Tuesday 23 July 2019

घुसपैठ पर सख्ती........ अभी नहीं तो कभी नहीं


गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी से संबंधित एक प्रश्न जवाब देते हुए को कहा कि देश की इंच -इंच जमीन पर जितने भी घुसपैठिए रह रहे हैं, उनकी पहचान कर कानून के तहत देश से निर्वासित किया जाएगा। शाह ने एनआरसी को असम समझौते, जिसके तहत 24 मार्च 1971 की आधी रात तक राज्‍य में प्रवेश करने वाले लोगों को भारतीय नागरिक माना जाएगा, का हिस्सा बताते हुए कहा कि यह भाजपा के घोषणापत्र का भी हिस्सा है। इस तरह शाह ने एनआरसी को असम से बाहर पूरे देश में लागू करने का एक तरह से संकेत कर दिया | दरअसल घुसपैठियों को देश से निर्वासित करने का काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था। लेकिन इस देश के अनेक सत्ता और वोट लोलुप नेताओं व दलों और उनके टुकड़ों पर पोषित बुद्धिजीवियों ने ऐसा होने नहीं दिया। नेताओं और दलों ने जहाँ घुसपैठियों को खुली सीमा के जरिए प्रवेश दिलवा कर उन्हें यहां जहां-तहां बसाया और उनके वोटर कार्ड बनवाए, वहीँ सुविधाभोगी और अर्थलोलुप बुद्धिजीवियों और मीडिया ने छद्म धर्मनिरपेक्षता और कथित मानवता के नाम पर अवैध घुसपैठियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने का माहौल बनाया | इनकी एक दलील यह भी हुआ करती थी कि घुसपैठियों के खिलाफ कार्रवाई करने या उन्हें सीमा पर ही रोक देने से पूरी दुनिया में भारत की छवि खराब हो जाएगी। ये घुसपैठिये एक धर्म विशेष के हैं। इसीकारण तुष्टिकरण के वशीभूत कुछ नेता और उनके दल सरकार के एनआरसी को पूरे देश में लागू करने के इस फैसले के विरोध में संसद से लेकर सड़क तक बयानबाजी कर रहे हैं | दुनिया के किसी अन्य देश में यह शायद ही ऐसा संभव हो कि वोट के लिए एक धर्म विशेष के करोड़ों घुसपैठियों, जो देश की सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक ढांचे के लिए खतरा बन रहे हों, को अपने देश में वहां के सत्ताधारी राजनीतिक दल ही बसने दे, जबकि इस देश के कश्मीरी पंडित अपने ही गृह राज्य से बाहर रहने को मजबूर कर दिये गये है | घुसपैठियों के समर्थन को लेकर संवैधानिक पद पर बैठे कुछ नेताओं का रवैया भी बेहद आपत्तिजनक है, वो इस मुद्दे पर गृहयुद्ध होने की धमकी दे रही है । ये नेता देश हित और संवैधानिक पद की गरिमा को नजन्दाज कर इस मुद्दे को हिन्दू-मुस्लिम रूप देकर अपनी छवि को मुस्लिमों के कथित मसीहा के रूप में पेश करते हैं जबकि यह मुद्दा हिन्दू-मुस्लिम का नहीं है |
इसका परिणाम यह हुआ है कि असम, पश्चिम बंगाल व पूर्वोत्तर के राज्यों में घुसे बांग्लादेशी देश के सामने बड़ी समस्या बन गए हैं। 