गद्य की नव विकसित विधाओं में संस्मरण का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। यह आधुनिक गद्य साहित्य की एक उत्कृष्ट एवं ललित विधा है। इसकी शैली कहानी और निबंध दोनों के बहुत निकट है। इसमें ललित निबंध का लालित्य और रोचकता तथा कहानी का आस्वाद सम्मिलित रहता है। स्मरण शब्द ‘स्मृ’ धातु में ‘सम’ उपसर्ग और ‘अन’ प्रत्यय के योग से बना है। इसका अर्थ है सम्यक अर्थात भली प्रकार से स्मरण अर्थात सम्यक स्मृति। जब कोई व्यक्ति किसी विख्यात, किसी अन्य विशिष्ट व्यक्ति के बारे में चर्चा करते हुए स्वयं के जीवन के किसी अंश को प्रकाश में लाने की चेष्टा करता है, तब संस्मरण विधा का जन्म होता है। संस्मरण लेखक की स्मृति के आधार पर लिखी गई ऐसी रचना होती है जिसमें वह अपनी किसी स्मरणीय अनुभूति को व्यंजनात्मक सांकेतिक शैली में यथार्थ के स्तर पर प्रस्तुत करता है। डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत के अनुसार –“भावुक कलाकार जब अतीत की अनंत स्मृतियों में से कुछ स्मरणीय अनुभूतियों को अपनी कोमल कल्पना से अनुरंजित करके रोचक ढंग से यथार्थ रूप में व्यक्त करता है तब उसे संस्मरण कहते हैं।“
संस्मरण का विकास
आरंभिक
युग
बालमुकुंद
गुप्त के सन् 1907 ई. में प्रतापनारायण मिश्र पर लिखे संस्मरण को हिंदी का पहला
संस्मरण माना जाता है। इसी युग में कुछ समय बाद गुप्त जी लिखित ‘हरिऔध’ केन्द्रित पंद्रह संस्मरणों का संग्रह
भी प्रकाशित हुआ। इसमें हरिऔध को वर्ण्य
विषय बनाकर पंद्रह संस्मरणों की रचना की गई है।
द्विवेदी युग
हिंदी
में संस्मरण लेखन का आरंभ द्विवेदी युग से ही हुआ। गद्य की अन्य विधाओं के समान ही
संस्मरण की शुरुआत भी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही हुई। इस युग की सबसे
महत्वपूर्ण पत्रिका ‘सरस्वती’ में भी कई संस्मरण प्रकाशित हुए। स्वयं महावीर
प्रसाद द्विवेदी ने ‘अनुमोदन का अंत’, ‘सभा
की सभ्यता’, ‘विज्ञानाचार्य बसु का विज्ञान मन्दिर’ आदि की रचना करके संस्मरण साहित्य की
श्रीवृद्धि की। इस समय के संस्मरण लेखकों में द्विवेदी जी के अतिरिक्त रामकुमार
खेमका, काशीप्रसाद जायसवाल, बालमुकुन्द गुप्त, श्यामसुंदर
दास प्रमुख रहे हैं। द्विवेदी युग में आरंभ हुई संस्मरण की परंपरा आज भी जारी है।
रेखाचित्र
की तरह ही संस्मरण को गद्य की विशिष्ट विधा के रूप में स्थापित करने की दिशा में
भी पद्म सिंह शर्मा (1876-1932) का महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है। इनके संस्मरण
‘प्रबंध मंजरी’ और ‘पद्म
पराग’ में संकलित हैं। महाकवि अकबर, सत्यनारायण कविरत्न और भीमसेन शर्मा
आदि पर लिखे हुए इनके संस्मरणों ने इस विधा को स्थिरता प्रदान करने में मदद की।
विनोद की एक हल्की रेखा इनकी पूरी रचनाओं के भीतर देखी जा सकती है। इस युग में भी
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में संस्मरण प्रकाशित होते रहे। इस युग में संस्मरणों के
कुछ संकलन भी प्रकाशित हुए। बाबूराव विष्णुराव पराड़कर संपादित ‘हंस’का ‘प्रेमचन्द-स्मृति-अंक’ (1937
ई.) तथा ज्योतिलाल भार्गव द्वारा संपादित ‘साहित्यिकों के संस्मरण’ भी
