हिंदी आलोचना-विविध वाद
2.3.1
हिंदी आलोचना के विविध वादों का विकास क्रम
हिंदी आलोचना अपने आरम्भ से ही पाश्चात्य समीक्षा के मूल्यों,
वादों और अवधारणाओं के साथ संवाद स्थापित करते हुए स्वरूप एवं आकार ग्रहण करती है
| सर्वप्रथम हिंदी साहित्य की मुक्तिकामी चेतना के अनुकूल हिंदी आलोचना भी संस्कृत
काव्यशास्त्र की आधार-भूमि से जुड़कर भी स्वाभाविक रूप से रीतिवाद, साम्राज्यवाद,
सामंतवाद और अभिजात्यवाद विरोधी और स्वच्छंदताकामी मार्ग पर अग्रसर हुई | भारतेंदु
काल से आचार्य शुक्ल की अलोचनाशीलता तक प्रौढ़ता प्राप्त करने तक हिंदी आलोचना ने
हिंदी साहित्य की प्रकृति और संवेदना के अनुकूल पाश्चात्य साहित्यशास्त्र की कतिपय
मान्यताओं को आत्मसात किया | छायावादी साहित्य आन्दोलन के साथ ही हिंदी आलोचना के
विकास क्रम में स्वच्छंदतावाद का स्वाभविक प्रवेश हुआ| आचार्य शुक्ल की आलोचना
दृष्टि और स्वच्छंदतावादी आलोचना में काफी समानता थी| लेकिन स्वच्छंदतावादी आलोचना
की विशुद्ध वैयक्तिकता
और आत्मपरकता हिंदी आलोचना में लंबे समय तक स्थान नहीं पा सकी और इसकी प्रतिक्रिया
स्वरूप हिंदी आलोचना में मार्क्सवादी मान्यताओं से पोषित
प्रगतिशील या यथार्थवादी आलोचना ने अपनी पैठ बनायीं| सन 1936 में प्रगतिशील लेखक
संघ की स्थापना के साथ ही मार्क्सवाद विचारधारा के प्रभाव से हिंदी साहित्य और
आलोचना के प्रतिमानों में युगांतकारी परिवर्तन हुआ| साहित्य को
आत्मभिव्यक्ति की परिधि से निकालकर मार्क्सवाद और यथार्थवाद ने उसका संबंध फिर से
बाह्य जगत और मानवीय एवं सामाजिक सरोकारों से जोड़ा |
मार्क्सवाद के प्रभाव से हिंदी आलोचना आज सभ्यता समीक्षा का रूप धारण कर सकी है|
मार्क्सवाद के साथ ही लेकिन थोड़े दबे कदमों के साथ हिंदी आलोचना में
मनोविश्लेषणवाद की भी दस्तक हुई| मनोविश्लेषणवादी आलोचना के प्रभाव से मनोविश्लेषण के
सिद्धांतों के आधार हिंदी आलोचना में सूक्ष्मता मानस विश्लेषण होने लगा| लेकिन रचनाओं के कथ्य और रूप विश्लेषण में यह पद्धति
सहायक होते हुए भी साहित्यशास्त्र को प्रभावित नहीं कर सकी | आज़ादी
के बाद आधुनिकतावाद और उत्तर-संरचनावाद ने हिंदी आलोचना को तेजी से बदलते जीवन
सन्दर्भों हिंदी आलोचना को दिशा प्रदान की| आधुनिकतावाद के प्रभाव से हिंदी आलोचना
नयी भाषा, नयी
संरचना, पुराने
प्रचलित शब्दों के नए अर्थ, नयी
साहित्यिक पदावली की तलाश की ओर अग्रसर हुई | आज़ादी के बाद हिंदी साहित्य के
लगातार और तेजी बदलते स्वरूप के कारण हिंदी आलोचना में ऐसा बदलाव आवश्यक था |
लेकिन नवीनता के फैशन से मुक्त होते हुए यथार्थ पर पांव जमाये रखा | आधुनिकतावाद
के साथ ही अस्तित्ववाद ने भी हिंदी आलोचना में जगह बनायी और व्यक्ति और उसकी
अस्मिता को साहित्य और आलोचना के केंद्र में स्थापित कर दिया| आधुनिकतावाद की
प्रतिक्रिया में उत्तर आधुनिकतावाद के उदय के साथ ही संरचनावाद और उत्तर संरचनावाद
से हिंदी आलोचना प्रभावित हुई लेकिन पाश्चात्य की तरह हिंदी आलोचना में इस तरह का
