Friday 4 November 2016

हिंदी आलोचना-विविध वाद

हिंदी आलोचना-विविध वाद 

2.3.1           हिंदी आलोचना के विविध वादों का विकास क्रम
हिंदी आलोचना अपने आरम्भ से ही पाश्चात्य समीक्षा के मूल्यों, वादों और अवधारणाओं के साथ संवाद स्थापित करते हुए स्वरूप एवं आकार ग्रहण करती है | सर्वप्रथम हिंदी साहित्य की मुक्तिकामी चेतना के अनुकूल हिंदी आलोचना भी संस्कृत काव्यशास्त्र की आधार-भूमि से जुड़कर भी स्वाभाविक रूप से रीतिवाद, साम्राज्यवाद, सामंतवाद और अभिजात्यवाद विरोधी और स्वच्छंदताकामी मार्ग पर अग्रसर हुई | भारतेंदु काल से आचार्य शुक्ल की अलोचनाशीलता तक प्रौढ़ता प्राप्त करने तक हिंदी आलोचना ने हिंदी साहित्य की प्रकृति और संवेदना के अनुकूल पाश्चात्य साहित्यशास्त्र की कतिपय मान्यताओं को आत्मसात किया | छायावादी साहित्य आन्दोलन के साथ ही हिंदी आलोचना के विकास क्रम में स्वच्छंदतावाद का स्वाभविक प्रवेश हुआ| आचार्य शुक्ल की आलोचना दृष्टि और स्वच्छंदतावादी आलोचना में काफी समानता थी| लेकिन स्वच्छंदतावादी आलोचना की विशुद्ध वैयक्तिकता और आत्मपरकता हिंदी आलोचना में लंबे समय तक स्थान नहीं पा सकी और इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदी आलोचना में मार्क्सवादी मान्यताओं से पोषित प्रगतिशील या यथार्थवादी आलोचना ने अपनी पैठ बनायीं| सन 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ ही मार्क्सवाद विचारधारा के प्रभाव से हिंदी साहित्य और आलोचना के प्रतिमानों में युगांतकारी परिवर्तन हुआ| साहित्य को आत्मभिव्यक्ति की परिधि से निकालकर मार्क्सवाद और यथार्थवाद ने उसका संबंध फिर से बाह्य जगत और मानवीय एवं सामाजिक सरोकारों से जोड़ा | मार्क्सवाद के प्रभाव से हिंदी आलोचना आज सभ्यता समीक्षा का रूप धारण कर सकी है| मार्क्सवाद के साथ ही लेकिन थोड़े दबे कदमों के साथ हिंदी आलोचना में मनोविश्लेषणवाद की भी दस्तक हुई| मनोविश्लेषणवादी आलोचना के प्रभाव से मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के आधार हिंदी आलोचना में सूक्ष्मता मानस विश्लेषण होने लगा| लेकिन रचनाओं के कथ्य और रूप विश्लेषण में यह पद्धति सहायक होते हुए भी साहित्यशास्त्र को प्रभावित नहीं कर सकी | आज़ादी के बाद आधुनिकतावाद और उत्तर-संरचनावाद ने हिंदी आलोचना को तेजी से बदलते जीवन सन्दर्भों हिंदी आलोचना को दिशा प्रदान की| आधुनिकतावाद के प्रभाव से हिंदी आलोचना नयी भाषा, नयी संरचना, पुराने प्रचलित शब्दों के नए अर्थ, नयी साहित्यिक पदावली की तलाश की ओर अग्रसर हुई | आज़ादी के बाद हिंदी साहित्य के लगातार और तेजी बदलते स्वरूप के कारण हिंदी आलोचना में ऐसा बदलाव आवश्यक था | लेकिन नवीनता के फैशन से मुक्त होते हुए यथार्थ पर पांव जमाये रखा | आधुनिकतावाद के साथ ही अस्तित्ववाद ने भी हिंदी आलोचना में जगह बनायी और व्यक्ति और उसकी अस्मिता को साहित्य और आलोचना के केंद्र में स्थापित कर दिया| आधुनिकतावाद की प्रतिक्रिया में उत्तर आधुनिकतावाद के उदय के साथ ही संरचनावाद और उत्तर संरचनावाद से हिंदी आलोचना प्रभावित हुई लेकिन पाश्चात्य की तरह हिंदी आलोचना में इस तरह का कोई वाद नहीं चल सका |

2.3.2           स्वच्छंदतावाद
‘स्वच्छंदतावाद में रचनाकार किसी भी वाद या विचारधारा या सिद्धांत से मुक्त होकर अपने निजी विचारों से संचालित होता है| ‘रोमांटिसिज्म’ अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान लगभग सम्पूर्ण यूरोपीय कला जगत, विशेषकर साहित्य में, के क्षेत्र में एक ऐसा आन्दोलन है जिसका उदय प्रायः ‘क्लासिसिज्म’ अथवा ‘अभिजात्यवाद’ की निर्जीव और रूढ़ होती कला-पद्धतियों की प्रतिक्रिया में हुआ | इसमें वैयक्तिक प्रतिभा और कल्पना से प्रेरित मौलिक रचनात्मकता, रचनाकार की स्वतंत्रता के अधिकार और नए प्रयोगों पर बल दिया गया | हिंदी में छायावाद के अभ्युदय के साथ ही आलोचना के क्षेत्र में स्वच्छंदतावादी प्रवृतियाँ उभरने लगी थी | हिंदी में ‘स्वच्छंदतावाद’ का प्रयोग पाश्चात्य साहित्य चिंतन के ‘रोमांटिसिज्म’ के लिए किया जाता है|

साहित्य और कलाओं के प्रति इस ‘स्वच्छंदतावादी’ दृष्टिकोण को प्रेरित करने वाली महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना फ़्रांस की जन-क्रांति है| इस क्रांति में ज्यां ज़ाक रूसो ने ‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ का नारा देकर व्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग की| यह बंधनों से मुक्ति का आन्दोलन है| इसलिए स्वच्छंदतावाद किसी बंधे-बंधाये ढाँचे में नहीं बल्कि नाना रूपों में प्रकट हुआ| स्वच्छंदतावाद की प्रवृतियाँ और विशेषताएं वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, शेली, कीट्स और बायरन की कविताओं में अभिव्यक्त हुई है| वर्ड्सवर्थ ने कविता को ‘प्रबल मनोवेगों का सहज उच्छलन’ कहकर भाव-प्रवणता पर विशेष बल दिया| लेकिन यह भावोच्छलन अनुशासनहीन नहीं होता है बल्कि इसके पीछे सूक्ष्म संवेदनशीलता का आग्रह है जो कल्पना से युक्त होकर रचनाकार की आंतरिक अनुभूति को ईमानदारी से उदघाटित करती है |
भाव-प्रवणता के प्रभाव से स्वच्छंदतावादी आलोचना में वैयक्तिकता, आत्म सृजन, कल्पनाशीलता और स्वानुभूति को एक मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है| कॉलरिज ने कवि-कल्पना के महत्त्व को स्थापित करते हुए इसे सृजनकारिणी ‘आदि शक्ति’ तथा मस्तिष्क की सबसे अधिक प्राणवान क्रिया का दर्जा दिया | इसलिए स्वच्छंदतावादी आलोचना में रचनाकार की अंतर्वृतियों का अध्ययन अनिवार्य माना गया हैं| इसके अतिरिक्त जड़ता, कृत्रिमता, रुढियों तथा अप्रासंगिक होती हुई लेखन परम्पराओं से विद्रोह स्वच्छंदतावाद की मूलभूत विशेषता है| विषय वस्तु के स्तर पर स्वच्छंदतावादी आलोचकों ने उदात्त चरित्रों की गाथा के स्थान पर साधारण मानव के सामान्य अनुभवों, सांस्कृतिक मूल्यों तथा अपने परिवेश को महत्त्व दिया| शैली और शिल्प की प्रयोगशीलता और वैविध्यता व्यक्ति-स्वातंत्र्य का ही एक रूप है जिसकी गुंजाइश अभिजात्यवादी अनुशासन में नहीं थी| भाषा के स्तर पर स्वच्छंदतावादी रचनाकारों ने सूक्ष्म अर्थच्छायाओं को उदघाटित और भाव-सम्प्रेषण के लिए सहज और जनभाषा के प्रयोग को आवश्यक ठहराया| स्वच्छंदतावादी आलोचना का दृष्टिकोण पूरी तरह से रसवादी है और रस में वे मानवतावादी यथार्थ को महत्व देते है| सौन्दर्य चेतना भी स्वच्छंदतावादी चेतना का मूल तत्व है| प्रकृति के एकाधिक रूपों के उन्मुक्त सौन्दर्य के प्रति उनका आकर्षण सहज था|
स्वच्छंदतावाद की लोकप्रियता और व्यापकता के प्रमुख कारक ही उसके अवसान के लिए भी जिम्मेदार रहे हैं | वैयक्तिकता और आत्मपरकता के कारण रचनाकार विशुद्ध रूप से आत्मकेंद्रित होकर वस्तु जगत के प्रति उदासीन होता गया और परिवेश के प्रति उसका जुडाव कम होता गया| हिंदी साहित्य का छायावादी आन्दोलन भी नाना अर्थभूमियों के संकोच’ के कारण अल्पकालिक साबित हुआ|   

