Sunday 23 June 2019

एक देश-एक चुनाव : सार्थक लेकिन जटिल प्रक्रिया


हाल ही में देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से बुलाई गई सर्वदलीय बैठक का कांग्रेस, तृणमूल, सपा, बसपा और आप समेत 16 दल शामिल नहीं हुए। बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा कि एक देश-एक चुनाव सरकार का नहीं बल्कि देश का एजेंडा है। प्रधानमंत्री ने जहाँ इस पर विचार के लिए समिति बनाने की घोषणा की है, जो निर्धारित समय में सभी पक्षों के साथ विचार कर अपने सुझाव देगी, वहीँ भाकपा व माकपा ने इसके क्रियान्वयन पर आशंकाएं जाहिर की हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि राजनीतिक दलों के बीच आपसी संवाद के जरिए इस मुद्दे पर एक समझौते का प्रयास किया जाना चाहिए, क्योंकि बार-बार चुनाव होने से विकास की रफ्तार बाधित होती है | इसके पहले मोदी सरकार ने अक्टूबर २०१७ में अपने वेबपोर्टल ‘My Gov’ पर इस मुद्दे पर जनता से अपने-अपने विचार भेजने की अपील की थी और बजट सत्र(2018-19) की शुरुआत में संसद के दोनों सदनों को संबोधित करते हुए रामनाथ कोविंद ने लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने की चर्चा की थी| पिछले कुछ समय से केंद्र सरकार इस बात के लिए अनुकूल माहौल तैयार करने की कोशिश कर रही है | चुनाव आयोग ने भी अधिकारिक रूप से कहा है कि अगर राजनीतिक सहमति बनती है तो वह लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के लिए तैयार है| उसका कहना था कि इसके लिए संविधान में संशोधन की जरूरत भी होगी| नीति आयोग ने राष्ट्रीय हित में वर्ष 2024 से लोकसभा और विधानसभाओं के लिए दो चरणों में चुनाव करवाने का समर्थन किया है ताकि चुनाव के कारण प्रशासन और विकास प्रक्रिया में कम से कम व्यवधान सुनिश्चित हो सके। इस मसले पर तेलंगाना राष्ट्र समिति ने मोदी सरकार का समर्थन करते हुए कहा था कि इससे हम पांच साल विकास पर ध्यान दे सकेंगे| ओडिशा के सत्तारूढ़ बीजू जनता दल ने बल विचार का जोरदार समर्थन किया है। बीजू जनता दल का तो कहना है कि हमने 2004 से ही इसे अमल में कर लिया है- 2004 में जब हमारी विधानसभा के एक साल बचे हुए थे, तब हमने विधानसभा का चुनाव एक साल पहले करवाया था जिससे कि लोकसभा के साथ ये चुनाव भी हो सके। तब से 2009, 2014 और 2019 में ओडिशा में दोनों चुनाव साथ-साथ हुए। इससे ओडिशा को काफी फायदा हुआ।
आजादी के बाद तकरीबन 15 साल तक विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ चले लेकिन बाद में कुछ राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता की वजह से एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला और कुछ सरकारें अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले गिर गईं| यही नहीं केंद्र में भी कई बार सरकारें अपने 5 वर्ष की अवधि को पूरा करने में सक्षम नहीं हो सकीं | इसका परिणाम यह हुआ कि न केवल लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव करवाना संभव नहीं सका बल्कि केवल सभी राज्यों के चुनाव भी एक साथ नहीं होने की बाध्यता हो गई | लेकिन अब बार-बार होने वाले चुनावों में आर्थिक और मानवीय संसाधनों के बढ़ते व्यय एवं विकास की प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाली बाधाओं को देखते हुए लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है |
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क आर्थिक और मानव संसाधनों की बचत का है | सेंटर फॉर मीडिया स्टटडी (सीएमएस)  की स्टडी के अनुसार 1998 से लेकर 2019 के बीच लगभग 20 साल की अवधि में चुनाव खर्च में 6 से 7 गुना की बढ़ोतरी हुई| 1998 में चुनाव खर्च करीब 9 हजार करोड़ रुपये था जो अब बढ़कर 55 से 60 हजार करोड़ रुपये हो गया है| इसके साथ ही बड़ी संख्या में शिक्षकों सहित एक करोड़ से अधिक सरकारी कर्मचारियों के चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने से न केवल विकास और शिक्षा को अधिकतम नुकसान होता है बल्कि सुरक्षा बलों को भी बार-बार चुनाव कार्य में लगाए जाने देश की सुरक्षा के लिए भारी खतरा का सामना करना पड़ता है | एक साथ चुनाव होने से राजनीतिक दलों को भी दो अलग-अलग चुनावों की तुलना में हर स्तर पर दोहरे खर्च के बजाय कम पैसे खर्च करने होंगे| सबसे अहम यह कि चुनाव कार्य के लिए बार-बार सुरक्षा बलों की अनावश्यक तैनाती से बचा जा सकेगा, जिनका उपयोग बेहतर आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए किया जा सकेगा |