इसी युग की उल्लेखनीय रचनाएं हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बनारसीदास चतुर्वेदी
और महादेवी वर्मा के संस्मरण भी छपे। महादेवी वर्मा ने हिंदी संस्मरणों के विकास
में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ‘अतीत के चलचित्र’, स्मृति
की रेखाएं’, ‘पथ के साथी’, ‘मेरा परिवार’ उनकी उल्लेखनीय रचनाएं हैं। रामवृक्ष
बेनीपुरी जी अद्भुत शब्द-शिल्प के लिए विख्यात हैं। ‘लाल तारा’, माटी की मूरतें’, ‘गेंहू
और गुलाब’ इनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं। इस युग में संस्मरण
के कथ्य और शिल्प में बदलाव आया। काव्य की दृष्टि से संस्मरण साहित्य में जहां
समाजसेवी नेताओं, साहित्यकारों तथा प्रवासी भारतीयों के स्मृति
प्रसंगों की रोचक अभिव्यक्ति हुई है, वहीं शिल्प के स्तर पर इस युग की
प्रमुख उपलब्धि बिंबात्मकता है। प्रकाशचंद गुप्त ने ‘पुरानी स्मृतियाँ’ नामक संग्रह में अपने संस्मरणों को लिपिबद्ध
किया। इलाचंद्र जोशी कृत ‘मेरे
प्राथमिक जीवन की स्मृतियाँ’ और
वृंदावनलाल वर्मा कृत ‘कुछ संस्मरण’ इस काल की उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।
सन्
1950 के आस-पास का समय संस्मरण लेखन की दृष्टि से विशेष महत्त्व का है। इस युग में
संस्मरण का तेजी से विकास हुआ। बनारसीदास चतुर्वेदी को संस्मरण लेखन के क्षेत्र
में विशेष सफलता मिली। पेशे से साहित्यिक पत्रकार होने के कारण इनके संस्मरणों के
विषय बहुत व्यापक हैं। अपनी कृति ‘संस्मरण’ में संकलित रचनाओं की शैली पर इनके
मानवीय पक्ष की प्रबलता को साफ देखा जा सकता है। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने अपनी
कृतियों ‘भूले हुए चेहरे’ तथा ‘दीप जले शंख बजे’ के
कारण इस समय के एक अन्य महत्त्वपूर्ण संस्मरण लेखक हैं। शिवपूजन सहाय के संस्मरण ‘वे
दिन वे लोग’ में संकलित हैं। उपेन्द्रनाथ अश्क की महत्वपूर्ण रचना है- ‘मंटो
मेरा दुश्मन। अन्य महत्वपूर्ण संस्मरणात्मक रचनाएं इस प्रकार हैं- जगदीशचंद्र
माथुर ने ‘दस तस्वीरें’, कृष्णा सोबती ने ‘हम
हशमत’, शांतिप्रिय द्विवेदी ने ‘पथ
चिह्न’, शिवरानी देवी ने ‘प्रेमचंदः
घर में’, जैनेन्द्र कुमार ने ‘ये
और वे, अज्ञेय ने ‘स्मृति लेखा’,
माखनलाल
चतुर्वेदी ने ‘समय के पाँव’, रामधारी सिंह दिनकर ने ‘लोकदेव नेहरू’,
बनारसीदास
चतुर्वेदी ने ‘महापुरुषों
की खोज में’ की
रचना की।
समकालीन युग
समकालीन
लेखन में आत्मकथात्मक विधाओं की भरमार है। संस्मरण आज बहुतायत में लिखें जा रहे
हैं। जानकीवल्लभ शास्त्री रचित ‘हंसबलाका’ संस्मरण संग्रह इस विधा की महत्वपूर्ण
रचना है जो सन् 1983 ई. में प्रकाशित हुई। हाल ही डा. विश्वनाथ त्रिपाठी का नामवर
सिंह पर लिखा गया संस्मरण ‘हक अदा न हुआ’
ने
इस विधा को नई ताजगी से भर दिया है और इससे प्रभावित होकर कई लेखक इस ओर बढ़े। इनकी सद्य
प्रकाशित पुस्तक ‘नंगातलाई का गांव’ (2004) को उन्होंने स्मृति आख्यान कहा है। राजेंद्र यादव का ‘औरों के बहाने’
भी
महत्वपूर्ण संस्मरण संग्रह है। इस दिशा में काशीनाथ सिंह,
कांतिकुमार
जैन, राजेंद्र यादव, रवीन्द्र कालिया, ममता
कालिया व अखिलेश आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
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