2.3.3           मार्क्सवाद और यथार्थवाद
मार्क्सवादी आलोचना का आधार मार्क्स-एंगेल्स द्वारा प्रवर्तित मार्क्सवादी सिद्धांत और विचारधारा है जिसमें वर्ग-संघर्ष, द्वंद्वात्मक एवं ऐतिहासिक भौतिकवाद तथा सामाजिक यथार्थवाद पर मुख्यतः बल दिया गया है| यह समाज को वर्गीय दृष्टिकोण से देखने के आग्रही है और शोषण की पूंजीवादी अधिरचना पर चोट करता है| प्रारंभिक दौर में मार्क्स-एंगेल्स की उक्तियों और टिप्पणियों से मार्क्सवादी आलोचना का संकेत मिलता है| लेकिन इसे विकसित और पल्लवित करने में प्लेखानोव, लेनिन, गोर्की, क्रिस्टोफर कॉडवेल, जार्ज लुकाच, रॉल्फ फाक्स, वाल्टर बेंजामिन, लु-शुन और ग्राम्सी जैसे रचनकारों और आलोचकों का अहम योगदान है| यह समाज, उसके इतिहास और प्राकृतिक घटनाओं का विश्लेषण द्वंद्वात्मक रूप से और भौतिकवादी विकास के आधार पर करता है | इसलिए इसे ऐतिहासिक भौतिकवाद भी कहा जाता है | यह साहित्य में यथार्थवाद पर सबसे अधिक जोर देता है|
यथार्थवाद के अनुसार, साहित्य और कला का उद्देश्य वास्तविक जीवन और जगत के तथ्यों को निष्पक्ष होकर निर्वैयक्तिक भाव से प्रस्तुत करना है| इस कारण समकालीन जीवन, परिवेश, समस्याएं और स्थितियाँ ही यथार्थवादी लेखन की विषय-वस्तु हैं| यथार्थवादी दृष्टि की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति उपन्यासों में हुई है | यथार्थवाद लेखन का उद्देश्य पाठकों का मनोरंजन करना नहीं मानता है बल्कि समकालीन समाज की यथार्थ छवि को सामने रखकर उन्हें सोचने के लिए बाध्य करना है | मार्क्स और एंगेल्स साहित्य और कला में एक प्रवृति और एक कलात्मक सृजन की विधि के रूप में यथार्थवाद को विश्व कला की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते है | मार्क्सवादी आलोचना ने किसी कलाकृति में यथार्थ के सबसे सटीक चित्रण पर ध्यान केन्द्रित किया लेकिन यह चित्र यथार्थ की नक़ल मात्र नहीं है बल्कि सच्चाई का पुनःसृजन है| समाज के गतिशील यथार्थ का अंकन, सामाजिक अंतर्विरोधों और अन्तःसंबंधों की व्याख्या और परिवर्तनकारी प्रगतिशील शक्तियों के साथ साहित्यकारों को जोड़ना, साहित्य रूपों की भूमिका को युगीन परिस्थितियों में अधिक प्रासंगिक बनाना और जनवादी संस्कृति एवं स्वस्थ जीवन-मूल्यों को बढ़ावा देना मार्क्सवादी आलोचना की प्रमुख विशेषता है|
मार्क्सवादी आलोचना उन सभी आलोचना पद्धति से अलग है जो साहित्य या कलाकृति की स्वायत्तता पर जो देती है| यह मूलतः सामाजिक और ऐतिहासिक दृष्टि है| मार्क्सवादी आलोचक कला को सम्पूर्ण सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाओं और उसके विकास का अंग मानते है| वे कला को उसके ऐतिहासिक ढांचें में रखकर देखते हैं| मार्क्सवादी आलोचना साहित्य के आलोचक और साहित्यिक इतिहासकार के बीच पार्थक्य को समाप्त कर देती है|  
मार्क्सवादी आलोचना वस्तु-आधारित आलोचना है जो ‘वस्तु’ और ‘रूप’ के द्वैत को स्वीकार करती है और ‘वस्तु’ को मूल सामाजिक तत्व के रूप में ग्रहण करती है | लेकिन भारतीय मार्क्सवादी समीक्षकों ने आलोचना में रूप पक्ष को समान महत्व दिया है | नामवर सिंह जैसे मार्क्सवादी समीक्षक ने नयी कविता के रूप पक्ष पर विस्तार से विवेचन किया है |
मार्क्सवादी आलोचना में विचारधारा को अत्यान्तिक महत्त्व प्राप्त है | इसके अनुसार कोई भी बड़ी साहित्यिक कृति अपने समय की प्रभुत्वशाली विचारधारा को केवल प्रतिबिंबित ही नहीं करती बल्कि उसे चुनौती देती है और उससे संघर्ष भी करती है |
हिंदी में मार्क्सवादी चिंतन की शुरुआत 1936 में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के प्रथम अधिवेशन से हुई, जिसमें प्रेमचंद ने साहित्य को जीवन की आलोचना और देश-काल का प्रतिबिंब कहा | लेकिन हिंदी में इसे एक भिन्न संज्ञा ‘प्रगतिशील आलोचना’ दी गई | शिवदान सिंह चौहान, प्रकाश चन्द्र गुप्त, रामविलास शर्मा, यशपाल, अमृत राय, रांगेय राघव, नामवर सिंह, शिवकुमार मिश्र, रमेश कुंतल मेघ, विश्वनाथ त्रिपाठी और मैनेजर पाण्डेय प्रमुख मार्क्सवादी आलोचक है| इन्होने इतिहास और परम्परा, रचना की अंतर्भूमियों की पहचान, वस्तु और रूप विधान के संबंध की पड़ताल, युग के यथार्थ चित्रण और रचनाकार की प्रतिभा के अन्तःसंबंधों की छानबीन, सामन्तवाद-पूंजीवाद-साम्राज्यवाद एवं अपसंस्कृति का विरोध- आदि विषयों पर वाद-विवाद और संवाद के माध्यम से विस्तार से विचार किया है |

2.3.4           मनोविश्लेषणवाद
मनोविश्लेषणवाद का उत्स फ्रायड, युंग और एडलर जैसे विचारकों की मनोविश्लेषणवादी सिद्धांत और मान्यताएं हैं | इस आलोचना में साहित्यकार के अंतर्मन के द्वंद्व का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है | फ्रायड की मान्यता है कि समस्त कलाओं के मूल में दमित और अतृप्त काम भावना होती है | हमारी कुंठाएं और अतृप्त वासनाएं जो उपचेतन या अवचेतन में पड़ी होती है, कला या साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं | इसलिए कला यौन भावना की विकृतियों से मुक्ति का साधन है| अतः रचनाकार के मन के सन्दर्भ में ही रचना का विश्लेषण किया जा सकता है |
फ्रायड के अनुसार सामाजिक निषेध काम-वृतियों की मुक्त अभिव्यक्ति को बाधित करते है | परिणामतः ये वृतियां कुंठित और दमित होकर हमारे अवचेतन और अचेतन में निहित रहती है और अपनी अभिव्यक्ति के अवसर खोजती है | कला इन्हें अवसर प्रदान करती हैं | इस प्रक्रिया में मनुष्य के मानस में चेतन और अचेतन में द्वन्द्व चलता रहता है। इस प्रक्रिया में अचेतन की इच्छाओं और वासनाओं का चेतन मानस द्वारा उदात्तीकरण होता है| उदात्तीकरण से ग्रन्थियाँ खुलती हैं और कुण्ठायें दूर हो जाती हैं। इस उदात्तीकृत क्रियाकलाप से सभ्यता का विकास और सांस्कृतिक मूल्यों का निर्माण होता है। कला और साहित्य भी इसका एक रूप है।

फ्रायड के अनुसार अवचेतन मन की दमित इच्छाएं फंतासी में अभिव्यक्ति पाती हैं | उनका मत है कि कोई भी कला एक प्रकार से भ्रम का जाल बुनकर हमें यथार्थ की असहनीयता और कटुता से मुक्ति दिलाती है | यह भ्रम रम्य कल्पना फंतासी निर्मित करती है | फ्रायड ने ‘अवचेतन सिद्धांत’ के बाद ‘स्वप्न सिद्धांत’ को भी व्यापक महत्त्व दिया| उनके अनुसार स्वप्न भी मानव की दमित इच्छाओं की अभिव्यक्ति है| अतः स्वप्न हमें अवचेतन की महत्वपूर्ण सूचनाएं देते हैं | युंग के मतानुसार स्वप्न अतीत-वर्तमान-भविष्य तीनों से संबंध होते है |
फ्रायड ने जीवन के हर क्षेत्र के सभी प्रतीकों-मिथकों और कला-प्रयोजनों को ‘यौन भावना’ तक सीमित माना है लेकिन दूसरे मनोविश्लेषणवादी युंग के अनुसार सृजनशील व्यक्ति एक ओर जीवन के राग-विरागों से घिरा मानव होता है इसलिए वह मानसिक रुग्णता का शिकार हो सकता है तो दूसरी ओर सृजनरत व्यक्ति के नाते निर्वैयक्तिक सृजन प्रक्रिया के प्रति पूर्ण समर्पित कलाकार | एडलर भी यौनेतर कारणों-सामाजिक-सांस्कृतिक-परिवेशगत वातावरण-को महत्व देते हैं | 
मनोविश्लेषणवादी आलोचना का सकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि रचनाओं और रचनाकारों से नैतिकतावादी-पवित्रतावादी नियंत्रण समाप्त हो गया और साहित्य में यौन-भावनाओं का खुलकर प्रयोग होने लगा | इसके प्रभाव से कविता-नाटक और कथा साहित्य में चरित्र चित्रण, आद्य बिंबों, मिथकों और पुराणों के अध्ययन की नवीन दिशाएं खुलीं |
हिंदी आलोचना पर भी फ्रायड, युंग और एडलर के मनोविश्लेषणवादी सिद्धांतों का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है| लेकिन किसी मूल्य दृष्टि के अभाव में इन सिद्धांतों को आलोचना मानदंड के रूप में ग्रहण नहीं किया गया है| आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने सैद्धांतिक-व्यावहारिक आलोचना में मनोविज्ञान का उपयोग किया है लेकिन वे फ्रायड आदि से प्रभावित नहीं थे | मुक्तिबोध ने मनोविश्लेषण के आधार पर हिंदी आलोचना में फैंटेसी पर विचार किया है| इसके आधार पर स्वप्न चित्रों के सृजन और उद्घाटन की प्रवृति बढ़ी है| डॉ. नगेन्द्र और इलाचंद्र जोशी ने छायावाद के विश्लेषण में फ्रायड के सिद्धांतों का उपयोग किया तो देवराज ने जैनेन्द्र के उपन्यासों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया | फिर भी कुल मिलाकर रचनाओं के कथ्य और रूप विश्लेषण में यह पद्धति सहायक तो है लेकिन किसी कला या साहित्य के उत्कर्ष-अपकर्ष का निर्णय नहीं कर पाता |