2016 में केंद्र सरकार द्वारा दी जानकारी के अनुसार उस वक्त देश में दो करोड़ से अधिक बांग्लादेशी अवैध रूप से रह रहे थे| कुछ ही महीने पहले मिजोरम सरकार ने स्वीकार किया है कि बांग्लादेश से आए घुसपैठियों ने मिजोरम के दक्षिणी इलाके में स्थित लुंगलेई जिले में 16 गांव बसा लिए हैं। इन गांवों में बांग्लादेशी घुसपैठियों के साथ म्यांमार से आए रोहिंग्या भी रह रहे हैं। सबसे बड़ी विडंबना तो अब यह है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐसा पीआईएल स्वीकार किया है जिसमें कहा गया है कि भारत में अवैध रूप से घुसे रोहिंग्याओं को निर्वासित नहीं किया जाय और उन्हें शरणार्थी का दर्जा दिया जाय | जाहिर है इसके पीछे कथित लिबरल और छद्म बुद्धिजीवी व मीडियाकर्मी गिरोह है जो देश की सुरक्षा, शांति और अखंडता को दांव पर लगाकर धर्म और मानवता की आड़ में अवैध घुसपैठियों का हमदर्द बन बैठा है | यह देश के लिए दुर्भाग्य है |
एनआरसी पर सारी कार्यवाही सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में हो रही है | गनीमत है कि मौजूदा सरकार प्राथमिकता देते हुए इसे लागू करने की पहल कर रही है अन्यथा पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गाँधी के काँग्रेस शासन में ही इसकी शुरूआत के बावजूद अपने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के तहत उसने इसे लागू नहीं किया । असम में इन अवैध घुसपैठियों के खिलाफ 1979-85 के बीच छह साल लंबा आंदोलन भी चला था| अभी भी बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ पूर्वोत्तर में कई छात्रों, सामाजिक और राजनीतिक संगठनों के लिए एक प्रमुख मुद्दा रहा है।
लब्बोलुआब यह है कि अब पानी सर से ऊपर बहने लगा है और विशेष रूप से म्यांमार और बांग्लादेश से बड़े पैमाने पर आए अवैध प्रवासियों के कारण सीमावर्ती जिलों की जनसांख्यिकीय संरचना खतरे में पड़ गई है | बंगाल और असम के कुछ हिस्से मिनी पाकिस्तान बन गए है | कुछ घुसपैठी उस इलाके में गम्भीर गैर कानूनी गतिविधियों-गौतस्करी, देहव्यापार, नकली नोटों, नशीले पदार्थों और अवैध हथियारों के कारोबार और देश में कट्टरता एवं सांप्रदायिक हिंसा फैलाने में लगे हुए हैं।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों को लेकर भारतीय गृह मंत्रालय के पास अभी तक कोई प्रमाणित आंकड़ा नहीं है। इसके अलावा देश के कई हिस्सों में स्थापित होने के कारण इनकी पहचान बड़ी मुश्किल है । यह किसी भी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है क्योंक भारत में नागरिकता की पहचान के जो प्रमाण होते हैं वह सभी इनके पास मौजूद हैं ।
मोदी सरकार ने प्रवासियों के राहत एवं पुनर्वास बजट में कटौती कर यह संकेत दिया है कि अब घुसपैठियों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यही नहीं इस राशि में कटौती से यह संकेत भी मिलता है कि मोदी सरकार की पूरे देश में एनआरसी को लागू करने की मंशा है। हाल ही में सरकार ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के माध्यम से असम के अलावा पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और पूर्वोत्तर के कुछ अन्य हिस्सों में चरणबद्ध रूप से एनआरसी लागू करने की प्रतिबद्धता जतायी है | एनआरसी की सबसे बड़ी सफलता यह है कि बांग्लादेश से अवैध प्रवेश 90 फीसद तक रुक गया