Monday 10 December 2018

हिंदुत्व सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना है, राजनीतिक केंचुल नहीं


कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा हालिया विधानसभा चुनावी अभियानों के दौरान जिस तरह से मंदिर दौड़ लगायी जा रही है, हिन्दू दिखाने के लिए खुद को जनेऊधारी हिंदू और शिवभक्त तक बताने से लेकर कई स्थानों पर तो मंच पर जाकर 11 कन्याओं से तिलक और इतने ही ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन, शंख ध्वनि करवा रहे है, जिससे मीडिया से लेकर आम जनों में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या वास्तव में उनकी या उनकी पार्टी की सोच में बदलाव आया है ? उनकी पार्टी कांग्रेस ने हिन्दू प्रतीकों से जुड़े मुद्दों पर अचानक ही ताबड़तोड़ घोषणाएं करने लगी है | मध्यप्रदेश और राजस्थान में गोशालाओं के निर्माण का आश्वासन दे रही है। मध्य प्रदेश में राम वनगमन मार्ग के विकास की घोषणा कर चुकी है। उसने राजस्थान के चुनाव घोषणा पत्र में वेदों के अध्ययन का बोर्ड बनाने और संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने की घोषणा की है। गोशालाओं के लिए सब्सिडी बढ़ाने का वादा भी किया है। कांग्रेस की देखादेखी ममता बनर्जी भी हिंदू दिखने की कोशिश में लगी है | सपा के अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में अंकोरवाट जैसा विष्णु मंदिर बनाने की बात कह चुके हैं।
राहुल गांधी के हिन्दू होने और उनकी कांग्रेस पार्टी के ब्राह्मण डीएनए वाली पार्टी बनने के पीछे के कारणों का खुलासा करते हुए उनके महान बुद्धिजीवी सांसद शशि थरूर ने स्वीकार किया है कि "कांग्रेस को ऐसा करने के लिए बीजेपी ने 'मजबूर' किया है। बीजेपी ने 'सच्चे हिंदू और नास्तिक धर्मनिरपेक्ष' के बीच अंतर दिखाने की यह 'लड़ाई' छेड़ी है|" उनका तर्क है कि "लंबे समय से हमें (कांग्रेस) लगता रहा है कि सार्वजनिक तौर पर अपनी निजी भावनाओं को व्यक्त क्यों करें। हम अपनी आस्था को फॉलो करते हैं लेकिन कभी उसे सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित करने के लिए बाध्य नहीं हुए। ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस नेहरू के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत वाली पार्टी है जिसकी जड़े स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन से जुड़ी हैं।" अब शशि थरूर ने जितना कहा उतना सच है, लेकिन सच के उस बड़े हिस्से को दबा दिया कि जिसके चलते आखिर हिन्दू होने और उसके हितों की तरफदारी करनी पड़ रही है |
यह सही है कि प्रत्येक व्यक्ति की किसी-न-किसी धर्म या संप्रदाय में आस्था होती है और उसे अपनी आस्था या धार्मिक भावना का सार्वजनिक प्रदर्शन करना आवश्यक नहीं होता है | किन्तु समस्या तब होती है जब आपके आचरण, नीतियाँ और वक्तव्य किसी व्यक्ति या समुदाय की धार्मिक आस्था को लगातार हेय व घृणित साबित करते है, उपहास करते है और अपमानित करते है | भाजपा को छोड़कर भले ही कांग्रेस और अन्य दल अपनी आस्था या धार्मिक भावना का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं करते हो, एक धर्मनिरपेक्ष शासन व्यवस्था में ऐसा ही होना चाहिए, किन्तु वोट बैंक के लिए अन्य धर्मों के हितों और मान्यताओं के प्रति सुनियोजित रूप से अतिशय सार्वजनिक पक्षपात का प्रदर्शन कर, जो एक धर्मनिरपेक्ष शासन व्यवस्था में नहीं होना चाहिए, बहुसंख्‍यकों की भावनाओं को चोट पहुंचाने का कार्य भी इन्ही दलों द्वारा किया गया|
