Wednesday 29 January 2020

वसंत पंचमी......... अवरुद्ध मानसिकता को खोलने का उत्सव


वसंत पंचमी नाम सुनते ही पर सबसे पहले वर दे वीणा वादिनी पंक्ति स्मृति में कौंधती है। हमारे स्कूली दिनों में स्कूलों में धूमधाम से बसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजा होती थी, जिसकी तैयारियां कई दिन पहले शुरू हो जाती थी | पूजा के बाद बेर, गाजर और लड्डू के प्रसाद का वितरण किया जाता था| आज भी पूजा होती होगी| लेकिन जबसे प्राइवेट स्कूलों का जोर पकड़ा, दिल्ली जैसे बड़े नगरों को तो छोड़ ही दीजिए, छोटे शहरों में भी सरस्वती पूजा कम होती गई | लेकिन ये सभी स्कूल महिना दिन पहले से क्रिसमस ट्री लगाना और सजावट शुरू कर देते है | वजह मात्र इनके संचालकों की कुत्सित और मैकाले मानसिकता है जो यह मानकर चलती है कि क्रिसमस मानाना आधुनिकता है, प्रगतिशीलता है, धर्मनिरपेक्षता है और सरस्वती पूजा करना पोंगापंथिता, कट्टरता और साम्प्रदायिकता है | ऐसे स्कूलों से हम किस तरह से यह अपेक्षा कर सकते है कि देश की सभ्यता, संस्कृति, धर्म दर्शन और इतिहास से बच्चों को अवगत कराते होंगे |
माँ सरस्वती के अनन्य उपासक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने जब 'वर दे वीणा-वादिनी वर दे' की रचना की थी तब देश गुलाम था । निराला महज अज्ञान अंधकार से मुक्ति को लेकर चिंतित नहीं थे बल्कि वे तत्कालीन मनुष्य की चेतना को, उसकी चिंतन शक्ति को या आत्मा को ग्रसित करने वाली गुलामी से मुक्ति भी चाहते थे | इसलिए उन्होंने अपनी वंदना में ज्ञान रूपी आलोक पूरे देश में फ़ैलाने के साथ ही पूरे विश्व को जगमग करने की आकांक्षा रखते है | वे माँ सरस्वती से स्वयं के लिए ज्ञान के वरदान की कामना नहीं करते है बल्कि वे पूरे देश में स्वतंत्रता के अमृत मंत्र को गुंजित होने का वरदान मांगते है | वे जानते थे कि स्वतंत्रता रूपी अमृत मंत्र तभी गुंजायमान हो सकता है जब अज्ञान रूपी अंधकार, क्लेश और भेदभाव के बंधन समाप्त हो जाय | यह "तमसो मा ज्योतिर्गमय" अर्थात् 'अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की कामना' है| मनुष्य की महायात्रा महज भौतिक अंधकार को दूर करने की यात्रा नहीं है, यह मनुष्य की विषमताओं से जूझने की दृढ़ इच्छा शक्ति और अदम्य जिजीविषा का भी परिचायक है | इस तरह देश को पराधीनता से मुक्त कराने के लिए शक्ति की मौलिक कल्पना करने वाले निराला माँ सरस्वती से नयी गति, नयी वाणी, नया स्वर और नया आकाश देने की कामना करते है ताकि देश एक नयी ऊर्जा के साथ सृजन और विश्व कल्याण के पथ पर अग्रसर हो सके| आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि जिसे अपने देश से प्रेम है, उसे देश की प्रकृति और संस्कृति से भी प्रेम होगा | अन्यथा देश प्रेम महज दिखावटी होगा या आज के परिप्रेक्ष्य में कहें तो संविधान और तिरंगे की आड़ में किसी अन्य मंशा से प्रेरित होगा | निराला को अपने