वसंत पंचमी नाम सुनते ही पर सबसे पहले ‘वर दे वीणा वादिनी’ पंक्ति स्मृति
में कौंधती है। हमारे स्कूली दिनों में स्कूलों में धूमधाम से बसंत पंचमी के दिन
सरस्वती पूजा होती थी, जिसकी तैयारियां कई दिन पहले शुरू हो जाती थी | पूजा के बाद बेर, गाजर और लड्डू के प्रसाद का वितरण किया जाता था| आज भी पूजा होती होगी| लेकिन जबसे प्राइवेट स्कूलों का जोर पकड़ा, दिल्ली जैसे बड़े नगरों को तो छोड़ ही दीजिए, छोटे शहरों में भी
सरस्वती पूजा कम होती गई | लेकिन ये सभी स्कूल महिना दिन पहले से क्रिसमस
ट्री लगाना और सजावट शुरू कर देते है | वजह मात्र इनके संचालकों
की कुत्सित और मैकाले मानसिकता है जो यह मानकर चलती है कि क्रिसमस मानाना आधुनिकता
है, प्रगतिशीलता है, धर्मनिरपेक्षता है और
सरस्वती पूजा करना पोंगापंथिता,
कट्टरता और
साम्प्रदायिकता है | ऐसे स्कूलों से हम किस तरह से यह अपेक्षा कर
सकते है कि देश की सभ्यता, संस्कृति, धर्म दर्शन और इतिहास से
बच्चों को अवगत कराते होंगे |
माँ सरस्वती के अनन्य उपासक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने जब 'वर दे
वीणा-वादिनी वर दे' की रचना की थी तब देश गुलाम था । निराला महज अज्ञान अंधकार से
मुक्ति को लेकर चिंतित नहीं थे बल्कि वे तत्कालीन मनुष्य की चेतना को, उसकी चिंतन शक्ति को या आत्मा को ग्रसित करने वाली गुलामी से मुक्ति भी चाहते
थे | इसलिए उन्होंने अपनी वंदना में ज्ञान रूपी आलोक
पूरे देश में फ़ैलाने के साथ ही पूरे विश्व को जगमग करने की आकांक्षा रखते है | वे
माँ सरस्वती से स्वयं के लिए ज्ञान के वरदान की कामना नहीं करते है बल्कि वे पूरे
देश में स्वतंत्रता के अमृत मंत्र को गुंजित होने का वरदान मांगते है | वे जानते
थे कि स्वतंत्रता रूपी अमृत मंत्र तभी गुंजायमान हो सकता है जब अज्ञान रूपी
अंधकार, क्लेश और भेदभाव के बंधन समाप्त हो जाय | यह "तमसो मा ज्योतिर्गमय" अर्थात् 'अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की कामना' है| मनुष्य की महायात्रा महज भौतिक अंधकार को
दूर करने की यात्रा नहीं है, यह मनुष्य की विषमताओं से जूझने
की दृढ़ इच्छा शक्ति और अदम्य जिजीविषा का भी परिचायक है | इस तरह देश को पराधीनता
से मुक्त कराने के लिए शक्ति की मौलिक कल्पना करने वाले निराला माँ सरस्वती से नयी
गति, नयी वाणी, नया स्वर और नया आकाश देने की कामना करते है ताकि देश एक नयी ऊर्जा
के साथ सृजन और विश्व कल्याण के पथ पर अग्रसर हो सके| आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि जिसे अपने देश से
प्रेम है, उसे देश की प्रकृति और संस्कृति से भी प्रेम होगा | अन्यथा देश प्रेम
महज दिखावटी होगा या आज के परिप्रेक्ष्य में कहें तो संविधान और तिरंगे की आड़ में
किसी अन्य मंशा से प्रेरित होगा | निराला को अपने देश से
प्रेम था इसलिए वे सरस्वती को धार्मिक और पौराणिक प्रतीकों से निकालकर पूरे देश
