Monday 28 October 2019

तमसो मा ज्योतिर्गमय....... चेतना की अंधकारग्रस्तता से मुक्ति का पर्व


प्रकाश भारतीय वांग्मय और विज्ञान की समस्त ज्ञान और ऊर्जा परंपरा का अभिन्न अंग है | छांदोग्य उपनिषद के अनुसार प्रतिपल परिवर्तित प्रकृति का समस्त सर्वोत्तम रूप प्रकाश है। वृहदारण्यक उपनिषद में "तमसो मा ज्योतिर्गमय" अर्थात् 'अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की कामना' है | गीता में अर्जुन ने श्री कृष्ण के विराट रूप देखकर कहा कि दिव्य सूर्य सहस्त्राणि यानी सहस्त्रो सूर्यों का प्रकाश देख रहा हूं। दीपावली भारत की इसी सनातन ज्योतिर्गमय आकांक्षा का सांस्कृतिक पर्व है। भारत की सनातन संस्कृति में दीपावली का धार्मिक ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक, आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से व्यापक महत्व है |
दीप प्रकाश का आदिम एवं लघु स्रोत है जिसके द्वारा मानव ने चिरकाल से अंधकार से लड़ते-जूझते हुए आधुनिक विद्युत् प्रकाश तक सभ्यता की महायात्रा पूरी की है | लेकिन यह महायात्रा महज भौतिक अंधकार को दूर करने की यात्रा नहीं है, यह मनुष्य की विषमताओं (अंधकार) से जूझने की दृढ़ इच्छा शक्ति और अदम्य जिजीविषा का भी परिचायक है | आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, ‘‘दीवाली आकर कह जाती है कि अंधकार से जूझने का संकल्प ही सही यथार्थ है। उससे जूझना ही मनुष्य का मनुष्यत्व है। जूझने का संकल्प ही महादेवता है। उसी को प्रत्यक्ष करने की क्रिया को लक्ष्मी-पूजा कहते हैं।’’
हमारे हर अच्छे-शुभ कार्यों में, निजी या सामाजिक, दीप जलाने की परंपरा है। दीपावली की ऐतिहासिक-पौराणिक पृष्ठभूमि में कई घटनाएँ और मान्यतायें है जिनके उपलक्ष्य में इस दिन राजमहल और अट्टालिकाओं से लेकर गरीब की झोपड़ी तक को दीपों से सजाने की परंपरा है। पूरे भारतवर्ष में अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले लोग अपने-अपने क्षेत्र की मान्यता, संस्कृति, शास्त्र विधि और महत्व के अनुसार दिवाली मनाते हैं | दीया जलाने का एक अहम पहलू यह है कि एक दीये से दूसरा, दूसरे से तीसरा, चौथा या इस तरह अनेक दीये जलाये जाते है | एक विद्युत् बल्ब से दूसरा बल्ब नहीं जलाया जा सकता है लेकिन दीये द्वारा यह संभव है | इस तरह दीये जलाने की प्रक्रिया एक सामाजिकता का सन्देश देती है कि एक प्रकाशवान या चेतना संपन्न व्यक्ति अन्य प्रकाशरहित दीयों अर्थात् निर्धन या अक्षम लोगों को प्रकाशवान या सबल बना सकता है | यह दीपावली की यही सामाजिकता "सर्वे भवंतु सुखिन:" की भावना को चरितार्थ करती है |
वैदिक ऋषियों ने दैवीय सत्ता से "तमसो मा ज्योतिर्गमय" अर्थात् 'अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की कामना' की है। इस कामना का अर्थ यह नहीं है कि वैदिक ऋषियों और मनीषियों ने महज भौतिक अंधकार, जो रात्रि में या प्रकाश की उपलब्धता नहीं होने से होती है, से बाहर निकालने की इच्छा व्यक्त की है | प्रकृति में पूर्णिमा की ज्योत्स्ना और अमावस्या की कालिमा दोनों हैं। अंधकार से प्रकाश और प्रकाश से अन्धकार की ओर जाना अर्थात् निशा के बाद उषा और उषा के बाद निशा का आना प्राकृतिक परिघटना है | लेकिन वैदिक ऋषि की अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की कामना के साथ "असतो मा सद्गमय" और "मृत्योर्मा अमृतं गमय" अर्थात् 'असत्य से सत्य की ओर' और 'मृत्यु से अमरता की ओर' ले चलने की प्रार्थना को भी देखें तो उनकी कामना का मंतव्य समझा जा सकता है| असल में वैदिक ऋषि प्रकृति में सहज रूप से घटित होने वाले अंधकार को लेकर चिंतित नहीं थे, बल्कि वे उस अंधकार से मुक्ति को लेकर चिंतित थे जो मनुष्य की चेतना को, उसकी चिंतन शक्ति को या आत्मा को ग्रसित करता है| भारतीय दर्शन का सम्पूर्ण चिंतन चेतन तत्व को अज्ञान और अविद्या से मुक्ति को लेकर है जो सम्यक ज्ञान और विवेक शक्ति के द्वारा ही संभव होता है | दीपावली में मिट्टी के दीये जलाये जाते है| आध्यात्मिकों के अनुसार हमारा यह शरीर भी मिट्टी से बना है, जो मिट्टी के दीये का प्रतीक है जिसमें आत्मा रूपी लौ जल रही है| लेकिन हमारी आत्मा या चेतना अहंकार, ईर्ष्या, क्रोध, लोभ, मद जैसे नाना प्रकार के व्यामोह से ग्रस्त होती है| जिसके कारण वह सत्य-असत्य, अच्छाई-बुराई, उपकार-अपकार और नाश-निर्माण का भेद नहीं कर पाता है| हमारे वैदिक ऋषियों ने इसी अज्ञान, अविवेक