में केवल आर्थिक कारकों को मान लेना उनके वैचारिक आग्रह को ही दर्शाता है | इसके उलट इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है साम्प्रदायिकता की मानसिकता के उभार के साथ ही आर्थिक हितों के टकराव भी प्रबल होता जाता है| अर्थात् यह उतना ही सच है कि साम्प्रदायिकता अपने पीछे आर्थिक हितों के टकराव को लेकर आती है |  
तमस’ में आज़ादी से कुछ पहले और कुछ बाद की साम्प्रदायिकता केंद्र में है | लेकिन भीष्म साहनी ने आज़ादी के वर्षों बाद भारतीय समाज और राजनीति में स्थायी तौर अपना स्थान सुरक्षित कर चुकी साम्प्रदायिकता का भी पर्दाफाश किया है | आलमगीरनाटक में भीष्म साहनी ने मुगल सम्राट औरंगजेब के माध्यम से वर्तमान भारतीय राजनीति के साम्प्रदायिक चरित्र को पहचानने की कोशिश की है। यह एक साथ सत्ता और व्यक्ति के कट्टर होने पर उसकी पतन की अनिवार्य नियति को दर्शाता है। औरंगजेब और दारा शिकोह धार्मिक कट्टरता और उदारता के प्रतिनिधि हैं। वे मात्र दो व्यक्तित्व नहीं, बल्कि दो जीवन-दृष्टियाँ हैं। औरंगजेब संस्थागत धर्म का प्रतिनिधित्व करता है। साम्प्रदायिक-उन्मादी शक्तियां संस्थागत धर्म को अपनाती हैं| इस्लाम के मूल्यों से उसका वास्ता नहीं है| इस्लाम और अल्लाह उसकी राजनीतिक स्वार्थ और पैतरेबाजी का हिस्सा है, वह अपने हर अमानवीय कृत्य को खुदा के नाम पर वैध ठहराता है। साम्प्रदायिक-उन्मादी शक्तियां संस्थागत धर्म को अपनाती हैं तथा धर्म के मानवीय पहलुओं से उसका कोई सरोकार नहीं होता। दीन का शासन स्थापित करने की बात की जाति है, लेकिन इस्लाम के मूल्यों से उसका वास्ता नहीं होता । औरगंजेब के लिए रिश्ते-नाते, इंसानियत या मानवीय संवेदनाओं का कोई मूल्य नहीं है|  वह भारतीय इतिहास का एक ऐसा पात्र है जो भारत की बहुलतावादी संस्कृति पर कठिन प्रहार करते हुए धार्मिक असहिष्णुता की सारी सीमाओं को पार कर जाता है।

भीष्म साहनी मुआवजेऔर कबीरा खड़ा बाजार मेंभी साम्प्रदायिकता की समस्या से टकराते हैं। कबिरा खड़ा बजार मेंकबीर की आध्यात्मिक ऊँचाई एवं समर्थ कवि व्यक्तित्व के बरक्स उनके समकालीन राजसत्ता एवं समाजसत्ता के उस अविवेकी, दुराग्रही, अहंग्रस्त एवं असहिष्णु स्वरूप को उजागर करते है समाज में साम्प्रदायिक विभेद को पोषित और सिंचित करते रहते हैं | यही नहीं साहनी ने कबीर के क्रान्तिदर्शी सामाजिक पक्ष के बरक्स तत्कालीन समय और समाज ही नहीं बल्कि अपने भी समय समाज की चेतना, द्वन्द्व एवं विद्रूप को अभिव्यक्त कर दिया है । कबीर के बहाने भीष्म साहनी ने सत्ता के विरुद्ध विशेष रुप से धार्मिक सत्ता, धर्म के आडम्बर, ढोंग, धर्म के नाम पर ठगी, सबका विरोध किया। वे कबीर की बातों के माध्यम से जनता तक सन्देश पहुंचाते है कि मजहबइंसानों के बीच का आपसी सद्भाव नष्ट कर रहे हैं। कबीर के साथ समाज जुड़ जाता है और इसलिए उनकी आवाज़ समूह की, समाज की आवाज़ बन जाती है। यह नाटक इसी युग चेतना की प्रस्तुति है|
 मुआवज़ेनाटक  का तानाबाना स्वातन्त्र्योत्तर भारत में साम्प्रदायिक दंगे भड़कने की आशंका के बीच राजनीति, प्रशासन, आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न वर्ग, अपराधी और नागरिक समाज किस प्रकार इस तनावपूर्ण स्थिति का सामना करते हैं, इसी यथार्थ को आधार बनाकर बुना गया है । यहाँ तमस की ही वेदना का विस्तार नाटक ‘मुआवजे’ में होता है जिसमें सियासती तिकड़मों पर करारा व्यंग्य है और साथ ही उसके साये में मानवता की कराहटें शिद्दत से उभरती हैं| विभाजन का दंश झेलने वाले भीष्म साहनी ने जिस स्वतंत्र एवं समरसतापूर्ण भारतीय समाज की कल्पना की थी, वह आज़ाद भारत के बाद भी पूरी होती नहीं दिखी | इस नाटक की घटनाएँ दंगे के बाद मिलने वाले मुआवज़े के चारों तरफ घूमती हैं और इसी के साथ नेताओं, अफसरों, व्यापारियों, दलालों, अपराधियों और जनता की बदलती मनोवृत्ति की भी गहराई से पड़ताल करती है जो