Thursday 24 August 2017

उत्तर भारत में उच्च शिक्षा को लगी बीमारी


केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावडे़कर ने पिछले तीन अप्रैल, 2017 को देश के शीर्षस्थ उच्च शिक्षा संस्थानों और विश्वविद्यालयों की बेहद चौंकाने वाली सूची जारी की,  जिसमें उसमें उत्तर और दक्षिण भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों के बीच भारी गुणात्मक फर्क देखने को मिला | पूरे देश में शिक्षण संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता तय करने वाली भारत सरकार की संस्था नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क यानी एनआईआरएफ-2017 के अंतर्गत देश के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों व कॉलेजों,  शीर्ष 100 इंजीनियरिंग कॉलेजों और 50  श्रेष्ठ प्रबंध संस्थानों व फार्मेसी कॉलेजों की सूची जारी की गई है। गुणात्मक असमानता का स्तर यह है कि इन 100 विश्वविद्यालयों में से 67 दिल्ली सहित केवल आठ राज्यों में स्थित हैं | इसमें सर्वाधिक विश्वविद्यालय तमिलनाडु में स्थित है | तमिलनाडु को विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में 24,  कॉलेजों की रैंकिंग में 37  और इंजीनियरिंग की सूची में 22  स्थान मिले हैं। इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने में दक्षिणी राज्यों, जैसे तमिलनाडु, केरल,  कर्नाटक,  आंध्र प्रदेश,  तेलंगाना और पुडुचेरी ने अग्रणी राज्य है। दूसरी ओर उत्तरी राज्यों, जिसमें अधिकाश हिंदी भाषी राज्य हैं, का प्रदर्शन अत्यंत दयनीय है | बिहार के किसी भी विश्वविद्यालय और कॉलेज को इस रैंकिंग सूची में कोई स्थान नहीं मिला । उत्तर प्रदेश का प्रदर्शन बहुत खराब है। उत्तर प्रदेश में 63 विश्वविद्यालय और 6,026 कॉलेज हैं, किंतु सिर्फ सात विश्वविद्यालयों और छह इंजीनियरिंग कॉलेजों को इस रैंकिंग में स्थान मिला है। उत्तर प्रदेश का कोई भी कॉलेज प्रथम 100 में स्थान नहीं बना पाया | एनआईआरएफ-2017 ने लगभग 20 मानकों के आधार पर यह रैंकिंग तैयार की है | इस रैंकिंग का महत्व इसलिए है कि इन संस्थानों को इसी के आधार पर सरकार धन एवं अन्य सुविधाएँ मुहैया कराती है |  
उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के क्षेत्र में उत्तरी राज्यों की चिंताजनक स्थिति से संकेत मिलता है कि इन राज्यों ने उच्च शिक्षा के मूलभूत ढांचे को सशक्त और कार्यकुशल बनाने पर विशेष ध्यान नहीं दिया है | विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में अध्यापकों की भारी कमी, अध्यापकों की भर्तियों में बड़े पैमाने पर धांधली, परिणामतः योग्य अध्यापकों का अभाव, पर्याप्त भवन की कमी और लाखो नेट उत्तीर्ण बेरोजगार घूमना, संस्थानों में सियासी दांव-पेंच की अधिकता और इस कारण कार्य दिवसों का कम होते जाना, यूजीसी द्वारा नियमों और नीतियों में मनमाना फेरबदल, प्राचार्यों और सहायक प्राचार्यों की नियुक्ति की नीतियों में अस्पष्टता का हर राज्य और विश्वविद्यालय अपनी- अपनी सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल जैसे अहम कारण है | बिहार के कॉलेजों में विगत 10 वर्षों से 5000 से अधिक अध्यापकों की कमी बनी हुई है | उत्तर प्रदेश में हाल ही राजकीय कॉलेजों में पिछले 10-12 वर्षों से मानदेय पर पढ़ा रहे अध्यापकों को नियमित किये जाने के बावजूद उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा आयोग लगभग 3000 से अधिक अध्यापकों की नियुक्ति प्रक्रिया में पिछले 3 वर्षों से लगा हुआ है जबकि इस आयोग पर नियुक्ति प्रक्रिया में धांधली के गंभीर आरोप लगे है और नियुक्ति प्रक्रिया ठप पड़ी है | दिल्ली विश्वविद्यालय में लगभग 1000 अध्यापको के पद खाली है, जिनकी भर्ती के लिए उच्च न्यायालय को आदेश देना पड़ा है | उच्च शिक्षा के लिए हाल में राष्ट्रपति से पुरष्कार प्राप्त करने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शिक्षकों के 300 खाली पदों को भरा जाना है |