कोई वाद नहीं चल सका |
2.3.2
स्वच्छंदतावाद
‘स्वच्छंदतावाद
में रचनाकार किसी भी वाद या विचारधारा या सिद्धांत से मुक्त होकर अपने निजी
विचारों से संचालित होता है| ‘रोमांटिसिज्म’ अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान
लगभग सम्पूर्ण यूरोपीय कला जगत, विशेषकर साहित्य में, के क्षेत्र में एक ऐसा
आन्दोलन है जिसका उदय प्रायः ‘क्लासिसिज्म’ अथवा ‘अभिजात्यवाद’ की निर्जीव और रूढ़
होती कला-पद्धतियों की प्रतिक्रिया में हुआ | इसमें वैयक्तिक प्रतिभा और कल्पना से
प्रेरित मौलिक रचनात्मकता, रचनाकार की स्वतंत्रता के अधिकार और नए प्रयोगों पर बल
दिया गया | हिंदी में छायावाद के अभ्युदय के साथ ही आलोचना के क्षेत्र में
स्वच्छंदतावादी प्रवृतियाँ उभरने लगी थी | हिंदी में ‘स्वच्छंदतावाद’ का प्रयोग
पाश्चात्य साहित्य चिंतन के ‘रोमांटिसिज्म’ के लिए किया जाता है|
साहित्य
और कलाओं के प्रति इस ‘स्वच्छंदतावादी’ दृष्टिकोण को प्रेरित करने वाली महत्वपूर्ण
राजनीतिक घटना फ़्रांस की जन-क्रांति है| इस क्रांति में ज्यां ज़ाक रूसो ने
‘स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ का नारा देकर व्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग की|
यह बंधनों से मुक्ति का आन्दोलन है| इसलिए स्वच्छंदतावाद किसी बंधे-बंधाये ढाँचे
में नहीं बल्कि नाना रूपों में प्रकट हुआ| स्वच्छंदतावाद की प्रवृतियाँ और
विशेषताएं वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, शेली, कीट्स और बायरन की कविताओं में अभिव्यक्त हुई
है| वर्ड्सवर्थ ने कविता को ‘प्रबल मनोवेगों का सहज उच्छलन’ कहकर भाव-प्रवणता पर
विशेष बल दिया| लेकिन यह भावोच्छलन अनुशासनहीन नहीं होता है बल्कि इसके पीछे
सूक्ष्म संवेदनशीलता का आग्रह है जो कल्पना से युक्त होकर रचनाकार की आंतरिक
अनुभूति को ईमानदारी से उदघाटित करती है |
भाव-प्रवणता
के प्रभाव से स्वच्छंदतावादी आलोचना में वैयक्तिकता, आत्म सृजन, कल्पनाशीलता और
स्वानुभूति को एक मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है| कॉलरिज ने कवि-कल्पना के
महत्त्व को स्थापित करते हुए इसे सृजनकारिणी ‘आदि शक्ति’ तथा मस्तिष्क की सबसे
अधिक प्राणवान क्रिया का दर्जा दिया | इसलिए स्वच्छंदतावादी आलोचना में रचनाकार की
अंतर्वृतियों का अध्ययन अनिवार्य माना गया हैं| इसके अतिरिक्त जड़ता, कृत्रिमता,
रुढियों तथा अप्रासंगिक होती हुई लेखन परम्पराओं से विद्रोह स्वच्छंदतावाद की
मूलभूत विशेषता है| विषय वस्तु के स्तर पर स्वच्छंदतावादी आलोचकों ने उदात्त
चरित्रों की गाथा के स्थान पर साधारण मानव के सामान्य अनुभवों, सांस्कृतिक मूल्यों
तथा अपने परिवेश को महत्त्व दिया| शैली और शिल्प की प्रयोगशीलता और वैविध्यता
व्यक्ति-स्वातंत्र्य का ही एक रूप है जिसकी गुंजाइश अभिजात्यवादी अनुशासन में नहीं
थी| भाषा के स्तर पर स्वच्छंदतावादी रचनाकारों ने सूक्ष्म अर्थच्छायाओं को उदघाटित
और भाव-सम्प्रेषण के लिए सहज और जनभाषा के प्रयोग को आवश्यक ठहराया| स्वच्छंदतावादी
