प्रपद्यवाद को नकेनवाद भी कहा जाता है | प्रपद्यवादी कविताओं का पहला संकलन ‘नकेन के प्रपद्य’ शीर्षक से १९५६ में प्रकाशित हुआ | जिसमें नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और नरेश की कविताएँ संकलित थीं | नकेन इन तीनों कवियों के नामों के प्रथमाक्षरों को मिलाने से बना था | इसलिए इनकी कविताएँ प्रपद्यवाद और नकेनवाद दोनों नामों से पुकारी जाती हैं | पद्य में ‘प्र’ उपसर्ग लगाने से प्रपद्य बना है जिसका अर्थ किया गया है- प्रयोगवादी पद्य | प्रपद्यवादी अपने को वास्तविक प्रयोगवादी और अज्ञेय आदि को प्रयोगशील कवि मानते थे | प्रपद्यवादियों के अनुसार प्रयोग उनका साध्य है, जबकि अज्ञेय आदि के लिए साधन | प्रपद्यवाद छायावाद की तरह कोई स्वतःस्फूर्त आन्दोलन नहीं था | यह एक संगठित और सुविचारित काव्यान्दोलन था | यह संगठन मात्र तीन कवियों का था और ये तीनों कवि एक ही नगर पटना में रहते थे | तीनों सुशिक्षित थे और देश-विदेश के काव्यान्दोलनों के गहरे अध्येता थे | उन्होंने प्रपद्यवाद नाम से जिस काव्यान्दोलन का सूत्रपात किया उसका एक-एक शब्द और सिद्धांत सुविचारित था | वे सचेत ढंग से हिंदी कविता को अपनी प्रपद्यवादी कविताओं के जरिए विश्व कविता के बौद्धिक धरातल तक ले जाना चाहते थे | वे कविता में भावुकता के विरोधी थे और उसमें बौद्धिकता तथा वैज्ञानिकता के योग से नयापन पैदा करने के पक्षधर थे | नलिन विलोचन शर्मा ने विनोद-भाव से एक द्विपदी लिखी थी जो प्रपद्यवादी कविता के नए मिजाज की सूचना देती थी-
दिल तो अब बेकार हुआ जो कुछ है सो ब्रेन,
गाय हुई बकेन है, कविता हुई नकेन |
तात्पर्य यह कि
कविता बौद्धिक रूप से सघन और गाढ़ी होनी चाहिए, उसमें भावुकता की मिलावट बिलकुल नहीं
होनी चाहिए |
प्रपद्यवाद या नकेनवाद आलोचकों की दी हुई संज्ञा नहीं है | ये दोनों नाम तीनों कवियों द्वारा अपने लिए अपनाए गए नाम
हैं | ‘नकेन के प्रपद्य’ नामक काव्य संकलन में प्रपद्यवाद के सिद्धांत-सूत्रों की
घोषणा ‘प्रपद्य द्वादश सूत्री’ शीर्षक से की गई है | यह ‘प्रपद्य द्वादश सूत्री’ उन कवियों के अनुसार ‘प्रपद्यवाद के घोषणापत्र का प्रारूप’ है | प्रपद्यवादी कविताओं को
समझने के लिए इन सिद्धांत-सूत्रों को समझना आवश्यक है | ये सिद्धांत-सूत्र हैं-
1. प्रपद्यवाद भाव और
व्यंजना का स्थापत्य है |
२. प्रपद्यवाद सर्वतंत्र- स्वतंत्र है, उसके लिए शास्त्र या दल निर्धारित अनुपयुक्त है |
३. प्रपद्यवाद महान पूर्ववर्तियों की परिपाटियों को भी निष्प्राण मानता है |
४. प्रपद्यवाद दूसरों के अनुकरण की तरह अपना अनुकरण वर्जित मानता है |
५. प्रपद्यवाद को मुक्त काव्य नहीं, स्वच्छंद काव्य की स्थिति अभीष्ट है |
६. प्रयोगशील प्रयोग को साधन मानता है, प्रपद्यवादी साध्य |
७. प्रपद्यवाद की दृक्वाक्यपदीय प्रणाली है |
८. प्रपद्यवाद के लिए जीवन और कोष कच्चे माल की खान हैं |
९. प्रपद्यवादी प्रयुक्त प्रत्येक शब्द और छंद का स्वयं निर्माता है |
१०. प्रपद्यवाद दृष्टिकोण का अनुसन्धान है |
११. 11. प्रपद्यवाद
मानता है कि पद्य में उत्कृष्ट केन्द्रण होता है और यही गद्य और पद्य में अंतर है | १२. प्रपद्यवाद
मानता है कि चीजों का एकमात्र सही नाम होता है |
बाद में ‘नकेन- २’ का जब प्रकाशन हुआ तो
द्वादश सूत्रों के साथ छः और सूत्र जोड़कर ‘प्रपद्य अष्टादश सूत्री’ की घोषणा की गई | बाद में जोड़े गए
सूत्र थे-
१३. प्रपद्यवाद आयाम की खोज है और अभिनिष्क्रमण भी, ठीक वैसे,
जैसे वह भाव और
व्यंजना का स्थापत्य है और उससे अभिनिष्क्रमण भी |
१४. प्रपद्यवाद चित्रेतना है |
१५. प्रपद्यवाद मिथक का संयोजक नहीं, स्रष्टा है |
१६. प्रपद्यवाद बिम्ब का काव्य नहीं, काव्य का बिम्ब है |
१७. प्रपद्यवाद सम्पूर्ण अनुभव है |