2.3.5           आधुनिकतावाद
आधुनिकता एक ऐसी अवधारणा है जिसका संबंध परंपरागत एवं रूढिगत रीति रिवाजों के विरुद्ध नवीन वैज्ञानिक अविष्कारों और विचारों, अन्वेषणों, नयी प्रवृतियों, मूल्यों, मानदंडों, नयी संवेदनाओं और रूपगत प्रयोगों से है| ये परिवर्तन जब वैचारिक आन्दोलन के रूप में परिणत हुआ तो इसे आधुनिकतावाद कहा जाता है| आधुनिकतावाद ने धर्म, अधिभौतिकता, नैतिकता और प्रकृति से परे जाने की प्रवृति का खंडन किया और बुद्धिवाद, विज्ञान और विकास का पर्याय बन गया | यह साहित्य और कला में भी नयी संवेदना, अभिव्यंजना के नए रूपों, शैलियों और प्रयोगों का पर्याय बन गया |
साहित्य, कला और अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में आधुनिकतावाद का प्रचलन बीसवी सदी के पूर्वार्द्ध में हुआ लेकिन इसकी कई प्रवृतियों का कोई आदि और अंत निर्धारित नहीं किया जा सकता है| हिंदी साहित्य में अधुनिकता और आधुनिकतावाद के प्रचलन में अंतर किया गया है और हिंदी में 1940 के आसपास या द्वितीय विश्व युद्ध के अंत से उत्पन्न नवीन संवेदना और नवीन चिंतन दृष्टि के साथ आधुनिकतावाद आन्दोलन अस्तित्व में आया | इसके पूर्व भारतेंदु युग में रूढिबद्धता के विरुद्ध वैज्ञानिक और तर्कयुक्त दृष्टिकोण के साथ आधुनिकता का उदय हुआ था|
आधुनिकतावाद साहित्य में सामाजिक समस्याओं के स्थान पर व्यक्ति, उसकी वैयक्तिकता, यथार्थ बोध के बजाय उसके आत्मबोध को प्रमुख मानता है| यह प्रत्येक विचार को संशय की दृष्टि से देखता है, मूल्यों की स्थिरता में विश्वास नहीं करता है, अतीत से विमुख होकर वर्तमान की शरण लेता है, प्रत्येक प्रचलित विचार और व्यवस्था यहाँ तक कि यथार्थवाद का भी विरोध करता है और अनुभव की प्रमाणिकता पर बाल देता है, स्थायी अनुभवों के बजाय क्षणिक अनुभवों को अभिव्यक्त करता है, हर प्रकार के सामाजिक, नैतिक और यौन दमन के प्रति विद्रोह करता है |
आधुनिकतावादी आलोचना के अनुसार साहित्य का अपना स्वायत्त संसार है, इसका कोई सामाजिक प्रयोजन नहीं है| यह साहित्य और कला की किसी सामाजिक उपयोगिता को स्वीकार नहीं करता है | साहित्य का आम आदमी से कोई संबंध नहीं| यह आलोचना साहित्य में वस्तु यथार्थ के ऊपर अनुभव की प्रामाणिकता, परंपरा और शास्त्रीय नियमों के बजाय प्रयोग और नवीनता, सत्यता के बजाय ईमानदारी और गतिशील मानव चेतना एवं व्यापकता से अधिक गहराई पर बल देती है| प्रतिक्षण नवीन सृजन करने, कुछ अद्वितीय और विलक्षण प्रस्तुत करने के कारण प्रयोग ही ध्येय बन जाता है | नयी भाषा, नयी संरचना, पुराने प्रचलित शब्दों के नए अर्थ, नयी साहित्यिक पदावली की तलाश आधुनिकतावादी आलोचना की पहचान बन गयी| प्रसिद्ध आधुनिकतावादी कवि ऐजरा पाउंड ने तो यहाँ तक कह दिया कि अच्छी कविता कभी भी बीस वर्ष पुरानी शैली में नहीं लिखी जा सकती है |
आधुनिकतावादी आलोचना के अनुसार साहित्यिक कृति में अन्विति, सुसंगता या युक्तिसंगत व्यवस्था की कोई आवश्यकता नहीं है और कृतियों को पूर्णता की दृष्टि से नहीं, टुकड़ों-टुकड़ों में विभाजित करके देखने की जरुरत है | आधुनिकतावाद एकाकीपन और अलगाव को साहित्य का मुख्य सरोकार मानता है क्योंकि इसके अनुसार मनुष्य अपने सामाजिक परिवेश में नहीं बल्कि परिवार में भी अकेलापन महसूस करता है | इसलिए आधुनिकतावाद व्यक्ति की जटिल मानसिकता, उसकी ग्रंथियों और अछूती संवेदनाओं को प्रस्तुत करता है |  
आधुनिकतावादी आलोचना के अंतर्गत प्रतीकवाद, बिम्बवाद, अतियथार्थवाद, भविष्यवाद और अन्ताश्चेतनावाद भी शामिल है | 
अंत में, निरंतर नवीनतम प्रयोग से आधुनिकतावादी आलोचना पर फैशन की प्रवृति हावी हो जाती है और ऐसी आलोचना साहित्य और कलाओं का गला घोंट देती है| प्रगतिवादी आलोचकों ने इसे रुग्ण मानसिकता की अभिव्यक्ति माना है| हिंदी आलोचना में आधुनिकतावादी और प्रगतिवादी आलोचकों के वैचारिक द्वंद्व से ही नई कविता में प्रगति और प्रयोग का एक समन्वित रूप उपजा जो अंततः उसके वैशिष्ट्य का कारण बना |  

2.3.6           उत्तर संरचनावाद
उत्तर संरचनावाद का जन्म संरचनावाद की प्रतिक्रिया में सन् 1966 में फ्रांस के दर्शनिक और भाषा वैज्ञानिक ज़ाक देरिदा के एक व्याख्यान से हुआ| संरचनावाद के अनुसार भाषा अविकल संकेतों (Signs) का एक ऐसा तंत्र है, जिसमें संकेत यानी शब्द आपसी अंतर से अर्थग्रहण करते हैं। वे शब्द संकेत अपने अर्थ के लिए एक दूसरे पर निर्भर हैं, स्वयं का कोई अर्थ या अस्तित्व नहीं रखते। जबकि देरिदा ने इससे उलट अपना उत्तर संरचनावाद प्रस्तुत करते हुए स्पष्ट कहा कि वास्तव में न तो अर्थ कभी उत्पन्न होता हे, न कभी हम अर्थ को ग्रहण कर पाते हैं। जिसे हम अर्थसमझते हैं, वह तो एक संकेतके स्थान पर दूसरा संकेतहोता है,  मगर वह अर्थ नहीं होता, जिसे हम चाहते हैं या तलाशते हैं। अर्थ के लिए कोई बंद प्रणाली नहीं है | वह तो संकेतकों की पूरी श्रृंखला में फैला और बिखरा पड़ा है| उस अर्थ को दीवार में ठुकी कील की तरह स्थिर नहीं किया जा सकता | कोई भी शब्द संकेत न किसी शाश्वत वस्तु का संकेतक होता है न किसी मूल्य का सूचक। संकेत या चिह्न की अर्थवत्ता संदर्भ में निहित होती है। भारत में नैयायिक दर्शन इसी निष्कर्ष पर पहुँचा था कि शब्द विशेष का विशेष-विशेष अर्थ संकेत के रूप में ही संभव हो पाता है।

संरचनावाद के विपरीत उत्तर संरचनावाद उच्चरित शब्द की अपेक्षा लेखन’ (Writing) पर अपना विश्लेषण कायम करता है। देरिदा के अनुसार किसी भी कथन या विमर्श का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता। वास्तव में जिन विचारकों ने उत्तर आधुनिकतावाद को विकसित पल्लवित किया है, वे ही उत्तर संरचनावाद के विकास के लिए भी उत्तरदायी हैं। उत्तर आधुनिकता का मूल मंत्र यह है कि कहीं कोई चीज स्थायी नहीं, सब कुछ अनिश्चित है| उत्तर संरचनावाद भी इसी का पोषण करता प्रतीत होता है।
देरिदा ने आद्यलेखन (Arch writing) की परिकल्पना की जो ऐसे चिह्नों (Traces) से संपृक्त होता है, जिनसे अनुपस्थित (अर्थ) की तलाश की जाती है। यही पाठक या आलोचक की चेतना को गति देता है। गतिशीलता किस दिशा में, कहाँ जाकर सार्थक होगी, कुछ भी निश्चित नहीं। इस तरह अनुपस्थित लेखन ही आद्य लेखन है और साहित्य आद्य लेखन की अभिव्यक्ति है।
देरिदा की अवधारणा से साहित्य, कविता, कला व आलोचना आदि में इस तरह असंख्य निर्वचनों (Discourses) का अंबार लग जाता है| देरिदा के अनुसार काव्य का आकार या पाठ महत्वपूर्ण नहीं होते, उसमें से व्यक्त होनेवाले अर्थों को, संदर्भों को उजागर करना महत्वपूर्ण होता है। देरिदा का मानना है कि शब्द का अर्थ कहीं भी भाषा के अन्वय में वर्तमान नहीं होता । अर्थ हमेशा फिसलता है, उसमें फिसलन रहती है । जो विचार बनते हैं या बने हुए है उनमे कमियां होती है, इसी कारण अन्य विचारों का उदय होता है । देरिदा का मानना है कि किसी पाठमें मौजूद अर्थ को निश्चित, पक्का और पूरा नहीं मानना चाहिए। हर शब्द, हर वाक्य, हर रचना अनेक निर्वचनों या तात्पर्यों का अंतहीन भंडार है। किसी शब्द का अंत्य अर्थ नहीं होता बल्कि शब्द से शब्द तक पहुँचने की प्रक्रिया मात्र होती है। जैसे समुद्रशब्द समुद्र की भयावहता और गंभीरता को नहीं व्यक्त कर पाता। उसके स्थान पर मात्र एक शब्द ही दे पाता है, अंत्य अर्थ नहीं देता। जो जैसा पढे, वह अपना मनचाहा अर्थ निकालता रहे| इसे ही विखंडनवाद कहा गया जो प्रत्येक निश्चितता का खंडन करता है | अर्थ का न तो 'पद' से स्थायी संबंध है और न 'पदार्थ' (वस्तु) से| इसलिए विखंडनवाद साहित्यिक आतंकवादमें बदल जाता है। जैक देरिदा का सामाजिक दायित्व से रहित यह सिद्धान्त विश्व की सम्पूर्ण अतीत, वर्तमान और भविष्य की साहित्य रचना विरासत को ध्वस्त कर उसका प्राण हरण करने वाला सिद्धान्त है। इसके लिए परम्परा, संस्कार और साहित्यिक सौंदर्य, सामाजिक उपादेयता आदि फालतू बातें’ है।
मिशेल फूको ने देरिदा के उत्तर संरचनावाद के ध्वंसकारी रूप का सुधार करते हुए शब्द का अर्थ तलाशने के बजाय उसके विमर्श पर जोर दिया । फूको के अनुसार विमर्शमानव मस्तिष्क की केन्द्रीय गतिविधि है। वह इस विडम्बना को रेखांकित करता है कि कोई भी सिद्धान्त उस समय तक स्वीकृत नहीं होता, जब तक वह अपने युग के राजनीतिक और बौद्धिक सत्ता केन्द्रों में सामंजस्य स्थापित नहीं कर लेता।