आलोचना का दृष्टिकोण पूरी तरह से रसवादी है और रस में वे मानवतावादी यथार्थ को महत्व
देते है| सौन्दर्य चेतना भी स्वच्छंदतावादी चेतना का मूल तत्व है| प्रकृति
के एकाधिक रूपों के उन्मुक्त सौन्दर्य के प्रति उनका आकर्षण सहज था|
स्वच्छंदतावाद
की लोकप्रियता और व्यापकता के प्रमुख कारक ही उसके अवसान के लिए भी जिम्मेदार रहे
हैं | वैयक्तिकता और आत्मपरकता के कारण रचनाकार विशुद्ध रूप से आत्मकेंद्रित होकर
वस्तु जगत के प्रति उदासीन होता गया और परिवेश के प्रति उसका जुडाव कम होता गया|
हिंदी साहित्य का छायावादी आन्दोलन भी ‘नाना अर्थभूमियों के
संकोच’ के कारण अल्पकालिक साबित हुआ|
2.3.3
मार्क्सवाद और यथार्थवाद
मार्क्सवादी
आलोचना का आधार मार्क्स-एंगेल्स द्वारा प्रवर्तित मार्क्सवादी सिद्धांत और
विचारधारा है जिसमें वर्ग-संघर्ष, द्वंद्वात्मक एवं ऐतिहासिक भौतिकवाद तथा सामाजिक
यथार्थवाद पर मुख्यतः बल दिया गया है| यह समाज को वर्गीय दृष्टिकोण से देखने के आग्रही
है और शोषण की पूंजीवादी अधिरचना पर चोट करता है| प्रारंभिक दौर में
मार्क्स-एंगेल्स की उक्तियों और टिप्पणियों से मार्क्सवादी आलोचना का संकेत मिलता
है| लेकिन इसे विकसित और पल्लवित करने में प्लेखानोव, लेनिन, गोर्की, क्रिस्टोफर
कॉडवेल, जार्ज लुकाच, रॉल्फ फाक्स, वाल्टर बेंजामिन, लु-शुन और ग्राम्सी जैसे
रचनकारों और आलोचकों का अहम योगदान है| यह समाज, उसके
इतिहास और प्राकृतिक घटनाओं का विश्लेषण द्वंद्वात्मक रूप से और भौतिकवादी विकास
के आधार पर करता है | इसलिए इसे ऐतिहासिक भौतिकवाद भी कहा जाता है | यह साहित्य
में यथार्थवाद पर सबसे अधिक जोर देता है|
यथार्थवाद
के अनुसार, साहित्य और कला का उद्देश्य वास्तविक जीवन और जगत के तथ्यों को
निष्पक्ष होकर निर्वैयक्तिक भाव से प्रस्तुत करना है| इस कारण समकालीन जीवन,
परिवेश, समस्याएं और स्थितियाँ ही यथार्थवादी लेखन की विषय-वस्तु हैं| यथार्थवादी
दृष्टि की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति उपन्यासों में हुई है | यथार्थवाद लेखन का
उद्देश्य पाठकों का मनोरंजन करना नहीं मानता है बल्कि समकालीन समाज की यथार्थ छवि
को सामने रखकर उन्हें सोचने के लिए बाध्य करना है | मार्क्स और एंगेल्स साहित्य और
कला में एक प्रवृति और एक कलात्मक सृजन की विधि के रूप में यथार्थवाद को विश्व कला
की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते है | मार्क्सवादी आलोचना ने किसी कलाकृति में यथार्थ के
सबसे सटीक चित्रण पर ध्यान केन्द्रित किया लेकिन यह चित्र यथार्थ की
नक़ल मात्र नहीं है बल्कि सच्चाई का पुनःसृजन है| समाज के गतिशील
यथार्थ का अंकन, सामाजिक अंतर्विरोधों और अन्तःसंबंधों की व्याख्या और
परिवर्तनकारी प्रगतिशील शक्तियों के साथ साहित्यकारों को जोड़ना, साहित्य रूपों की भूमिका
को युगीन परिस्थितियों में अधिक प्रासंगिक बनाना और जनवादी संस्कृति एवं स्वस्थ
जीवन-मूल्यों को बढ़ावा देना मार्क्सवादी आलोचना की प्रमुख विशेषता है|
