Friday 22 December 2017

सनातन संस्कृति के संवाहक : महामना पंडि‍त मदन मोहन मालवीय

सनातन संस्कृति के संवाहक : महामना पंडि‍त मदन मोहन मालवीय


बहुमुखी प्रतिभा के धनी व सांस्कृतिक धरोहर की प्रतिमूर्ति महामना पंडि‍त मदन मोहन मालवीय का नाम अधि‍कांश लोग अक्सर केवल बनारस हि‍न्दू विश्वविद्यालयके संस्थापक के रूप में ही याद करते है | उनके संघर्ष और सक्रियता के व्‍यापक दायरे से भारतीय समाज एक बड़ा वर्ग अनजान रहा है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान  उन्होंने न सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में नेतृत्व किया, बल्कि वे सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक क्षेत्र में भी मानवता के मार्गदर्शक भी रहे । लेकिन आज़ादी के बाद सत्ताधारी कांग्रेस द्वारा परिवार केन्द्रित राजनीति से असहमति रखने वाले नेताओं को हाशिए पर धकेल देने की नीति अपनायी गई और सत्ता-केन्द्रित इतिहासकारों द्वारा इस नीति का अनुसरण किए जाने के कारण पंडि‍त मदन मोहन मालवीय के बहुआयामी संघर्ष और सक्रियता की अनदेखी की गई | इतिहास के जानकारों को छोड़ दिया जाय तो बहुत कम ही लोग यह जानते है कि मदन मोहन मालवीय जी ने महज 25 वर्ष की आयु में ही 1886 में भारतीय राष्ट्री्य कांग्रेस के दूसरे अधि‍वेशन में भाग लि‍या और उसे संबोधि‍त कि‍या। बाद में वे सन् 1909, 1918, 1932 और 1933 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। वे एक महान देशभक्त, स्वतंत्रता सेनानी, वि‍धि‍वेत्ता, संस्कृत और अंग्रेजी के वि‍द्वान, शि‍क्षावि‍द, पत्रकार और प्रखर वक्ता थे। मालवीय जी केवल भारतीय राष्ट्री्य कांग्रेस के सक्रिय सदस्य बनकर ही नहीं रहे बल्कि हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा का सम्मान, समाज सुधार, पत्रकारिता, शैक्षणिक संप्रभुता और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए श्री गणेश करने वाले अप्रतिम सूत्रधार थे| मालवीय जी के बहुआयामी संघर्ष और परिश्रम के कारण डॉ. राधाकृष्णन ने उन्हें कर्मयोगी कहा था| मदनमोहन मालवीय जी का संपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक जीवन हिंदुस्तान के विलुप्त गौरव और सनातन संस्कृति को स्थापित करने के लिए प्रयासरत रहा। उन्होंने केवल संस्थाएं नहीं बनाईं, बल्कि लोगों को भी बनाया। वे चाहते थे कि भारत के लोगों में हिम्मत पैदा हो, उनका सिर उन्नत हो, उन्हें अपने ऊपर भरोसा हो। यह भारतीय इतिहास की वि‍डम्‍बना ही है कि ऐसे महान कर्मयोगी को वैचारिक पूर्वग्रह के कारण मैकालेवादी-नेहरूवादी-मार्क्सवादी मानसिकता में ढले कुछ इतिहासकारों ने फुटकल खाते में डाल दिया |

1886 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन को संबोधित करते हुए जब कहा कि प्रतिनिधित्व के बिना कोई टैक्स नहीं.......प्रतिनिधि संस्थाओं को प्रतिष्ठित किए बिना भारतवासियों पर टैक्स का बोझ लादते जाना अंग्रेजों के लिए सर्वथा अनुचित है.....अच्छे अंग्रेजों को जानकर यह दुःख होगा कि भारत सरकार निरंकुश है | वह हमारे साथ गुलामों जैसा व्यवहार करती है........प्रतिनिधित्व का अधिकार हमें मिलना चाहिए तब सम्मेलन के अध्यक्ष दादा भाई नैरोजी ने कहा था-इस युवक की वाणी में स्वयं भारत माता मुखरित हो रही है | इसके बाद मालवीय जी कांग्रेस से तमाम मतभेदों के बावजूद स्वराज्य की प्राप्ति के लिए कांग्रेस में बने रहे | मालवीय जी  ने 1932 में दिल्ली अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए स्वीकार किया कि कई अवसरों पर कुछ महत्त्व के प्रश्नों पर मतभेद के बावजूद उसके प्रति मेरी श्रद्धा-भक्ति में कमी नहीं होने पायी है | अतः इस अवसर पर कांग्रेस के सिद्धांत, विचार और कार्य का पथ-प्रदर्शक बनने का आदेश मेरे लिए धर्मादेश है, जिसका पालन करना ही मेरा कर्त्तव्य है |कांग्रेस के प्रति मालवीय जी की प्रतिबद्धता के संबंध में डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने स्वीकार किया है कि जब-जब कांग्रेस का अस्तित्व संकट में पड़ा, मालवीय जी उसका मार्गदर्शन किया | पूराने और नए लोगों के बीच मालवीय जी सेतु का काम करते थे |