निष्कर्षतः हम कह सकते है कि हिंदी साहित्य की मुक्तिकामी चेतना के अनुकूल हिंदी आलोचना भी संस्कृत काव्यशास्त्र की आधार-भूमि पर पांव जमाते हुए स्वाभाविक रूप से रीतिवाद, साम्राज्यवाद, सामंतवाद और अभिजात्यवाद विरोधी और स्वच्छंदताकामी मार्ग पर अग्रसर हुई | अतः स्वच्छंदतावाद हिंदी आलोचना के विकास क्रम का पहला स्वाभाविक पड़ाव है| इसके बाद मार्क्सवादी मान्यताओं से पोषित प्रगतिशील या यथार्थवादी आलोचना ने हिंदी आलोचना को अतिशय अमूर्तता, घोर आत्मपरकता और कपोल-कल्पना के घेरे से बाहर निकलने में अहम भूमिका निभायी| मनोविश्लेषणवादी आलोचना से हिंदी आलोचना में सूक्ष्मता मानस विश्लेषण होने लगा| आज़ादी के बाद आधुनिकतावाद और उत्तर-संरचनावाद ने हिंदी आलोचना को तेजी से बदलते जीवन सन्दर्भों हिंदी आलोचना को दिशा प्रदान की |    

हिंदी आलोचना-स्वरूप और विकास

हिंदी आलोचना-स्वरूप और विकास

हिंदी की विभिन्न विधाओं की तरह आलोचना का विकास भी प्रमुख रूप से आधुनिक काल की देन है | किसी भी साहित्य के आलोचना के विकास की दो प्रमुख शर्त्तें हैं-पहली कि आलोचना रचनात्मक साहित्य से जुड़ती हो और दूसरी कि वह समकालीन साहित्य से जुडती हो | हिंदी आलोचना अपने प्रस्थान बिंदु से ही इन दोनों कसौटियों पर खरी उतरती है | आधुनिक काल से पहले आलोचना का स्वरुप प्रमुखतया संस्कृत काव्यशास्त्र की पुनरावृति हुआ करती थी | लेकिन आज जो हिंदी आलोचना का स्वरुप है उसका आरम्भ आधुनिक हिंदी साहित्य के साथ या यों कहा जाय कि साहित्य में आधुनिक दृष्टि के साथ ही साथ हुआ है|  हिंदी आलोचना संस्कृत के काव्यशास्त्रीय चिंतन की पृष्ठभूमि को स्वीकार करते हुए नवीन सृजन, नवीन विचारधाराओं और नवीन सामाजिक सरोकारों से टकराते हुए विविध दृष्टियों, प्रतिमानों और प्रवृतियों से युक्त होती चलती है | 

हिंदी आलोचना: स्वरूप और संकल्पना
संस्कृत काव्यशास्त्र की पुनरावृति होने के कारण रीतिकालीन काव्यशास्त्रीय विवेचन में न तो सूक्ष्म विश्लेषण और पर्यालोचन था और न ही मौलिकता ही थी | इसमें काव्यशास्त्रीय रस तो विद्यमान था लेकिन सामाजिक संदर्भो में उभरते हुए जीवन काव्य का रस नहीं | कुल मिलाकर हिंदी आलोचना का विकास साहित्यिक भाषा के रूप में हिंदी के विकास के सामानांतर हुआ है | आधुनिक गद्य साहित्य के साथ ही हिंदी आलोचना का उदय भी भारतेंदु युग में हुआ |  जिस प्रकार देश के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं एवं विषमता बोध से लगाव के कारण इस काल का साहित्य विकसित हुआ उसी प्रकार आलोचना का भी संबंध यथार्थ बोध से हुआ और यह प्रतीत होने लगा कि रस किसी छंद में नहीं है बल्कि मानवीय संवेदना के विस्तार में है | हिंदी आलोचना की संकल्पना के सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है, जिसकी ओर विश्वनाथ त्रिपाठी ने संकेत किया है, कि “हिंदी आलोचना पाश्चात्य की नक़ल पर नहीं, बल्कि अपने साहित्य को समझने-बूझने और उसकी उपादेयता पर विचार करने की आवश्यता के कारण जन्मी और विकसित हुई|” यही कारण है कि हिंदी आलोचना, रचनाशीलता की समानधर्मी रही है | हिंदी साहित्य की मुक्तिकामी चेतना के अनुकूल हिंदी आलोचना भी संस्कृत काव्यशास्त्र की आधार-भूमि से जुड़कर भी स्वाभाविक रूप से रीतिवाद, साम्राज्यवाद, सामंतवाद, कलावाद और अभिजात्यवाद विरोधी और स्वच्छंदताकामी रही है | इसके साथ ही हिंदी आलोचना संस्कृत के शास्त्र सम्मत स्वरूप से इत्तर रचना को केंद्र में स्थापित करती है | रचना और आलोचना की समानधर्मिता या समांतरता को डॉ राम विलास शर्मा के इस मंतव्य से समझा जा सकता है कि जो काम निराला ने काव्य में और प्रेमचंद ने उपन्यासों के माध्यम से किया वही काम आचार्य शुक्ल ने आलोचना के माध्यम से किया | हिंदी आलोचना और रचना के गहरे संबंध का सुखद परिणाम यह होता है कि आलोचना या आलोचक अपने विवेचन या मूल्यांकन का परिष्कार रचना के बीच से करते है न कि शास्त्रवाद के साये में | यहीं प्रवृति हम नयी कविता के दौर में भी देखते है, जहाँ रचनाओं के मूल्यांकन की प्रक्रिया में हिंदी आलोचना में कुछ अवधारणात्मक शब्द जैसे आधुनिकता, प्रयोगशीलता, प्रगतिशीलता, प्रतिबद्धता, भोग हुआ यथार्थ, लघु मानव, अनुभूति की प्रमाणिकता, अद्वितीय क्षण, व्यक्ति सत्य, मानव मूल्य, विसंगति, विडंबना, तनाव, ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान, सचेतनता, व्यापकता और गहराई, ईमानदारी समझदारी, बिम्ब और सपाटबयानी विकसित होते गए है | जब नयी कविता और उसके बाद की कविता में अर्थ की परत सघनतर होती है, अभिव्यक्ति सूक्ष्मतर होती जाती है तो आलोचना भी व्याख्या और निर्णय से आगे बढ़कर रचना के अर्थ-संवर्द्धन को अपना दायित्व मानती है | संक्षेप में और आचार्य  शुक्ल के शब्दों को उधार लेकर कहा जा सकता है हिंदी आलोचना अपने स्वरूप और संकल्पना में ‘साहित्येतर’ और ‘उपयोगिता’ कसौटी को स्वीकार नहीं करती है |

1.3.2          हिंदी आलोचना का विकास क्रम
हिंदी आलोचना का इतिहास रीतिकाल से थोड़ा पहले शुरू होता है | ऐसा माना जाता है कि ‘हिततरंगिणी’ के लेखक कृपाराम हिंदी के पहले काव्यशास्त्री थे | लेकिन हिन्दी में ‘काव्य रीति’ का सम्यक समावेश सबसे पहले आचार्य केशव ने ही किया, जिसका अनुकरण परवर्ती रीतिकालीन आचार्यों और लक्षणकारों ने किया | हिंदी में वार्ता-ग्रंथों, भक्तमालों और उनके टीका-ग्रंथों के रूप में आलोचना की जो प्राचीन परंपरा मिलती है , वह निःसंदेह हिंदी आलोचना का प्रवेश द्वार है | लेकिन आचार्यत्व और कवित्व के एकीकरण के इस दौर में आलोचना लक्षण, उदाहरण और टीकाओं तक ही सीमित थी | हिंदी आलोचना के विकास को हम निम्न अवस्थाओं के अंतर्गत देख सकते हैं:-

·        भारतेंदु युग
भारतेंदु काल में जैसे ही साहित्य रीतिकालीन अन्तःपुर के लीला-विनोद से निकलकर जन-समूह के ह्रदय के जन-पथ पर अग्रसर हुआ, हिंदी आलोचना भी अपने युगीन साहित्य को समझने और उसकी उपादेयता पर विचार करने की आवश्यकता के अनुरूप रीतिकालीन केंचुल को उतार कर एक नए चाल में ढल गई | इस युग के प्रमुख रचनाकार बालकृष्ण भट्ट के “साहित्य जनसमूह के ह्रदय का विकास है” सूत्र से साहित्य को परिभाषित किया तो हिंदी आलोचना भी उसके साथ होकर  जन समूह की भावनाओं की  सारथी बन गई | इस काल में आलोचना पत्र-पत्रिकाओं के लेखों, टिप्पणियों और निबंधों से विकसित हुई है | ‘हरिश्चंद्र मैगज़ीन’, ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’, ‘भारत मित्र’, ‘सार सुधानिधि’, ‘ब्राह्मण’, और ‘आनंद कादंबिनी’ जैसी पत्रिकाओं के लेखों में साहित्य और देश की समस्याओं पर सोचने-विचारने और समाधान निकालने की प्रक्रिया में इस युग की आलोचना दृष्टि विकसित हुई |  इस युग में यदि नाटक प्रमुख साहित्यिक विधा थी तो आलोचना का प्रारंभ भी ‘ नाटक’ के स्वरूप पर सैद्धांतिक विवेचन से हुआ| भारतेंदु ने अपने ‘नाटक’ विषयक लेख में नाटकों की प्रकृति, समसामयिक जनरुचि और प्राचीन नाट्यशास्त्र की प्रासंगिकता पर विचार किया  | इसलिए भारतेंदु को हिंदी साहित्य का प्रथम आलोचक माना जा सकता है |
भारतेंदु के कार्य को बद्री नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’और बालकृष्ण भट्ट ने आगे बढाया | इस युग में किसी सम्पूर्ण कृति के गुण-दोषों की समीक्षा की शुरुआत ‘प्रेमघन’और बालकृष्ण भट्ट के द्वारा की गई | प्रेमघन जी ने ‘आनंद कादम्बिनी’ के एक अंक में बाणभट्ट की ‘कादंबरी’ की प्रशंसात्मक आलोचना की और एक अन्य लेख में बाबू गदाधर सिंह द्वारा ‘बंग-विजेता’ नामक बांग्ला उपन्यास के हिंदी अनुवाद की आलोचना करते हुए उपन्यास के अंतरंग-बहिरंग दोनों पक्षों पर विचार किया है | प्रेमघन जी ने ‘आनंद कादम्बिनी’ में ही लाला श्री निवासदास कृत नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर’ की समालोचना की | ‘संयोगिता स्वयंवर’ की समालोचना बालकृष्ण भट्ट ने भी ‘सच्ची समालोचना’ शीर्षक से ‘हिंदी प्रदीप’में की | भट्ट जी ने ऐतिहासिक आख्यानों के साहित्यिक उपयोग, देशकाल, पात्रों की स्वाभाविकता और रचना की जीवंतता के आधार पर आलोचना की |

