Monday 24 November 2014

केदारनाथ सिंह : सहजता और लोक आख्यान के जादूगर

केदारनाथ सिंह : सहजता और लोक आख्यान के जादूगर
हिंदी के वरिष्ठतम कवि केदारनाथ सिंह को सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा जाना महज उनके काव्य की उत्कृष्टता का सम्मान नहीं है अपितु उन्हें यह पुरस्कार दिये जाने से स्वयं में ज्ञानपीठ पुरस्कार ही अधिक गौरवान्वित हुआ है | उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के चकिया गाँव के किसान परिवार से शुरू हुई जीवन यात्रा ८० वर्ष पूरी कर चुकी है और उनकी सर्जनात्मकता अपनी सम्पूर्ण प्रखरता और उर्जा के साथ अभी भी अक्षुण्ण है| अभी बिलकुल अभी, बाघ, अकाल में सारस, जमीन पक रही है, कब्रिस्तान में पंचायत, उत्तर कबीर और अन्य कवितायेँ, टॉलस्टॉय और साइकिल, सृष्टि पर पहरा केदारजी की कालजयी रचनाएं हैं जिसमें युग-बोध और भाव बोध जीवन की सहज लय में रच-बस कर अभिव्यक्त हुआ है | ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति ने अपने बयान में कहा है कि केदारनाथ सिंह अपनी कविताओं में जनपदीय चेतना के लिए जाने जाते हैं| वे कविता में आधुनिकता के साथ-साथ गीतात्मकता, प्रकृति और मनुष्य के बहुआयामी संबंधों को बड़ी सहजता से प्रस्तुत करने के लिए चर्चित हैं।
मै अपने को उन सौभाग्यशाली लोगों में मानता हूँ जिन्हें केदार जी से पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ| वे अद्भुत शिक्षक हैं और निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ और मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ जैसी जटिल संवेदना वाली कविताओं को इतने सरल और सहज रूप से व्याख्यायित करते हुए अपने छात्रों के लिए बोधगम्य बना देना और उनके मन मष्तिष्क में कविता के प्रति रूचि पैदा कर देना उनकी अद्भुत खूबी रही है | मेरी जानकारी में किसी भी छात्र को उनसे कभी भी कोई परेशानी नहीं हुई या शिकायत नहीं रही| व्यक्तित्व में विनम्रता इतनी कि उनके अध्यापन और सर्जनात्मकता में भी झलकती रहती है |
केदारनाथ सिंह ‘तीसरे सप्तक’ के एक प्रमुख कवि थे | इस नाते वे नयी कविता आन्दोलन के अग्रणी कवियों में से एक थे | लेकिन वे कभी भी नयी कविता आन्दोलन की रूढ़ियों और साथ ही साथ यों कहा जाय कि समकालीनता की रूढ़ियों के गुलाम नहीं रहे | समय और परिवेश के साथ हिंदी कविता की बदलती धाराओं, फूटते नए स्वरों और उभरते मूल्य बोधों के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने अपनी कविताई को नया आयाम प्रदान किया लेकिन कथ्य, भाषा और बिम्ब की सहजता को लेकर कभी समझौता नहीं किया | वे अपने आसपास के दैनिक जीवन से विश्व मानव की ओर अग्रसर होते है | ६० से अधिक वर्षों में काव्य रचना उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं रही बल्कि उनके व्यक्तित्व का अंग बन गयी है|
निःसंदेह केदारनाथ सिंह समकालीन हिंदी में जनपदीय चेतना और गीतात्मकता के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं| यह लोकजीवन से उनके गहरे रिश्ते का प्रमाण है | वे खेत, खलिहान, कृषि और ग्रामीण संस्कृति से जुड़े ठेठ देशी मुहावरों, जुमलों और शब्दों का इस्तेमाल करते हुए गहन, गंभीर संदेश देने वाली कविताएं रचते हैं, जिसमें इंसानियत, संस्कृति, प्रकृति, पर्यावरण, नव उदारवाद, भूमंडलीकरण सहित देश और दुनिया के एक व्यापक परिवेश को समेट लेते है| उनकी कविताओं की ताकत भी यही है कि वे सहज-सरल शब्दों में बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं- उसका हाथ/अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/दुनिया को/हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए| भाषा और कथ्य की सहजता उनकी कविताओं का प्राणतत्व है और यही उनकी खूबी है। केदारजी अपने विचारों और संवेदनाओं को अधिकाधिक लोगों तक संप्रेषित करने के लिए बेहद सीधे-सादे ज़ुबान में अभिव्यक्त करते है और इस प्रक्रिया में वे कुछ ऐसा कह जाते हैं जिसका दायरा धर्म, जाति, भाषा, प्रदेश और देश से ऊपर उठते हुए विश्व समुदाय तक फैल जाता है। वे अक्सर साधारण सी दिखने वाली घटनाओं के माध्यम से असाधारण बात कह जाते है | लेकिन साठ के दशक में कुशीनगर में बुद्ध की निर्वाण स्थली पर स्थित स्तूप के साथ खड़े विशाल वट-वृक्ष को काट दिये जाने की घटना उनके लिए सामान्य और असाधारण घटना नही थी | मंच और मचान में उस असाधारण घटना को केदार जी समकालीन नैतिक संकट और सांस्कृतिक संकट के रूप देखते है क्योंकि वट-वृक्ष पर पड़ने वाली कुल्हाड़ियों की ठक के नीचे जाने कितनी चहचह/कितने पर/कितनी गाथाएँ/कितने जातक/दब जाते थे और प्रत्येक ‘ठक’ आधुनिकता के समक्ष विकट सवाल खड़े करता है, जो अभी भी उसी तरह से टंगा है जैसे चीना बाबा का घर|