है। उम्मीद की जानी चाहिए देश हित में सभी दल और उनके नेता वोट बैंक की क्षुद्र राजनीति से ऊपर उठकर मोदी सरकार की इस पहल में सहयोग करेंगे और सरकार जल्द से जल्द घुसपैठ के बढ़ते नासूर को समाप्त करने के शुभ कार्य में सफल होगी | अगर मौजूदा सरकार घुसपैठियों को निर्वासित करने का काम नहीं करती है, यह आगे की सरकारों के लिए यह नासूर कैंसर बन जायेगा और शायद ही कोई सरकार यह बीड़ा उठाने की कोशिश करेंगी |

Monday 1 July 2019

देवकीनन्दन खत्री: हिन्दी के 'शिराज़ी'


औपनिवेशिक शासन के जिस दौर में प्रशासनिक कार्यों के लिए हिंदी भाषा और उसकी लिपि ‘देवनागरी’ को स्थापित करने के अभियान की शुरुआत हुई तो उस समय हिन्दी का महिमा-मंडन और उर्दू के विरोध के बजाय हिंदी के पक्ष को रचनाशीलता के माध्यम से सशक्त करने वालों में बाबू देवकीनन्दन खत्री का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। मुस्लिम शासन के समय से फ़ारसी ही कई रियासतों की राजभाषा बनी हुई थी। अंग्रेज़ों ने भी सशक्त अरबी-फ़ारसी में लिखी उर्दू को ही संपर्क भाषा के रूप में बनाये रखा था। तत्कालीन समय में हिन्दुस्तान में साक्षरों की संख्या महज़ छः प्रतिशत ही थी और नौकरियों आदि के लिए उर्दू और फ़ारसी के ज्ञान की अनिवार्यता के चलते देश का युवा-वर्ग हिन्दी और नागरी लिपि से दूर होता जा रहा था। ऐसे समय में खत्री जी अपने पठनीय और रोचक उपन्यासों, विशेषकर चन्द्रकान्ताऔर चन्द्रकान्ता संतति के द्वारा तिलिस्म और ऐयारी का ऐसा जादू बिखेरा कि लाखों युवा और पाठक सम्मोहित होकर हिन्दी भाषा और उसकी लिपि देवनागरीसीखने के लिए विवश हो गए | चन्द्रकान्ता मूलत: एक प्रेम कथा है। इस अभूतपूर्व लोकप्रियता से प्रेरित होकर उन्होंने इसी कथा को आगे बढ़ाते हुए चौबीस भागों वाला दूसरा उपन्यास चन्द्रकान्ता सन्तति (1894 1904) लिखा जो चन्द्रकान्ता की अपेक्षा कई गुणा अधिक रोचक और लोकप्रिय भी हुआ। यही नहीं इन कालजयी रचनाओं का रसास्वादन करने के लिए कई गैर-हिन्दी भाषियों ने हिन्दी भाषा सीखी। 'अंग्रेजी ढंग का नावेल' लिखने की आतुरता के बजाय पुरागाथाओं, मिथकों, किंवदन्तियों, लोककथाओं, स्‍मृतियों और पुराणों आदि के माध्यम से कथा की पुरानी परम्परा के आधार पर उन्होंने जिन कथाकृतियों की रचना की, उनका सारा रचना तंत्र बिलकुल मौलिक और स्वतंत्र है। उनका महत्त्व इस आधार पर समझा जा सकता है कि हिन्दी भाषा और उसकी लिपि देवनागरीसे सबसे अधिक संख्या में पाठकों को जोड़ने में बाबू देवकीनन्दन खत्री का योगदान अन्य किसी भी साहित्यकार से अधिक है | यही कारण है कि हिन्दी के सुप्रसिद्ध उपन्यास लेखक श्री वृंदावनलाल वर्मा ने उन्हें हिन्दी का 'शिराज़ी' कहा है। देवकीनन्दन खत्री द्वारा तैयार की गई इसी भूमि पर प्रेमचंद का औपन्यासिक भवन स्थापित होता है जिसे वे भाव और भाषा के संस्कार और परिमार्जन द्वारा स्थापित करते है| 

