Wednesday 20 February 2019

वाद-विवाद और संवाद के सूत्रधार का जाना

वर्ष 2015 में जब लेखकों का एक विशेष वर्ग कथित असहिष्णुता के विरोध में पुरस्कार वापसी का देशव्यापी अभियान छेड़े हुए था, तब नामवर जी ही ऐसे शख्स थे जिन्होंने उनके इस अभियान की यह कहकर हवा निकाल दी कि "ये लेखक अपना नाम चमकाने और सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए ऐसा कर रहे हैं" | यह नामवर जी ही थे जिन्होंने इस सच्चाई को पहचान लिया था कि पुरस्कार वापसी का मुख्य मुद्दा सहिष्णुता-असहिष्णुता का नहीं है। यह पूरी तरह से वैचारिक और सियासती मुद्दा था | यदि असहिष्णुता मुद्दा होता तो यह पहले भी व्यक्त हुआ होता क्योंकि सैकड़ों घटनाएं पहले भी घटी थीं। कहना न होगा कि हिंदी साहित्य जगत में एक किंवदंती बन चुके प्रख्यात साहित्यकार और समालोचक नामवर सिंह का जाना हिंदी साहित्य की उस बेलौस, बेबाक, निडर और आत्मविश्वासपूर्ण आवाज का जाना है जिसकी आलोचनात्मक भाषा और चिंतन का विस्तार परंपरा से लेकर प्रगतिशील मूल्यों तक होता था | लगभग सत्तर वर्षो से अधिक की नामवर जी की साहित्य-यात्रा अपनी विशालकाय परंपरा को आत्मसात करते हुए प्रगतिशीलता के नए-नए आयाम स्थापित करते हुए चलती है | उनका रचना-कर्म ही नहीं, बल्कि व्यक्तित्व भी परंपरा और प्रगतिशीलता का अद्भुत संगम था | धोती-कुर्ता के पारंपरिक परिधान में संभवतः वे जेएनयू के पहले अध्यापक थे और शायद अंतिम भी, क्योंकि जेएनयू जैसे संस्थान में बहुतों के लिए धोती-कुर्ता तब भी हीन भावना थी और अब भी है |