उनकी कविताओं में गाँव की स्मृतियाँ ही सहज रूप में ही नहीं कौंधती हैं बल्कि गाँव के खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, गली चौपाल और पशु पक्षी भी पूरी जीवन्तता के साथ उपस्थित होते हैं और पूरे ग्रामीण सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में मानव सबंधों के बनते बिगड़ते स्वरुप को उजागर कर जाते है जो पाठक के मन-मष्तिष्क पर लम्बे समय तक छा जाती हैं। उनमें ठेठ गंवई किसान का जीवन मुखर हुआ है और वे कुदाल जैसे ठेठ ग्रामीण किसानी उपकरण के माध्यम से शहर की विसंगतियों पर अंगुली उठाते है | ‘जाड़ों के शुरू में आलू’ कविता में केदार जी आलू के माध्यम से लूट खसोट वाली व्यापारिक संस्कृति को उजागर करते है-वह जमीन से निकलता है और सीधे/बाजार में चला जाता है|’ किसान की पैदावार बाजारों में बिक जाती है जहाँ दलाली, सट्टेबाजी और लूट खसोट का माहौल इस कदर है कि किसान इन सबके कुचक्र में पीस जाता है | जिस आलू को किसान अपनी मेहनत से उपजाता है वही आलू व्यापारियों के बीच जाकर दहशत पैदा कर देता है| `दानेकविता की पंक्तियाँ- नहीं हम मंडी नहीं जाएंगे/खलिहान से उठते हुए कहते हैं दाने/जाएंगे तो फिर लौटकर नहीं आएंगे/जाते-जाते कहते जाते हैं दाने के माध्यम से केदार जी बहुत सहजता से गाँवो से शहरों की ओर प्रवास और फिर लौटकर नहीं आने की विडंबना को बयां कर जाते है| वे सड़क पार करने को भी सड़क के पार बेहतर दुनिया की और टूटे हुए खड़े ट्रक पर चढ़ती घास को एक बदलाव की उम्मीद के रूप में देखते है| लेकिन शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की अंधाधुंध दौड़ में जिस तरह से कृत्रिम खूबसूरती के लिए कंक्रीट और सड़कों का विस्तार किया जा रहा है उसमें घास के लिए जगह नहीं बची है और वही घास दुनिया के तमाम शहरों से /खदेड़ी हुई जिप्सी है वह/  तुम्हारे शहर की धूल में / अपना खोया हुआ नाम और पता खोजती हुई तमाम दरवाज़े पीट रही है पर विडम्बना यह है कि प्राकृतिक सौन्दर्य से महरूम होते जा रहे शहरों में घास के लिए कोई जगह नहीं बची है | इसलिए पर्यावरण की सुरक्षा के सवाल को वे अपने सीधे सादे अंदाज से उठाते है और कहते हैं कि आदमी के जनतंत्र में / घास के सवाल पर / होनी चाहिए लंबी एक अखंड बहस / पर जब तक वह न हो / शुरुआत के तौर पर मैं घोषित करता हूं / कि अगले चुनाव में / मैं घास के पक्ष में / मतदान करूंगा और इस तरह वे पर्यावरण और प्रकृति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते है | विकास और जीडीपी की अंधी दौड़ में जिस तरह से धरती और उसके संसाधनों का दोहन और विनाश किया जा रहा है, इसके बावजूद यह पृथ्वी रहेगी में कवि को भरोसा है कि जैसे दाने में रह लेता है घुन/ यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अंदर“” भले ही ‘मेरी जबान’ में रहे या ‘मेरी नश्वरता’ में रहे | इसलिए वे फूल को, लहरों को, बादलों को, माटी को हक़ देने की मांग करते है, ताकि नए मानव की पताका ऊपर उठती जाय |
महत्वपूर्ण यह है कि बाजार पर आधारित उपभोक्ता वादी संस्कृति जैसे जैसे हावी होती गई, वैसे वैसे केदारनाथ सिंह का जीवन की सहजता की ओर उन्मुख होता गया है | ‘कुछ सूत्र जो किसान बाप ने बेटे को दिए’ इसका सशक्त प्रमाण है | यह नॉस्टैल्जिया नहीं है, बल्कि बहुप्रचारित आधुनिकता के नाम पर परोसी जा रही अपसंस्कृति से अपनी सभ्यता को अक्षुण्ण रखने की एक संवेदनशील कवि की कवायद है और जटिल होते जा रहे समय में परिवेश में मानवीय संबंधों की सहजता का सुकून हैं | जब वे पेड़ों में दबी कहानियां, पत्थरों में हड़प्पा के बसे होने की संभावना, एक दमदार आवाज वाली बुढ़िया का घर, जिसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने का प्रस्ताव करते है, तो क्या यह निरी नॉस्टैल्जिया है?

