Sunday 24 February 2019

नामवर जी की नामवरी


कहना न होगा कि हिंदी साहित्य जगत में एक किंवदंती बन चुके प्रख्यात साहित्यकार और समालोचक नामवर सिंह का जाना हिंदी साहित्य की उस बेलौस, बेबाक, निडर और आत्मविश्वासपूर्ण आवाज का जाना है जिसकी आलोचनात्मक भाषा और चिंतन का विस्तार परंपरा से लेकर प्रगतिशीलता के राजमार्ग तक था | लगभग सत्तर वर्षो से अधिक की नामवर जी की साहित्य-यात्रा अपनी विशालकाय परंपरा को आत्मसात करते हुए प्रगतिशीलता के नए-नए आयाम स्थापित करते हुए चलती है | उनका रचना-कर्म ही नहीं, बल्कि व्यक्तित्व भी परंपरा और प्रगतिशीलता का अद्भुत संगम था | धोती-कुर्ता के पारंपरिक परिधान में संभवतः वे जेएनयू के पहले अध्यापक थे और शायद अंतिम भी, जिन्होंने जेएनयू की अंग्रेजियत पर धोती-कुर्ते की धाक जमायी क्योंकि जेएनयू जैसे संस्थान में बहुतों के लिए धोती-कुर्ता तब भी हीन भावना थी और अब भी है |
हिंदी भाषा और साहित्य के अध्यापक होने से पहले वे आलोचना-जगत में अंगद की तरह पांव जमा चुके थे | वे केवल साहित्य के आलोचक नहीं थे, बल्कि एक समग्र साहित्यकार और इस नाते एक संपूर्ण सभ्यता समीक्षक थे | अद्वितीय मेधा-शक्ति के साथ अनवरत अध्यवसाय और अपूर्व वाग्मिता के कारण वे हिन्दी में सबसे ज्यादा पढ़े एवं सुने जाने वाले और बोलने वाले आलोचक रहे हैं| उन्होंने सहृदय के रूप में विभिन्न ज्ञान परंपराओं के परिपाक द्वारा आलोचना-कर्म का एक नया व्याकरण ही नहीं लिखा है, उसके औजार और सरोकार भी बदले हैं। केदारनाथ सिंह जी यह मानते थे कि-"पिछले तीन दशक के इतने बडे़ कालखंड में समकालीन हिंदी साहित्य के केंद्र में एक आलोचक हैं। कोई रचना नहीं।" वे आलोचक कोई नहीं, नामवर सिंह ही थे |
नामवर जी लिखित की तुलना में वाचिक परंपरा के आलोचक थे| वे जितने दुर्लभ पढ़ाकू थे उतने ही प्रखर वक्ता भी | मानो वे बोलने के लिए ही पढ़ते थे | बीच में लेखन शायद छिटक जाता रहा हो या उनका व्याख्यान या भाषण ही इतना रोचक, सहज, सुग्राह्य, बहुआयामी, व्यापक और गंभीर होता था कि उसे लिखने की जरूरत नहीं पड़ी | या लिखने की श्रमसाध्य प्रक्रिया के पचड़े से शायद दूर रहना पसंद करते थे | लेखन के लिए इतना कम समय निकाल पाते थे कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि "छायावाद" और "कविता के नए प्रतिमान" को उन्होंने महज 20-22 दिनों में ही पूरा कर लिया था | 2011 प्रगतिशील लेखक संघ के दो दिवसीय जलसे में जब उनसे पूछा गया कि उनके स्वास्थ्य और ऊर्जा क्या है तो उन्होंने कहा कि "मुझे विरोध सुनते रहना पसंद है। विरोध से मुझे ऊर्जा मिलती है। यह विरोध ही मुझे अपने रास्ते पर चलने के लिए स्वस्थ बनाए रखता है।" साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि "मेरा पढ़ना-लिखना जब तक जारी रहेगा, मैं स्वस्थ्य रहूंगा। दिमाग को मिलने वाली खुराक से बड़ा कुछ नहीं है।" इस तरह उन्होंने पढ़ने और बोलने के बीच संबंध भी स्पष्ट कर दिया | उनके कलम की जादूगरी  पर जितनी अधिक बहस हुई उतना ही उनके बोले गये पर विवाद भी हुआ | यही नहीं, नामवर जी गोष्ठियों में श्रोताओं और वक्ताओं को ध्यान में रखते हुए अवसरानुकूल बोलते थे | वे अपनी वाग्मिता के सहारे श्रोताओं को झटका देने वाले और चौंकाने वाले वक्तव्य भी देते थे | एक तरह से यही उनके वाद-विवाद और संवाद का तरीका था | कहना ना होगा कि उनका परलोक गमन वाद-विवाद और संवाद के सूत्रधार का जाना है|