छोटेछोटे स्वार्थों के लिए तरहतरह की चालाकियाँ बुनती रहती है । यह वह वर्ग है जिसे दंगा होने का इंतजार रहता है | दरअसल दंगा एक ऐसा अवसर है जिसमें राजनीति को चमकाने, चुनाव में उसकी फसल काटने, कालाबाजारी करने और लूटखसोट करने का सुनहरा मौका मिलता है| इसलिए राजनीतिक दल और नेता से लेकर सरकारी अधिकारी, दलाल, व्यापारी और गुण्डे तक सभी एक दूसरे का भरपूर सहयोग करते है| मुआवज़ेके पहले दृश्य में कमिश्नर को टेलीफोन पर निर्देश देते दिखाया गया है । वह कह रहा है कि -अगर हालात इसी तरह बिगड़ते गये तो सोमवार तक दंगा हो जाना चाहिए––––‘अबकी बार दंगा ज़बर्दस्त होगा.........उम्मीद है, सोमवार तक दंगा हो जाएगा| यानी, दंगा कराने की योजना पहले से बना ली गयी है जिसमें मन्त्री, अफसर, व्यापारी और गुण्डे सही शामिल हैं| सेठ को अपनी फैक्टरी से जुड़ी सरकारी जमीन पर कब्जा करना है जो अफसरों तथा गुण्डों के सहयोग के बिना नहीं हो सकता है। इसके लिए उसे दंगे का शिद्दत से इंतजार है और उसे भी पक्का यकीन है कि दंगा होकर रहेगा। यही नहीं, दंगा होने से पहले ही मुआवज़ा देने की तैयारी कर ली गयी है, ताकि मुआवजे के नाम पर लूटखसोट का बंदर-बाँट किया जा सके | यह इक्कीसवीं सदी के भारत के लोकतान्त्रिक समाज एवं व्यवस्था का ज्वलन्त सच है जो भीष्म साहनी की सर्जनात्मक दृष्टि में रचबस कर अपनी पूरी विद्रूपता के साथ अभिव्यक्त हुआ है ।
साम्प्रदायिकता व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को किस प्रकार प्रभावित करती है कि एक परिवेश में जिस व्यक्ति में भय होता है वही भय परिवेश बदलते ही हिंसा में परिणत हो जाता है | भीष्म साहनी अमृतसर आ गयाजैसी कहानी के आधार पर आम आदमी की मानसिकता पर साम्प्रदायिकता के कब्जा करते जाने और उसकी वीभत्स परिणति का मार्मिक चित्रण करते है | अमृतसर आ गया में गाड़ी जब हिन्दू बहुल इलाके में प्रवेश करती है तो दुबले बाबू का भयातुर चेहरा क्रूर हो जाता है| कहानी में वजीराबाद एक प्रतीक है मुस्लिम बहुल इलाके और साम्प्रदायिक सोच का और अमृतसर एक दूसरा प्रतीक है हिंदू बहुल इलाके और साम्प्रदायिक सोच का | इन दोनों धरातलों पर साम्प्रदायिक सोच का स्तर अलग-अलग होता है | साम्प्रदायिक सोच का एक स्तर तब देखने को मिलता है जब गाड़ी वजीराबाद रेलवे स्टेशन से निकलती है और पठानों की अन्तश्चेतना में हिंदू-मुस्लिम दंगों के दौरान विकसित तनाव मौजूद है और इसीलिए वे एक ओर दुबले बाबू का उपहास करते हैं। उसे दाल पीने वाला कहते हैं और दूसरी गरीब हिंदू औरत की छाती पर लात मारकर संतोष महसूस करते हैं। कहानी में दूसरा स्तर तब देखने को मिलता है जब गाड़ी हरबंसपुरा से निकलकर अमृतसर की ओर जाती है जो हिंदू और सिक्ख बहुल शहर है और जहाँ दुबला बाबू साम्प्रदायिक उन्माद से ग्रस्त हो जाता है और अंतत: उसका क्रूर चेहरा सामने आता है। दरअसल अमृतसर आते ही दुबले बाबू में अचानक ऊर्जा और शक्ति का आ जाना हमारी सामूहिक सोच और सामाजिक स्थितियों का द्योतक है। साम्प्रदायिकता का जहर सामूहिक शक्ति बनकर हमारी चेतना का नाश करता है और मनुष्य को विवेकहीन बनाता है। हत्या करके दुबले बाबू का मुस्कराना साम्प्रदायिक वीभत्सता को और अधिक बढ़ाता है। साम्प्रदायिक मानसिकता का जितना गहरा और सूक्ष्म चित्रण भीष्म जी की कहानियों में देखने को मिलता है उतना शायद किसी अन्य कथाकार की कहानियों में नहीं।  
पाली’, ‘माता विमाताऔर वांग्चूजैसी कहानियाँ भी सभी प्रकार की कट्टरता के खिलाफ मानवीय मूल्यों को स्थापित करती हैं। उन्हें साम्प्रदायिकता एक बड़ी समस्या लगती है क्योंकि इसके कारण हमारा समाज विखरता जा रहा है जिसे समाप्त किए बिना कोई भी देश और समाज प्रगति की राह पर बढ़ नहीं सकता है | पालीमें परस्पर विरोधी साम्प्रदायिक मानसिकता के कारण एक बच्चे की मन:स्थिति का बड़ा सूक्ष्म और मार्मिक अंकन किया गया है| सांप्रदायिक मानसिकता का चित्रण करते समय भीष्म जी उन स्थितियों व कारणों का उल्लेख नहीं करते जिनके कारण ऐसी मानसिकता बनी बल्कि उस मानसिकता की विद्रूपता का संकेत करते हैं और बताते हैं कि यह मानसिकता किस तरह पूरे समाज के लिए घातक है। माता विमाता मातृभूमि के विभाजन के बहाने माँओं के भी बंट जाने की मर्मस्पर्शी कहानी है |