मार्क्सवादी
आलोचना उन सभी आलोचना पद्धति से अलग है जो साहित्य या कलाकृति की स्वायत्तता पर जो
देती है| यह मूलतः सामाजिक और ऐतिहासिक दृष्टि है| मार्क्सवादी आलोचक कला को
सम्पूर्ण सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाओं और उसके विकास का अंग मानते है| वे कला को
उसके ऐतिहासिक ढांचें में रखकर देखते हैं| मार्क्सवादी आलोचना साहित्य के आलोचक और
साहित्यिक इतिहासकार के बीच पार्थक्य को समाप्त कर देती है|
मार्क्सवादी
आलोचना वस्तु-आधारित आलोचना है जो ‘वस्तु’ और ‘रूप’ के द्वैत को स्वीकार करती है
और ‘वस्तु’ को मूल सामाजिक तत्व के रूप में ग्रहण करती है | लेकिन भारतीय
मार्क्सवादी समीक्षकों ने आलोचना में रूप पक्ष को समान महत्व दिया है | नामवर सिंह
जैसे मार्क्सवादी समीक्षक ने नयी कविता के रूप पक्ष पर विस्तार से विवेचन किया है
|
मार्क्सवादी
आलोचना में विचारधारा को अत्यान्तिक महत्त्व प्राप्त है | इसके अनुसार कोई भी बड़ी
साहित्यिक कृति अपने समय की प्रभुत्वशाली विचारधारा को केवल प्रतिबिंबित ही नहीं
करती बल्कि उसे चुनौती देती है और उससे संघर्ष भी करती है |
हिंदी
में मार्क्सवादी चिंतन की शुरुआत 1936 में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के प्रथम अधिवेशन
से हुई, जिसमें प्रेमचंद ने साहित्य को जीवन की आलोचना और देश-काल का प्रतिबिंब
कहा | लेकिन हिंदी में इसे एक भिन्न संज्ञा ‘प्रगतिशील आलोचना’ दी गई | शिवदान
सिंह चौहान, प्रकाश चन्द्र गुप्त, रामविलास शर्मा, यशपाल, अमृत राय, रांगेय राघव, नामवर
सिंह, शिवकुमार मिश्र, रमेश कुंतल मेघ, विश्वनाथ त्रिपाठी और मैनेजर पाण्डेय
प्रमुख मार्क्सवादी आलोचक है| इन्होने इतिहास और परम्परा, रचना की अंतर्भूमियों की
पहचान, वस्तु और रूप विधान के संबंध की पड़ताल, युग के यथार्थ चित्रण और रचनाकार की
प्रतिभा के अन्तःसंबंधों की छानबीन, सामन्तवाद-पूंजीवाद-साम्राज्यवाद एवं
अपसंस्कृति का विरोध- आदि विषयों पर वाद-विवाद और संवाद के माध्यम से विस्तार से
विचार किया है |
2.3.4
मनोविश्लेषणवाद
मनोविश्लेषणवाद का
उत्स फ्रायड, युंग और एडलर जैसे विचारकों की मनोविश्लेषणवादी सिद्धांत और
मान्यताएं हैं | इस आलोचना में साहित्यकार के अंतर्मन के द्वंद्व का वैज्ञानिक
अध्ययन किया जाता है | फ्रायड की मान्यता है कि समस्त कलाओं के मूल में दमित और
अतृप्त काम भावना होती है | हमारी कुंठाएं और अतृप्त वासनाएं जो उपचेतन या अवचेतन
में पड़ी होती है, कला या साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं | इसलिए कला यौन
भावना की विकृतियों से मुक्ति का साधन है| अतः रचनाकार के मन के सन्दर्भ में ही
रचना का विश्लेषण किया जा सकता है |
फ्रायड के अनुसार
सामाजिक निषेध काम-वृतियों की मुक्त अभिव्यक्ति को बाधित करते है | परिणामतः ये
वृतियां कुंठित और दमित होकर हमारे अवचेतन और अचेतन में निहित रहती है और अपनी
अभिव्यक्ति के अवसर खोजती है | कला इन्हें अवसर प्रदान करती हैं | इस प्रक्रिया
