Monday 18 September 2023

होयसल के पवित्र मंदिर समूह यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल

 
भारत की गौरवपूर्ण सनातन संस्कृति और पारंपरिक कला और वास्तुकला की उत्कृष्टता एक बार फिर से प्रमाणित हुई है, जब यूनेस्को ने कर्नाटक में बेलूर, हलेबिड और सोमनाथपुरा के होयसल मंदिर समूह को अपनी विश्व विरासत सूची में शामिल कर लिया है। यह फैसला सऊदी अरब के रियाद में हुए विश्व धरोहर समिति के 45वें सत्र के दौरान लिया गया।

इस घोषणा पर पीएम मोदी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए एक्स पर कहा, " होयसल मंदिरों की सुंदरता और जटिल निर्माण कला भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और हमारे पूर्वजों के असाधारण शिल्प कौशल का प्रमाण हैं।"

कर्नाटक में होयसल राजवंश के 13वीं सदी के मंदिरों को यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किए जाने के बाद भारत में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थलों की संख्या बढ़कर 42 हो गई है। इनमें सांस्कृतिक श्रेणी में 34, प्राकृतिक श्रेणी में सात और एक मिश्रित श्रेणी में शामिल है।

होयसल कला और वास्तुकला को उनके सौंदर्य, जटिल विवरण और उन्हें बनाने वाले कारीगरों के असाधारण कौशल के लिए जाना जाता है। होयसल काल के दौरान निर्मित मंदिर भारतीय वास्तुकला के चमत्कार बने हुए हैं और दक्षिणी भारत में महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थल हैं। होयसल हिंदू मंदिरों के विपुल निर्माता थे, और उनकी वास्तुकला अक्सर "मंदिर-केंद्रित" है। उन्होंने भगवान शिव, भगवान विष्णु और देवी के विभिन्न रूपों जैसे देवताओं को समर्पित कई मंदिरों का निर्माण किया।

होयसल वास्तुकला की विशिष्ट यह है कि तारे के आकार के इन मंदिरों में कई मंदिर सममित रूप से रखे गए हैं, जो एक अद्वितीय और उन्नत लेआउट के रूप में हैं। मंदिर के शिलालेखों से जहां हमें मंदिर के इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है, वहीं इसकी असंख्य मूर्तियों में हमें 12वीं शताब्दी के समाज की झलक देखने को मिलती है। ये मूर्तियां होयसल वास्तुकला की अनूठी विशेषताओं में से एक हैं। पूरे मंदिर में तराशकर बनाई गईं सुंदर मूर्तियां हैं, जिनमें रामायण, महाभारत और दरबार के दृश्यों और होयसल काल के शिकार, संगीत और नृत्य जैसी दैनिक गतिविधियों को दिखाया गया है। सबसे आकर्षक छवियों में से कुछ संगीतकारों और नर्तकियों की हैं। गहनों से सजी इन मूर्तियों में विभिन्न नृत्य मुद्राओं को दिखाया गया है। होयसलों ने अपनी प्राथमिक निर्माण सामग्री के रूप में मुख्य रूप से सोपस्टोन (क्लोरिटिक शिस्ट) का उपयोग किया। यह नरम पत्थर जटिल नक्काशी और विवरण के लिए उपयुक्त होता है।  