आज फिर हमारे समाज में सांप्रदायिक ताकते बहुत तेजी से सक्रिय हो गर्इ हैं। सांप्रदायिक सोच हमारे सामने एक विकराल रूप में आज भी है। असहिष्णुता, असंवेदनशीलता और संकीर्णता हमारे समय और समाज में फिर से व्याप्त हो रहे हैं। वर्तमान समय में तमाम मीडिया समूह जिस तरह से घटनाओं और ख़बरों को जाति, धर्म, संप्रदाय और मजहब के खांचों में बांटकर परोसते है, लगातार परोसते है उससे आम आदमी की मानसिकता का प्रभावित होना स्वाभाविक है | कुछ मीडिया समूह ही नहीं बल्कि कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी और महत्वाकांक्षी मुसलमान नेता तो किसी संप्रदाय विशेष की घटनाओं को लेकर इतने सेलेक्टिव हो जाते है कि संप्रदाय विशेष के किसी भी सदस्य के साथ होने वाली मारपीट को भी वे सांप्रदायिक फसाद के रूप में परोस देते है जो मनुष्यता के प्रति जघन्य अपराध है | यही नहीं, आज सोशल मीडिया की भूमिका कम खतरनाक नहीं है, जहाँ एक सोची समझी साज़िश के तहत साम्प्रदायिक विचारों का प्रसार किया जा रहा है | भीष्म साहनी की यह रचनाएँ हमें ताकीद करती है कि मौजूदा समय में देश की सामासिक संस्कृति को बचाए रखने के लिए ऐसी साम्प्रदायिक मानसिकता के प्रवाह को रोकने की जरुरत है |
समग्रता में देखें तो भीष्म साहनी एक जिम्मेदार रचनाकार रहे हैं | इसलिए मानव की समस्त श्रेष्ठ और उज्जवल संस्कृति को धूमिल करने वाली धार्मिक कट्टरताओं, संकीर्ण धार्मिक दृष्टियों, क्रूर साम्प्रदायिकता और विकृत परम्पराओं एवं रुढियों जैसे समाज और देश प्रतिरोधी तत्वों का पर्दाफाश करना अपना कर्तव्य मानते रहे है | साम्प्रदायिकता जिस तरह से आज हमारे समाज और राजनीति ही नहीं बल्कि मानसिकता में घुसपैठ कर गई है और आज हमारे आसपास जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं वे भीष्म साहनी जैसे रचनाकार को और प्रासंगिक बना देती हैं|


Thursday 11 October 2018

छायावादी काव्य

‘द्विवेदी युग के पश्चात हिन्दी साहित्य में कविता की जो धारा प्रवाहित हुई, वह छायावादी कविता के नाम से प्रसिद्ध हुई। 'छायावाद' की कालावधि सन 1917 से 1936 तक मानी गई है। 1916 ई. के आस-पास हिन्दी में कल्पनापूर्ण, स्वच्छंद और भावुकता की एक लहर उमड़ पड़ी। भाषा, भाव, शैली, छंद, अलंकार इन सब दृष्टियों से पुरानी कविता से इसका कोई मेल नहीं था। आलोचकों ने इसे 'छायावाद' या 'छायावादी कविता' का नाम दिया। ‘द्विवेदी युग में हिन्दी कविता कोरी उपदेश मात्र बन गई थी। उसमें समाज सुधार की चर्चा व्यापक रूप से की जाती थी और कुछ आख्यानों का वर्णन किया जाता था। उपदेशात्मकता और नैतिकता की प्रधानता के कारण कविता में नीरसता आ गई। कवि का हृदय उस निरसता से ऊब गया और कविता में सरसता लाने के लिए वह छटपटा उठा। इस युग की हिन्दी कविता में वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्रधानता प्राप्त हुई थी।
छायावाद का स्वरूप और काव्य परंपरा
हिंदी की स्वच्छन्दतावादी काव्यधारा की विकसित अवस्था को छायावाद नाम से अभिहित किया गया है | इस आधार पर देखा जाय तो श्रीधर पाठक, मुकुटधर पाण्डेय और रामनरेश त्रिपाठी, जिन्हें आचार्य शुक्ल ‘सच्चे स्वच्छन्दतावादी’ कहते थे, प्रथम चरण के कवि है और दूसरे चरण इस काव्य-प्रवृति को अधिक सूक्ष्म और व्यापक रूप देकर प्रौढ़तम उत्कर्ष तक पहुँचाने वाले कवि जयशंकर प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवी वर्मा थे, जिन्हें छायावादी कवि माना गया | ‘छायावाद’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम मुकुटधर