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से एक बार किसी ने पूछा कि आपकी सर्वश्रेष्ठ कृति क्या है तो उनके मुँह से अचानक ही एक नाम निकला-"नामवर सिंह।" यह वही नामवर थे जिनमें गर्वीली ग़रीबी वाली प्रगतिशीलता, कबीर जैसा साहस एवं वक्तृत्व कला, तुलसी की लोकवादिता, प्रेमचंद का समाजशास्त्र, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का पांडित्य, अभिनवगुप्त की रसधर्मिता, ठेठ देसीपना और भोजपुरिया आत्मीयता थी। जितना अधिकार उनका संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश से लेकर हिंदी पर था उतना ही उन्होंने बंगला, तमिल, मलयालम, मराठी के साथ यूरोपीय, रूसी और चीनी साहित्य को भी आत्मसात किया था | जितनी सहजता से वे कालिदास और भवभूति से लेकर कबीर और तुलसी पर व्याख्यान देते थे, उतनी ही सहजता से वे मार्क्स, ब्रेख्त, ग्राम्शी और लुशुन को भी समझते-समझाते थे। जितनी गहनता से वे भारतीयता अस्मिता, भारतीय परम्परा और उसकी विकासमानता की व्याख्या करते थे उतनी ही व्यापकता के साथ सामाजिक सरोकारों-धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता और फ़ासीवाद-और समकालीन सवालों-भूमंडलीकरण, बहुलतावाद, बाजारवाद, नक्सलवाद, बीसवीं सदी की चिंताओं, दुनिया की बहुध्रुवीयता से भी टकराते रहते थे | इसी कारण उनके भाषण निःसंदेह सर्जनात्मक साहित्य का आनंद देते थे| उनकी इसी विशिष्टता के कारण नागार्जुन ने एक बार उन्हें हिंदी आलोचना का जंगम(चलता-फि़रता)विश्वविद्यालय कहा था | नागार्जुन ने ही यह भी कहा कि भारत जैसे देश में, जहां लिखित साहित्य का प्रसार कम है, वहां कोई आचार्य यदि घूम-घूम कर विचारों का प्रसार करता है, तो यह एक आवश्यकता की पूर्ति है। नामवर का जाना अध्यापन के इस चलते-फिरते विश्वविद्यालय का अंत हो जाना है |
वैचारिक स्तर पर नामवर जी का झुकाव मार्क्सवादी विचारधारा की ओर था| लेकिन वे मार्क्सवादी होते हुए भी जनतंत्र या लोकतंत्रवादी थे| वे धुर मार्क्सवादी कभी नहीं रहे | लोकतंत्र के प्रति उनकी पक्षधरता अन्यतम थी | इसीलिए वे धुर और जड़मति मार्क्सवादियों की क्रांतिकारिता को आईना दिखाते हुए कहते है कि ‘क्रांति बंदूक की गोली से नहीं, बल्कि जनता की क्रांतिकारी चेतना और आन्दोलन से होगी|’ वे ऐसे मार्क्सवादी चिंतक थे, जिन्होंने हिंदी समीक्षा को मार्क्सवादी खांचों में घसीटने का कभी प्रयास नहीं किया| इसके बरक्स उन्होंने मार्क्सवादी मान्यताओं को ही भारतीय या हिंदी साहित्य की परम्परा के सापेक्ष देखने के लिए विवश किया और यदि संभव नही हुआ तो मार्क्सवाद को नकारने में भी उन्होंने कोताही नहीं की | इसका बड़ा कारण यह रहा है कि उनकी आलोचना का लोक ह्रदय से गहरा जुडाव रहा है| वे संगोष्ठियों में अपने भाषणों आदि के माध्यम से सही मायने में हिंदी समीक्षा को लोक के बीच रखकर लोक