पुरी
के भगवान जगन्नाथ का मंदिर और उनकी रथयात्रा केवल ओड़िशा ही नहीं, बल्कि विश्व के सभी हिन्दू
धर्मावलम्बियों के ज़ेहन में रची बसी धार्मिक-सांस्कृतिक शक्ति है | इसकी अहमियत का
अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पुरी का जगन्नाथ मन्दिर धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय का अद्भुत उदाहरण है
और उनकी रथयात्रा
सांस्कृतिक एकता तथा सहज सौहार्द्र की एक महत्वपूर्ण कड़ी है | इसका कारण भी
अत्यंत रोचक है | लोक प्रचलित अनेक कथाओं, विश्वासों और अनुमानों से यह ज्ञात
होता
है कि भगवान जगन्नाथ विभिन्न धर्मो, मतों और विश्वासों का अद्भुत समन्वय है। जगन्नाथ मन्दिर में पूजा पाठ, दैनिक आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन यहाँ तक तांत्रिकों ने भी प्रभावित किया है।
वैसे तो इसे वैष्णव परम्परा का मंदिर माना जाता है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है।
लेकिन एक कहानी के अनुसार जगन्नाथ की आराधना एक सबर आदिवासी “विश्वबसु” के द्वारा “नील माधव” के रूप में की जाती रही है | सबर जनजाति के देवता होने
की वजह से यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है | साक्ष्य स्वरुप आज भी जगन्नाथ पुरी के मंदिर में अनेकों सेवक हैं जो “दैतपति” नाम से जाने जाते हैं| इन्हें आदिवासी मूल का ही माना जाता है| ऐसी परंपरा किसी अन्य वैष्णव मंदिर में नहीं है| बौद्ध साक्ष्यों में यह भी स्वीकार किया गया है
कि पुरी के विश्व प्रसिद्द रथ यात्रा का आयोजन भी एक बौद्ध परंपरा ही है| बौद्ध परंपरा में गौतम बुद्ध के दन्त अवशेषों को लेकर रथ यात्रा का आयोजन होता था
| बौद्ध परंपरा के अनुसार
पूर्वी
भारत में पुरी बौद्धों की वज्रयान परंपरा का एक बड़ा केंद्र
था, जहाँ “इंद्रभूति” ने बौद्ध धर्म के “वज्रायन” परंपरा की नीवं डाली थी| इंद्रभूति ने बुद्ध स्वरुप जगन्नाथ की आराधना करते हुए ही अपने प्रसिद्द ग्रन्थ“ज्ञानसिद्धि” की रचना की थी जिसमें उन्होंने यत्र-तत्र जगन्नाथ का संबोधन गौतम बुद्ध के लिए ही है| भगवान जगन्नाथ के बुद्ध होने का एहसास जन मानस पर बहुत ही गहराई से उतरा हुआ था| बौद्ध परंपरा के विद्वानों का मत है कि जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा वास्तव में बौद्ध धर्म के “बुद्ध”, “संघ” और “धर्म” (धम्म) के परिचायक हैं| १५ से लेकर १७ वीं सदी के मध्य भी ओडिया साहित्य में इसकी अभिव्यक्ति हुई है|
इसलिए
यह अकारण नहीं है कि जब आदि शंकराचार्य ने जब बौद्धों के विरुद्ध आध्यात्मिक विजय यात्रा
के क्रम में उन्होंने पूरब में पुरी को केंद्र बनाया और बौद्धों की आध्यात्मिक
सत्ता को चुनौती देते हुए सनातन धर्म की
पुनर्स्थापना सुनिश्चित की और इसे हिन्दुओं के चार धामों में से एक धाम घोषित किया
जिसका अन्य तीन धामों की तुलना में विशिष्ट स्थान है | संभवतः इस धार्मिक विजय के स्मरण में ही श्री शंकर एवं पद्मपाद की मूर्तियाँ जगन्नाथ जी के रत्न सिंहासन में स्थापित की गयीं थीं. मंदिर द्वारा ओडिया में प्रकाशित अभिलेख “मदलापंजी” से ज्ञात होता है कि पुरी के राजा दिव्य सिंह देव द्वितीय (१७९३ – १७९८) के शासन काल में उन दो मूर्तियों को हटा दिया गया था|