में प्रतिष्ठित करते हैं| आज जब छायावादी आन्दोलन के प्रारंभ होने के 100 वर्ष बाद
देश पर बाहरी और भीतरी विध्वंशक शक्तियों द्वारा आघात किया जा रहा है, देश को
टुकड़े-टुकड़े करने के षड्यंत्र रचे जा रहे है, वसंतपंचमी के अवसर पर हम 'वर दे वीणा-वादिनी वर दे' के आह्वान द्वारा
कुपढों, कुपाठियों और कुमार्गियों को सांस्कृतिक चेतना के साथ साथ भारतीयता की
अनन्य चेतना से जोड़ने की उम्मीद कर सकते है |
ऋग्वैदिक काल में सरस्वती एक नदी के रूप में प्रवाहमान थी | तत्कालीन
आर्य-सभ्यता के सारे गढ़ और नगर, शिक्षण संस्थाएं, ऋषियों की तपोभूमि और
आश्रम सरस्वती नदी के तट पर बसे थे। वेदों और उपनिषदों की रचना इन्हीं आश्रमों में
हुई थी। कालान्तर में ब्राह्मण ग्रंथों और पुराणों ने सरस्वती नदी को देवी का
दर्जा दिया और तभी से सरस्वती सृजनात्मकता की प्रतीक हैं। ऋग्वेद में सरस्वती के प्रति
श्रद्धा में कहा गया है कि ये परम चेतना हैं, ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। वसंतपंचमी के दिन सरस्वती की
अर्चना वस्तुतः आर्य सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में सरस्वती नदी की भूमिका के
प्रति हमारी कृतज्ञता की भी अभिव्यक्ति है और हमारी अवरुद्ध मानसिकता के द्वारों
को खोलने का उत्सव है।
भारत की सनातन परंपरा में किसी भी पर्व, त्यौहार या उत्सव का प्रकृति से अनन्य
रूप से जुड़ा है | आज की जरूरतों के हिसाब से कहें तो सनातन परम्परा में पर्यावरण
संरक्षण का एक दीर्घकालिक और प्रभावी प्रबंध किए गए हैं | समस्त भारतीय समाज
आदिकाल से भी प्रकृति के साथ रस-भाव या सम-भाव से सराबोर रहा है | वसन्त पंचमी का
उत्सव भी प्रकृति से जुड़ा हुआ है | वसंत को ऋतुओं का राजा अर्थात सर्वश्रेष्ठ ऋतु
माना गया है क्योंकि इस समय ठण्ड का मौसम उतार पर होता है और गर्मी का मौसम अभी
शुरू नहीं हुआ होता है | इस कारण ऐसा माना जाता है कि पंचतत्त्व अपना प्रकोप
छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट होते हैं। पंचतत्त्व-जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि सभी अपने
मोहक रूप में होते हैं। यह अनायास नहीं है कि कवियों और कलाकारों को वसन्त ऋतु सहज
ही आकर्षित करती है | केदार नाथ अग्रवाल की कविता ‘बसंती हवा’ एक साथ महुआ और आम से लेकर अरहर, अलसी और सरसों की फसलों
के मिले-जुले नैसर्गिक सौन्दर्य को अभिव्यक्त करती है| इसलिए पंचमी में वसंत पंचमी को सर्वश्रेष्ठ पंचमी माना जाता है और इसे श्री
पंचमी भी कहा जाता है | यह उस विदेशी संस्कृति से बिल्कुल अलग है जिसमें वलेन्टाइन
डे से लेकर बर्थ डे, वाथ डे तक न जाने क्या क्या
डे मनाया जाता है जहाँ प्रकृति के सरंक्षण के बजाय उसका उपभोग और दोहन होता है
जबकि भारतीय सनातन परंपरा में मनुष्य और पर्यावरण में उपभोक्ता और उपभोग का संबंध
नहीं है |