मालवीय जी वैसे तो नरमदलीय थे लेकिन अनेक अवसरों पर उनके भीतर की उग्र क्रांतिकारिता प्रकट हो जाती थी | जलियांवाला कांड पर मालवीय जी नेशनल असेम्बली में लगातार तीन दिनों तक बोलते रहे | उनका भाषण सुनकर सरकारी अधिकारियों की आँखों में आंसू आ गए | गृह मंत्री विंसेट स्मिथ की पत्नी यह कहते हुए सुनी गयी कि ‘मेरे पति पंडित जी का मुकाबला नहीं कर सके|’ इंग्लैंड के समाचार पत्रों में मालवीय जी की तुलना उस समय के प्रखर वक्ताओं ग्लेडस्टोन और डिजरायली से की गई | यही नहीं मालवीय जी उग्र क्रांतिकारियों को लगातार संरक्षण, सहयोग और प्रेरणा देते रहे है| महान क्रन्तिकारी चंद्रशेखर आज़ाद अक्सर मालवीय जी परामर्श लेने आया करते थे | इस दृष्टि से वे गाँधी एवं नेहरु जैसे अन्य नरमदलीय नेताओं से अलग थे जो उग्र क्रांतिकारियों से दूरी बनाकर चलना पसंद करते थे | इसके विपरीत स्वाधीनता प्राप्ति के लिए अपनी जान हथेली पर लेकर सशस्त्र क्रांति करने वाले सभी क्रन्तिकारियों को मालवीय जी का सहयोग और आशीर्वाद प्राप्त था |

महामना के अनुसार, राष्ट्रीय जागरण के लिए राष्ट्रीय शिक्षा भी आवश्यक है। उनका तर्क था- देश में उच्च शिक्षा के विकास के साथ राष्ट्रीयता की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए,  जिससे क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद तथा बहुधर्मवाद वाले भारत देश में सबसे ऊपर राष्ट्रीय चरित्र का विकास हो और देश में एकता स्थापित हो। जर्मनी, फ्रांस, जापान, अमेरिका आदि देशों ने अपने स्कूलों में देशभक्ति की शिक्षा देकर अपनी राष्ट्रीय शक्ति तथा दृढ़ता का निर्माण किया है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना मालवीय जी के इसी प्रगतिशील और सृजनशील व्यक्तित्व का प्रतीक है| इस विश्वविद्यालय के मानचित्र से लेकर प्राचीन धर्म-दर्शन के साथ ही आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था मालवीयजी की कल्पना का साकार प्रतिबिंब है| उन्होंने वर्तमान की आवश्यकता और भविष्य की उम्मीदों को ध्यान में रखते हुए भवनों के निर्माण की ऐसी योजना बनायीं कि सौ वर्ष बाद भी विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों की होने वाली भीड़ को नियंत्रित किया जा सके| मालवीयजी इस विश्वविद्यालय को आधुनिक युग का गुरुकुल कहते थे| इस विश्वविद्यालय का उद्देश्य अन्य विश्वविद्यालयों से भिन्न है| इसका उद्देश्य गुरुकुलों की भांति शिक्षा के साथ-साथ चरित्र-निर्माण और विकास भी करना है| इस महामानव ने जिस विश्वविद्यालय की स्थापना की उसमें उनकी परिकल्पना ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षित करके देश सेवा के लिये तैयार करने की थी जो देश का मस्तक गौरव से ऊँचा कर सकें। उनका स्पष्ट मानना था कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों और अधिकारों का समुचित पालन तभी कर सकता है जब वह शिक्षित होगा। विश्वविद्यालय की 31 दिसम्बर 1905 की योजना के अनुसार ज्ञान के व्यापक प्रसार के साथ हिन्दू धर्म की पुरानी प्रतिष्ठा को फिर से स्थापित करना है | यहाँ मालवीय जी प्राचीन भारतीय धर्मं, दर्शन, साहित्य और कलाओं के साथ-साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा द्वारा नैतिक और भौतिक समृद्धि होते देखना चाहते थे| तत्कालीन ब्रिटिश सरकार भारत में भौतिक विकास भारतवासियों के लिए नहीं बल्कि अपने औपनिवेशिक हितों को साधने के लिए करती थी | मालवीय जी की दूरदर्शिता ने ब्रिटिश सरकार की इस धूर्तता की पहचान करने में कोई चूक नहीं की और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ही वह पहला विश्वविद्यालय है जहाँ देश में आधुनिक टेक्नोलॉजी की शिक्षा और प्रशिक्षण का सूत्रपात हुआ |