देश से प्रेम था इसलिए वे सरस्वती को धार्मिक और पौराणिक प्रतीकों से निकालकर पूरे देश में प्रतिष्ठित करते हैं| आज जब छायावादी आन्दोलन के प्रारंभ होने के 100 वर्ष बाद देश पर बाहरी और भीतरी विध्वंशक शक्तियों द्वारा आघात किया जा रहा है, देश को टुकड़े-टुकड़े करने के षड्यंत्र रचे जा रहे है, वसंतपंचमी के अवसर पर हम 'वर दे वीणा-वादिनी वर दे' के आह्वान द्वारा कुपढों, कुपाठियों और कुमार्गियों को सांस्कृतिक चेतना के साथ साथ भारतीयता की अनन्य चेतना से जोड़ने की उम्मीद कर सकते है |
ऋग्वैदिक काल में सरस्वती एक नदी के रूप में प्रवाहमान थी | तत्कालीन आर्य-सभ्यता के सारे गढ़ और नगर, शिक्षण संस्थाएं, ऋषियों की तपोभूमि और आश्रम सरस्वती नदी के तट पर बसे थे। वेदों और उपनिषदों की रचना इन्हीं आश्रमों में हुई थी। कालान्तर में ब्राह्मण ग्रंथों और पुराणों ने सरस्वती नदी को देवी का दर्जा दिया और तभी से सरस्वती सृजनात्मकता की प्रतीक हैं। ऋग्वेद में सरस्वती के प्रति श्रद्धा में कहा गया है कि ये परम चेतना हैं, ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। वसंतपंचमी के दिन सरस्वती की अर्चना वस्तुतः आर्य सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में सरस्वती नदी की भूमिका के प्रति हमारी कृतज्ञता की भी अभिव्यक्ति है और हमारी अवरुद्ध मानसिकता के द्वारों को खोलने का उत्सव है।
भारत की सनातन परंपरा में किसी भी पर्व, त्यौहार या उत्सव का प्रकृति से अनन्य रूप से जुड़ा है | आज की जरूरतों के हिसाब से कहें तो सनातन परम्परा में पर्यावरण संरक्षण का एक दीर्घकालिक और प्रभावी प्रबंध किए गए हैं | समस्त भारतीय समाज आदिकाल से भी प्रकृति के साथ रस-भाव या सम-भाव से सराबोर रहा है | वसन्त पंचमी का उत्सव भी प्रकृति से जुड़ा हुआ है | वसंत को ऋतुओं का राजा अर्थात सर्वश्रेष्ठ ऋतु माना गया है क्योंकि इस समय ठण्ड का मौसम उतार पर होता है और गर्मी का मौसम अभी शुरू नहीं हुआ होता है | इस कारण ऐसा माना जाता है कि पंचतत्त्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट होते हैं। पंचतत्त्व-जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि सभी अपने मोहक रूप में होते हैं। यह अनायास नहीं है कि कवियों और कलाकारों को वसन्त ऋतु सहज ही आकर्षित करती है | केदार नाथ अग्रवाल की कविता बसंती हवाएक साथ महुआ और आम से लेकर अरहर, अलसी और सरसों की फसलों के मिले-जुले नैसर्गिक सौन्दर्य को अभिव्यक्त करती है| इसलिए पंचमी में वसंत पंचमी को सर्वश्रेष्ठ पंचमी माना जाता है और इसे श्री पंचमी भी कहा जाता है | यह उस विदेशी संस्कृति से बिल्कुल अलग है जिसमें वलेन्टाइन डे से लेकर बर्थ डे, वाथ डे तक  न जाने क्या क्या डे मनाया जाता है जहाँ प्रकृति के सरंक्षण के बजाय उसका उपभोग और दोहन होता है जबकि भारतीय सनातन परंपरा में मनुष्य और पर्यावरण में उपभोक्ता और उपभोग का संबंध नहीं है |