पाण्डेय ने किया | उन्होंने 1920 में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका “श्रीशारदा” में “हिंदी कविता में छायावाद” नाम से एक लेखमाला प्रकाशित की | उन्होंने छायावाद की आरंभिक विशिष्टताओं का उल्लेख करते हुए लिखा कि “छायावाद एक मायामय सूक्ष्म वस्तु है| इसमें शब्द और अर्थ का सामंजस्य बहुत कम रहता है |” किन्तु आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने यह अनुमान लगा लिया कि छायावाद और रहस्यवाद बंगाल के ब्रह्म-समाजी छायापदों और रवीन्द्रनाथ टैगोर की रह्स्यानुभूतियों का रूपांतरण है और जिसका आधार ईसाई धर्म-प्रचारकों का रहस्य-दर्शन अर्थात् फैंटसमाटा है| कुछ समय के बाद छायावाद के लिए “रोमैंटिसिज्म” शब्द का प्रयोग किया गया | कवि और आलोचकों ने छायावाद और रोमैंटिसिज्म को पर्याय समझना शुरू किया | आचार्य शुक्ल ने छायावाद को एक शैली मात्र घोषित कर दिया | किन्तु रहस्यवाद, छायावाद और स्वच्छन्दतावाद (रोमैंटिसिज्म) में सूक्ष्म अंतर है| लेकिन आचार्य शुक्ल के इस मत को उनके प्रिय कवि सुमित्रानंदन पन्त ने यह कहकर अमान्य कर दिया कि रहस्योन्मुखता छायावाद की एक महत्वपूर्ण विशेषता अवश्य है, उसका केंद्रीय भाव नहीं है | छायावाद वस्तुतः एक विशेष सौन्दर्य दृष्टि का उन्मेष है | रहस्योन्मुखता और प्रकृति प्रेम उसी की अभिव्यक्ति की विविध सरणियाँ है | जहाँ तक छायावाद को एक शैली मात्र मानने की बात है तो प्रतीकात्मकता को छायावाद का अनिवार्य लक्षण पहले ही मान लिया गया है | मूल रूप से यथार्थ को छाया के माध्यम से व्यक्त करने वाले काव्यान्दोलन को छायावाद कहा जाता है | द्विवेदी युगीन बंधन प्रियता और आदर्शवादिता को विरोध करते हुए छायावादी रचनाकारों ने युग के यथार्थ के बाह्य स्वरूप को ना व्यक्त करके उसकी सूक्ष्मता को व्यक्त करने पर अत्यधिक जोर दिया।  छायावादी कविता गहरे अर्थों में कल्पना तत्व, सांस्कृतिक चेतना का विकास, राष्ट्रवादी चेतना का विस्तार, नवजागरण के सूक्ष्म होते स्तर और आधुनिकता बोध की कविता है | छायावादी कवियों ने अपनी व्यक्तिगत जीवन की अभिव्यक्ति कविता के माध्यम से की है। इन्होंने विषय वस्तु की खोज बाह्य जगत से ना करके अपने मन के साथ संवाद को अभिव्यक्त किया है। छायावाद विदेशी पराधीनता और स्वदेशी जीर्ण-शीर्ण रुढियों से मुक्त होने का मुखर स्वर भी है, जिसमें राष्ट्रीय जागरण की चेतना प्रधान है |
सांस्कृतिक चेतना का विकास छायावाद की एक प्रमुख विशेषता के रूप में सामने आती है। कोई भी समाज जब आधुनिकता के संपर्क में आता है तो वह सबसे पहले अपने इतिहास के साथ संवाद स्थापित करता है। साथ ही उन सभी तत्वों को अलगाने का कार्य करता है जो उनकी सांस्कृतिक परंपरा को मजबूत करते हैं। इसक्रम में छायावादियों के पास एक लंबी परंपरा मौजूद है जिसके बरक्स वह तत्कालीन समाज के सामने उनके गौरवशाली इतिहास को ला सकते थे। छायावाद काव्य को एकतरफ गांधीवाद से प्रेरणा प्राप्त हुयी और दूसरी तरफ वह बंगाल के नवजागरण तथा रवीन्द्रनाथ के संपर्क में भी आता है। छायावाद की राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना गांधी की भाववादी विचारधारा तथा रवीन्द्रनाथ का मानवतावाद से प्रेरणा लेकर विकसित हो रही थी।      
छायावादी काव्य परंपरा
छायावादी काव्य धारा के प्रवर्तक कवि जयशंकर प्रसाद है। केवल भाषा और विषय वस्तु ही नहीं, प्रसाद ने नवीन जीवन-दृष्टि की भी सृष्टि की

