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भारत
छोड़ो आंदोलन की 75 वीं वर्षगांठ पर संसद
में आयोजित विशेष आयोजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशवासियों और उनके
जनप्रतिनिधियों का आह्वान करते हुए कहा कि जिस तरह से 1942 के जन आंदोलन ने 5
साल में अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिये विवश किया था,
यदि वैसा ही संघर्ष हम सब मिलकर 2017 से 2022 के बीच के 5 साल में करें तो
देश को भ्रष्टाचार, गरीबी, कुपोषण,
अशिक्षा, जातिवाद, सांप्रदायिकता जैसी तमाम
बुराइयों और समस्याओं से भी मुक्त कर सकते है। लेकिन दूसरी ओर लोकसभा में विपक्ष
का नेतृत्व कर रही कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने मोदी की अपील पर कटाक्ष
करते हुए कहा कि “कुछ ऐसे संगठन भी हैं जिन्होंने आजादी के आंदोलन में कोई
योगदान नहीं दिया और आज आजादी की बात करते हैं। ऐसे संगठन आजादी के आंदोलन का विरोध
करते थे|” जाहिर है सोनिया गांधी का यह बयान विपक्ष की सकारात्मक भावना को
प्रदर्शित नहीं करता है| वह भी ऐसे ऐतिहासिक अवसर पर, जब देश को आगे ले जाने का
संकल्प लेते समय दलगत राजनीति से ऊपर उठने और साथ आने की जरुरत है| एक ओर जहाँ देश
के अधिकतर नेताओं ने देश को स्वतंत्रता के दौर और स्वतंत्रता दिलाने वाले नायकों
को याद किया वही कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने सिर्फ पंडित नेहरू समेत अपने
परिवार की उपलब्धियों का बखान किया| सवाल यह है कि ऐसे अवसर क्या ये तेरी आज़ादी,
ये मेरी आज़ादी की भावना उचित है ? क्या व्यापक राष्ट्रीय एवं जनहित के मुद्दों पर
एकजुट नहीं हुआ जा सकता है ? क्या कांग्रेस को इस तथ्य को स्वीकार नहीं करती है कि
15 अगस्त 1947 को मिली आजादी सभी भारतवासियों को मिली हुई आज़ादी है ? क्या देश के
स्वतंत्रता सेनानियों का बंटवारा किया जा सकता है ? क्या देश की आज़ादी का कॉपीराइट
किया जा सकता है ?
सोनिया
गांधी के तर्क के आधार पर देखा जाय तो स्वाधीनता संग्राम के दौर में सैकड़ों संगठन
थे जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से आज़ादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया था लेकिन
सामाजिक-धार्मिक और सांस्कृतिक सुधार के उन मुद्दों के लिए अनवरत संघर्ष किया, जिन
मुद्दों और समस्याओं को कांग्रेस अक्सर आज़ादी की प्राप्ति के बाद समाधान करने के
लिए छोड़ दिया करती थी | सोनिया गांधी के तर्क से तो राजाराम मोहन राय, दयानंद
सरस्वती, केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद विद्यासागर, विवेकानंद, अरविंदो घोष, रामास्वामी
पेरियार आदि को भी आज़ादी के संघर्ष से बाहर अलग ही स्थान देना पड़ेगा | सोनिया
गाँधी के आरोप के पीछे मूल समस्या यह है कि आज़ादी के बाद कांग्रेस पार्टी में सब
कुछ नेहरू गांधी परिवार के इर्दगिर्द ही घूमता रहा है। पिछले सत्तर सालों में एक
परिवार के दायरे में सीमित रहने और उसके महिमामंडन में तल्लीन रहने के कारण कांग्रेस
ने देश के लाखों राष्ट्रनायकों के योगदान को विस्मृत कर दिया | बाल गंगाधर तिलक,
विपिनचंद्र पाल, लाला लाजपत राय, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, चंद्रशेखर
आजाद, चाफेकर बंधु जैसे अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों को हाशिए पर या
फुटकल खाते में डाल दिया गया |
सच तो यह
है कि आज़ादी की लड़ाई पूरे देश की लड़ाई थी, आज़ादी के संघर्ष में भारत के सभी
जातियों, धर्मों, नस्लों और लिंगों के लोगों ने आहुति दी और पूरे भारतवर्ष की
आज़ादी का स्वप्न देखा था | ऐतिहासिक दिवसों पर इस विमर्श का कोई मतलब नहीं कि