आजादी के पहले भारतीय मूल्यों और परंपराओं के प्रति आदर भाव रखने वाली कांग्रेस में आज़ादी के बाद तुष्टिकरण की सियासत इस कदर शिकार हुई कि वह भूल गई कि सर्वधर्म समभाव भारत की मूल प्रकृति है | उसे यह एहसास नहीं रहा कि सर्वधर्म समभाव ही धर्मनिरपेक्षता का मूल आधार है | यहाँ तक कि धर्मनिरपेक्षता को भी तुष्टिकरण का पर्याय बना डाला | आज़ादी के बाद सोमनाथ मंदिर के नवीनीकरण और पुर्नर्स्‍थापना के कार्य से खुद को अलग करने से लेकर इस देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला हक़ घोषित करने और 2008 के मुंबई हमले को हिन्दू आतंकवाद की साजिश ठहराने तक कांग्रेस ने तुष्टिकरण का जिस तरह से सार्वजानिक प्रदर्शन किया, उससे बहुसंख्यकों की भावनाएं लगातार आहत हुई | मंदिरों में बलात्कार होते हैं (संदर्भ कठुआ), हिंदू पुजारी बलात्कारी होते हैं, लेकिन मदरसों का मौलवी सत्य और अहिंसा का पुतला होता है, चर्चो का पादरी बलात्कार कर ही नहीं सकता, हिन्दू देवी-देवताओं के नग्न चित्र बनाए जा सकते है, मंदिर के कलश को कंडोम से सुशोभित किया जा सकता है, मस्जिद की मीनारों को नहीं।  बहुसंख्यकों के हितों और हिंदुत्व की बात करने वालों को सांप्रदायिक और फासिस्ट भी कहा जाने लगा| यहाँ तक कि गर्व से हिंदू कहना भी सांप्रदायिक माना गया था। जबकि धर्म और मजहब के नाम पर उन्माद पैदा करने वाले और अपनी धार्मिक अस्मिता का दूसरों को चोट पहुँचाने तक प्रदर्शन करने को धार्मिक स्वतंत्रता का दर्जा दिया गया | इस तरह की नैरेटिव-बिल्डिंग के खेल में कांग्रेस अगुआ रही है और इसके लिए मीडिया से लेकर और बुद्धिजीवियों तक का इस्तेमाल किया गया | कांग्रेस की इस छद्म धर्मनिरपेक्षता की नीति का असर दूसरी राजनीतिक पार्टियों पर भी पड़ा | राजनीतिक पार्टियों ने जहाँ मुस्लिम वोट बैंक को आकर्षित करने के लिए हिन्दू हितों से दूरी बना ली वहीँ मीडिया और बुद्धिजीवियों ने हिंदू विरोधी रवैया अपनाकर भारतीय परंपराओं और मूल्यों की अनदेखी करने लगी | धर्मनिरपेक्षता के ऐसे रहनुमा अनवरत चीख-चीखकर हिंदुत्व को राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा घोषित करते रहे है | इसी का परिणाम यह हुआ है कि ये सभी कथित सेकुलर दलों का जनाधार सिकुड़ता जा रहा और हाशिये पर जाने से बचने के लिए स्वयं को हिंदू सिद्ध करने की प्रतिस्पर्धा में लगे हुए है |
महात्मा गांधी ने एक बार कहा था हिंदुत्व छोड़ना असंभव है क्योंकि हिंदुत्व के कारण ही मैं ईसाइयत, इस्लाम और अन्य धर्मों से प्रेम करता हूं।" तात्पर्य है कि हिंदुत्व में ही वह क्षमता, साहस और सहिष्णुता है कि वह अन्य धर्मों को समभाव रूप से स्वीकार करता है | गांधी जी की चेतावनी थी कि हिंदुत्व छोड़ देने पर कुछ भी नहीं बचेगा। आज़ादी के बाद कांग्रेस ने गांधीवाद को तो त्यागा ही, साथ ही हिंदुत्व छोड़ दिया। आज  कांग्रेस अपने अस्तित्व को बचने के लिए उसी हिंदुत्व का दामन थामने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है |
कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दल स्वयं को हिंदूवादी दिखाने को लेकर कितने गंभीर है,  इसका अनुमान ही इस बात से लगाया जा सकता है कि जो स्वयं को ब्राह्मण की तुलना में पारसी को कमतर मानते है ऐसी भेद-बुद्धि वालों से हिंदुत्ववादी होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है | जिस भाजपा की हिंदुत्व पैरोकारी से विवश होकर आज कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी स्वयं को हिंदू सिद्ध करने के लिए अपनी जाति और गोत्र की हास्यास्पद घोषणा कर रहे हैं, उसके किसी भी नेता को स्वयं के जाति और गोत्र की घोषणा कभी नहीं करनी पड़ी | अगर राहुल गाँधी हिंदुत्व को सही अर्थों में समझे होते तो उन्हें आज हिन्दू होने और जाति और गोत्र का प्रदर्शन करने की जरुरत नहीं पड़ती |