प्रसाद काव्य की सांस्कृतिक चेतना अत्यधिक प्रभावशाली है साथ ही यह उनके काव्य की प्रमुख विशेषता भी है। प्रसाद काव्य की सांस्कृतिक चेतना पर व्यापक राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना तथा विश्वमंगल की कामना का समावेश देखा जा सकता है। नवजागरण के प्रभाव में भारतीय समाज में जो संवेदना विकसित हो रही थी वह अपने इतिहास और संस्कृति से गहराई से प्रभावित थी। इसके अलावा जो आधुनिक संवेदना विकसित हो रही थी उसमें भी परंपरा और इतिहास को अत्यधिक महत्व दिया गया था। प्रसाद की कविता इसी तरह की सांस्कृतिक चेतना और आधुनिकताबोध को लेकर विकसित हुई थी | इसके अलावा भाषा के विशेष संदर्भ में देखने पर पता चलता है कि प्रसाद की कविता ब्रजभाषा से लेकर खड़ीबोली तक का सफर तय करती है। इतिवृत्तात्मक खड़ी बोली से लेकर रचनात्मक संवेदना संपन्न लाक्षणिक, चित्रमय, ध्वनिमय काव्य भाषा इनके काव्य की प्रमुख विशेषता है।
निराला छायावादी युग के सबसे प्रखर रचनाकार माने जाते हैं | अधिकांश छायावादी रचनाकारों में कल्पना, सामाजिकता और संस्कृति का गहरा मिश्रण दिखाई देता है। निराला इसी परंपरा का निर्वहन अपनी अलग शैली में करते हैं। शुरू से इनकी कविताएं अत्यधिक प्रयोगधर्मी रही हैं। स्वानुभूति की जो संवेदना आजादी के बाद के गद्य साहित्य में दिखाई देती है निराला उसे अपनी कविता के माध्यम से छायावादी युग में अभिव्यक्त कर चुके हैं। सरोज स्मृति उनकी एक ऐसी ही कविता है जिसके माध्यम से उन्होंने अपनी पुत्री के जीवन के संदर्भ में अपने कविता के माध्यम से व्यक्त किया है। इसके अलावा उन्होंने कई ऐसी कविताएं लिखी हैं जिसका संदर्भ उनके स्वयं के जीवन से लिया जा सकता है। इनकी कविता का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष समकालीनता है। लगातार समाज में विकसित विचारधारा के प्रभाव में अपनी पक्षधरता को निर्धारित करती है। इन्होंने रचनाओं को छंद के बंधन से मुक्त किया। इसतरह निराला छायावाद के सबसे अधिक प्रयोगवादी कवि हैं। तुलसीदास कविता के बाद इनकी कविताओं की संवेदना लगातार प्रगतिवाद के साथ जुड़ती जाती है। इसक्रम में कुकुरमुत्ता, बेला, नये पत्ते, तथा अणिमा आदि महत्वपूर्ण है।
महादेवी अपने समय में अकेली महिला लेखिका हैं जो उस दौर में औरतों की संवेदना को छायावादी संवेदना के साथ व्यक्त करती हैं। इनके काव्य में प्रमुख रूप से वैयक्तिक्ता, वेदना और निराशा, वैयक्तिक प्रेम का चित्रण, अनुभूतियों का मार्मिक चित्रण तथा कल्पना का प्राचुर्य दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त दुःख की गहन अनुभूति तथा अकेलापन, रहस्यवादी प्रवृत्ति और प्रकृति चित्रण को भी ये प्रमुखता देती हैं। यदि देखा जाए तो छायावादी युग राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आधार पर अत्यधिक उथल पुथल का युग रहा है। महादेवी की रचनाएं उस युग के यथार्थ से लगातार प्रभावित दिखाई देती हैं लेकिन उनकी प्रवृत्ति प्रायः अंतर्मुखी रही है। इन्होंने अपनी कविताओं में व्यथा वेदना और रहस्य भावना को ही प्रमुखता दी है तथा आध्यात्मिकता का वरण किया है। नीहार, रश्मि, नीरजा, दीपशिखा तथा सांध्यगीत उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं |
छायावादी युग के प्रवर्तकों में सुमित्रानंदन पंत का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। इनकी कविता में ना सिर्फ छायावादी प्रवृत्ति वरन् अपने समय में विकसित विचारधाराओं का वरण दिखाई देता है। उनकी काव्य रचना में प्रारंभ से लेकर अंत तक अनेक परिवर्तन और मोड़ दिखाई देते हैं। यह एक ऐसे कवि हैं जिनकी मान्यताएं, आदर्श और विचार समय के अनुसार बदलती रही हैं। आजीवन वह किसी आदर्श और विचार से बंधकर नहीं रहे। कवि की विचारधारा ने धीरे धीरे प्रगतिवाद की तरफ अपना रूख किया। यहीं से उनकी कविता के विकास का द्वितीय युग माना जा सकता है। इस युग तक आते आते छायावाद का सौंदर्यवादी कवि मानव मात्र के कल्याण की कल्पना करता है। कवि को यह विश्वास हो चला था कि मानवता का कल्याण पुरातनता के निर्मोह को उतार फेंकने में है|
छायावादी काव्य का वैशिष्ट्य