एक महत्वपूर्ण तीर्थ के रूप में पुरी (जगन्नाथ पुरी) का उल्लेख सर्वप्रथम महाभारत के वनपर्व में दृष्टिगोचर होता है और इस क्षेत्र की पवित्रता का बखान कूर्म पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण, आदि में यथेष्ट रहा है| पुरी के सांस्कृतिक इतिहास के ठोस प्रमाण ७ वीं सदी से ही उपलब्ध हैं| पुराणों में उल्लेख आता है कि अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांची, उज्जैन, जगन्नाथ पुरी ये सात नगर मोक्ष प्रदान करते हैं। इस सम्बन्ध में एक श्लोक मिलता है-
अयोध्या मथुरा माया काशी काची अवन्तिका,
पुरी द्वारावती चैव सप्तयन्ते मोक्षदायिनी।
इसे शंखक्षेत्र भी कहा जाता है, क्योंकि इस क्षेत्र की आकृति शंख के समान है। शाक्त इसे उड्डियान पीठ कहते हैं। यह 51 शक्तिपीठों में से एक पीठ स्थल है, यहां सती की नाभि गिरी थी।
तात्पर्य यह है
कि किसी अन्य मूर्ति को लेकर कभी
भी इतने सारे सम्प्रदायों का दावा नहीं
था, कहीं भी कोई देवता इतने संप्रदायों की निष्ठा का पालन नहीं किया था| फिर भी यह आश्चर्यजनक है
कि श्री जगन्नाथ के बीच या उन्हें लेकर कभी भी कोई सांप्रदायिक संघर्ष नहीं रहा। उन्हें सभी विचारों और आदर्शों के प्रकाश में देखा गया और भगवान
जगन्नाथ ने चुपचाप अवशोषित उन सभी को अपने भीतर
समावेशित कर लिया, जिस पर उन्हें अलग-अलग समय और अलग-अलग लोगों द्वारा देखा गया। प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय के भक्तों ने उन्हें अपनी भक्ति का उद्देश्य देखा था। दूसरे शब्दों में, देवता ने सर्वशक्तिमान के प्राथमिक गुणों में से एक को पूरी तरह से संतुष्ट किया है | शंकराचार्य से चैतन्य देव तक, महान रहस्यवादियों ने अपने अनुभव के प्रतीक देवता में देखा है, यह गैर द्वैतवाद की गहराई या द्वैतवाद की परमात्मा है।
इसलिए
यह अनायास नहीं है कि रथयात्रा
में जगन्नाथ जी को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है। इन अवतारों में विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध को भी शामिल किया जाता है। जगन्नाथ जी की रथयात्रा
पुरी का प्रधान महोत्सव है जिसका आयोजन आषाढ़ शुक्ल की द्वितीया को किया जाता है। कहते
हैं माता सुभद्रा को अपने मायके द्वारिका से अत्यंत प्रेम था इसलिए उनकी इस इच्छा को
पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण,
बलराम और सुभद्राजी ने अलग रथों में बैठकर द्वारिका का भ्रमण किया था।
तब से माता सुभद्रा की नगर भ्रमण की स्मृति में पुरी
में हर वर्ष रथयात्रा निकाली जाती है। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है।
रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त
और अहंकार से होती है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते
हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए
रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करती है जो
जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं
होती, बल्कि
उस माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं
नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है।
रथ
यात्रा के लिए तीन विशाल रथ सजाए जाते हैं। पहले रथ पर श्री बलराम जी, दूसरे पर सुभद्रा एवं
सुदर्शन चक्र तथा तीसरे रथ पर श्री जगन्नाथ जी विराजमान रहते हैं। भगवान जगन्नाथ का
रथ नंदीघोष है। देवी सुभद्रा का रथ दर्पदलन है और भाई बलभद्र का रक्ष तल ध्वज है। संध्या