अब नैरेटिव बदल गया है | हिंदुत्व की धुर विरोधी रही पार्टियाँ की हिंदू हितैषी होने की छटपटाहट से पता चलता है कि हिंदुत्व राजनीति की मूल धुरी बन गई है। अब कोई भी हिंदुओं या हिंदुत्व को सांप्रदायिकता जैसी गाली देने से बच रहा है | लेकिन इनका पूरी तरह से ह्रदय परिवर्तन हो गया है, ऐसा बिल्कुल नहीं माना जा सकता है | ये अभी हिंदुत्व विरोध का केंचुल उतारने में लगे हैं | इनका विष अभी समाप्त नहीं हुआ है | उन्हें अभी इस कसौटी पर खरा उतरना शेष है कि क्या वे भारत को एक सनातन संस्कृति पर आधारित राष्ट्र मानते हैं या नहीं ?  हिंदुत्व की मूल अवधारणा सांस्कृतिक है, राजनीतिक नहीं । हिंदुत्व की स्वीकृति इस धरातल पर संभव है, अन्यथा हिंदू हितैषी होने का प्रदर्शन वैसा ही होगा जैसे पोशाक के ऊपर धारण किया गया जनेऊ | इसी संदर्भ में यह कहना प्रासंगिक होगा कि लोकतंत्र और हिंदू सनातन परंपरा में बहुत समानता है। लोकतंत्र ऐसे लोगों को भी रहने-जीने-बोलने-संगठित होने का अधिकार दे देता है, जिनका लोकतंत्र में भरोसा ही नहीं हो। हिंदू सनातन परंपरा भी इसी तरह उदार है। आप हमारे भगवान को नहीं मानते, इस या उस भगवान को मानते हैं तो आप अपना अलग उपासना-स्थल बना लीजिए। आप अपना अलग पंथ बना लीजिए। अपने पंथ का प्रचार भी कर लीजिए। हिंदुत्व ने सभी को समभाव से स्वीकार किया है| तात्पर्य है कि हिंदुत्व का सार समझे और जाने बिना केवल मंदिर जाने या फिर पूजा-पाठ करने और चुनावी घोषणाओं में गोशालाओं के निर्माण की घोषणा मात्र से उन भारतीय परंपराओं और मूल्यों से स्वयं को एकाकार नहीं कर सकते है जिसका मूल तत्व वसुधैव कुटुंबकमहै, सर्व-धर्म समभाव है और जो राष्ट्रीयता को धर्म, जाति और नस्ल से परे होकर देखता है | अत: हिंदू होने का ढ़ोल पीटने वाले ये सभी दल जब तक भारतीय संस्कृति, सनातन संस्कृति, से पूरी तरह से जुड़ नहीं पाते हैं, तबतक यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि हिंदुत्व विरोध के नख-दंत से ये विहीन हो चुके है |  


रेगिस्तानीकरण की ओर बिहार


एक समय था जब बिहार के गांवों में बच्चे काल्पनिक नदी के पानी की थाह लगाने वाला खेल-घोघो रानी कितना पानी, कितना पानी-का खेल खेला करते थे। यह खेल अब भी खेलते है लेकिन अब इसके खेल के अवसर कम हो गए हैं क्योंकि तब बिहार में बरसात खूब हुआ करती थी। पिछले कुछ वर्षों से बिहार में मानसूनी बारिश लगातार कम होती जा रही है जिसके कारण बिहार की धरती पानी के एक-एक बूँद के लिए मोहताज होती जा रही है। बिहार के गांवों के पारंपरिक जलस्रोत कुओं-तालाबों धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे है | हिमालय से निकलकर बिहार से गुजरने वाली नदियाँ भी पानी के लिए तरसने लगी है | एक ओर बारिश की कमी एवं सतही जल को रोककर रखने की व्यवस्था के अभाव और दूसरी ओर बढ़ती आबादी के लिए पानी की मांग, कृषि कार्य के लिए भूमिगत जलस्रोतों के अतिशय दोहन, और भूमिगत जल के प्रदूषित होते जाने के कारण पानी का संकट विकराल होता जा रहा है|
इस वर्ष मानसूनी सीजन में एक तो देर से (जुलाई में) बारिश शुरू हुई, दूसरे सीजन की समाप्ति (सितम्बर के अंत में) तक सामान्य से 40-85 फीसदी तक कम बारिश हुई है| कई जिलों बारिश की यह कमी 70-75 फीसदी रही है | इसे देखते हुए बिहार के आपदा प्रबंधन विभाग ने हाल ही में राज्य के 23 प्रभावित जिलों के 206 प्रखण्डों को सूखाग्रस्त घोषित किया है। बारिश कम होने से नहरों से भी पानी गायब हो गया | कई जिलों में किसानों ने अपनी धान की फसलों को बचाने के लिए बोरिंग चलाकर भूमिगत जल का इस कदर दोहन किया कि कई इलाकों में कुओं का जल स्तर काफी नीचे चला गया और कहीं-कहीं तो चापाकलों से पानी निकलना भी बंद हो गया है | शोध पत्रिका करंट साइंस के ताजा अध्ययन के अनुसार बिहार के कई जिलों में भूमिगत जल स्तर की स्थिति पिछले 30 सालों में चिंताजनक हो गई है | कुछ जिलों में भूजल स्तर दो से तीन मीटर तक गिर गया है| पिछले 