में मनुष्य के मानस में चेतन और अचेतन में द्वन्द्व चलता रहता है। इस प्रक्रिया
में अचेतन की इच्छाओं और वासनाओं का चेतन मानस द्वारा उदात्तीकरण होता है|
उदात्तीकरण से ग्रन्थियाँ खुलती हैं और कुण्ठायें दूर हो जाती हैं। इस उदात्तीकृत
क्रियाकलाप से सभ्यता का विकास और सांस्कृतिक मूल्यों का निर्माण होता है। कला और
साहित्य भी इसका एक रूप है।
फ्रायड के अनुसार
अवचेतन मन की दमित इच्छाएं फंतासी में अभिव्यक्ति पाती हैं | उनका मत है कि कोई भी
कला एक प्रकार से भ्रम का जाल बुनकर हमें यथार्थ की असहनीयता और कटुता से मुक्ति
दिलाती है | यह भ्रम रम्य कल्पना फंतासी निर्मित करती है | फ्रायड ने ‘अवचेतन सिद्धांत’
के बाद ‘स्वप्न सिद्धांत’ को भी व्यापक महत्त्व दिया| उनके अनुसार स्वप्न भी मानव
की दमित इच्छाओं की अभिव्यक्ति है| अतः स्वप्न हमें अवचेतन की महत्वपूर्ण सूचनाएं
देते हैं | युंग के मतानुसार स्वप्न अतीत-वर्तमान-भविष्य तीनों से संबंध होते है |
फ्रायड ने जीवन के
हर क्षेत्र के सभी प्रतीकों-मिथकों और कला-प्रयोजनों को ‘यौन भावना’ तक सीमित माना
है लेकिन दूसरे मनोविश्लेषणवादी युंग के अनुसार सृजनशील व्यक्ति एक ओर जीवन के
राग-विरागों से घिरा मानव होता है इसलिए वह मानसिक रुग्णता का शिकार हो सकता है तो
दूसरी ओर सृजनरत व्यक्ति के नाते निर्वैयक्तिक सृजन प्रक्रिया के प्रति पूर्ण
समर्पित कलाकार | एडलर भी यौनेतर कारणों-सामाजिक-सांस्कृतिक-परिवेशगत वातावरण-को
महत्व देते हैं |
मनोविश्लेषणवादी
आलोचना का सकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि रचनाओं और रचनाकारों से
नैतिकतावादी-पवित्रतावादी नियंत्रण समाप्त हो गया और साहित्य में यौन-भावनाओं का
खुलकर प्रयोग होने लगा | इसके प्रभाव से कविता-नाटक और कथा साहित्य में चरित्र
चित्रण, आद्य बिंबों, मिथकों और पुराणों के अध्ययन की नवीन दिशाएं खुलीं |
हिंदी आलोचना पर भी
फ्रायड, युंग और एडलर के मनोविश्लेषणवादी सिद्धांतों का गहरा प्रभाव देखने को
मिलता है| लेकिन किसी मूल्य दृष्टि के अभाव में इन सिद्धांतों को आलोचना मानदंड के
रूप में ग्रहण नहीं किया गया है| आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने
सैद्धांतिक-व्यावहारिक आलोचना में मनोविज्ञान का उपयोग किया है लेकिन वे फ्रायड आदि से प्रभावित नहीं थे |
मुक्तिबोध ने मनोविश्लेषण के आधार पर हिंदी आलोचना में फैंटेसी पर विचार किया है|
इसके आधार पर स्वप्न चित्रों के सृजन और उद्घाटन की प्रवृति बढ़ी है| डॉ. नगेन्द्र
और इलाचंद्र जोशी ने छायावाद के विश्लेषण में फ्रायड के सिद्धांतों का उपयोग किया
तो देवराज ने जैनेन्द्र के उपन्यासों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया | फिर
भी कुल मिलाकर रचनाओं के कथ्य और रूप विश्लेषण में यह पद्धति सहायक तो है लेकिन
किसी कला या साहित्य के उत्कर्ष-अपकर्ष का निर्णय नहीं कर पाता |
2.3.5
आधुनिकतावाद
आधुनिकता
एक ऐसी अवधारणा है जिसका संबंध परंपरागत एवं रूढिगत रीति रिवाजों के विरुद्ध नवीन