छायावाद कविता का ऐसा आन्दोलन है जिसका संबंध भाव-जगत से है, ह्रदय की भूमि से है | भावलोक की सता ही अनुभव का विषय है, ह्रदय से जानने, समझने और महसूस करने की वस्तु है | हिंदी साहित्य में आधुनिक कविता का इतिहास देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पहली बार छायावाद को ही विराट मानवीय वेदना की भूमि पर प्रतिष्ठित होने का श्रेय प्राप्त है | इसकी प्रमुख विशिष्टताएँ इसप्रकार है-
व्यक्ति-स्वातंत्र्य को स्वर
व्यक्ति-स्वातंत्र्य छायावादी काव्य का मूल स्वर है | यह व्यक्ति की मानसिक और सामाजिक स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति है | किन्तु व्यक्ति-स्वातंत्र्य को अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए भी विश्व-बोध में उसका विलयन कर देना ही छायावाद की अन्यतम उपलब्धि है | निराला जब यह कहते है कि “मैंने मै शैली अपनाई” तो यहाँ मैं कहकर समूचे युग की पीड़ा को वे अपनी निधि मानकर चलते है | प्रसाद भी “आँसू” में इसीप्रकार वैयक्तिक विरह को “विश्व-वेदना” में परिणत करते हैं | व्यक्तिगत सुख-दु:ख की अपेक्षा अपने से अन्य के सुख-दुख की अनूभूति ने ही नए कवियों के भाव-प्रवण और कल्पनाशील हृदयों को स्वच्छंदतावाद की ओर प्रवृत्त किया।निराला ने “सरोज-स्मृति” तथा “वन-वेला” में अपने जीवन के मार्मिक प्रसंगों का चित्रण करके वैयक्तिकता का आग्रह व्यक्त किया है | यह आकस्मिक नहीं है कि छायावादी कवियों में से अधिकांश ने किसी-न-किसी रूप में आत्मकथात्मक कविताएँ अवश्य लिखीं है |
प्रकृति-सौंदर्य और प्रेम की व्यंजना
छायावादी कवि का मन प्रकृति चित्रण में खूब रमा है और प्रकृति के सौंदर्य और प्रेम की व्यंजना छायावादी कविता की एक प्रमुख विशेषता रही है। छायावादी कवियों के लिए प्रकृति देश-प्रेम और व्यक्ति-स्वातंत्र्य की आकांक्षा की पूरक रही है | इन कवियों ने प्रकृति को “सर्व सुंदरी” कहा है | प्रसाद जी ने हिमालयी शिखरों को शोभनतन कहा है | पंत स्वयमेव पर्वत पुत्र हैं | जबकि निराला के यहाँ सागर, सरिता, निर्झर तथा जल-प्रवाह की ध्वनयात्मक व्यंजना बहुत हुई है | ‘बादल राग’, ‘प्रभात के प्रति’ और धारा आदि कविताएँ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है | छायावादी काव्य में प्रकृति-सौंदर्य के अनेक चित्रण मिलते हैं| प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी आदि छायावाद के सभी प्रमुख कवियों ने प्रकृति का नारी रूप में चित्रण किया और सौंदर्य व प्रेम की अभिव्यक्ति की। जैसे-पंत की कविता -
“बांसों का झुरमुट
संध्या का झुटपुट
हैं चहक रहीं चिड़ियां
टी वी टी टुट् टुट्”
छायावादी कवि के लिए प्रकृति की प्रत्येक छवि विस्मयोत्पादक बन जाती है। वह प्राकृतिक सौंदर्य पर विमुग्ध होकर रहस्यात्मकता की ओर उन्मुख हो जाता है|
रुढियों से मुक्ति का काव्य
छायावादी काव्य रुढियों से विद्रोह का काव्य है | इन कवियों ने सर्वप्रथम पौराणिकता का निषेध किया | निराला ने हर तरह की रूढ़ि पर प्रहार करने में अपने समकालीनों में सबसे आगे थे | वे काव्य में निरंतर नवगति, नवलय, ताल छंद नव, नवल कंठ, नवजलद मंद्र नव के अभिलाषी रहे है | पन्त ने घोषणा की कि “कट गए छंद के बंध, प्रास के रजत पाश” |प्रसाद को भी “पुरातनता का निर्मोक” सह्य नहीं है |
राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना
छायावाद का केन्द्रीय मूल्य स्वातंत्र्य ही है | इसी से छायावादी काव्य के जीवन और कविता संबंधी सभी मूल्य निःसृत होते है | छायावादी कवि अपने ऐतिहासिक सन्दर्भ और राष्ट्रीय परिवेश के अनुरूप बहुमुखी स्वातंत्र्य अथवा मुक्ति की आकांक्षा की अभिव्यक्ति था | मुक्ति की कामना से प्रेरित होकर छायावादी कवियों ने ओजस्वी स्वर में जागरण-गीत भी लिखा | प्रसाद की “हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार’ और ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती’ जैसे गीत, निराला की ‘भारत जय विजय करे’ जैसी रचनाएँ इसका प्रमाण हैं | निराला के “बादल-राग” का विप्लवी बादल भी इसी मुक्ति की कामना का उदाहरण है | छायावाद की मुक्ति कामना और राष्ट्रीय चेतना केवल राष्ट्रगीतों तक ही सीमित नहीं है बल्कि अपनी सूक्ष्म और सांकेतिक प्रकृति के अनुरूप अन्य कविताओं में भी अंतर्धारा के रूप में व्याप्त रहती है | निराला के “तुलसीदास” में देश को पराधीनता से मुक्त कराने का संकल्प है और “राम की शक्ति पूजा” के पौराणिक प्रतीक भी देश के उद्धार के लिए नैतिक शक्ति की साधना का सन्देश देते है |      