मालवीय जी चरित्र-निर्माण के लिए भारतीय विद्याओं की शिक्षा पर बल देते है| वे जहाँ धर्म, दर्शन एवं चरित्र-निर्माण को मानवता और मानव सभ्यता के विकास के लिए आवश्यक मानते थे वहीँ ज्ञान-विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी की शिक्षा को भौतिक विकास एवं समृद्धि का कारक मानते थे| पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान को स्वीकार करते हुए वे भारतीय धर्म-दर्शन आदि का समन्वय करते है |

मालवीय जी गंगा की धारा के निर्बाध प्रवाह के प्रबल हिमायती थे | बहुत कम लोग इस तथ्य से अवगत होंगे कि गंगा नदी पर बांध निर्माण करने और नहर बनाने के ब्रिटिश सरकार की योजना का सर्वप्रथम विरोध पंडि‍त मदन मोहन मालवीय के दूरदर्शी नेतृत्व में ही हुआ| वैचारिक पूर्वग्रह के कारण कुछ इतिहासकारों ने भले ही इस आधार पर मालवीय जी के इस संघर्ष को महत्त्व नहीं दिया कि गंगा नदी को हिन्दू धर्मं में पवित्र स्थान प्राप्त है और गंगा नदी अविरल प्रवाह के बचाव के लिए संघर्ष में उन्हें साम्प्रदायिकता की बू आती हो, लेकिन मालवीय जी के जेहन में इस तरह की भावना परिकल्पना से परे है | गंगा नदी की जीवनदायिनी शक्ति के महत्त्व को समझते हुए उन्होंने गंगा के अविरल प्रवाह के पक्ष में जागरूकता के प्रसार के लिए 1905 में हरिद्वार में गंगा महासभा की स्थापना की | उन्होंने देश के सभी विद्वानों,  नेताओं और गुणग्राही राजाओं-महाराजाओं को गंगा महासभा के अधीन संगठित किया | उन्होंने ब्रिटिश सरकार को यह समझौता करने के लिए बाध्य कर दिया कि गंगा की धारा का प्रवाह निर्बाध होना चाहिए | इस समझौते को अविरल गंगा रक्षा समझौता 1916 कहा जाता है | इस समझौते के तहत ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार किया किया कि गंगा की निर्बाध जल धारा पर भविष्य में किसी प्रकार का रोक नहीं लगाया जाना चाहिए | साथ ही यह प्रावधान किया गया कि गंगा की चौड़ाई में कमी या सतह में किसी भी परिवर्तन के सन्दर्भ में हिन्दू समुदाय के पूर्व सलाह के बिना कोई निर्णय नहीं लिया जायेगा | शासन को यह भी वायदा करना पड़ा कि अंग्रेजी हुकुमत 40 प्रतिशत गंगाजल प्रयाग तक पहुंचाएगी | यह समझौता भारतीय संविधान की धारा 363 के अंतर्गत आज भी मौजूद है | लेकिन विडंबना यह है कि जो काम ब्रिटिश सरकार नहीं कर सकी, उसे स्वतंत्र भारत की सरकार ने किया | स्वतंत्र भारत की सरकारों ने इस समझौते का बार-बार उलंघन करते हुए टिहरी सहित कई बांधों के द्वारा गंगा नदी के जल प्रवाह को कैद कर लिया |

हिन्दी भाषा के उत्थान और हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित कराने में मालवीय जी की भूमिका ऐतिहासिक है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को स्थापित करने के प्रयत्न को उन्होंने राष्ट्र की संप्रभुता से जोड़ कर देखा | साहित्य सृजन के स्तर पर हिंदी की अस्मिता और संप्रभुता को स्थापित करने का जो प्रयास भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनकी मंडली ने किया, उस संघर्ष को राजनीतिक और सामाजिक आन्दोलन के रूप में परिणत करने का श्रेय मदन मोहन मालवीय को है | भारतेन्दु के सपने निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कै मूल  को साकार करने का भागीरथ कार्य मालवीयजी तथा उनके सहयोगियों ने अपने हाथों में लिया ।