Friday 24 January 2020

जेपी नड्डा की चुनौतियाँ........पार्टी के जोश को हाई रखना


भाजपा ने अपने संगठनात्मक चुनाव में जेपी नड्डा को निर्विरोध अध्यक्ष चुनकर पार्टी के भीतर न केवल लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के प्रति प्रतिबद्दता का स्पष्ट सन्देश दे दिया है बल्कि कम से कम अपनी उस धारणा को भी प्रदर्शित भी किया है कि वह उन राजनीतिक दलों जैसे नहीं है जिसकी नाभिनाल या तो परिवारवाद है या जहाँ परिवार की गुलामी की संस्कृति पार्टी का संविधान है | यह भारतीय राजनीति की विडंबना ही है कि जहां एक ओर देश की सबसे पुरानी पार्टी परिवारवाद से इस कदर चिपकी हुई है कि परिवार से इतर बुजुर्ग नेता सीताराम केसरी को अध्यक्ष पद से हटाने के लिए पार्टी कार्यालय से फेंकवाने में संकोच नहीं करती है तो नरसिम्हा राव जैसे कद्दावर नेता, पूर्व अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के शव को कार्यकर्ताओं के अंतिम दर्शन के पार्टी कार्यालय में रखे जाने से भी रोक दिया जाता है वही दूसरी ओर भाजपा पार्टी के एक आम कार्यकर्ता भी अध्यक्ष पद पर विधिवत ताजपोशी कर रही है | एक ओर पिछले दो दशक में जहां भाजपा में लगभग दस ऐसे लोगों ने अध्यक्ष पद की कमान संभाली कभी पार्टी के आम कार्यकर्ता थे, वहीं कांग्रेस पार्टी एक परिवार के अलावा अन्य किसी को इस लायक नहीं समझ सकी कि उसे पार्टी की कमान सौंपी जा सके। इस तरह पार्टी के भीतर वंशवाद और लोकतंत्र के विमर्श या संघर्ष में भाजपा देश की सबसे पुरानी पार्टी के ऊपर अपनी लोकतान्त्रिकता को स्थापित किया है | क्षेत्रीय दलों की तो भाजपा से तुलना ही नहीं की जा सकती है क्योंकि उनका तो जन्म ही परिवारवाद की कोख से हुआ है जिनसे लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के पालन की उम्मीद ही नहीं की जा सकती है |

पार्टी की यही लोकतांत्रिकता नए अध्यक्ष जेपी नड्डा की सबसे बड़ी चुनौती है | भले ही पार्टी ने शीर्ष पदों पर वंशवाद को हावी नहीं होने दिया है, लेकिन पार्टी नेताओं के पारिवारिक सदस्यों की पहुँच से परे बिल्कुल नहीं है | पार्टी में पारिवारिक सदस्यों का स्थान लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के तहत तय करना होगा | 