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के दूसरा सबसे प्रबल तर्क यह है कि इससे चुनावों में आम लोगों की भागीदारी बढ़ सकती है| देश में बहुत से लोग हैं जो रोजगार या अन्य वजहों से अपने वोटर कार्ड वाले पते पर नहीं रहते, वे अलग-अलग चुनाव होने की स्थिति में बार-बार मतदान करने नहीं जाते| एक साथ चुनाव होने पर पूरे देश में एक मतदाता सूची होगी जो लोकसभा और विधानसभा के लिए अलग-अलग होती हैं| चुनाव के दौरान आचार संहिता लागू रहने के दौरान विकास संबंधित कई निर्णय बाधित हो जाते है | इसके साथ ही प्रशासनिक मिशनरी के चुनाव कार्यों में व्यस्त होने और शासन तंत्र के प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाने से सामान्य और पहले से चले आ रहे विकास कार्य भी प्रभावित होते है| चुनावी रैलियों से यातायात के बाधित होने और सुरक्षा प्रतिबंधों के कारण आम जनजीवन को कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है | लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग होने से व्यवधान की यह प्रक्रिया दोहरी हो जाती है, जिससे आम जन जीवन त्रासद बन जाता है | ऐसे में अगर एक बार में दोनों चुनाव होते हैं तो जन-धन की बचत के साथ ही आम जीवन में अपेक्षाकृत कम अवरोध होगा और चुनावों में मत प्रतिशत में इजाफा हो सकता है |  
लेकिन क्या वास्तव में देश को लोकसभा और विधानसभाओं के अलग-अलग होने वाले चुनाव से मुक्ति मिल सकेगी| अब मान लीजिए कि 2024 में केंद्र में किसी पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिलता है या गठबंधन की सरकार बनने के बावजूद 2025, 2026, या 2027 में बहुमत खो बैठती है तो ऐसे में क्या होगा ? क्या अल्पमत वाली सरकार को 5 साल के कार्यकाल को पूरे करते दिया जाना संवैधानिक है ? ऐसी अल्पमत वाली सरकार न कानून पास करवा सकेगी और न ही बजट ही पास करवा सकेगी | यही समस्या राज्यों में खड़ी हो सकती है| बहुमत नहीं होने की स्थिति में क्या राज्य को अगले पांच साल तक विधानसभा चुनाव के लिए इंतजार करना उचित है ? यह एक गंभीर संवैधानिक संकट होगा जिसका एकमात्र समाधान चुनाव है जो फिर से लोकसभा और विधानसभाओं के अलग-अलग चुनाव की संभावना को बढ़ा देता है | सभी राज्य विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने से भी अल्पमत वाली सरकार की समस्या का समाधान तबतक नहीं होता हैं जबतक कि सरकार की अस्थिरता से निपटने का कोई विकल्प नहीं खोजा जाता है | कार्यकाल का निश्चित किया जाना अल्पमत सरकार की समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। राज्यों में निर्वाचित सरकार के असफल होने या अल्पमत में आने पर चुनाव होने तक अवधि के लिए राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है | किन्तु केन्द्र में राष्ट्रपति शासन का प्रावधान नहीं है और इससे अधिक समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इस प्रकार लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने से राजनीतिक स्थिरता का तर्क ख़ारिज हो जाता है | 
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अगर देशभर में एक साथ चुनाव हो, तो राज्यों के मुद्दों और हितों की अनदेखी हो सकती है| सारा ध्यान लोकसभा के चुनाव पर होगा | यही नहीं वोट देते समय ज्यादातर लोगों द्वारा एक ही पार्टी को वोट कर सकते हैं | कई बार मतदाता राज्य में किसी क्षेत्रीय पार्टी के मुद्दों के साथ जाता है जबकि केंद्र में किसी मजबूत राष्ट्रीय पार्टी के मुद्दों को तरजीह देते हुए उसके पक्ष में मतदान करते है | इससे मतदाताओं में भ्रम भी पैदा हो सकता है| इससे बड़े राजनीतिक दलों को ज्यादा फायदा होने की उम्मीद है और छोटे क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व खतरे में पद जायेगा| लेकिन 2019 में ओडिशा के मतदाताओं ने अनन्य जागरूकता का परिचय देते हुए क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मुद्दों को अलगाते हुए मतदान किया | फिर भी एक साथ चुनाव होने से केंद्र के साथ ही राज्यों में एक ही पार्टी के बहुमत में आने की संभावना बढ़ सकती है, जो अप्रत्यक्ष रूप से सरकार या एक पार्टी की तानाशाही को बढ़ावा दे सकता है | यह लोकतंत्र के लिए हमेशा हितकर नही होता है |
लोकसभा और विधानसभा दोनों का चुनाव एक साथ कराना निःसंदेह राष्ट्रीय हित में होगा। अब तक का अनुभव यही रहा है कि सरकारें जातीय, सामुदायिक, धार्मिक, क्षेत्रीय समीकरणों को देखते हुए राष्ट्रीय हित में नीतियाँ बनाने और उनके कार्यान्वयन से बचती रही हैं। हो सकता है नई व्यवस्था से निजात मिले | लेकिन इसपर अमल करने से पूर्व संसद और संसद से बाहर गहन विचार विमर्श की जरुरत है | इसके लिए सांगठनिक और संवैधानिक बदलाव करने की भी जरुरत होगी जैसा कि दिसंबर, 2015 को संसद की स्थायी समिति की 79वीं रिपोर्ट में कहा है|