19 वीं शताब्दी तक उत्तर प्रदेश की राजभाषा के रूप में हिन्दी का कोई स्थान नहीं था। हि‍न्दी को अदालतों से बाहर नि‍कालने के कार्य में तो मुसलमानों को सफलता मि‍ल चुकी थी, अब वे इसे शि‍क्षा क्षेत्र से बाहर नि‍कालने में प्रयत्नशील थे। राजा शि‍व प्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह एवं अन्य मनीषियों ने अदालतों में देवनागरी लि‍पि‍ के प्रवेश के लि‍ये जब-तब छि‍टपुट प्रयत्न कि‍या लेकि‍न सभी असफल रहे। अदालत व सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी किले को ढहाने के लिए महामना मदन मोहन मालवीय ने इस प्रयास को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ दिया | उन्हीं के प्रयास से सन् 1884 में प्रयाग में हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि मध्य सभा की स्थापना हुई | काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना सन् 1893 ई. में हुई थी। यह हिन्दी के लिए पहली सुनियोजित लड़ाई थी, जिसने जनमानस में हिन्दी के प्रति अपराजेय लालसा को जन्म दिया। मालवीयजी के परामर्श से बाबू श्यामसुन्दर दास ने कार्यक्रम को आन्दोलन के रूप में चलाने के लिए नगरों में समितियाँ गठित कीं। इस सभा के माध्यम से एक ओर तो मालवीय जी ने देवनागरी लि‍पि‍ के पक्ष में हस्ताक्षर अभि‍यान चलाया, दूसरी ओर गहरी छानबीन के साथ नागरी के पक्ष में प्रमाण और आंकड़े इकट्ठे कि‍ये। बहुत सी सामग्री एकत्रि‍त कर कोर्ट कैरेक्‍टर एण्‍ड प्रायमरी एजुकेशन इन नार्थ वेस्‍टर्न प्रौवि‍न्‍सेज नाम की पुस्तक लि‍खी और पश्चिमोत्तर प्रदेश व अवध के गवर्नर सर एंटोनी मैकडोनेल के सम्मुख विविध प्रमाण प्रस्तुत करके 1898 ई0 में देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा को कचहरियों में प्रवेश दिलाने में सफल हुए | 18 अप्रैल सन् 1900 ई. को सरकारी गजट के तहत अदालतों, शासकीय कार्यालयों को निर्देश दे दि‍या गया कि‍ सभी कागजात जैसे सम्‍मन आदि‍, जो सरकार की ओर से जनता के लि‍ए नि‍काले जायेंगे वह दोनों लि‍पि‍यों यानी नागरी और फारसी में होंगे। सरकार ने इसके साथ ही यह भी घोषणा कर दी कि‍ आगे कि‍सी भी व्‍यक्‍ति‍  को तभी सरकारी नौकरी मि‍ल सकेगी जब वह हि‍न्‍दी भाषा का भी जानकार हो। जो कर्मचारी हि‍न्‍दी नहीं जानते थे उन्‍हें एक साल के भीतर हि‍न्‍दी सीखने को कहा गया अन्‍यथा वे नौकरी से अलग कर दि‍ए जायेंगे। इस प्रकार मालवीय जी के अथक प्रयास से हि‍न्‍दी का प्रवेश संयुक्‍त प्रान्‍त के शासकीय कार्यालयों में हुआ।

हिन्दी उत्तर प्रान्त की भाषा तो बन गई, परन्तु मालवीयजी उसे राष्ट्र की भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने के साथ ही हिंदी को विश्व भाषा बनाने का स्वप्न देखते थे | सन् 1910 में काशी में आयोजित प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अपने अध्यक्षीय भाषण में मालवीयजी ने हिन्दी अपनाने, सरल हिन्दी का प्रयोग करने तथा अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्द ग्रहण करने की अपील की। सन् 1919 में बम्बई में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए मालवीयजी ने कहा कि सभी भारतीय भाषाएँ आपस में बहने हैं तथा हिन्दी उनमें बड़ी बहन है। अन्य प्रादेशिक भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी बोलने वालों की संख्या अधिक है। अत: देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी भाषा को राष्ट्र भाषा का स्थान दिया जाना चाहिए। उन्होंने उम्मीद थी कि किसी दिन ऐसा होगा जब अंग्रेजी की तरह हिन्दी भी विश्व भाषा बनेगी। सन् 1939 में काशी में पुन: आयोजित 18 वें हिन्दी साहित्य सम्मेलन में भारतीय संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में अभिहित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया।