·        द्विवेदी युग
भारतेंदु के बाद हिंदी आलोचना ही नहीं, सम्पूर्ण हिंदी साहित्य पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का सबसे अधिक प्रभाव रहा | आचार्य द्विवेदी हिंदी के प्रथम लोकवादी आचार्य थे और युग-बोध एवं नवीनता के पोषक थे | भारतेंदु से प्रवर्तित हुई हिंदी आलोचना में वैज्ञानिकता की परंपरा को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाबू श्यामसुन्दरदास ने नवीन ज्ञान-विज्ञान के आलोक में विकसित किया | आचार्य द्विवेदी ने जहाँ ‘सरस्वती’पत्रिका के संपादन के द्वारा आलोचना की भाषा का रूप सुस्थिर किया, वहीं बाबू श्यामसुन्दरदास ने आलोचना के आवश्यक उपादान एकत्र किये, उन्हें व्यवस्थित और संयोजित किया | द्विवेदी युग में सैद्धांतिक और परिचयात्मक आलोचना के साथ-साथ तुलनात्मक, मूल्यांकनपरक, अन्वेषण और व्याख्यात्मक आलोचना की भी शुरुआत हुई| आचार्य द्विवेदी ने साहित्य को “ज्ञान राशि के संचित कोष” के रूप में परिभाषित करते हुए ज्ञान की साधना पर विशेष बल दिया, जिसका रचनात्मक उपयोग साहित्य में तो हुआ ही, आलोचना में भी उपयोग किया गया | आचार्य द्विवेदी के ‘कवि और कविता’और ‘कविता तथा कवि-कर्तव्य’ निबंधो में उनकी काव्य विषयक धारणाएं दृष्टिगत होती है | वे यथार्थ को काव्य के लिए आवश्यक मानते है | द्विवेदी जी काव्य-भाषा के लिए अलंकारिता के विरुद्ध सहज, सरल और जन-साधारण की भाषा का समर्थन करते है और बोलचाल की हिंदी भाषा को आधुनिक साहित्य की भाषा घोषित किया |
द्विवेदी युग के अन्य प्रमुख आलोचक मिश्र बंधु, पं. पद्म सिंह शर्मा तथा पं. कृष्ण बिहारी मिश्र है | मिश्र बंधुओं को तुलनात्मक आलोचना का पुरस्कर्ता माना जाता है | उनके ‘ हिंदी नवरत्न’ में नवरत्नों का चयन ही कवियों की परस्पर तुलना के द्वारा किया गया था | इन आलोचकों के बीच ‘बिहारी और देव’में कौन श्रेष्ठ है, को लेकर कई चरणों में तुलनात्मक आलोचनाएं लिखी गईं| लेकिन मिश्र बंधुओं की दृष्टि रीतिकालीन संस्कारों से मुक्त नहीं पायी थी | कुलमिलाकर द्विवेदी युगीन आलोचना इतिवृतात्मक और गुण-दोष कथन तक की सीमित रही |

·        अध्यापकीय आलोचना
अध्यापकीय आलोचना की शुरुआत भी द्विवेदी युग की ही देन है | विश्वविद्यालयों में कई शिक्षक अध्यापन के लिए आलोचनात्मक पुस्तक की कमी को पूरा करने के लिए इस दिशा में अग्रसर हुए | इन अध्यापकों में बाबू श्यामसुन्दरदास और आचार्य रामचंद्र शुक्ल का स्थान अग्रणी है | बाबू श्यामसुंदरदास ने एम.ए. के पाठ्यक्रम के लिए ‘साहित्यालोचन’, ‘रूपक-रहस्य’ और ‘भाषा-रहस्य’ नामक आलोचनात्मक ग्रन्थ लिखा | हिंदी आलोचना को आधुनिक और गंभीर साहित्यांग के रूप में विकसित करने का प्रयास करने वाला ‘साहित्यालोचन’ संभवतः प्रथम ग्रन्थ है | बाबू श्यामसुंदरदास शोधपरक आलोचना का भी विशिष्ट उदाहरण है |

·        शुक्ल युग
हिंदी आलोचना को आलोचना शास्त्र के रूप में व्यवस्थित, गाम्भीर्य और समृद्ध करने का श्रेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल को है | आचार्य  शुक्ल ने सैद्धांतिक आलोचना को भारतीय साहित्य चिंतन परम्परा और पाश्चात्य साहित्य परम्परा के समन्वय से समृद्ध किया | उनकी आलोचना दृष्टि भारतेंदु युग की उसी सामाजिक-नैतिक चेतना से रूपाकार ग्रहण करती है, जिसका विकास रीतिवाद विरोधी अभियान के रूप में महावीर प्रसाद द्विवेदी में दिखाई पड़ता है | आचार्य शुक्ल ने निजी पसंद-नापसंद पर आधारित आलोचना को ख़ारिज करके साहित्य के वस्तुवादी दृष्टिकोण का विकास किया | उन्होंने साहित्यिक आलोचना और इतिहास के लिए साहित्येतर और उपयोगितावादी मानदंडों को स्वीकार नहीं किया | उन्होंने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’और ‘चिंतामणि’ के निबंधों के साथ ही सूरदास, जायसी और तुलसीदास के काव्य के व्यवस्थित मूल्यांकन की प्रक्रिया में कुछ बीज शब्द गढ़े, जो आलोचनात्मक प्रतिमान के रूप में स्थापित हुए | ‘कवि की अंतर्वृति का सूक्ष्म व्यवच्छेद’, ह्रदय की मुक्तावस्था, ‘आनंद की साधनावस्था’, ‘आनंद की सिद्धावस्था’, ‘लोक-सामान्य’, ‘साधारणीकरण’, ‘लोकमंगल’ आदि प्रतिमानों की स्थापना साहित्यिक समीक्षाओं के आधार पर करते है | इसलिए उनकी सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना में संगति है | वे सूरदास को आनंद की सिद्धावस्था का कवि मानते है तो तुलसीदास को साधनावस्था का और जायसी के काव्य में ‘प्रेम की पीर’ की व्यंजना को महत्त्व देते है|  शुक्ल जी छायावाद के आध्यात्मिक रहस्यवाद को काव्य के क्षेत्र के बाहर की चीज समझते थे |
आचार्य शुक्ल ने उपन्यासों और कहानियों पर भी विचार करते हुए लेखकों से व्यापक सामाजिक-राष्ट्रीय जीवन के चित्रण करने का आग्रह किया है | उनके सहवर्ती आलोचकों में विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, कृष्ण शंकर शुक्ल, बाबू गुलाब राय, पदुमलाल पुन्नालाल बक्सी, आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय और रामदहिन मिश्र प्रमुख है जो अपनी अपनी तरह से शुक्ल जी की आलोचना दृष्टि का ही विस्तार कर रहे थे |

·        शुक्लोतर हिंदी आलोचना
आचार्य शुक्ल हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष थे लेकिन शुक्लोतर हिंदी आलोचना का विकास शुक्ल जी मान्यताओं के साथ टकराहट के साथ शुरू हुआ | टकराहट का प्रमुख कारण था और टकराने वालों में छायावाद के प्रति सहानुभूति पूर्ण रुख रखने वाले  रचनाकार और समीक्षक थे| शुक्ल जी के समकालीन कवियों में प्रसाद, पन्त और निराला प्रमुख थे जिन्होंने छायावादी काव्य रचना के साथ ही छायावाद के सन्दर्भ में शुक्ल जी मान्यताओं और प्राचीन शास्त्रवादी साहित्य मूल्यों का प्रतिवाद करते हुए छायावादी काव्यरचना को समझने के लिए एक दृष्टि प्रदान की | पन्त के ‘पल्लव’ को छायावादी आलोचना के नए प्रतिमानों का पहला घोषणापत्र कहा जाता है | इन कवि आलोचकों ने छायावादी साहित्य की काव्यभाषा, यथार्थ निरूपण, अर्थ मीमांसा, छंद मुक्ति, शिल्प-बोध आदि के एक नए साहित्य शास्त्र द्वारा काव्य बोध कराने का मार्ग प्रशस्त किया | पन्त का काव्यभाषा विश्लेषण निराला का छंद संबंधी विचार और महादेवी के गीत-विधा विवेचन का  हिंदी आलोचना में महत्वपूर्ण स्थान है | यही नहीं, निराला ने हिंदी आलोचना में पहली बार कविता के आवयविक सिद्धांत की व्याख्या की और प्रसाद ने हिंदी आलोचना को दार्शनिक धरातल प्रदान किया |
हिंदी अलोचना को जो प्रौढ़ता और  सुव्यवस्था आचार्य शुक्ल ने प्रदान किया था, उसे आगे ले जाने का चुनौतीपूर्ण कार्य नन्द दुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ नगेन्द्र की महान त्रयी ने किया | ये तीनों अलग-अलग विषयों पर शुक्ल जी से टकराये  भी | नन्द दुलारे वाजपेयी का शुक्ल जी से मतभेद केवल छायावादी काव्य को लेकर था और उनका हिन्दी आलोचना में सबसे महान योगदान छायावाद को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करना है और उन्होंने सिद्ध किया छायावाद की मूल प्रेरणा धार्मिक न होकर मानवीय और सांस्कृतिक है| वाजपेयी जी काव्य-सौष्ठव को सर्वोपरि महत्त्व दिया |
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का शुक्ल जी मतभेद इतिहास-बोध को लेकर था | उन्होंने ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में हिंदी साहित्य को एक समवेत, भारतीय चिंता के स्वाभाविक विकास के रूप में समझने का प्रयास और प्रस्ताव किया | काव्य-रूढियों और कवि-प्रसिद्धियों के माध्यम से काव्य के अध्ययन का प्रस्ताव भी हिंदी आलोचना को एक महत्वपूर्ण देन है | इस आधार पर ही द्विवेदी जी पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता पर विचार किया | साहित्य और जन जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण पूरीतरह से मानवतावादी था जो शुक्ल जी के लोकमंगलवाद से काफी दूर तक मेल खाता है |
डॉ नगेन्द्र ने फ्रायडीय प्रभाव के तहत मनोविश्लेषणात्मक व्याख्याएं की और शास्त्र विवेचन करते हुए भारतीय और पाश्चात्य काव्यशास्त्र के सामानांतर सिद्धांतों की तुलना कर दोनों के बीच समान तत्वों की खोज की |
शुक्लोतर आलोचकों में डॉ देवराज का स्वर कुछ अलग था | उन्होंने शुक्ल जी के सूत्रों और कुछ नयी प्रवृतियों के आधार पर छायावाद की दुर्बलताओं की सोदाहरण व्याख्या करते हुए छायावाद के पतन की घोषणा कर दी और सांस्कृतिक-बोध को साहित्य के प्रतिमान के रूप में स्थापित किया |
शुक्लोतर आलोचना में अज्ञेय का भी अहम् योगदान है | उनकी भूमिकाओं (कवि-दृष्टि), निबंध (‘त्रिशंकु’, ‘आत्मनेपद’, ‘अद्यतन’) और समग्र विवेचन (‘संवत्सर’) में साहित्य ही नहीं, रचनात्मकता और सम्प्रेषण मात्र की विविध समस्याओं का गहरा और सुलझा हुआ विश्लेषण हुआ है |