संस्मरण का विकास

गद्य की नव विकसित विधाओं में संस्मरण का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। यह आधुनिक गद्य साहित्य की एक उत्कृष्ट एवं ललित विधा है। इसकी शैली कहानी और निबंध दोनों के बहुत निकट है। इसमें ललित निबंध का लालित्य और रोचकता तथा कहानी का आस्वाद सम्मिलित रहता है। स्मरण शब्द स्मृधातु में समउपसर्ग और अनप्रत्यय के योग से बना है। इसका अर्थ है सम्यक अर्थात भली प्रकार से स्मरण अर्थात सम्यक स्मृति। जब कोई व्यक्ति किसी विख्यात, किसी अन्य विशिष्ट व्यक्ति के बारे में चर्चा करते हुए स्वयं के जीवन के किसी अंश को प्रकाश में लाने की चेष्टा करता है, तब संस्मरण विधा का जन्म होता है। संस्मरण लेखक की स्मृति के आधार पर लिखी गई ऐसी रचना होती है जिसमें वह अपनी किसी स्मरणीय अनुभूति को व्यंजनात्मक सांकेतिक शैली में यथार्थ के स्तर पर प्रस्तुत करता है। डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत के अनुसार –“भावुक कलाकार जब अतीत की अनंत स्मृतियों में से कुछ स्मरणीय अनुभूतियों को अपनी कोमल कल्पना से अनुरंजित करके रोचक ढंग से यथार्थ रूप में व्यक्त करता है तब उसे संस्मरण कहते हैं।

संस्मरण का विकास

आरंभिक युग

बालमुकुंद गुप्त के सन् 1907 ई. में प्रतापनारायण मिश्र पर लिखे संस्मरण को हिंदी का पहला संस्मरण माना जाता है। इसी युग में कुछ समय बाद गुप्त जी लिखित हरिऔध केन्द्रित पंद्रह संस्मरणों का संग्रह भी प्रकाशित हुआ।  इसमें हरिऔध को वर्ण्य विषय बनाकर पंद्रह संस्मरणों की रचना की गई है।

द्विवेदी युग        

हिंदी में संस्मरण लेखन का आरंभ द्विवेदी युग से ही हुआ। गद्य की अन्य विधाओं के समान ही संस्मरण की शुरुआत भी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही हुई। इस युग की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका सरस्वती में भी कई संस्मरण प्रकाशित हुए। स्वयं महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अनुमोदन का अंत’, ‘सभा की सभ्यता’, ‘विज्ञानाचार्य बसु का विज्ञान मन्दिर आदि की रचना करके संस्मरण साहित्य की श्रीवृद्धि की। इस समय के संस्मरण लेखकों में द्विवेदी जी के अतिरिक्त रामकुमार खेमका, काशीप्रसाद जायसवाल, बालमुकुन्द गुप्त, श्यामसुंदर दास प्रमुख रहे हैं। द्विवेदी युग में आरंभ हुई संस्मरण की परंपरा आज भी जारी है।

 छायावादी एवं छायावादोत्तर युग

रेखाचित्र की तरह ही संस्मरण को गद्य की विशिष्ट विधा के रूप में स्थापित करने की दिशा में भी पद्म सिंह शर्मा (1876-1932) का महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है। इनके संस्मरण प्रबंध मंजरीऔर पद्म परागमें संकलित हैं। महाकवि अकबर, सत्यनारायण कविरत्न और भीमसेन शर्मा आदि पर लिखे हुए इनके संस्मरणों ने इस विधा को स्थिरता प्रदान करने में मदद की। विनोद की एक हल्की रेखा इनकी पूरी रचनाओं के भीतर देखी जा सकती है। इस युग में भी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में संस्मरण प्रकाशित होते रहे। इस युग में संस्मरणों के कुछ संकलन भी प्रकाशित हुए। बाबूराव विष्णुराव पराड़कर संपादित हंसका प्रेमचन्द-स्मृति-अंक’ (1937 ई.) तथा ज्योतिलाल भार्गव द्वारा संपादित साहित्यिकों के संस्मरणभी इसी युग की उल्लेखनीय रचनाएं हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बनारसीदास चतुर्वेदी और महादेवी वर्मा के संस्मरण भी छपे। महादेवी वर्मा ने हिंदी संस्मरणों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। अतीत के चलचित्र’, स्मृति की रेखाएं’, ‘पथ के साथी’, ‘मेरा परिवारउनकी उल्लेखनीय रचनाएं हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी जी अद्भुत शब्द-शिल्प के लिए विख्यात हैं। लाल तारा’, माटी की मूरतें’, ‘गेंहू और गुलाबइनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं। इस युग में संस्मरण के कथ्य और शिल्प में बदलाव आया। काव्य की दृष्टि से संस्मरण साहित्य में जहां समाजसेवी नेताओं, साहित्यकारों तथा प्रवासी भारतीयों के स्मृति प्रसंगों की रोचक अभिव्यक्ति हुई है, वहीं शिल्प के स्तर पर इस युग की प्रमुख उपलब्धि बिंबात्मकता है। प्रकाशचंद गुप्त ने पुरानी स्मृतियाँनामक संग्रह में अपने संस्मरणों को लिपिबद्ध किया। इलाचंद्र जोशी कृत मेरे प्राथमिक जीवन की स्मृतियाँऔर वृंदावनलाल वर्मा कृत कुछ संस्मरणइस काल की उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।