वैज्ञानिक अविष्कारों और विचारों, अन्वेषणों, नयी प्रवृतियों, मूल्यों, मानदंडों,
नयी संवेदनाओं और रूपगत प्रयोगों से है| ये परिवर्तन जब वैचारिक आन्दोलन के रूप
में परिणत हुआ तो इसे आधुनिकतावाद कहा जाता है| आधुनिकतावाद ने धर्म, अधिभौतिकता,
नैतिकता और प्रकृति से परे जाने की प्रवृति का खंडन किया और बुद्धिवाद, विज्ञान और
विकास का पर्याय बन गया | यह साहित्य और कला में भी नयी संवेदना, अभिव्यंजना के नए
रूपों, शैलियों और प्रयोगों का पर्याय बन गया |
साहित्य,
कला और अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में आधुनिकतावाद का प्रचलन बीसवी सदी के
पूर्वार्द्ध में हुआ लेकिन इसकी कई प्रवृतियों का कोई आदि और अंत निर्धारित नहीं
किया जा सकता है| हिंदी साहित्य में अधुनिकता और आधुनिकतावाद के प्रचलन में अंतर
किया गया है और हिंदी में 1940 के आसपास या द्वितीय विश्व युद्ध के अंत से उत्पन्न
नवीन संवेदना और नवीन चिंतन दृष्टि के साथ आधुनिकतावाद आन्दोलन अस्तित्व में आया |
इसके पूर्व भारतेंदु युग में रूढिबद्धता के विरुद्ध वैज्ञानिक और तर्कयुक्त
दृष्टिकोण के साथ आधुनिकता का उदय हुआ था|
आधुनिकतावाद
साहित्य में सामाजिक समस्याओं के स्थान पर व्यक्ति, उसकी वैयक्तिकता, यथार्थ बोध
के बजाय उसके आत्मबोध को प्रमुख मानता है| यह प्रत्येक विचार को संशय की दृष्टि से
देखता है, मूल्यों की स्थिरता में विश्वास नहीं करता है, अतीत से विमुख होकर
वर्तमान की शरण लेता है, प्रत्येक प्रचलित विचार और व्यवस्था यहाँ तक कि यथार्थवाद
का भी विरोध करता है और अनुभव की प्रमाणिकता पर बाल देता है, स्थायी अनुभवों के
बजाय क्षणिक अनुभवों को अभिव्यक्त करता है, हर प्रकार के सामाजिक, नैतिक और यौन
दमन के प्रति विद्रोह करता है |
आधुनिकतावादी
आलोचना के अनुसार साहित्य का अपना स्वायत्त संसार है, इसका कोई सामाजिक प्रयोजन
नहीं है| यह साहित्य और कला की किसी सामाजिक उपयोगिता को स्वीकार नहीं करता है | साहित्य
का आम आदमी से कोई संबंध नहीं| यह आलोचना साहित्य में वस्तु यथार्थ के ऊपर अनुभव
की प्रामाणिकता, परंपरा और शास्त्रीय नियमों के बजाय प्रयोग और नवीनता, सत्यता के
बजाय ईमानदारी और गतिशील मानव चेतना एवं व्यापकता से अधिक गहराई पर बल देती है|
प्रतिक्षण नवीन सृजन करने, कुछ अद्वितीय और विलक्षण प्रस्तुत करने के कारण प्रयोग
ही ध्येय बन जाता है | नयी भाषा, नयी संरचना, पुराने प्रचलित शब्दों के नए अर्थ,
नयी साहित्यिक पदावली की तलाश आधुनिकतावादी आलोचना की पहचान बन गयी| प्रसिद्ध
आधुनिकतावादी कवि ऐजरा पाउंड ने तो यहाँ तक कह दिया कि अच्छी कविता कभी भी बीस
वर्ष पुरानी शैली में नहीं लिखी जा सकती है |
आधुनिकतावादी
आलोचना के अनुसार साहित्यिक कृति में अन्विति, सुसंगता या युक्तिसंगत व्यवस्था की
कोई आवश्यकता नहीं है और कृतियों को पूर्णता की दृष्टि से नहीं, टुकड़ों-टुकड़ों में
विभाजित करके देखने की जरुरत है | आधुनिकतावाद एकाकीपन और अलगाव को साहित्य का