·        प्रगतिवादी आलोचना
शुक्लोतर युग में हिंदी आलोचना का विकास अनेक दिशाओं में हुआ | इनमें प्रगतिवादी, मनोविश्लेषणवादी, दार्शनिक और शैली वैज्ञानिक आलोचना प्रवृतियाँ प्रमुख है | प्रगतिवादी आलोचना का आधार मार्क्सवादी आलोचना थी | शिवदान सिंह चौहान, प्रकाश चन्द्र गुप्त, रामविलास शर्मा, रांगेय राघव और नामवर सिंह प्रमुख प्रगतिवादी आलोचक रहे है | रामविलास शर्मा ने हिंदी साहित्य को वैचारिक कठमुल्लेपन से बाहर निकाला और मार्क्सवादी दृष्टिकोण से हिंदी साहित्य की पुनर्व्याख्या की | आदि काव्य से लेकर समकालीन साहित्य हिंदी की ठेठ जातीय परम्परा को स्थापित किया ,जिसका  प्रतिनिधि उन्होंने भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्वेदी, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल और निराला को माना है | लेकिन उन्होंने कोई नया सिद्धांत विवेचन नहीं किया | अपने समकालीन मार्क्सवादी आलोचकों के आचार्य शुक्ल विरोधी दृष्टिकोण का प्रतिवाद करते हुए उन्होंने शुक्लजी की विरासत और लोकवादी परंपरा का विकास किया और कहा कि आचार्य शुक्ल ने आलोचना के माध्यम से उसी सामंती संस्कृति का विरोध किया जिसका उपन्यास और कविता के मध्यम से प्रेमचंद और निराला ने | शिवदान सिंह चौहान, प्रकाश चन्द्र गुप्त और रांगेय राघव ने मूलतः मार्क्सवादी सिद्धांतों का पक्ष-पोषण किया और उसे व्यावहारिक रूप देने का प्रयास किया | मुक्तिबोध ने साहित्य के अध्ययन को अंततः मानव सत्ता के अध्ययन के रूप में स्वीकृति और रचना प्रक्रिया के विश्लेषण पर जोर देते हुए ‘कामायनी’ का पुनर्मूल्यांकन करते है | नामवर सिंह के यहाँ मार्क्सवादी आलोचना का रचनात्मक और परिष्कृत रूप सामने आया | नामवर सिंह से छायावादी काव्य के उपनिवेश विरोधी और रुढ़िवाद विरोधी चरित्र का उद्घाटन किया और काव्य के नए प्रतिमानों का प्रश्न ‘कविता के नए प्रतिमान’ में उठाया जिस पर पश्चिम की रूपवादी आलोचना का गहरा प्रभाव है | मुक्तिबोध की रचनाओं पर गंभीर विवेचन भी सबसे पहले इसी पुस्तक में किया गया है | नामवर सिंह के वाद विश्वंभर नाथ उपाध्याय, रमेश कुंतल मेघ, शिवकुमार मिश्र और मैनेजर पाण्डेय ने मार्क्सवादी सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में कुछ साफ-सुथरी व्यावहारिक आलोचना के विकास में अहम योगदान किया है |

·        नयी समीक्षा
इस प्रगतिवादी आलोचना के समानांतर आलोचकों का एक समूह ‘परिमल’ से जुड़ा हुआ था, जिसका मुख्य केंद्र इलाहाबाद था| इस समूह के आलोचकों में धर्मवीर भारती, डॉ रघुवंश, विजयदेव नारायण साही, लक्ष्मीकांत वर्मा, राम स्वरुप चतुर्वेदी और जगदीश गुप्त प्रमुख थे | राम स्वरुप चतुर्वेदी ने ‘हिंदी नवलेखन’, ‘भाषा और संवेदना’, ‘कामायनी का पुनर्मूल्यांकन’, ‘अज्ञेय और आधुनिक रचना की समस्या’ में आचार्य शुक्ल के आलोचनात्मक प्रतिमानों और सूत्रों को ही नवीन भाषिक संवेदना और रचनाशीलता के सन्दर्भ में स्थापित करते है | पचास  के बाद हिंदी आलोचना पश्चिमुन्खता से भी प्रभावित हुई| इसके बावजूद इनमें अपने जातीय स्वरुप का आकर्षण बना रहा और अपने मूल की ओर लौटने की पुरजोर कवायद की जिसका असर नयी कविता के काव्य-भाषा के विकास में देखा जा सकता है |

·        आलोचना के बढ़ते आयाम
छठे और सातवें दशक में हिंदी आलोचना कविता के आभा-मंडल से युक्त होते हुए भी कथा साहित्य, नाटक और अन्य विधाओं को लेकर स्वतंत्र आलोचनात्मक प्रतिमानों और  सिद्धांतों  की नवीन आधारभूमि की तलाश की ओर अग्रसर हुई और आज़ादी के साहित्य रचना और सामाजिक परिस्थितियों में हुए बदलाव को देखते हुए इसकी आवश्यकता महसूस की जा रही थी |  इस दिशा में विजय देव नारायण साही की भूमिका प्रमुख है| आलोचकों के आलोचक के रूप में विख्यात साही ने तत्कालीन आलोचनात्मक विवादों में सजग हस्तक्षेप किया और न केवल पश्चिम और पूर्व के काव्यान्दोलनों के बुनियादी अंतर को रेखांकित किया | उन्होंने ‘जायसी’ में आग्रह किया कि जायसी को ‘सूफ़ी’ के बजाय ‘कवि’ के रूप में देखा जाना चाहिए |  आधुनिक आलोचकों में साही के अलावा डॉ रघुवंश ऐसे आलोचक है जिन्होंने शमशेरबहादुर सिंह और विपिन कुमार अग्रवाल की समग्र समीक्षा करते हुए आधुनिक साहित्य के सैद्धांतिक पक्ष को स्पष्ट किया और प्राचीन काव्यशास्त्र की आधुनिक साहित्य से संगति स्थापित किया

·        कथा समीक्षा के प्रति बढ़ता आग्रह
आलोचना की नयी दिशा की तलाश में दूसरा महत्वपूर्ण नाम देवीशंकर अवस्थी का है, जिन्होंने अपने अल्प-जीवन में ‘विवेक के रंग’ और ‘नई कहानी :सन्दर्भ और प्रकृति’ की भूमिकाओं में किसी भी कृति की समीक्षा ‘मूल्य-साँचें’ अर्थात् साहित्यिक मूल्यों  के आधार पर करने का आग्रह किया | अवस्थी जी ने सबसे पहले कहानी की समीक्षा के लिए काव्य-प्रतिमानों को लागू करने के खतरों से आगाह करते हुए उनसे इत्तर कुछ आलोचनात्मक बीज शब्दों का संकेत किया | बाद में नामवर जी ने ‘कहानी, नयी कहानी’ में काव्य प्रतिमानों के आधार पर कथा समीक्षा की एक नयी सैद्धांतिकी विकसित करने की कोशिश की |  उपन्यास आलोचना के प्रतिमानों और सूत्रों को व्यवस्थित करने में नेमिचंद जैन और डॉ गोपाल राय का प्रमुख योगदान रहा है | हिंदी उपन्यास की आलोचना में सबसे महत्पूर्ण योगदान नेमिचंद्र जैन और उनके अधूरे साक्षात्कार का है | इसमें उन्होंने हिंदी उपन्यास की मानवीय और कलात्मक सार्थकता की खोज की और अपने बहुस्तरीय अनुशीलन के द्वारा हिंदी उपन्यास के सामान्य स्वरूप और उसकी विविधता पर प्रकाश डाला |

·        नाट्य समीक्षा का बदलता स्वरुप:
इस दौर में नाट्य समीक्षा में नेमिचंद जैन द्वारा संपादित नाटक केंद्रित ‘नटरंग’की अहम भूमिका रही है | आजादी के पहले से ही नाटक साहित्यिक विधा से रंगमंचीय विधा के रूप में परिवर्तित होने लगा था  | रंगमंच के अनुकूल नाटक की भाषा के सवाल उठाने का श्रेय विपिन कुमार अग्रवाल को है |

·        समकालीन आलोचना का परिदृश्य
सातवें दशक के बाद की आलोचना में काफी वैविध्य है | लेकिन आलोचकों के अपने आग्रह, विचार और विविधता के बावजूद यह कोशिश दिखाई देती है कि अंतर्वस्तु और रचना शिल्प की दृष्टि से एक समावेशी और समेकित आलोचना दृष्टि का विकास किया जा सके | इस दौर के आलोचकों में मलयज, बच्चन सिंह, निर्मला जैन, विश्वनाथ त्रिपाठी , परमानन्द श्रीवास्तव, नन्दकिशोर नवल, रमेश चन्द्र शाह, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, नंदकिशोर आचार्य, प्रभाकर श्रोतिय, अशोक वाजपेयी और मैनेजर पाण्डेय आदि प्रमुख है | इनमें से अधिकांश छायावाद को अपनी आलोचना का प्रस्थान बिंदु बनाकर समकालीन कविता की आलोचना में अग्रसर होते है | मलयज ‘कविता से साक्षात्कार’ में आलोच्य कृति के ‘वास्तविक मूल्यांकन की कुंजी’ उसी कृति के भीतर तलाश पर जोर देते है | वे आलोचना में ‘निर्मम तटस्थता’ को अनिवार्य शर्त मानते है और स्वयं निर्ममता से अनुपालन भी करते है | निर्मला जैन आलोचना के लिए अनुसंधान, पांडित्य, सिद्धांत-निरूपण और इतिहास आदि को आलोचना के लिए उपयोगी मानते हुए वे ठेठ आलोचना को इनसे अलगाने पर जोर देती है | वे वैचारिक आग्रहों से मुक्त रहते हुए छायावाद को ‘स्वछंदता का स्वाभाविक पथ’ घोषित करती है| उन्होंने ‘कुरु-कुरु स्वाहा’, ‘जिंदगीनामा’ और ‘जहाज का पंछी’ उपन्यासों के मूल्यांकन में वे उपन्यास की रचना-प्रक्रिया को समझने पर जोर देती है | विश्वनाथ त्रिपाठी एक ओर ‘लोकवादी तुलसीदास’ और ‘मीरा का काव्य’ में प्रगतिवादी आलोचना की एकांगिकता से बचाते हुए भक्तिकाव्य की लोकवादी-जनवादी मूल्य दृष्टि का अन्वेषण करते है तो दूसरी ओर ‘देश के इस दौर में’परसाई की व्यंग्य दृष्टि की सार्थकता की खोज करते हुए उनके विचार-चित्रों की समानता मुक्तिबोध के काव्य-बिम्बों से स्थापित करते है | परमानन्द श्रीवास्तव मुख्यतः नई कविता के आलोचक है और वे कविता में सामाजिक-राजनीतिक सन्दर्भों और संरचना के स्तर पर आए बदलाव को सजगता से परखते हैं | रमेश चन्द्र शाह सर्जनात्मक समीक्षा पर जोर देते है और रचनाकार की सृजन प्रक्रिया का आत्मीय विश्लेषण आवश्यक मानते है | लेकिन उनकी आलोचना भाषा की दुरुहता उनकी आलोचना दृष्टि को बाधित करती है | मैनेजर पाण्डेय का आलोचनात्मक प्रखर है | उन्होंने यद्यपि आलोचना की कोई सैद्धांतिकी या पद्धति तो निर्मित नहीं की लेकिन उनके समीक्षात्मक लेखों और टिप्पणियों में एक ओर ‘कला की स्वायत्तता’ और ‘आलोचना के जनतंत्र’ जैसे मूल्य निरपेक्ष कलावादी मान्यताओं का विरोध करते है तो दूसरी ओर वे उत्तर आधुनिकतावादी और उत्तर संरचनावादी आलोचना दृष्टि और पद्धति का भी विरोध करते हैं|
स्वाधीनता के बाद दलित चेतना का विकास भारतीय समाज की एक बड़ी परिघटना है | हिंदी साहित्य और आलोचना में नेमिषराय, तुलसी राम, ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ धर्मवीर, कँवल भारती और श्योराज सिंह ‘बेचैन’ आदि ने दलित चिंतन की सैद्धांतिकी और सौन्दर्यशास्त्रीय विकास की दिशा में पर्याप्त कार्य किया है |