भोजपुरी से नाभिनाल बद्ध केदार जी भाषा में भोजपुरी के शब्द अनायास ही आ जाते है और भावो और विचारों को सहज और रोचक बना जाते है| भोजपुरी भाषा क्षेत्र से आने के कारण इस प्रदेश की सांस्कृतिक परंपरा और  विरासत से गहरे जुड़े हुए है और यही उनकी लेखकीय ऊर्जा का स्रोत भी है। यहां के जीवन के सुख-दुख और राग-रंग के बीच मैं पला बढ़ा हूं।  वे स्वीकार करते है कि ‘पुरबिया दुनिया’ उनकी आत्मा में बसी है लेकिन उनकी कविता में सम्पूर्ण मानवता समायी हुई है । उनकी भोजपुरी की क्रियाएं  खेतों से आई है और संज्ञाएं पगडंडियों से चलकर | इसी क्रम में भोजपुरी को लोकतंत्र से पहले का ‘ध्वनि- लोकतंत्र’ घोषित करते है जिसकी सबसे बड़ी लाइब्रेरी जबान है | लेकिन उनकी भोजपुरी हिंदी से अलग नहीं है | वे लिखते है, ‘हिंदी मेरा देश है / भोजपुरी मेरा घर / ....मैं दोनों को प्यार करता हूं / और देखिए न मेरी मुश्किल / पिछले साठ बरसों से /दोनों को दोनों में / खोज रहा हूं। परंपरा का यही धरातल है जिस पर कविता का सम्पूर्ण ताना बाना बुना जाता है | फिर वे जन जीवन के बीच हिंदी की वर्णमाला को रचित होते देखते हैं- यह मेरे लोगों का उल्लास है / जो ढल गया है मात्राओं में, / अनुस्वार में उतर आया है कोई कंठावरोध...............बिना कहे भी जानती है मेरी जिह्वा /........ कि आती नहीं नींद उसकी कई क्रियाओं को / रात-रात भर / दुखते हैं अक्सर कई विशेषण|

हाल में देश के भीतर भाषा की सियासत को लेकर जो विवाद का माहौल बना है और भाषा को राजनीति का मोहरा बनाकर शाह और मात का खेल खेलने वालों से वे विनम्रता पूर्वक ‘करबद्ध’ अनुरोध करते है कि राज नहीं–भाषा/भाषा-भाषा-सिर्फ भाषा रहने दो क्योंकि वे मानते है इसमें भरा है/पास-पड़ोस और दूर-दराज की/इतनी आवाजों का बूँद-बूँद अर्क/कि मैं जब भी इसे बोलता हूँ/तो कहीं गहरे/अरबी तुर्की बांग्ला तेलुगु/यहाँ तक कि एक पत्ती के/हिलने की आवाज भी| इसप्रकार किसी देश की भाषा का उस देश की परंपरा और संस्कृति से अभिन्न एवं हिंदी भाषा की अन्य देशी-विदेशी भाषाओँ से परस्पर अन्योन्याश्रित सबंध का भी बयान करते है|

केदारनाथ की कविताओं में संकीर्णताओं के लिए कोई जगह नहीं है | जितनी सहजता और सरलता उनकी भाषा में है उतनी ही उदारता उनके भाव-बोध में भी | उनके लिए कुम्भनदास और तुलसीदास से लेकर निराला, त्रिलोचन, शमशेर और राजेंद्र यादव सभी समान रूप से आदर प्राप्त करते है| यहाँ तक कि ज्यॉ पाल सार्त्र भी उनकी कविताओं में पूरे सम्मान के साथ अपनी जगह बना जाते है और भोजपुरी के लोकप्रिय नाट्यकर्मी भिखारी ठाकुर भी बदलते सांस्कृतिक परिवेश में अपनी उपस्थिति दर्ज करा जाते हैं। उनके यहाँ झपट्टा मारते हुए स्वामीनाथन आते है तो नामवर सिंह, निर्मल वर्मा से कुछ कहते नजर आते है |
सहजता, संवेदना और आख्यान के इस महान जादूगर को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना स्वागत योग्य है, वे निःसंदेह इसके हक़दार है |

शिवानन्द उपाध्याय