राष्ट्रीय जागरण की गोद में पलने-पनपने वाला छायावाद साहित्य यदि रहस्यात्मकता और राष्ट्र प्रेम की भावनाओं को साथ-साथ लेकर चला है, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। विदेशी गुलामी से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रही भारतीय जनता को देश के अतीत और सांस्कृतिक चेतना से अवगत कराने के लिए जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटकों में राष्ट्र का क्रमबद्ध इतिहास प्रस्तुत किया | प्रसाद ने अपने एक गीत-“हिमालय के आँगन में जिसे प्रथम किरणों का दे उपहार” में भारत के हजारों वर्षों का स्वर्णिम इतिहास अंकित कर दिया है | निराला का प्रसिद्ध गीत-“भारत जय विजय करे” और पंत की “भारतमाता ग्रामवासिनी” भी राष्ट्रीय चेतना की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं | प्रसाद जी द्वारा कामायनी में शक्ति के विद्युत्कणों को समेटने और निराला द्वारा ‘राम की शक्ति पूजा’ में शक्ति की मौलिक कल्पना करने का आह्वान देश की जनता को अपने भीतर की शक्ति को पहचानने का आह्वान है |
नारी के प्रति गरिमामयी दृष्टि
छायावादी कवियों में नारी के प्रति भक्तिकालीन कवियों की तरह न तो तिरस्कार भाव है और न रीतिकाव्य जैसा कामुक कदाचार | इन्होने द्विवेदी युगीन परहेजी संस्कारी से ऊपर उठाकर मानवीय सौन्दर्य की अधिष्ठात्री,मानवीय करुणा की विधात्री और जीवन के शुभ संकेतों की निर्मात्री घोषित किया है | प्रसाद के अनुसार नारी श्रद्धा रूप है-
“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पगतल में,
पीयूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में”
छायावादी कवियों की दृष्टि में नारी विलास की सहचरी न होकर उच्चभूमियों तक ले चलने वाली शक्ति है |
स्वच्छंद कल्पनाशीलता
छायावादी कविता का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष कल्पना का नवोन्मेष है | प्रसाद का कल्पना विधान अत्यंत विलक्षण है | कामायनी में श्रद्धा की मुख छवि को प्रसाद ने घटाओं के बीच खिले गुलाबी रंग के बिजली के फूल जैसी प्रतीत होती है | इसीप्रकार हिमालयी प्रकृति को श्वेत कमल कहना और और उसपर प्रतिबिंबित अरुणिमा को “मधुमय पिंग पराग” कहना विलक्षण कल्पना विधान है | इसीप्रकार निराला की बिंबविधायिनी कल्पना उनकी कई कविताओं-“राम की शक्ति पूजा”, “सरोज स्मृति”, और तुलसीदास” में उद्भाषित हुई है | पन्त तो “कोमल कल्पनाओं के राजकुमार” कहे जाते रहे हैं |
काव्यभाषा और काव्य रूप
छायावादी कवियों ने काव्य-भाषा को सर्वाधिक प्राथमिकता दी है | प्रसाद के अनुसार काव्य के सौन्दर्य बोध का मुख्य आधार है-शब्द-विन्यास कौशल | निराला ने काव्य के भावात्मक शब्दों को ध्वनि और शब्द व्यापार कहा है | वे कहते है-“ एक-एक शब्द बंधा ध्वनिमय साकार” | केवल चित्रात्मक भाषा के कारण हिंदी वाङ्मय में छायावादी काव्य को स्वतंत्र काव्य धारा माना जा सकता है। कविता के लिए चित्रात्मक भाषा की अपेक्षा की जाती है और इसी गुण के कारण उसमें बिम्बग्राहिता आती है। छायावादी कवि इस कला में परम विदग्ध हैं। प्रसाद की निम्नांकित पंक्तियों में भाषा की चित्रात्मकता की छटा देखते ही बनती है-
शशि मुख पर घूंघट डाले,अंचल में दीप छिपाए।
जीवन की गोधूलि में, कौतूहल से तुम आए।
छायावादी कवि ने परम्परा-प्राप्त उपमानों से संतुष्ट न होकर नवीन उपमानों की उद्भावना की। इसमें अप्रस्तुत-विधान और अभिव्यंजना-शैली में शतश: नवीन प्रयोग किए। मूर्त में अमूर्त का विधान उसकी कला का विशेष अंग बना।