1.3.3          दृष्टि और प्रवृतियाँ
हिंदी साहित्य और संवेदना के विकास क्रम में उसके मूल्यांकन की प्रक्रिया में भी बदलाव हुआ और हिंदी आलोचना नवीन मानदंडों और नवीन प्रवृतियों को आत्मसात करती गई जिसके फलस्वरूप आलोचना की नवीन दृष्टियों और प्रवृतियों का विकास होता गया |
·        सौष्ठववादी या स्वच्छंदतावादी दृष्टिसाहित्य की जड़ता, कृत्रिमता, रुढियों तथा अप्रासंगिक होती हुई लेखन परम्पराओं से विद्रोह स्वच्छंदतावादी दृष्टि की मूलभूत विशेषता है| स्वच्छंदतावादी आलोचना में वैयक्तिकता, आत्म सृजन, कल्पनाशीलता और स्वानुभूति को एक मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है| इसलिए रचनाकार की अंतर्वृतियों का अध्ययन अनिवार्य मानते हैं | स्वच्छंदतावादी प्रभाव से हिंदी आलोचना किसी बंधे-बंधाये ढाँचे में नहीं, बल्कि नाना रूपों में प्रकट हुई |
·        मार्क्सवादी दृष्टि- हिंदी आलोचना को स्वच्छंदतावादी आत्मभिव्यक्ति की परिधि से निकालकर मार्क्सवाद और यथार्थवाद ने उसका संबंध फिर से बाह्य जगत और मानवीय एवं सामाजिक सरोकारों से जोड़ा और वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान की |
·        मनोविश्लेषणवादी दृष्टि-मनोविश्लेषणवादी दृष्टि या मनोविज्ञान के प्रभाव से हिंदी आलोचना में रचनाकारों के अंतर्मन के विश्लेषण की प्रवृति का होने लगा|
·        रसवादी दृष्टि- वैसे तो संस्कृत काव्यशास्त्र की मूल दृष्टि रसवादी ही रही है लेकिन आचार्य शुक्ल ने रसवादी चिन्तन को लोकमंगल से जोड़ते हुए हिंदी आलोचना की प्रवृति को नयी दिशा दी | बाद नन्द दुलारे वाजपेयी और डॉ नगेन्द्र इस रसवादी प्रवृति को आगे बढाया |
·        नयी समीक्षा- यह अनेक दृष्टियों और प्रवृतियों की समाहार वाली आलोचना है | लेकिन समाहार रूप में नयी समीक्षा आज के परिवेश में एक नयी परंपरा निर्माण की आकांक्षी है |
·        अस्तित्ववादी दृष्टि-अस्तित्ववादी दृष्टि के प्रभाव से हिंदी आलोचना में व्यक्ति की अस्मिता, उसके अस्तित्व पर संकट, क्षणिक अनुभव, उसके आन्तरिक सत्य के उद्घाटन की प्रवृति विकसित हुई | अज्ञेय, धर्मवीर भारती और डॉ रघुवंश जैसे आलोचकों के यहाँ अस्तित्ववादी प्रभाव देखा जा सकता है |
·        आधुनिकतावादी दृष्टि-आधुनिकतावादी दृष्टि के कारण हिंदी आलोचना में साहित्य में वस्तु यथार्थ के ऊपर अनुभव की प्रामाणिकता, परंपरा और शास्त्रीय नियमों के बजाय प्रयोग और नवीनता, सत्यता के बजाय ईमानदारी और गतिशील मानव चेतना एवं व्यापकता से अधिक गहराई पर बल देनी की प्रवृति पायी गई |

इन दृष्टियों के आलोक में हिंदी आलोचना की प्रवृतियों में भी बदलाव होता गया | भारतेंदु युग में रीतिकालीन लक्षण ग्रंथों की परंपरा में सैद्धांतिक आलोचना के अतिरिक्त ब्रजभाषा एवं खड़ीबोली गद्य में लिखी गई टीकाओं और इतिहास ग्रंथों में कवि-परिचय के रूप में आलोचना का सूत्रपात हुआ।  रचना को समझने और समझाने की प्रक्रिया में विकसित होने के कारण हिंदी आलोचना हिंदी साहित्य की मुक्तिकामी चेतना के अनुकूल रीतिवाद, साम्राज्यवाद, सामंतवाद, कलावाद और अभिजात्यवाद विरोधी और स्वच्छंदताकामी रही है| यह वह प्रवृति है जो हिंदी आलोचना के आरम्भ काल से लेकर वर्तमान समय तक सदैव  विद्यमान रही है | द्विवेदी युग में हिंदी साहित्य की इतिवृतात्मकता  के आलोचना इतिवृतात्मक और गुण-दोष कथन तक की सीमित रही | द्विवेदी-युगीन और भारतेंदु-युगीन साहित्य की ही भाँति प्रेरणा देने का कार्य अधिक करता है। उस काल की प्रधान दृष्टि यही थी, आलोचना भी इस दृष्टि से प्रभावित थी | आचार्य द्विवेदी ने साहित्य को “ज्ञान राशि के संचित कोष” के रूप में परिभाषित करते हुए ज्ञान की साधना को आलोचना से जोड़ा|  हिंदी आलोचना को वैचारिक स्व रूप आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने दिया। आलोचना की भाषा और सौन्दर्यशास्त्र के रूप में आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा विकसित और अर्जित भाषा उन्हें युग प्रवर्तक आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित करती है | । सबसे महत्त्वपूर्ण बात कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कविता का उद्देश्य हृदय को लोक-सामान्य की भावभूमि पर पहुंचा देना है कहकर लोक धर्म या लोक-मंगल के आदर्श को साहित्य ही नहीं आलोचना का भी केन्द्रीय प्रतिमान घोषित करते है और इस प्रकार साहित्य और समीक्षा दोनों ही सामजिक चेतना के उत्तरदायित्व से युक्त होती है |
शुक्ल जी तैयार दृढ आलोचना भूमि परवर्ती आलोचना विविध पद्धतियों और अलग-अलग दिशाओं में अग्रसर हुई | कुछ अनेक आलोचकों की बहुआयामी सक्रियता को देखते हुए किसी एक वर्ग में रख पाना शुक्लोत्तर युग में संभव नहीं रहा। अब तक चली आ रही आलोचनात्मक पद्धतियों से हटकर मार्क्सवादी आलोचना, दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक आलोचना, शैलीवैज्ञानिक आलोचना और नई आलोचना जैसी नवीन पद्धतियों का विस्तार हुआ। मार्क्सवाद के प्रभाव से हिंदी आलोचना आज सभ्यता समीक्षा का रूप धारण कर सकी है जबकि मनोविश्लेषण द्वारा रचनाकार के अन्तर्मन का विश्लेषण भी हिंदी आलोचना का प्रमुख अंग बना गया | समकालीन आलोचना के दौर में एक ओर कलावादी रुझानों की सक्रियता है और उसकी पुनर्स्थापना के प्रयासों में तेजी आयी है, वही साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन का भी विकास हुआ है और साहित्य के समाज और राजनीति से अन्तःसंबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने के प्रयास भी लक्षित किए जा सकते है |  इस बीच अच्छी बात यह हुई कि अब आलोचना केवल कविता-केंद्रित आलोचना न रहकर उपन्यास, कहानी, नाटक, रंगमंच, निबंध, रेखाचित्र आदि सभी गद्य विधाओं को साथ लेकर बढ़ने व पनपने लगी। इस स्थिति ने हिंदी-आलोचना का सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर क्षेत्र काफी विस्तृत कर दिया है| हिंदी-आलोचना में  गुणात्मक और सर्जनात्मक दोनों परिवर्तन साथ-साथ हुआ |