वे केवल साहित्य के आलोचक नहीं थे, बल्कि एक समग्र साहित्यकार और इस नाते एक संपूर्ण सभ्यता समीक्षक थे | अद्वितीय मेधा-शक्ति के साथ अनवरत अध्यवसाय और अपूर्व वाग्मिता के कारण वे हिन्दी में सबसे ज्यादा पढ़े एवं सुने जाने वाले और बोलने वाले आलोचक रहे हैं| उन्होंने सहृदय के रूप में विभिन्न ज्ञान परंपराओं के परिपाक द्वारा आलोचना-कर्म का एक नया व्याकरण ही नहीं  लिखा है, उसके औजार और सरोकार भी बदले हैं।
1995 में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में जब मैंने एम ए में दाखिला लिया था, तब वे अध्यापकीय सेवा से अवकाश प्राप्त कर चुके थे| इसलिए कक्षा में उनसे पढ़ने का सौभाग्य तो प्राप्त नहीं हुआ लेकिन वर्ष में 4 या 5 बार कई तरह के समारोहों या सेमिनारों वे जेएनयू अवश्य आते थे, जिसमें वे अक्सर मुख्य वक्ता हुआ करते थे | कई बार भारतीय भाषा केंद्र में नवागंतुक छात्रों के स्वागत समारोह में भी सम्मिलित होने का प्रलोभन वे छोड़ नहीं पाते थे | इन समारोहों या या सेमिनारों में विषय अक्सर हिंदी साहित्य से जुड़े होने के बावजूद सामाजिक सरोकारों से संबंधित हुआ करता था | लेकिन उनका ज्ञान इतना विस्तृत था कि वे अपने व्याख्यान में साहित्य के मुद्दों से लेकर साहित्यकारों की जीवन यात्रा, भारतीय परम्परा से लाकर समकालीन प्रश्नों-धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, और फ़ासीवाद-की प्रस्तुति इतने सटीक ढंग से करते थे कि वह विषय रोचक और सुग्राह्य दोनों हो जाता था | बीच-बीच में व्यंग्य और विनोद द्वारा अपने व्याख्यानों को रोचक बनाए रखते थे तथा कभी-कभी पूर्व वक्ताओं पर हल्के या कड़े प्रहार भी करते थे। उनके व्याख्यान की सहजता इस कदर होती थी कि कई बार ऐसा लगता था कि नामवर जी को पढ़ने से अधिक सुनना अधिक सुग्राह्य है | उनके भाषण निःसंदेह सर्जनात्मक साहित्य का आनंद देते थे | मुझ जैसे अनेक छात्रों के लिए, जिन्हें उनसे पढ़ने का सौभाग्य हासिल नहीं हुआ, चाहे देश के किसी भी विश्वविद्यालय या कॉलेज के छात्र रहे हों, के लिए नामवर जी ने अपने व्याख्यानों से सहज ही अध्यापन का विकल्प उपलब्ध कराया| उनकी इसी विशिष्टता के कारण नागार्जुन ने एक बार उन्हें हिंदी आलोचना का जंगम(चलता-फि़रता)विश्वविद्यालय कहा था | नागार्जुन ने ही यह भी कहा कि भारत जैसे देश में, जहां लिखित साहित्य का प्रसार कम है, वहां कोई आचार्य यदि घूम-घूम कर विचारों का प्रसार करता है, तो यह एक आवश्यकता की पूर्ति है। नामवर का जाना अध्यापन के इस चलते-फिरते विश्वविद्यालय का अंत हो जाना है |
नामवर जी गोष्ठियों में श्रोताओं और वक्ताओं को ध्यान में रखते हुए अवसरानुकूल बोलते थे | वे अपनी वाग्मिता के सहारे श्रोताओं को झटका देने वाले और चौंकाने वाले वक्तव्य भी देते थे | एक बार जेएनयू में इतिहास-विभाग की ओर से भक्ति-आंदोलन पर विचार करने के लिए एक गोष्ठी बुलाई गई थी, जिसमें स्वाभाविक तौर पर हरबंस मुखिया सहित विशेषज्ञ इतिहासकार प्रमुख वक्ताओं में थे | प्रमुख वक्ताओं की सूची में नामवर जी भी थे। गोष्ठी संचालन से लेकर सारा कार्यक्रम अंग्रेजी में हो रहा था और विशेषज्ञ इतिहासकार तो बिना अंग्रेजी के अपना व्याख्यान देने के सोच ही नहीं सकते थे| लेकिन अवसर के अनुकूल अपने वक्तृत्व कौशल का इस्तेमाल करते हुए अपने व्याख्यान से पहले यह कहते हुए अंग्रेजी भाषा की हेकड़ी निकाल दी कि "भक्ति-आंदोलन भारतीय भाषाओं में चला था, इसलिए मै अपना वक्तव्य हिंदी में दूंगा" | इसके बाद भक्ति-आंदोलन पर अपने डेढ़ घंटे तक के व्याख्यान से न केवल विशेषज्ञ इतिहासकारों की विशेषज्ञता को धूल में मिला दिया बल्कि हिंदी भाषा की शक्ति और श्रेष्ठता को भी स्थापित किया |
वैचारिक स्तर पर नामवर जी का झुकाव मार्क्सवादी विचारधारा की ओर था| लेकिन वे मार्क्सवादी होते हुए भी जनतंत्र या लोकतंत्रवादी थे| वे धुर मार्क्सवादी कभी नहीं रहे | वे ऐसे मार्क्सवादी चिंतक थे, जिन्होंने हिंदी समीक्षा को मार्क्सवादी खांचों में घसीटने का कभी प्रयास नहीं किया| इसके बरक्स उन्होंने मार्क्सवादी मान्यताओं को ही भारतीय या हिंदी साहित्य की परम्परा के सापेक्ष देखने के लिए विवश किया और यदि संभव नही हुआ तो मार्क्सवाद को नकारने में भी उन्होंने कोताही नहीं की | इसका बड़ा कारण यह रहा है कि उनकी आलोचना का लोक ह्रदय से गहरा जुडाव रहा है| वे संगोष्ठियों में अपने भाषणों आदि के माध्यम से सही मायने में हिंदी समीक्षा को लोक के बीच रखकर लोक ह्रदय से जोड़ रहे थे, ठीक उसी तरह से जैसे आचार्य शुक्ल हिंदी साहित्य को लोक ह्रदय से जोड़ना अहम मानते थे | इसके प्रेरणा भी वे आचार्य शुक्ल से ही लेते है | वे कहते है कि "मेरी दृष्टि में हिंदी में आज तक केवल एक ही आचार्य पैदा हुआ और वह है आचार्य रामचंद्र शुक्ल। यहां तक कि मैं अपने गुरु पं- हजारी प्रसाद द्विवेदी को भी 'आचार्य' न कहता हूं और न लिखता हूं। अगर हिमालय पृथ्वी का मानदंड है तो हिंदी साहित्य के मानदंड आचार्य रामचंद्र शुक्ल ही हैं" |
विचारों और ज्ञानार्जन के प्रति उनमें खुलापन इतना था कि अपनी ही स्थापनाओं का खंडन अपने व्याख्यानों में कर दिया करते थे। वे समय और नवीन ज्ञान-विज्ञान के आलोक में अपने विचारों और मान्यताओं में बदलाव भी करते रहते थे| वे इसे अनुचित भी नहीं मानते थे| अपनी "छायावाद" पुस्तक में नामवर जी ने छायावाद की विशिष्टताओं का उद्घाटन करते है| लेकिन "कविता के नए प्रतिमान" की शुरुआत में छायावादी संस्कारों का खंडन करते है। बाद में उन्होंने "कविता के नए प्रतिमान" की स्थापनाओं का भी खंडन कर दिया। आज जब वे नहीं हैं, तो उनकी मान्यताएं, उनके भाषण और उनकी कृतियाँ ही अब हमारे मार्गदर्शक है जो आगामी पीढ़ियों को सतत प्रोत्साहित करेंगी कि वे सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक जिम्मेदारियों का सतत निर्वाह करते रहें |




1 comment:

  1. नामवर सिंह गर्वीली ग़रीबी वाले प्रगतिशील आलोचक थे | नामवरजी ने आलोचना के मिथक को तोड़ा है। आलोचना सामान्यतः बड़ा शुष्क और नीरस विषय है। पर इतिहास और वर्तमान का संदर्भ दे कर नामवरजी उसे समाज से जोड़ कर अद्भुत प्रस्तुति देते हैं। उन्होंने आलोचना का शिल्प बदला है।

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