हिंदी भाषा की गरिमा को स्थापित करने के लिए मालवीय जी परम्पराओं को तोड़ने में भी अग्रणी रहे | इतिहासकारों ने मालवीय जी के इस योगदान का उल्लेख करना उचित नहीं समझा कि जो भाषा राष्ट्रीय चेतना और अस्मिता का पर्याय बन चुकी थी, उस भाषा के साहित्य के अध्ययन एक विषय के रूप में मान्यता भारत के वि‍श्वविद्यालयों में प्राप्त नहीं थी, जिसे मालवीय जी ने बनारस हि‍न्दू‍ वि‍श्वविद्यालय में हि‍न्दी को सर्वप्रथम एक वि‍षय के रूप में अध्ययन को मान्यता दी। 1937-38 में मालवीय जी को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दीक्षांत भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया था। विश्वविद्यालय के इतिहास में अभी तक दीक्षांत भाषण अंग्रेजी में ही दिए जाने की परंपरा रही। लेकिन मालवीय जी ने उस परंपरा को तोड़ हिंदी में भाषण देकर देशभक्ति का अनूठा उदाहरण पेश किया। भाषण देते समय ‘सर स्पीक इन इंगलिश, वी कांट फॉलो योर हिंदी जैसे ही श्रोताओं के बीच से यह आवाज गूंजी तो पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने जवाब दिया महाशय, मुझे भी अंग्रेजी बोलना आता है। शायद हिंदी की अपेक्षा मैं अंग्रेजी में अपनी बात अधिक अच्छे ढंग से कह सकता हूँ लेकिन मैं एक पुरानी अस्वस्थ परंपरा को तोड़ना चाहता हूँ | उनकी हिंदी के प्रति संवदेनशीलता और संघर्ष से ज्ञात होता है कि आजादी के बाद कोई दूसरा महामना नहीं हुआ, जो हिंदी को देश में बाध्यकारी भाषा बना दे।
यही नहीं शिक्षा के माध्यम के प्रश्न पर अंग्रेजों ने जब सन् 1882 ई्. में शि‍क्षा कमीशन का गठन किया तो इस आयोग में साक्ष्‍य के लिए पंडित मदनमोहन मालवीय तथा भारतेन्‍दु हरि‍श्‍चन्‍द्र चुने गए थे। भारतेन्‍दु  अस्‍वस्‍थता के कारण आयोग के सम्‍मुख उपस्‍थि‍त  नहीं हो पाये। परन्‍तु महामना आयोग के सामने उपस्‍थि‍त होकर इस बात पर जोर दि‍या था कि‍ शि‍क्षा हि‍न्‍दी भाषा में हो।

सनातन धर्म व हिन्दू संस्कृति की रक्षा और संवर्धन में मालवीयजी का योगदान अनन्य है। हिंदू समाज और भारत की प्राचीन सभ्यता तथा विविध विधाओं एवं कला की रक्षा के लिए मालवीयजी ने विशेष कार्य किया। वे  सनातन संस्कृति को पुनर्स्थापित होते देखना चाहते थे | 1923 और 1936 में वे दो बार हिंदू महासभा के प्रधान चुने गए। उनका कहना था मैं चाहता हूं कि भारत के गांव-गांव में हिंदू सभाएं स्थापित हों और हिंदुओं के शक्तिशाली संगठन हों|  लेकिन उनका हिंदुत्व संकीर्ण परिधि में सीमित नहीं था। उन्होंने एक संस्था की स्थापना की थी जिसका काम उन अस्पृश्यों को हिंदू धर्म में दीक्षित करना था, जिन्हें ईसाई मिशनरियों ने ईसाई बना दिया था। मालवीय जी में देश के विविध धर्मावलम्बियों की अनेकता को एकता के सूत्र में बांधने की अद्भुत शक्ति थी | उनके धर्म सम्मेलनों में हिन्दू के साथ ही मुसलमान और इसाई भी समान रूप से भाग लेते थे | देश के विविध धर्मावलम्बियों को वे राष्ट्रीयता के नाम पर संगठित करना चाहते थे |