भाजपा अध्यक्ष के सामने दो व्यापक चुनौतियां हैं-उतराधिकार में प्राप्त संगठनात्मक मजबूती को बरकरार रखना और आगामी चुनावों के संगठन एवं कार्यकर्ताओं के बीच जोश को बनाए रखना |  अमित शाह ने अपने साढ़े पांच कार्यकाल में दोनों जिम्मेदारियों को केवल बखूबी निभाया | जेपी नड्डा को भी इस सिलसिले को कायम रखना होगा| इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की उम्मीदों पर खरा उतरने की अतिरिक्त चुनौती है और यह तभी कायम हो सकता है कि जब आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा उल्लेखनीय सफलता हासिल करेगी | उनके कार्यकारी अध्यक्ष बनने के बाद से हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी को अभी तक निराशा ही हाथ लगी लेकिन उन्होंने संगठनात्मक मजबूती और कार्यकर्ताओं के जोश को कमजोर होने नहीं दिया है और इसी का इनाम उन्हें मिला है |
नड्डा के लिए तात्कालिक चुनौती भाजपा को दिल्ली में सत्ता में वापस लाना है, जहाँ वह पिछली बार 1998 में सरकार में थी। भाजपा को दिल्ली के मुख्यमंत्री आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल की सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। केजरीवाल सरकार को अपनी लोकलुभावन नीतियों पर भरोसा है, जिससे भाजपा को पार पाना असंभव तो नहीं, लेकिन मुश्किल अवश्य हो रहा है। दिल्ली में भाजपा के पास मुख्यमंत्री पद के लिए अभी तक कोई सशक्त चेहरा नहीं है|
लेकिन जेपी नड्डा की असली अग्निपरीक्षा इस साल के अंत में बिहार विधानसभा चुनाव में होगी, जहाँ से उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत पटना विश्वविद्यालय में एक छात्र नेता के रूप में की थी| बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू अध्यक्ष, चतुर राजनेता नीतीश कुमार बिहार में एक वरिष्ठ की भूमिका का दावा छोड़ने के लिए तैयार नहीं होंगे | नड्डा के सामने नीतीश कुमार के साथ ही लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के साथ अपने मोलभाव के कौशल का इस्तेमाल करते हुए बिहार में भाजपा के आधार को आक्रामक तरीके से बढ़ाना एक अहम चुनौती है |
2021 में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के किले को तोड़ना नड्डा के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। कई राजनीतिक पर्यवेक्षक पश्चिम बंगाल चुनाव को भाजपा के लिए अंतिम मोर्चा कहते हैं | इसके साथ उसी वर्ष असम में सत्ता विरोधी लहर को मात देने का कठिन कार्य भी होगा। पिछले साल दिसंबर में संसद द्वारा नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) पारित किए जाने के बाद से असम विरोध प्रदर्शन की चपेट में है। नड्डा के पास उन सभी राज्यों में पार्टी के कैडरों को पुनर्जीवित करने का एक कठिन कार्य है, और यह सुनिश्चित भी करना है कि पार्टी उन राज्यों में सत्ता नहीं खोये जहां वह सरकार चला रही है।
इस प्रक्रिया में दूरगामी दृष्टिकोण रखते हुए सहयोगी दलों के बीच भरोसा बनाए रखना भी होगा | भाजपा नेतृत्व द्वारा सहयोगी दलों को साथ लेकर चलने की बात बार-बार दोहराए जाने के बावजूद भाजपा के "बड़े भाई दृष्टिकोण" से सहयोगी अधिक असहज हो गए हैं। हाल ही महाराष्ट्र में शिवसेना के अलग होने बीजेपी को तगड़ा झटका लगा है जिसकी भरपायी भाजपा ने पहले की है लेकिन अब उसे नए सिरे से करना है | भाजपा ने पुराने सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) के बिना अकेले ही झारखंड विधानसभा चुनाव लड़ा। जिससे भयानक हार का सामना करना पड़ा।
नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के खिलाफ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन के बाद लंबे समय से गठबंधन के सहयोगी, जेडीयू और शिरोमणि अकाली दल भाजपा के साथ असहज महसूस कर रहे हैं। कई सहयोगियों ने खुले तौर पर भाजपा के प्रमुख प्रोजेक्ट, पैन-इंडिया नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) के प्रति असहमति व्यक्त कि है| भाजपा अध्यक्ष होने के नाते एनआरसी को लेकर सहयोगी दलों की आशंकाओं को दूर करना और उन्हें साथ बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है | खासकर तब जब विपक्षी खेमा राज्य-विशेष स्तर पर भाजपा-विरोधी (मोदी विरोधी पढ़ें) गठबंधन को एकजुट करने की कोशिश कर रहा है।
अमित शाह ने अपने साढ़े पांच वर्षों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी के लोकप्रिय व्यक्तित्व को बरकरार रखा | सरकार और उसकी योजनाओं के साथ पार्टी का तालमेल स्थापित करते हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में 303 से अधिक सीटो पर जीत दर्ज करने में अहम भूमिका निभायी थी | 2019 से पहले कई राज्यों में जहां भाजपा ने विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था वहाँ भी लोकसभा चुनाव में पार्टी को 50 प्रतिशत से अधिक वोट मिले। इसमें कोई संशय नहीं कि नड्डा ने 2014 और 2019 के संसदीय चुनावों में रणनीतिकार के रूप में अपनी भूमिका निभाई थी लेकिन अब नड्डा स्वयं सूत्रधार की भूमिका में हैं | इसलिए, नड्डा की सबसे बड़ी चुनौती मोदी लहर को बरकरार रखना है।