१८. प्रपद्यवाद अविभक्त काव्य-रुचि है |
इन अठारह सूत्रों के अलावा ‘नकेन के प्रपद्य’ में ‘पसपशा’ शीर्षक से केसरी कुमार ने प्रपद्यवाद की व्याख्या की | उन्होंने लिखा है- “प्रपद्यवाद प्रयोग का दर्शन है .......प्रयोग के वाद से
तात्पर्य यह है कि वह भाव और भाषा,
विचार और
अभिव्यक्ति, आवेश और आत्मप्रेषण, तत्व और रूप,
इनमें से कई में
या सभी में प्रयोग को अपेक्षित मानता है |” इस कथन के साथ केसरी कुमार ने यह भी दुहराया है कि सतत
प्रयोग करना ही प्रपद्यवाद है | प्रपद्यवादियों का मानना
था कि कविता भाव, विचार या दर्शन से नहीं
लिखी जाती ....वह नए विचारों या नए शब्दों से भी नहीं लिखी जाती | उनके अनुसार कविता नए विचारों, नए शब्दों के केन्द्रण से बनती है | दैनंदिन की भाषा की व्यवस्था को व्यतिरेकित करके ही इसे
प्राप्त किया जा सकता है | हमारे दैनंदिन जीवन की
भाषा और अनुभव के आगे की भाषा तथा अनुभव को कविता प्रकट करती है | प्रपद्यवादी मानते हैं कि कविता के लिए जीवन की प्रतिष्ठित
व्यवस्था आवश्यक नहीं है, बल्कि जीवन की जागृति
आवश्यक है |
प्रपद्यवादियों के लिए
साधारणीकरण कोई समस्या नहीं है |
साधारणीकरण की
प्रक्रिया में रचनाकार और पाठक का एक ही भाव-सत्ता में होना आवश्यक है | लेकिन प्रपद्यवादी न तो भाव-सत्ता को स्वीकारते हैं, न रसानुभूति को | उनके लिए कविता
वैयक्तिक चीज है, सार्वजनिक नहीं | प्रपद्यवादी कविता में जिस वैयक्तिक अनुभूति, शब्द और अर्थ पर जोर देते हैं, उसमें साधारणीकरण के लिए कोई जगह नहीं है | वे साधारणीकरण के स्थान पर विशिष्टीकरण को महत्वपूर्ण मानते
हैं | विशिष्टीकरण का आधार विज्ञान है | जिस तरह से ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में विशिष्टीकरण आवश्यक
है, उसी तरह से कविता में भी | नलिन विलोचन शर्मा कवि के लिए ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ तथा ‘विज्ञान-सम्मत दर्शन’ की जरुरत पर बल देते हैं | वे मानते हैं कि कविता का उद्देश्य सत्य का संधान है |
प्रपद्यवादी काव्य-सिद्धांत
के अनुसार काव्य-रचना के लिए बुद्धि आवश्यक है | बौद्धिकता को कविता का आवश्यक गुण स्वीकार करते हुए केसरी
कुमार ने लिखा है- “जब कविता अपने समय की बौद्धिकता
से संपर्क-विच्छेद कर लेती है, तब भाव-प्रवण, जाग्रत-मति समाज की उसमें दिलचस्पी नहीं रह जाती | यह अत्यंत खेदजनक स्थिति है, क्योंकि यह समाज यद्यपि अल्पसंख्यकों का होता है, पर यही बड़े समाज को गति देने वाला सिद्ध होता है |”
प्रपद्यवाद की काव्य-पूँजी
थोड़ी है | नलिन विलोचन शर्मा की भी काव्य-पूँजी मात्रा
रूप में कम ही है | प्रपद्यवादी काव्यधारा
में दूसरे कवि शामिल नहीं हुए | वह इन्हीं तीन कवियों तक
सीमित रही | कोई भी आन्दोलन तभी
विस्तार और दीर्घ जीवन पाता है, जब उसमें अधिक से अधिक
लोगों की समाही होती है | हिंदी कविता के इतिहास
में जगह बनाने के लिए जिस मात्रा की आवश्यकता होती है, वह मात्रा न तो प्रपद्यवाद के पास है, न नलिन जी के पास | लेकिन अल्पमात्रा के बावजूद अपनी विशिष्ट भंगिमा के कारण
प्रपद्यवादी कविताओं ने 1960 के दशक में हिंदी कविता
को नई चमक से भर दिया था | यह कविता की नई भंगिमा थी
और नई जमीन थी | अज्ञेय ने नलिन विलोचन
शर्मा और केसरी कुमार की काव्य-नवीनता को रेखांकित करते हुए लिखा है- “वैसी कविताएँ जैसी केसरी कुमार की ‘साँझ’ अथवा नलिन विलोचन शर्मा
की ‘सागर संध्या’ है, ऐसे बिम्ब उपस्थित करती हैं, जिनके लिए परंपरा ने हमें तैयार नहीं किया है और जो उस
अनुभव के सत्य को उपस्थित करना चाहते हैं, जो उसी अर्थ में अनन्य है, जिस अर्थ में एक व्यक्ति अनन्य होता है |”
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