नई
शिक्षा नीति के ड्राफ्ट में हिंदी को प्रमुखता देने की खबर के बाद मैकाले
मानस-पुत्रों को अन्य भाषाओँ का गला घोंटने और रोजी रोटी छीनने के षड्यंत्र का
एहसास होने लगा । इस हाय-तौबा में उन लोगों की आवाज सबसे अधिक ऊँची थी, जिनका
भारतीय भाषाओँ से संबंध मात्र उतना ही है जितना वह भाषा उनकी सियासी जरूरतों एवं
आकांक्षाओं को पूरा करने का माध्यम भर है या उन लोगों की थी जो अंग्रेजी को
काबिलियत की एकमात्र कसौटी मानते है| दक्षिण भारतीय नेताओं, लोगों और पार्टियों ने बेसुरा राग
अलापते हुए हिंदी विरोधी गैर जिम्मेदाराना बयान दिया भी दिया था |
आजादी
के बाद से ही गैर हिंदी विशेषकर दक्षिण भारतीय नेताओं और पार्टियों को जब भी हिंदी
के विरोध से सियासी रोटी के पकने की संभावना दिखी,
तब-तब उन्हें कथित भाषाई अस्मिता को हिंदी से खतरा नजर आने लगता है। आजादी के
आंदोलन में और आजादी के पूर्व भी गैर-हिंदी भाषी लोगों ने हिंदी को अपनाया।
माधवराव सप्रे, विनोबा भावे, बाबूराव विष्णु पराड़कर, वी. कृष्णस्वामी अय्यर, शारदाचरण मित्र, सुनीतिकुमार, पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, केशवचंद्र सेन ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं कि गैर
हिंदी प्रदेशों के विद्वानों और नेताओं
ने हिंदी को लेकर पूरे देश को एकजुट करने का उपक्रम किया था। शंकरराव कप्पीकेरी ने
तो यहाँ तक माना है कि हिन्दी का पौधा दक्षिणवालों ने त्याग से सींचा है| अनंत
गोपाल शेवड़े ने स्वीकार किया है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी का किसी क्षेत्रीय भाषा से
कोई संघर्ष नहीं है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ एक दूसरे की हमजोली हैं | लेकिन कालांतर
में इस तथ्य की उपेक्षा कर भाषा को राजनीति के औजार के तौर पर उपयोग किया गया।
वास्तव में राजनीतिक, प्रशासनिक और व्यावसायिक हितों को बनाए
रखने के लिए दक्षिण भारतीय राजनीतिज्ञों ने हिंदी का विरोध किया और अपनी मातृभाषाओँ
के बजाय अंग्रेजी को प्रश्रय दिया | इसकी परिणति आज यह हुई है कि हिंदी के प्रभाव
से नहीं बल्कि अंग्रेजी के वर्चस्व से दक्षिण भारतीय भाषाएँ हाशिए पर सिमटने को
विवश है। अंग्रेजी का वर्चस्व इतना है कि उसके सामने सभी भारतीय भाषाओं की सामूहिक
शक्ति भी लाचार सी हो गई है।
सच्चाई
यह है कि जब भी अंग्रेजी के प्रभाव से मुक्त होने की बात या कोशिश होती है, कुछ लोगों और क्षेत्रों को हिंदी थोपे
जाने का डर सताने लगता है। इसका कारण यह है कि मैकाले मानस-पुत्रों ने सम्पूर्ण
प्रशासनिक या राजनीतिक मशीनरी को इस तरह से अपने शिकंजे में जकड़ रखा है कि हमारे
नेता उनके जाल में उलझ गये है तात्पर्य है कि अंग्रेजीदां लोगों ने बड़े ही धूर्ततापूर्ण
तरीके से एक ओर भाषा के प्रश्न को सियासत का प्रश्न बना दिया है और विकल्प के रूप
में अंग्रेजी से चिपकने के लिए विवश किया है। दरअसल ये पूरे तौर पर एक षड्यंत्र है, और षड्यंत्रकारियों को पता है कि अंग्रेजी को
विस्थापित करने का काम भारतीय भाषाओं की एकजुटता के बगैर संभव ही नहीं है, इसलिए वे हिंदी के वर्चस्व का भ्रम फैलाते है| ऐसी स्थिति में भारतीय भाषाओं के बीच ये