25-30 वर्षों में सतही जल के समुचित उपयोग और इसे रोककर रखने की व्यवस्था के अभाव के अभाव और नहर-तंत्र के पूरी तरह से ध्वस्त हो जाने के कारण लोग यहां सिंचाई के लिए पूरी तरह भूमिगत जल पर आश्रित हो गए हैं| पहले जहाँ दस से लेकर तीस फीट नीचे ही भूजल मिल जाता था, वही अब सौ से डेढ़ सौ फीट नीचे पानी मिलता है। अब स्थिति यह है कि बोरिंग के पानी के बिना रबी की बुवाई शायद ही हो सके। अब यदि जाड़े के दौरान होने वाली बारिश भी दगा दे जाती है तो रबी फसलों की क्या दशा होगी, जबकि नहरों में पानी की उपलब्धता नहीं होने से किसानों को भूमिगत जल के दोहन के सिवा कोई विकल्प नहीं होगा, जो पहले से ही अतिशय दोहन और रिचार्ज के अभाव में संकट ग्रस्त हो गया है | फिर अगले वर्ष में मानसून के आने के पहले गर्मी के दिनों में पानी को लेकर होने वाले संकट की गंभीरता काफी भयावह है | बिहार की अधिकांश आबादी के लिए भूजल ही पेयजल का एकमात्र बारहमासी स्रोत है। ग्रामीण इलाकों में पीने के पानी के रूप में 85 प्रतिशत भूजल का इस्तेमाल होता है | भूमिगत जल का प्रदूषित होना एक अलग समस्या है |
मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार बिहार में हर साल लगभग 1200  मिलीमीटर बारिश होती है| बिहार के उत्तरी इलाकों से होकर हिमालय की कई नदियां निकलती हैं | लेकिन अब तक बारिश से पानी की पर्याप्त उपलब्धता की वजह से इस क्षेत्र में भूजल के पुनर्भरण को नजरअंदाज किया जाता रहा है। एक ओर कृषि क्षेत्र के दायरे में लगभग 950 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी हुई है तो दूसरी ओर जल निकायों का क्षेत्र 2029 वर्ग किलोमीटर से सिमटकर 1539 वर्ग किलोमीटर रह गया है| एक अनुमान के अनुसार 2050 तक बिहार में पानी की मांग 145 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) रहेगी। 105 बीसीएम पानी कृषि कार्य के लिए जरूरी होगा, जबकि 40 बीसीएम गैर कृषि कार्य के लिए। इसकी तुलना में बारिश के बाद सतह जल की उपलब्धता 132  बीसीएम है। मांग और उपलब्धता में इस अंतर को पाटने के लिए भूमिगत जल के दोहन में बढ़ोतरी होगी और अंततः संकट भी बढ़ेगा |
बिहार में बारिश के बाद सतह के जल को रोककर रखने को लेकर कतिपय प्रयासों को छोड़कर न तो जागरूकता है और न व्यवस्था है। बिहार सरकार के जल प्रबंधन की दशा और दिशा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है है कि बारिश के इस पानी को प्रभावकारी ढंग से रोककर जलाशय में रखने की क्षमता एक बिलियन क्यूबिक मीटर से भी कम है। नदियों और जलाशयों में तेजी से बढ़ते गाद के कारण उनकी जल धारण क्षमता कम हुई है, जिससे बारिश का पानी जल्दी बाढ़ का रूप लेकर तेजी से बह जाता है | नीति आयोग द्वारा तैयार किए गए समग्र जल प्रबंधन के सूचकांक के आधार पर जल प्रबंधन, जल संचयन के क्षेत्र में गुजरात का स्थान प्रथम है | इसके बाद मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र का स्थान है|
बिहार सरकार को परम्परागत जल निकायों-तालाबों, कुंडों, जोहड़ आदि-को पुनर्जीवित करने की दिशा में तेजी से अभियान शुरू किया जाना चाहिए | गाँव स्तर पर सरकारी स्कूललों, मदरसों, निजी स्कूरलों, आंगनबाडियों, स्वालस्य्य   केंद्रों, थानों और प्रखंड कार्यालयों में सोक पिट (सोख्ता) के निर्माण द्वारा जल संरक्षण का प्रयास किया जा सकता है | इस दिशा में राजस्थान सरकार द्वारा केवल 2 वर्ष पहले शुरू की गई जल स्वालंबन योजना को बेहतर तरीके से लागू किया गया है, जिसके कारण बिहार की तुलना कम नदियों और कम मानसूनी बारिश वाले इस राज्य के कई इलाकों के भूमिगत जल स्तर लगभग 4-66 फुट बढ़ा है | राज्य के 33 में से 21 जिलों के भूजल में बढ़ोतरी यह रेगिस्तानी राज्य जल संरक्षण और संचय की अद्भुत मिसाल बन गया है |