1.3.4           आलोचना के प्रकार
आलोचना के दो प्रकार हैं- सैद्धान्तिक तथा व्यवहारिक आलोचना
·        सैद्धांतिक आलोचना-.साहित्य.संबंधी सामान्य सिद्धांतों पर विचार किया जाता है| ये सिद्धांत शास्त्रीय भी हो सकते है और ऐतिहासिक भी | शास्त्रीय सिद्धांतों का स्वरूप स्थिर और अपरिवर्तनशील होता है | ऐतिहासिक सिद्धांतों का स्वरूप परिवर्तनशील और विकासात्मक होता है |
·        व्यावहारिक आलोचना-जब सिद्धांतों के आधार पर साहित्य की समीक्षा की जाय, तो उसे व्यावहारिक आलोचना कहा जाता है। व्यावहारिक आलोचना कर्इ प्रकार की हो सकती है-
·        व्याख्यात्मक आलोचना- गूढ़.गंभीर साहित्य.रचना के विषय, उसकी भाषा, शिल्प को सरल.सुबोध भाषा में स्पष्ट करना।
·        जीवन चरितमूलक आलोचना- इसके अंतर्गत रचनाकार के व्यक्तित्व, उसके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएँ, पर्यावरण, हाव-भाव, रूचि और शैली आदि तथ्यों को ध्यान में रखकर आलोचना की जाती है | जैसे-डॉ रामविलास शर्मा की निराला की साहित्य साधनाऔर डॉ नगेन्द्र का सुमित्रानंदन पन्त’ |
·        ऐतिहासिक आलोचना-इसके अंतर्गत वे आलोचनाएँ आती हैं जिनमें किसी रचना का मूल्यांकन रचनाकार की जाति, वर्ग और उसके समाज के आधार पर किया जाता है। इस आलोचना.पद्धति का आरंभ प्रसिद्ध इतिहासकार तैन ने किया था। यह हिंदी आलोचना की अमूल्य निधि है | आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर और नाथपंथियों का मूल्यांकन इसी आलोचना पद्धति से किया है |
·        प्रभाववादी आलोचना-प्रभाववादी आलोचना में आलोचक कृति द्वारा उपन्न प्रभाव की मार्मिक आलोचना करने में तत्पर होता है। तटस्थ दृष्टि का इसमें प्रायः अभाव होता है | उपाधि ग्रहण के लिए लिखे जाने वाले शोध प्रबंध और लघु शोध प्रबंध प्रायः इसी कोटि में आते है | आचार्य शुक्ल ने इस ठीक-ठिकाने की वस्तु नहींमाना है|
·        तुलनात्मक आलोचना- जब किसी रचनाकार या रचना की तुलना किसी अन्य रचनाकार  या रचना या किसी दूसरी भाषा के साहित्य से की जाए तो तुलनात्मक आलोचना होती है।
·        शैली वैज्ञानिक आलोचना- यह आलोचना भाषिक संरचना पर विशेष बल देने के कारण शैली वैज्ञानिक आलोचना के रूप में प्रतिष्ठित हुई | डॉ विद्यानिवास मिश्र, डॉ नगेन्द्र, भोलानाथ तिवारी और डॉ रामस्वरूप चतुर्वेदी प्रमुख शैली वैज्ञानिक आलोचक हैं|
·        मिथकीय आलोचना- मिथकों के आधार पर साहित्य का मूल्यांकन किया जाता है | इस आलोचना में मनोविज्ञान का प्रभाव लक्षित होता है | इसके अंतर्गत साहित्य का मूल मानव वृतियों के साथ सहजात संबंध स्थापित करके उसे एक व्यापक पीठिका पर प्रतिष्ठित किया जाता है |
·        निर्णयात्मक आलोचना-जब निश्चित सिद्धांतों के आधार पर साहित्य के गुण-दोष या श्रेष्ठता-निकृष्टता का निर्णय किया जाता है | इसे नैतिक आलोचना भी कहा जाता है | ऐसी आलोचना में सैद्धांतिक यांत्रिकता अधिक होती है |
·        समन्वयवादी आलोचना-अनेक प्रवृतियों और पद्धतियों के समाहार पर आधारित आलोचना है | आचार्य शुक्ल ने पाश्चात्य कला कला के लिएऔर संस्कृत काव्यशास्त्र में समन्वय स्थापित कर आलोचना को समन्वयवादी स्वर देने की शुरुआत की थी | ‘विरुद्धों का सामंजस्यसूत्र इसी समन्वय की देन है |

1.3.5          आलोचक के गुण
किसी भी आलोचक के लिए सबसे अहम उसका आलोचनात्मक विवेक होता है | इस गुण के बिना आलोचक कवि या काव्य की आत्मा में प्रवेश ही नहीं कर सकता है | आचार्य राम चन्द्र शुक्ल के शब्दों में आलोचक में ‘कवि की अंतर्वृतियों के सुक्ष्म व्यवच्छेद की क्षमता होनी चाहिए | चुकि किसी भी रचना की तरह आलोचना भी पुनर्रचना होती है | अतः जिस भाव-भंगिमा, मुद्रा और तन्मयता के साथ कवि ने अपने काव्य की रचना की है, उसमें उतनी ही संवेदनशीलता और सहानुभूति के साथ प्रवेश कर जाने वाला पाठक ही सच्चा आलोचक होता है | आलोचक का दूसरा महत्वपूर्ण गुण सहृदयता है | आलोचक के अन्य गुण उसकी सहृदयता के होने पर ही सहायक हो सकते है | सहृदय होकर ही आलोचक किसी रचना से रचनाकार की समान अनुभूति से जुड़ सकता है | समीक्षक को आलोच्य रचना या कृति के उत्कृष्ट या मार्मिक स्थल की पहचान कर उसको प्रमुखता देना चाहिए । अर्थात् आलोचक में सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण होना चाहिए |
इन अनिवार्य गुणों के अतिरिक्त आलोचक में निष्पक्षता, साहस, इतिहास और वर्तमान का सम्यक ज्ञान, संवेदनशीलता, अध्ययनशीलता और मननशीलता भी होनी चाहिए | निष्पक्षता से तात्पर्य यह है कि आलोचक को अपने आग्रहों से मुक्त होना चाहिए | आलोचक के आग्रह, अहम या उसकी इच्छाएं और भावनाएँ निष्पक्ष आलोचना में बाधा बनती है | किसी भी रचना के मूल्यांकन में अपनी बातों को तर्कसंगत और तथ्यपरक ढंग से रखना आलोचक के लिए आवश्यक है , भले ही उसकी स्थापनाएँ पूर्व स्थापित मान्यताओं और सिद्धांतों के प्रतिकूल क्यों न पड़ती हो | ऐसी स्थापनाओं के लिए आलोचक में व्यापक अध्ययन एवं देशी-विदेशी साहित्य और कलाओं का ज्ञान आवश्यक है | इसके साथ ही अतीत की घटनाओं, परिस्थितियों और परम्परा एवं वर्तमान के परिवेश का सम्यक ज्ञान होना चाहिए | तभी वह रचना की युगानुकूल व्याख्या कर सकता है । वर्तमानता या समकालीनता से जुड़कर ही कोई आलोचक अपनी दृष्टि को अद्यतन बनाये रखता है | इसके बजाय विदेशों के समीक्षा ग्रंथों से उद्धरण देकर वाम विदेशी समीक्षकों के नाम गिनकर पाठकों को कृति से मुखातिब कराने के स्थान पर उनपर अपने पांडित्य की धाक जमाने की कोशिश आलोचक का गुण नहीं है | आलोचक को किसी सामान्य तथ्य या तत्व तक पहुँचने की जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए बल्कि रचना के अक्षय स्रोत को बचाए रखने का गुण भी होना चाहिए |

1.3.6          आलोचना का महत्व
राम स्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार रचना यदि जीवन का अर्थ विस्तार करती है तो आलोचक रचना का अर्थ विस्तार करता है | दूसरे शब्दों में जीवन के अंतर्द्वंद को देखने-परखने में आलोचना दीपक की भूमिका निभाती है | आलोचना रचनात्मक संकेतों को सामाजिक अनुभवों के आलोक में ‘डी-कोड’ करती है | इस तरह जहाँ रचनाकार की रचनाशीलता विराम लेती है वहीं से आलोचक का कार्य प्रारंभ होता है | किसी भी साहित्य की आलोचना अपने समय और समाज की सापेक्षता और प्रसंगानुकूलता में संभव होती है , तभी आलोचना की सार्थकता और साथ ही साथ रचना की मूल्यवत्ता प्रमाणित होती है और इस प्रसंगानुकूलता और सापेक्षता की तलाश में आलोचना की सामाजिकता या सामाजिक उत्तरदायित्व का प्रश्न उभरता है | अतः आलोचना साहित्य का शास्त्र नहीं है बल्कि साहित्य का जीवन है जो बदलते सामाजिक सन्दर्भों में बार-बार रचा जाता है | इस प्रकार आलोचना परखे हुए को बार-बार परखती है  और जीवन-संबंधों के विकल्प की तलाश में साहित्य और आलोचना की सह-यात्रा जरी रहती है |
आलोचना का संबंध एक साथ इतिहास और सामाजिक विमर्श दोनों से होता है | इतिहास में परिवर्तन की दिशा और संवेदना की पहचान करने, उसका विश्लेषण करने, उस परिवर्तन के कारणों और पड़ावों की पहचान करने और उसे अपने तत्कालीन समाज से जोड़ने की दृष्टि से आलोचना का व्यापक महत्व है | सामाजिक विमर्श के रूप में आलोचना के मूल्य सामाजिक मूल्य से भी संबंधित होते है | आलोचक जब इतिहास के साथ ही समाज, राजनीति, धर्म, नैतिकता और अर्थव्यवस्था के प्रश्नों से भी टकराता है तो इस टकराहट में वह साहित्य के मूल्य भी निर्मित करता है | मनुष्य के जातीय जीवन और उसकी संस्कृति से जोड़कर साहित्य का विश्लेषण करने में आलोचना का महत्त्व समझ में आता है | आलोचना से सहृदय को साहित्य के प्रमाणिक अनुशीलन की सुविधा प्राप्त होती है | सहृदय की रस ग्रहण क्षमता का परिष्कार करने के लिए उसकी संवेदनाओं को जागृत करने में आलोचना का अहम महत्त्व है | इससे कृतिकार को उत्साह, विचारों की प्रौढ़ता, रचनात्मक विचारों और शिल्प एवं भाषा के परिमार्जन और परिवर्द्धन की प्रेरणा मिलती है  जबकि पाठक की बोध-वृति का भी परिष्कार होता है |

इसप्रकार हम देखते है कि हिंदी आलोचना अपने आरम्भ से सामाजिक सरोकारों से गहरे स्तर पर जुड़ी हुई है | युगीन हलचलों, वैचारिक द्वंद्वों, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिकधार्मिक-नैतिक-राष्ट्रीय चिंताओं के सापेक्ष आलोचना के स्वरुप में भी व्यापक बदलाव हुआ है | सबसे अहम् यह कि हिंदी आलोचना रचनात्मक साहित्य के नवीन सृजन, नवीन विचारधाराओं और नवीन सामाजिक सरोकारों से टकराते हुए विविध दृष्टियों, प्रतिमानों और प्रवृतियों से युक्त होती चलती है | आलोचना के महत्त्व को मनुष्य के जातीय जीवन और उसकी संस्कृति से जोड़कर साहित्य का विश्लेषण करने की प्रक्रिया में ही हम समझ सकते है | किसी भी साहित्य की आलोचना अपने समय और समाज की सापेक्षता और प्रसंगानुकूलता में संभव होती है , तभी आलोचना की सार्थकता और साथ ही साथ रचना की मूल्यवत्ता प्रमाणित होती है |