खत्री जी ने कालजयी उपन्यासों चन्द्रकान्ताऔर चन्द्रकान्ता संतति के अलावा ‘कुसुम कुमारी’, ‘नरेंद्र मोहिनी’, ‘भूतनाथ’, ‘वीरेंद्र वीर’, ‘गोदना’ और ‘काजल की कोठारी’ की भी रचना की | उनकी अधिकांश रचनाओं में तिलिस्म और ऐयारी का सम्मोहन है। 'ऐयारी' को उपन्यास का विषय बनाए जाने को लेकर चन्द्रकान्ता उपन्यास में देवकीनन्दन खत्री ने स्पष्ट किया है कि " आज तक हिन्दी उपन्यास में बहुत से साहित्य लिखे गये हैं जिनमें कई तरह की बातें व राजनीति भी लिखी गयी है, राजदरबार के तरीके एवं सामान भी जाहिर किये गये हैं, मगर राजदरबारों में ऐयार (चालाक) भी नौकर हुआ करते थे जो कि हरफनमौला, यानी सूरत बदलना, बहुत-सी दवाओं का जानना, गाना-बजाना, दौड़ना, अस्त्र चलाना, जासूसों का काम देना, वगैरह बहुत-सी बातें जाना करते थे। जब राजाओं में लड़ाई होती थी तो ये लोग अपनी चालाकी से बिना खून बहाये व पलटनों की जानें गंवाये लड़ाई खत्म करा देते थे। इन लोगों की बड़ी कदर की जाती थी। इसी ऐयारी पेशे से आजकल बहुरूपिये दिखाई देते हैं। वे सब गुण तो इन लोगों में रहे नहीं, सिर्फ शक्ल बदलना रह गया है, और वह भी किसी काम का नहीं। इन ऐयारों का बयान हिन्दी किताबों में अभी तक मेरी नजरों से नहीं गुजरा। अगर हिन्दी पढ़ने वाले इस आनन्द को देख लें तो कई बातों का फायदा हो। सबसे ज्यादा फायदा तो यह किऐसी किताबों को पढ़ने वाला जल्दी किसी के धोखे में न पड़ेगा। इन सब बातों का ख्याल करके मैंने यह चन्द्रकान्तानामक उपन्यास लिखा|"  
देवकीनन्दन खत्री जी की भाषा और शैली को लेकर आलोचकों के बीच काफी बहस हुई | उनकी भाषा-शैली को हिंदी भाषा की हत्या के रूप में भी देखा गया | उनका ध्यान कथाक्रम की तरफ अधिक रहा है, भावचित्रण की ओर कम । वे एक साथ अनेक समांतर घटनाक्रमों और पात्रों को लेकर चलते हैं। पात्रों और घटनाओं के इस अंतर्जाल में वे विभिन्न पात्रों के भावों को चित्रित करने का बहुत कम अवकाश पाते हैं। इसी कारण हिन्दी के विशाल पाठक समूह तैयार करने में खत्री जी के योगदानों की प्रशंसा करते हुए भी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इनकी रचनाओं को विशुद्ध साहित्य की श्रेणी में स्वीकार नहीं करते हैं। तिलिस्म और ऐयारी के अन्य रचनाकारों से या बहुचर्चित हैरी पौटरश्रृंखला की रचनाओं के विपरीत खत्री जी की रचनाओं में तिलिस्म और ऐयारी के चमत्कारों में भी किसी न किसी रूप में विज्ञान और तकनीकी कौशल का वर्णन अवश्य है | चन्द्रकान्ता संतति में तरह तरह के जिन यंत्रों की परिकल्पना की गई है, उन पर वैज्ञानिक अविष्कारों की छाया है और बहुत चीजें ऐसी भी है जो उनकी उर्वर कल्पना शक्ति का परिचायक है | उनकी रचनाओं में जब भी कोई पात्र किसी तिलिस्म को तोड़ता है तो उसे संचालित करने वाली मशीनों व कल-पुर्जों को भी देखता है। इस तरह तत्कालीन दौर में खत्री जी विज्ञान और फैंटेसी के अन्यतम रचनाकार थे | यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं होगा कि खत्री जी की रचनाशीलता तत्कालीन हिंदी भाषा और समाज की अनिवार्यता थी, जिसे खत्री जी अनन्य समर्पण के साथ निर्वाह किया |