और अविद्या के अन्धकार से मनुष्य की चेतना को बाहर निकालने या आत्मा रूपी लौ को प्रज्जवलित करने की कामना की है | यह सतत चलने वाली प्रक्रिया है क्योंकि हमारी चेतना का अंधकार से प्रकाश की ओर गमन प्रकृति की तरह सहज या स्वाभाविक नहीं है इसलिए प्रकाश की साधना होती रहनी चाहिए| मनुष्य की चेतना के अंधकार ग्रस्त होने के कारण ही समाज में मानव-मूल्यों का ह्रास होता है, समाज में अराजकता होती है, परिवार बिखरने लगता है, नैतिक मूल्य नष्ट हो जाते है, संस्कारविहीनता और भ्रष्ट-आचरण को बढ़ावा मिलता है, रक्तपात, अपराधिक और हिंसक गतिविधियाँ बढ़ती है| ऐसी ही विषम परिस्थितियों, जो सम्पूर्ण मानवता, मानव गरिमा के साथ-साथ पारिस्थितिकी के सम्पूर्ण तंत्र के अस्तित्व के लिए खतरा बन जाती है, के सन्दर्भ में ही वैदिक ऋषियों और मनीषियों ने "तमसो मा ज्योतिर्गमय" की प्रार्थना की है| यह कामना प्रत्येक मनुष्य के भीतर से होनी चाहिए तभी वह प्रकाश की ओर जाने के लिए अग्रसर होगा| गौतम बुद्ध ने जब कहा था कि अप्प दीपो भवः तो उसका तात्पर्य यही था कि अपना दीपक स्वयं बनो| कोई भी किसी के पथ के लिए सदैव मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकता केवल आत्मज्ञान के प्रकाश से ही हम अपने भीतर के अंधियारे को दूर कर सकते है और सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर के अर्थात् के अँधियारेपन के कारणों को स्वयं पहचानना और स्वयं दूर करना पड़ेगा| यही दीपावली के प्रकाश पर्व का सन्देश है कि अंत:करण को शुद्ध एवं पवित्र रखते हुए और अपनी चेतना, अपनी आत्मा में प्रकाश का संचार करते हुए ज्ञान का, धर्म का और कर्म का दीप जलाओ।
जहाँ तक मानव मूल्यों की बात है तो ये सदियों से निरंतर विकसित, परिवर्तित और परिवर्धित होते रहते है लेकिन सबसे बड़ा और शाश्वत मानव मूल्य है परहित अर्थात् दूसरों के कल्याण में रत रहना क्योंकि यह एक ऐसा मानव मूल्य है जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है और मानवीय गरिमा और मानवता को उच्चता प्रदान करता है| इस महान मूल्य से भटक जाना या भूल जाना ही हमारी चेतना की अंधकारग्रस्तता है जिससे मुक्ति की कामना हमारी सनातन परंपरा में बार-बार दोहरायी गई है | चेतना की अंधकारग्रस्तता के कारण मनुष्य की विवेक शक्ति कुंद हो जाती है| अपने अहंकार में वह भूल जाता है कि वह जो कदम उठाने जा रहा है वह उसके लिए या स्वयं उसकी संततियों के लिए या परिवार और समाज के लिए कितना कल्याणकारी है | तात्पर्य यह है कि मनुष्य का अहंकार शाश्वत मानव मूल्य 'परहित' के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बन जाता है | इस अहंकार से मुक्त होना ही अपनी चेतना को प्रकाश की ओर ले जाना है | मनुष्य अपनी ज्ञान-शक्ति और विवेक-शक्ति से जब तक दूसरों के कल्याण या दूसरों के लिए जीने का सत्य का साक्षात्कार नहीं करता है तबतक वह मानव-अस्तित्व और सदियों से संजोयी मानवीय संस्कृति को खोखला करता रहेगा |
भारत में पर्वों और उत्सवों का खास संबंध ऋतुओं की विविधता से होता है | दीपावली का संबंध शरद ऋतु से है जिसके बारे में कहा गया है कि 'जीवेम शरदः शतम्' और इस ऋतु के दौरान प्रकृति के अनुपम सौंदर्य का वर्णन कालिदास के साहित्य में मिलता है | शरद यानी जागृति, वैभव, उल्लास और आनंद का मौसम। गंदेपन से मुक्ति का मौसम। 'रामचरितमानस' में तुलसीदास भी शरद ऋतु के सौन्दर्य पर मोहित हैं-"बरषा बिगत सरद रितु आई, लछिमन देखहु परम सुहाई। फूलें कास सकल महि छाई, जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई।" (हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा ऋतु बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई है। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी आच्छादित है। जैसे वर्षा ऋतु अपना बुढ़ापा प्रकट कर रही हो)। वह आगे लिखते हैं- "रस-रस सूख सरित सर पानी, ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी। जानि सरद रितु खंजन आए, पाई समय जिमि सुकृत सुहाए।" (नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है, उसी तरह जैसे विवेकी पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए, जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ जाते हैं यानी पुण्य प्रकट हो जाते हैं)। दीपावली इसी शरद् ऋतु के अनुपम सौंदर्य और समृद्धि के प्रति मनुष्य के आंतरिक उल्लास की अभिव्यक्ति है|