किसने आज़ादी के लिए संघर्ष किया| इस पर न तो किसी पीढ़ी का कॉपीराइट है और न किसी दल या समूह का सर्वाधिकार
है| विदेशी सत्ता की अधीनता से मुक्त होने का समय निःसंदेह ऐतिहासिक क्षण था,
लेकिन आज आज़ादी को किसी समय, दिन और वर्ष से सीमित नहीं किया जा सकता है| आज़ादी का
महत्व हर पल, हर दिन और हर वर्ष में उतना ही है जितना 15 अगस्त 1947 को था | इसलिए
हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और महापुरुषों के संघर्ष को, बलिदान को, उनके कर्तव्य
को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने का दायित्व हर पीढ़ी और हर
युग को है| अतः ऐसे अवसर प्रत्येक भारतीय के लिए गौरव का क्षण है |
यह सच है
कि आज़ादी के संघर्ष में कांग्रेस धुरी थी| लेकिन अन्य संगठनों के संघर्ष को
महत्वहीन नहीं माना जा सकता है | आजादी के आंदोलन में योगदान नहीं करने को लेकर कांग्रेस
अध्यक्षा सोनिया गांधी का इशारा जिस संगठन की ओर थे, वह भले ही संगठन के तौर पर आज़ादी
के संघर्ष में शरीक नहीं हुआ लेकिन 1925 में स्थापना के बाद से उस संगठन ने कभी भी
राष्ट्रीयता और भारतीयता से समझौता नहीं किया | संघ का लक्ष्य ‘व्यक्ति
निर्माण से राष्ट्र निर्माण’ का रहा है| संघ का मूल विचार ‘राष्ट्रीय पुनरुत्थान’ के प्रति
वचनबद्ध होना है। यहाँ तक कि महात्मा गाँधी और बाबा आंबेडकर ने भी संघ की शाखाओं में
अनुशासन और किसी भी प्रकार के भेदभाव रोधी भावना को अहम स्थान दिए जाने को लेकर
संघ की प्रशंसा से अपने को रोक नहीं पाए | 31 दिसंबर 1929 को लाहौर में कांग्रेस
ने पहली बार पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित करते हुए स्वंतत्रता दिवस बनाने का
फैसला किया तो 26 जनवरी 1930 को संघ की प्रत्येक शाखा पर सायं 6 बजे राष्ट्रध्वज फहराकर
स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। संघ ने राष्ट्र सेवा के लिए किसी आंदोलन में शामिल
होने से अपने स्वयंसेवकों पर कभी भी पाबंदी नहीं लगाई। गांधीजी ने जब 1930 में नमक
आन्दोलन शुरू किया तो संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार ने संघचालक का दायित्व
डॉक्टर परांजपे को सौंपकर अनेक स्वयंसेवकों के साथ आंदोलन में शामिल हो गए थे और 9
माह का सश्रम कारावास काटा। डॉ. हेडगेवार के इस कदम से ब्रिटिश सरकार का यह भ्रम
दूर हो गया कि यह हिन्दू महासभा का पिछलग्गू संगठन है | द्वितीय विश्वयुद्ध के
दौरान संघ और उसके स्वयंसेवकों ने ब्रिटिश सेना में भर्ती होने का भी बहिष्कार
किया | 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्वयंसेवकों की सक्रिय भागीदारी रही |
अरुणा आसफ अली, जय प्रकाश नारायण जैसे कांग्रेसी नेताओं को संघ के स्वयंसेवकों ने अपने
घरों में रहने की न केवल जगह दी बल्कि उनकी सुरक्षा का भी पूरा ध्यान रखा। इस तरह औपनिवेशिक शासन को खत्म करने के लिए संघ की प्रवृत्ति और महत्वाकांक्षा
पर संशय नहीं किया जा सकता है | संघ की कमजोरी स्वतंत्रता आंदोलन से इसकी
अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि संघ आज़ादी के बाद कांग्रेस और उनके अनुचर बुद्धिजीवियों
व वामपंथियों की छद्म साम्प्रदायिक नीतियों, शिक्षा और संस्कृति के प्रतिष्ठानों
पर उनके वर्चस्व, इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने की प्रवृति को बौद्धिक
विमर्श के आधार पर चुनौती देने में असफल रहा है | परिणामतः इतिहास के पन्नों से
लेकर तमाम बहसों में सांप्रदायिक होने के लगातार गोयबलीकरण से संघ ग्रसित होता रहा
|
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