मदनमोहन मालवीय के अनुसार राष्ट्रीयता और धार्मिक सहिष्णुता में कोई विरोध नहीं है | यह केवल हिन्दुओं का देश नहीं है। हिन्दुस्तान जैसे हिन्दुओं का प्यारा जन्म स्थान है, वैसे ही मुसलमानों का भी है। यह दोनों जातियां यहां बसती हैं और बसती रहेंगी। जितनी ही इन दोनों में परस्पर मेल और एकता बढ़ेगी, उतनी ही देश की उन्नति में हमारी शक्ति बढ़ेगी और इनमें जितना बैर या विरोध या अनेकता रहेगी, हम उतने ही दुर्बल होंगे। धर्म का देशभक्ति से अन्योन्याश्रित संबंध है। धर्म का परिष्कृत स्वरूप देशभक्ति में परिलक्षित होता है। यही देशभक्ति जन-जन में करुणा के रूप में परिप्लावित होती है। आज जबकि विगत कई वर्षों से सत्ता-सुख की मलाई का भोग करने वाले एवं तुष्टिकरण को धर्मनिरपेक्षता का पर्याय मानने वाले नेता और विदेशी फंडों से पोषित कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी राष्ट्रीयता की भावना को साम्प्रदायिक और तानाशाही घोषित करने लगे है, कुछ मीडिया चैनल राष्ट्रीयता के नाम से ही अपना स्क्रीन काला करने लगे है, राष्ट्रवादी होना तथाकथित वामपंथी वैचारिक विमर्श में अपराध घोषित किया जाने लगा है, देश को टुकड़े टुकड़े करने के नारे को कुछ सिरफिरे युवाओं की नजर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समझा जाने लगा है, अपनी आतंकी करतूतों से देश का खून बहाने वाले आतंकियों को फांसी दिए जाने के फैसलों को मानवाधिकार का हनन घोषित करने लगे है,  ऐसे समय में पंडित मदन मोहन मालवीय के विचार बेहद प्रासंगिक हो जाते है। ‘अभ्युदय’ में ‘राष्ट्रीयता और देशभक्ति’ शीर्षक से अपनी संपादकीय टिप्पणी में ‘राष्ट्रीयता’ को समझाते हुए मालवीयजी कहते है कि राष्ट्रीयता उस भाव का नाम है जो कि देश के सम्पूर्ण निवासियों के हृदयों में देश-हित की लालसा के साथ व्याप रहा हो’ जिसके आगे अन्य भावों की श्रेणी नीची ही रहती हो| वे राष्ट्रीयता की भावना को एक विराट भावना मानते है जो हमें केवल राष्ट्रभक्ति का नारा बुलंद करने की नहीं बल्कि सदैव राष्ट्रहित में चिंतन करने की प्रेरणा देने, देशहित में जीने और समाज-हित में योगदान करने की शक्ति और प्रेरणा प्रदान करती है। मौजूदा दौर में शिक्षण संस्थानों में राष्ट्रीयता की भावना के विरुद्ध जिस तरह से घृणा, तनाव और विद्वेष का माहौल बनाकर पूरे देश में जातीय एवं साम्प्रदयिक तनाव और क्षेत्रीय विभेद पैदा करने की कोशिश की जा रही है, ऐसे समय में मालवीय जी का चिंतन एक समरसता पूर्ण मार्ग प्रशस्त करता है |


मालवीय जी के जीते जी भारत स्वाधीन नहीं हो सका जबकि वे भारत को स्वाधीन होते देखना चाहते थे| उनकी इस अदम्य जिजीविषा के कायल महात्मा गाँधी भी थे | मालवीय जी वृद्धावस्था में जब अपने जीवन के अंतिम क्षणों में थे, तब महात्मा गाँधी उनसे मिलने गए थे और उन्होंने मालवीय जी से आग्रह किया कि-आप देश की चिंता कब छोड़ेगे.......आप मेरे ऊपर जो भार छोड़ना चाहते हो, छोड़ दो | लेकिन जब आप चिंता छोड़ दें तब अपनी शक्ति मुझे दे दें|  यह वही अदम्य शक्ति थी जिसके कारण उनके व्यक्तित्व में प्रगतिशीलता, राष्ट्रीयता और सृजनशीलता का अद्भुत संगम संभव हो सका था | उन्होंने जो कुछ भी किया, उसके मूल में केवल सेवा भावना समाहित हुआ करती थी | उन्होंने पाश्चात्य आधुनिक विचारों और व्यवहारों को भारतीय देश-काल की परिधि में और भारतीय सांस्कृतिक सांचे में ढ़ालकर ही अपनाया |