विश्वास पैदा करने का काम हिंदी का है कि हिंदी किसी भी अन्य भारतीय भाषा के विकास
में बाधक नहीं, बल्कि साधक है| भारतीय भाषाओं और हिंदी के ऐतिहासिक संबंधों की
पड़ताल करें तो यह पाते हैं कि हिंदी ने किसी भी अन्य भारतीय भाषा का कभी कोई अहित
नहीं किया। न ही उनके अस्तित्व को कभी चुनौती दी। हिंदी समावेशी भाषा है।
हिंदी अन्य देशी-विदेशी भाषाओँ के नवीन प्रचलित
शब्दों को तेजी से अपने भाषा भंडार या भाषा चेतना में शामिल कर लेती है, लेकिन उस
भाषा विशेष के अस्तित्व के लिए कभी खतरा नहीं बनती।
अँगरेजी
मानसिकता से पोषित तथाकथित विद्वानों और नेताओं का तर्क है कि आधुनिक ज्ञान
विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी का विकास अंग्रेजी बोले जाने वाले देशों में ही हुआ
है जिसके कारण यह भाषा आधुनिक ज्ञान विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी के विकास की सहगामिनी
है । लेकिन यह कपटी तर्क है। जापान, जर्मनी,
फ्रांस, स्पेन, दक्षिण कोरिया और चीन जैसे देशों ने
विकास के लिए कभी भी अंग्रेजी को माध्यम नहीं बनाया । फिर भी ये देश आधुनिक ज्ञान
विज्ञान और उच्च प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकसित देशों की क़तार में खड़े है और
आर्थिक विकास की दौड़ में तो भारत से काफ़ी आगे है जहाँ अंग्रेजी के पीछे अंधी दौड़
बच्चे के जन्म लेने के साथ ही शुरू हो जाती है। भाषा और भावना साथ-साथ चलती है|
अपनी भावना को व्यक्त करने के लिए भाषा बहुत जरूरी है और यह मातृभाषा में ही संभव
है| वर्तमान समय भारतीय समाज में जो मूल्यहीनता है वह
इसी जमीन से कटे होने का परिणाम है। ये
अच्छा नहीं है, देशहित में नहीं है|
हिंदी या कोई भारतीय भाषा
यदि इस क्रांति के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल रही है तो यह उस भाषा की कमी नही
है बल्कि उस समाज की कमी है जो उस भाषा में अपने को संप्रेषित या अभिव्यक्त करता
है और अपनी भाषा को पिछड़ा हुआ मानकर सूचना, संचार और आधुनिक नवीन प्रौद्योगिकी से
जुड़ने की चाहत में इस कपटी तर्क को सत्य मान लेता है कि अंग्रेजी भाषा के माध्यम
से ही विकास के शीर्ष स्तर पर पहुंचा जा सकता है। भारतीय भाषाएँ अतीत काल से ही
समृद्ध रही है। इतिहास गवाह है कि मानव सभ्यता के प्रारंभिक चरण हडप्पा काल से ही
भारत ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अन्यों से काफी आगे रहा है और भारतीय भाषाएँ
इसकी वाहक रही है । पुरातात्विक खुदाइयों से प्राप्त शिलालेखों और मृदभांडों से
लेकर प्राचीन ग्रंथों में जिस तरह से राजनीति, अर्थनीति, सैन्य नीति, सामाजिक
रीति-रिवाजों, नैतिक मान्यताओं, रहन-सहन, खान-पान और वेश-भूषा की अभिव्यक्ति हुई
है वह न केवल भारतीय भाषाओँ के ऐतिहासिक विकास का साक्ष्य है बल्कि इन भाषाओँ की
अभिव्यक्ति क्षमता का निदर्शन भी है । भारतीय भाषाओँ की यह समृद्धि उस मानसिकता पर
सवालिया निशान खड़ा करती है जो हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओँ को आधुनिक ज्ञान
विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी के विकास को अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं मानते
है।
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