 स्वातंत्र्योत्तर युग

सन् 1950 के आस-पास का समय संस्मरण लेखन की दृष्टि से विशेष महत्त्व का है। इस युग में संस्मरण का तेजी से विकास हुआ। बनारसीदास चतुर्वेदी को संस्मरण लेखन के क्षेत्र में विशेष सफलता मिली। पेशे से साहित्यिक पत्रकार होने के कारण इनके संस्मरणों के विषय बहुत व्यापक हैं। अपनी कृति संस्मरणमें संकलित रचनाओं की शैली पर इनके मानवीय पक्ष की प्रबलता को साफ देखा जा सकता है। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने अपनी कृतियों भूले हुए चेहरेतथा दीप जले शंख बजेके कारण इस समय के एक अन्य महत्त्वपूर्ण संस्मरण लेखक हैं। शिवपूजन सहाय के संस्मरण वे दिन वे लोगमें संकलित हैं।  उपेन्द्रनाथ अश्क की महत्वपूर्ण रचना है- मंटो मेरा दुश्मन। अन्य महत्वपूर्ण संस्मरणात्मक रचनाएं इस प्रकार हैं- जगदीशचंद्र माथुर ने दस तस्वीरें, कृष्णा सोबती ने हम हशमत,  शांतिप्रिय द्विवेदी ने पथ चिह्न’,  शिवरानी देवी ने प्रेमचंदः घर में’, जैनेन्द्र कुमार ने ये और वे, अज्ञेय ने स्मृति लेखा’, माखनलाल चतुर्वेदी ने समय के पाँव’, रामधारी सिंह दिनकर ने  लोकदेव नेहरू’, बनारसीदास चतुर्वेदी  ने  महापुरुषों की खोज में की रचना की।

 संस्मरण और रेखाचित्रों में कोई भी तात्विक भेद नहीं मानने वाले आलोचक डा. नगेन्द्र ने चेतना के बिंबनाम की कृति के माध्यम से इस विधा को समृद्ध किया। प्रभाकर माचवे, विष्णु प्रभाकर, अज्ञेय और कमलेश्वर इस समय के अन्य प्रमुख संस्मरण लेखक रहे हैं।

समकालीन युग

समकालीन लेखन में आत्मकथात्मक विधाओं की भरमार है। संस्मरण आज बहुतायत में लिखें जा रहे हैं। जानकीवल्लभ शास्त्री रचित हंसबलाकासंस्मरण संग्रह इस विधा की महत्वपूर्ण रचना है जो सन् 1983 ई. में प्रकाशित हुई। हाल ही डा. विश्वनाथ त्रिपाठी का नामवर सिंह पर लिखा गया संस्मरण हक अदा न हुआने इस विधा को नई ताजगी से भर दिया है और इससे प्रभावित होकर कई लेखक इस ओर बढ़े। इनकी सद्य प्रकाशित पुस्तक नंगातलाई का गांव’ (2004) को उन्होंने स्मृति आख्यान कहा है। राजेंद्र यादव का औरों के बहानेभी महत्वपूर्ण संस्मरण संग्रह है। इस दिशा में काशीनाथ सिंह, कांतिकुमार जैन, राजेंद्र यादव, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया व अखिलेश आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है।