मुख्य सरोकार मानता है क्योंकि इसके अनुसार मनुष्य अपने सामाजिक परिवेश में नहीं
बल्कि परिवार में भी अकेलापन महसूस करता है | इसलिए आधुनिकतावाद व्यक्ति की जटिल
मानसिकता, उसकी ग्रंथियों और अछूती संवेदनाओं को प्रस्तुत करता है |
आधुनिकतावादी
आलोचना के अंतर्गत प्रतीकवाद, बिम्बवाद, अतियथार्थवाद, भविष्यवाद और
अन्ताश्चेतनावाद भी शामिल है |
अंत
में, निरंतर नवीनतम प्रयोग से आधुनिकतावादी आलोचना पर फैशन की प्रवृति हावी हो
जाती है और ऐसी आलोचना साहित्य और कलाओं का गला घोंट देती है| प्रगतिवादी आलोचकों
ने इसे रुग्ण मानसिकता की अभिव्यक्ति माना है| हिंदी आलोचना में आधुनिकतावादी और
प्रगतिवादी आलोचकों के वैचारिक द्वंद्व से ही नई कविता में प्रगति और प्रयोग का एक
समन्वित रूप उपजा जो अंततः उसके वैशिष्ट्य का कारण बना |
2.3.6
उत्तर संरचनावाद
उत्तर संरचनावाद का जन्म संरचनावाद की प्रतिक्रिया में
सन् 1966 में फ्रांस के दर्शनिक और भाषा वैज्ञानिक ज़ाक देरिदा के एक
व्याख्यान से हुआ| संरचनावाद के अनुसार भाषा अविकल संकेतों (Signs) का
एक ऐसा तंत्र है, जिसमें संकेत यानी शब्द आपसी अंतर से अर्थग्रहण करते
हैं। वे शब्द संकेत अपने अर्थ के लिए एक दूसरे पर निर्भर हैं, स्वयं
का कोई अर्थ या अस्तित्व नहीं रखते। जबकि देरिदा ने इससे उलट अपना उत्तर संरचनावाद
प्रस्तुत करते हुए स्पष्ट कहा कि वास्तव में न तो अर्थ कभी उत्पन्न होता हे,
न कभी हम अर्थ को ग्रहण कर पाते हैं। जिसे हम ‘अर्थ’
समझते हैं, वह तो एक ‘संकेत’ के
स्थान पर दूसरा ‘संकेत’ होता है, मगर वह अर्थ नहीं होता, जिसे
हम चाहते हैं या तलाशते हैं। ‘अर्थ’ के लिए कोई बंद
प्रणाली नहीं है | वह तो संकेतकों की पूरी श्रृंखला में फैला और बिखरा
पड़ा है| उस अर्थ को दीवार में ठुकी कील की तरह स्थिर नहीं किया जा सकता | कोई भी
शब्द संकेत न किसी शाश्वत वस्तु का संकेतक होता है न किसी मूल्य का सूचक। संकेत या
चिह्न की अर्थवत्ता संदर्भ में निहित होती है। भारत में नैयायिक दर्शन इसी
निष्कर्ष पर पहुँचा था कि शब्द विशेष का विशेष-विशेष अर्थ संकेत के रूप में ही
संभव हो पाता है।
संरचनावाद के विपरीत उत्तर संरचनावाद उच्चरित शब्द की
अपेक्षा ‘लेखन’ (Writing) पर अपना विश्लेषण कायम करता है।
देरिदा के अनुसार किसी भी कथन या विमर्श का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता। वास्तव
में जिन विचारकों ने उत्तर आधुनिकतावाद को विकसित पल्लवित किया है, वे
ही उत्तर संरचनावाद के विकास के लिए भी उत्तरदायी हैं। उत्तर आधुनिकता का मूल
मंत्र यह है कि कहीं कोई चीज स्थायी नहीं, सब कुछ अनिश्चित है| उत्तर
संरचनावाद भी इसी का पोषण करता प्रतीत होता है।
देरिदा ने आद्यलेखन (Arch writing) की परिकल्पना की जो ऐसे चिह्नों (Traces) से
संपृक्त होता है, जिनसे
अनुपस्थित (अर्थ) की तलाश की जाती है। यही पाठक या आलोचक की चेतना को गति
देता है। गतिशीलता किस दिशा में, कहाँ जाकर सार्थक होगी, कुछ भी निश्चित नहीं। इस
तरह अनुपस्थित लेखन ही आद्य लेखन है और साहित्य आद्य लेखन की अभिव्यक्ति है।