तक ये रथ गुंडीचा मंदिर (वृंदावन का प्रतीक) पहुंच जाते हैं। रानी गुंडिचा भगवान जगन्नाथ
के परम भक्त राजा इंद्रदयुम्न की पत्नी थी इसीलिए रानी को भगवान जगन्नाथ की मौसी कहा
जाता है। दूसरे दिन भगवान से उतरकर मंदिर में पधारते हैं और सात दिन वहीं विराजमान
रहते हैं। दशमी को वहां रथ से लौटते हैं। इन नौ दिनो में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन
को ‘आड़पदर्शन’
कहते हैं। जगन्नाथ जी के इस रूप का विशेष माहात्म्य है।
तीनों
रथों के निर्माण के लिए भी लकड़ियों का ही इस्तेमाल होता है। इसमें कोई भी कील या कांटा, किसी भी धातु का प्रयोग
करना वर्जित माना गया है। यह रथ बनाने की प्राचीन भारतीय कला का उत्कृष्ट नमूना है
। इसमें आकर्षक चित्रकारी और लकडी की अनेक मनमोहक नक्काशी की गई है ।
श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतः प्रसाद ही कहा जाता है। महाप्रसाद मानने के पीछे कई किंवदंतियाँ प्रचलित है | इनमें से एक यह माना जाता है कि यह प्रसाद भगवान जगन्नाथ से पहले देवी बिमला को चढ़ाया जाता है | कहा जाता है कि इस महाप्रसाद को बिना किसी संदेह एवं हिचकिचाहट के उपवास, पर्व आदि के दिन भी ग्रहण कर लेना चाहिए। एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद नाम महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला। महाप्रभु बल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मन्दिर में ही किसी ने प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ| जिस श्रद्धा और भक्ति से पुरी के मन्दिर में सभी लोग बैठकर एक साथ श्री जगन्नाथ जी का महाप्रसाद प्राप्त करते हैं उससे वसुधैव कुटुंबकम का की भावना स्वत: परिलक्षित होती है।
विश्व का सबसे बड़ा रसोईघर जगन्नाथ मंदिर में है जहां सैकड़ों बावर्ची और सेवक काम करते हैं। प्रतिदिन लाखों लोग भगवानजी का महाप्रसाद ग्रहण करते हैं। रसोई का इतना विशाल और
व्यवस्थित प्रबंधन विश्व के किसी भी कोने में उपलब्ध नहीं है | प्रबंधन पढ़ने वालों को पांच सितारा होटलों के बजाय यहां आकर बहुत कुछ सीखना चाहिये कि पेशेवर प्रबंधन होता क्या है | सबसे अहम
यह कि भोजन की सूची(मेन्यू) भी कोई साधारण नहीं होती है बल्कि 56 स्वादिष्ट व्यंजनों
की होती है जो प्रतिदिन तैयार की जाती है |
“षड रस व्यंजन नानाजाति, छप्पन भोग लगे दिन राति”
भारतीय
परम्परा के अनुसार भोजन में सभी छह रस- मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय-होने चाहिए। छह रस
युक्त आहार से ही आयुष्य, तेज, उत्साह, स्मृति, ओज
(जीवनीशक्ति) और जठराग्नि की वृद्धि होती है। ये छह रस ही शरीर के छह विकारों-ईर्ष्या, शोक, भय, क्रोध, अहंकार, द्वेष-को
दूर करने के लिए आवश्यक है | तात्पर्य है कि जगन्नाथ के महाप्रसाद
में स्वस्थ और दीर्घायु जीवन की परिकल्पना निहित है |
कोई
भी पांच सितारा होटल शायद ही हजारों
लोगों के लिए 56 व्यंजन प्रतिदिन तैयार करता होगा | यह वह प्रबंधन है जिसका अध्ययन
किसी भी बड़े से बड़े मैनेजमेंट कॉलेज में शायद ही पढाया जाना संभव होगा | यह
शाकाहारी भोजन की ओड़िशा की उत्कृष्ट पाक संस्कृति की सदियों पुरानी परंपरा है जो
सुविधाजनक तैयारी से युक्त, पोषक तत्वों से भरपूर, और कम खर्चीली है |
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