यही नहीं, उत्तर भारत के जिन राज्यों में जो थोड़े अध्यापक किसी तरह से पढाई की कमी को पूरा करने में लगे हुए है उन्हें भी समय से वेतन नहीं मिल पाना एक भयानक विडम्बना है | बिहार के अधिकांश कॉलेजों के अध्यापकों और अन्य गैर अध्यापक कर्मचारियों के छः-छः महीने से अधिक समय तक वेतन नहीं मिला पाता है | मशहूर संस्थान टाटा इंस्टीट्यट ऑफ सोशल साइंसेस (टिस) ने यूजीसी से पैसा नहीं मिलने के कारण कई शोध परियोजनाओं को बंद करके अपने 35 अध्यापकों को बर्खास्त कर दिया है। हाल ही में पंजाब विश्वविद्यालय में फ़ीस वृद्धि को लेकर पुलिस और छात्रों के बीच हिंसक झड़प हुई क्योंकि पंजाब विश्वविद्यालय ने चालू वित्त वर्ष (2017-18) में कुल खर्च 516 करोड़ रुपये और सभी स्रोतों से प्राप्त कुल आय 272 करोड़ के अंतर को पाटने के लिए सारा बोझ फ़ीस के रूप में छात्रों पर डाल दिया | आजादी से पहले ही गुलामी के उस दौर में पंडित मदनमोहन मालवीय ने चंदे से एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय खड़ा कर दिया था जो तत्कालीन समय में उपलब्ध समस्त सुविधाओं से युक्त था। गुरुकुल कांगड़ी और शान्तिनिकेतन जैसे विश्वविद्यालय एवं  डीएवी आजादी से पहले ही आंदोलन बन गए थे । दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर कोई उद्देश्यपरक महत्त्व का काम नहीं हुआ क्योंकि हम पूरी तरह सरकार पर निर्भर हो गए जबकि शिक्षा तो सरकार की प्राथमिकताओं में रहा ही नहीं | परिणामतः ज्यादातर सरकारों ने शिक्षा के लिए पर्याप्त वित्तीय साधन और मानव संसाधन उपलब्ध करने नाकामयाब रही | एक समय में उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के कारण ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय को पूर्व का ऑक्सफ़ोर्डका दर्जा दिया गया था |  लेकिन आज यह पूर्व का ऑक्सफ़ोर्ड केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त करने के बावजूद अध्यापको और अन्य जरूरी संसाधनों की कमी के साथ ही बढते सियासी तिकड़मों से जूझ रहा है |  जाहिर तौर पर यह सरकारों की गैर जवाबदेही और वित्तीय अनुशासनहीनता का परिणाम है|

उत्तर और दक्षिण के राज्यों के बीच उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर यह चिंताजनक अंतर हमारे संघीय ढांचे और मानव विकास के लिए अच्छे संकेत नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण दक्षिणी राज्यों की तुलना उत्तरी राज्यों की सरकारों और सरकारों में बैठे राजनीतिक नेतृत्व का शिक्षा की ओर से मुंह मोड़ लेना है या इन शिक्षा केन्द्रों को राजनीतिक गतिविधियों के लिए इस्तेमाल करना है | राजनीतिक अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार के बावजूद तामिलनाडु, कर्नाटक,  केरल और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने सड़क,  परिवहन,  विद्युत,  संचार,  शिक्षा, आदि के मूलभूत ढांचे को बेहतर बनाने की दिशा में कार्य किया | इन राज्यों की सरकारें और राजनीतिक नेतृत्व देशी-विदेशी उद्योगों और निवेशकों को आकर्षित करने में सफल रहा| इसके साथ ही दक्षिण भारत के स्कूल-कॉलेजों में वहाँ की राज्य सरकारों ने अवरोध पैदा नहीं किया | 

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