देरिदा की अवधारणा से साहित्य, कविता,
कला व आलोचना आदि में इस तरह असंख्य निर्वचनों (Discourses) का
अंबार लग जाता है| देरिदा के अनुसार काव्य का आकार या पाठ महत्वपूर्ण नहीं होते, उसमें से व्यक्त होनेवाले
अर्थों को, संदर्भों
को उजागर करना महत्वपूर्ण होता है। देरिदा का मानना है कि शब्द का
अर्थ कहीं भी भाषा के अन्वय में वर्तमान नहीं होता । अर्थ हमेशा फिसलता है, उसमें फिसलन रहती है । जो
विचार बनते हैं या बने हुए है उनमे कमियां होती है, इसी कारण अन्य विचारों का उदय होता है । देरिदा का मानना है
कि किसी ‘पाठ’ में मौजूद अर्थ को निश्चित, पक्का और पूरा नहीं मानना
चाहिए। हर शब्द, हर
वाक्य, हर रचना
अनेक निर्वचनों या तात्पर्यों का अंतहीन भंडार है। किसी शब्द का अंत्य अर्थ नहीं
होता बल्कि शब्द से शब्द तक पहुँचने की प्रक्रिया मात्र होती है। जैसे ’समुद्र’ शब्द समुद्र की भयावहता और
गंभीरता को नहीं व्यक्त कर पाता। उसके स्थान पर मात्र एक शब्द ही दे पाता है, अंत्य अर्थ नहीं देता। जो
जैसा पढे, वह
अपना मनचाहा अर्थ निकालता रहे| इसे ही ‘विखंडनवाद’ कहा गया जो
प्रत्येक निश्चितता का खंडन करता है | अर्थ का न तो 'पद'
से स्थायी संबंध है और न 'पदार्थ' (वस्तु) से| इसलिए
विखंडनवाद ‘साहित्यिक
आतंकवाद’ में बदल
जाता है। जैक देरिदा का सामाजिक दायित्व से रहित यह सिद्धान्त विश्व की सम्पूर्ण
अतीत, वर्तमान
और भविष्य की साहित्य रचना विरासत को ध्वस्त कर उसका प्राण हरण करने वाला सिद्धान्त
है। इसके लिए परम्परा, संस्कार
और साहित्यिक सौंदर्य, सामाजिक
उपादेयता आदि ‘फालतू
बातें’ है।
मिशेल फूको ने देरिदा के उत्तर संरचनावाद के ध्वंसकारी
रूप का सुधार करते हुए शब्द का अर्थ तलाशने के बजाय उसके विमर्श पर जोर दिया ।
फूको के अनुसार ‘विमर्श’ मानव मस्तिष्क की केन्द्रीय
गतिविधि है। वह इस विडम्बना को रेखांकित करता है कि कोई भी सिद्धान्त उस समय तक
स्वीकृत नहीं होता, जब
तक वह अपने युग के राजनीतिक और बौद्धिक सत्ता केन्द्रों में सामंजस्य स्थापित नहीं
कर लेता।
निष्कर्षतः हम कह सकते है कि हिंदी साहित्य की
मुक्तिकामी चेतना के अनुकूल हिंदी आलोचना भी संस्कृत काव्यशास्त्र की आधार-भूमि पर
पांव जमाते हुए स्वाभाविक रूप से रीतिवाद, साम्राज्यवाद, सामंतवाद और अभिजात्यवाद
विरोधी और स्वच्छंदताकामी मार्ग पर अग्रसर हुई | अतः स्वच्छंदतावाद हिंदी आलोचना
के विकास क्रम का पहला स्वाभाविक पड़ाव है| इसके बाद मार्क्सवादी मान्यताओं से
पोषित प्रगतिशील या यथार्थवादी आलोचना ने हिंदी आलोचना को अतिशय अमूर्तता, घोर
आत्मपरकता और कपोल-कल्पना के घेरे से बाहर निकलने में अहम भूमिका निभायी| मनोविश्लेषणवादी
आलोचना से हिंदी आलोचना में सूक्ष्मता मानस विश्लेषण होने लगा| आज़ादी के बाद
आधुनिकतावाद और उत्तर-संरचनावाद ने हिंदी आलोचना को तेजी से बदलते जीवन सन्दर्भों
हिंदी आलोचना को दिशा प्रदान की |
प्रशंसनीय
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