छायावादी कवियों ने मुक्तक काव्य, गीति काव्य, प्रबंध काव्य, लम्बी कविताएँ और नाट्य काव्य की रचना की| इनमें मुक्तक काव्य सर्वाधिक लोकप्रिय रहा है | प्रबंध काव्यों में ‘कामायनी’, प्रेम-पथिक’, लोकायतन’ और तुलसीदास उल्लेखनीय हैं |
छायावाद की छंद योजना वैविध्यपूर्ण है | निराला ने पहलीबार मुक्त छंद का प्रयोग करके कविता को तुकबंदी से मुक्त किया | इन कवियों ने लोकधुनों में अपने छंदों का बांधा है | प्रसाद ने कामायनी के प्रथम सर्ग में लोक प्रचलित आल्हा छंद का प्रयोग किया है | इन छन्दों में ध्वन्यात्मकता का सफल निर्वाह हुआ है |
हिंदी कविता को छायावाद की देन
हिंदी साहित्य के लंबे इतिहास में छायावाद बीस बर्षों तक चलने वाला आंदोलन था, जो साहित्य के विकास की दृष्टि से यह समय बहुत कम है लेकिन इसका प्रभाव बहुत लंबे समय तक रहा। कल्पनाशीलता के बीच जन्मे इस काव्यांदोलन में व्याप्त जीवन मूल्यों, जीजिविषा तथा जीवटता हिंदी साहित्य को अमूल्य देन है क्योंकि इसीकारण यह आंदोलन बाद में प्रगतिवाद के मार्ग को प्रशस्त करता है | जीवन और समाज के प्रति जिस क्रान्तिकारी प्रवृति का विकास प्रगतिवादी और समकालीन कविता के दौर में हुआ उसका उत्स छायावाद ही है| इसतरह यदि देखा जाए तो छायावाद और प्रगतिवाद एक दूसरे की प्रतिक्रिया में नहीं वरन् एक दूसरे की पूरक बनकर विकसित हुई है| सामाजिक विकास की एक विशेष अवस्था में छायावाद प्रवृत्ति का क्षरण और प्रगतिवाद का विकास आवश्यक था। छायावाद ने आधुनिक काल के बदले हुए परिवेश को देखने की दृष्टि हिंदी काव्य जगत को प्रदान की | वर्तमान समय में जब अस्मिता के प्रश्न अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गये हैं। भाषा, जाति, वर्ग और संप्रदाय में विभाजित समाज का चित्र हमारे सामने उपस्थित हो जाता है। इन सब के प्रकाश में छायावादी सामूहिकता का साहित्य बनकर उभरता है जहाँ भावनाएं, संस्कार और समस्याओं का सामूहीकरण करके उसके समाधान को तलाशने की कोशिश दिखाई देती है। खासतौर पर प्रसाद के काव्य में जिसतरह लोकजीवन की प्रतिष्ठा और एक हारे हुए नायक में जीवन जीने की लालसा का प्रयास दिखाई देता है वह अद्वितीय है। इसलिए कामायनी को कालजयी रचनाओं के अंतर्गत स्थान दिया जाता है। निराला की कविता राम की शक्तिपूजा में भी ऐसी संवेदना का विकास दिखाई देता है। जहाँ राम एक सामान्य मनुष्य की भांति शक्ति की अराधना और मौलिक कल्पना करते दिखाई देते हैं।
वैयक्तिक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की क्षमता छायावाद की ही देन है | छायावादी कवि व्यक्तिगत सुख-दु:ख की अपेक्षा अपने से अन्य के सुख-दुख की अनूभूति को महत्व देते थे | हजारी प्रसाद द्विवेदी और शिवदान सिंह चौहान छायावादी वैयक्तिकता को उच्च भूमि पर प्रतिष्ठित किया क्योंकि यह प्रवृति सामाजिक चेतना के विरोध में नहीं, बल्कि सामंती रूढ़ियों के विरोध में खड़ी हुई थी, जिसे आगे के रचनाकारों ने सहर्ष स्वीकार किया | हिंदी कविता में आगे चलकर मुक्त छंद की जिस प्रवृति का विकास हुआ, उसकी शुरुआत छायावाद से ही हुई | निराला ने पहली बार मुक्त छंद का प्रयोग करके कविता को तुकबंदी से मुक्त किया | छायावाद ने नवीन सौन्दर्य चेतना, नवीन कल्पना, नवीन भाषा विधान और नवीन अप्रस्तुत विधान के द्वारा हिंदी कविता को खूब समृद्ध किया |
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि छायावादी काव्य आन्दोलन हिंदी काव्य की एक अन्यतम उपलब्धि है | आधुनिक हिंदी काव्य आन्दोलन में यही एक आन्दोलन है जिसे मौलिक काव्य आन्दोलन कहा जा सकता है | यह आन्दोलन एक ओर भारतीय संस्कृति और औपनिषदिक तत्वों को आधुनिक धरातल पर जागृत करने का सफल प्रयास करता है तो दूसरी ओर आगामी प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नयी कविता आंदोलनों का मार्ग भी प्रशस्त करता है |