ह्रदय से जोड़ रहे थे, ठीक उसी तरह से जैसे आचार्य शुक्ल हिंदी साहित्य को लोक ह्रदय से जोड़ना अहम मानते थे | इसके प्रेरणा भी वे आचार्य शुक्ल से ही लेते है | वे कहते है कि "मेरी दृष्टि में हिंदी में आज तक केवल एक ही आचार्य पैदा हुआ और वह है आचार्य रामचंद्र शुक्ल। यहां तक कि मैं अपने गुरु पं हजारी प्रसाद द्विवेदी को भी 'आचार्य' न कहता हूं और न लिखता हूं। अगर हिमालय पृथ्वी का मानदंड है तो हिंदी साहित्य के मानदंड आचार्य रामचंद्र शुक्ल ही हैं" |
विचारों और ज्ञानार्जन के प्रति उनमें खुलापन इतना था कि अपनी ही स्थापनाओं का खंडन अपने व्याख्यानों में कर दिया करते थे। वे इसे अनुचित भी नहीं मानते थे| बकलम ख़ुद, हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, छायावाद, पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, कविता के नए प्रतिमान, दूसरी परंपरा की खोज उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। अपनी कृतियों के बारे में उन्होंने कहा था कि उनकी ज़्यादातर पुस्तकें अपने समय की बहसों में भागीदार होकर लिखी गयी हैं। इसी कारण वे समय और नवीन ज्ञान-विज्ञान के आलोक में अपने विचारों और मान्यताओं में बदलाव भी करते रहते थे| अपनी "छायावाद" पुस्तक में नामवर जी ने छायावाद की विशिष्टताओं का उद्घाटन करते है| लेकिन "कविता के नए प्रतिमान" की शुरुआत में छायावादी संस्कारों का खंडन करते है। बाद में उन्होंने "कविता के नए प्रतिमान" की स्थापनाओं का भी खंडन कर दिया।
नामवरजी बहुत अच्छे शिक्षक ही नहीं थे, बल्कि अपने छात्रों के लिए एक संवेदनशील अभिभावक भी थे | उनकी कक्षाएं भरी होती थीं। दूसरी कक्षाओं के छात्र भी उनकी कक्षाओं चले आते थे। प्रसिद्ध समाजशास्त्री और जेएनयू में प्रो. रहे आनंद कुमार ने नामवर सिंह को ज्ञानसागर और गुरुगरिमा का अद्भुत संगम माना हैं। नामवर जी के अनुसार साहित्य-शिक्षा एकांगी नही हो सकती । अपने विद्यार्थियों को साहित्य के माध्यम से उन्होंने ज्ञान और जीवन के न जाने कितने रूपों से व्यापक जीवन संघर्ष में जीने की कला से अवगत कराया । वे विद्यार्थियों को आलोचना पढ़ाते ही नहीं, आलोचना सिखाते भी रहे। यही नहीं, उन्होंने आलोचना में असहमति के अधिकार को और साथ ही उस असहमति को सम्मान करना भी सिखाया| इसके लिए उन्होंने अपने विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए उनका लिखा पढ़ते रहे और उन्हें सम्मान भी देते रहे | नए कवियों, कहानीकारों, उपन्यासकारों और समीक्षकों के लिखे को पढ़कर उन्हें प्रोत्साहित करने और उनके सर्वश्रेष्ठ कृतियों की विशिष्टताओं को उभारने की उनमें अद्भुत एवं अचूक क्षमता थी | निर्मल वर्मा की कहानी ‘परिंदे’ को पहली नयी कहानी उन्होंने ही ने घोषित किया जो तमाम विवादों के बावजूद आज भी स्वीकार्य है | मुक्तिबोध की कविताओं काव्य की मुख्यधारा में स्थापित करने का श्रेय भी नामवर जी को ही है | धूमिल की कविताओं में निहित क्रांतिधर्मिता और जनपक्षधरता की पहचान भी की | इस तरह नामवर जी ने नए लेखों की एक पूरी खेप तैयार की |



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