स्वच्छता दायित्व-बोध के बिना स्वच्छ भारत का सपना अधूरा
2 अक्टूबर, 2017 को गाँधी
जयंती के साथ ही स्वच्छता के औपचारिक अभियान की भी तीसरी वर्षगांठ थी | इसके ठीक
दो दिन पहले बुराई पर अच्छाई का पर्व दशहरा भी मनाया गया | अधिकांश धार्मिक पर्वों
और त्योहारों में अन्य मान्यताओं के साथ-साथ स्वच्छता भी एक अहम हिस्सा रहा है| धार्मिक
मान्यताओं से अलग देखा जाय तो जीवन में स्वच्छता का व्यापक महत्व होता है। यह
अक्सर कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास होता है और साफ-सुथरे
घर में लक्ष्मी। लेकिन दशहरा के दौरान
रावण के पुतलों के दहन में शामिल होनेवाली भीड़ ने चारों ओर पानी बोतल, खाद्य
वस्तुओं के पैकेट-प्लास्टिक-रैपर-थैली-बोतल या कैन के कूड़े का जो ढेर फैलाया, गंदगी का जो वीभत्स
रूप अपने पीछे छोड़ा, वह शंका के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ता है कि लोग स्वच्छता के प्रति
जागरूक है या उनके मन-मस्तिष्क कही भी स्वच्छता के लिए कोई स्थान शेष बचा है |
तकरीबन तीन
साल पहले जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गाँधी जयंती के दिन ही देश को स्वच्छ
बनाने की प्रक्रिया का सूत्रपात किया था, तब वह बेशक एक ऐसा क्रन्तिकारी कदम था
जिसको लेकर कल्पना करना असंभव था कि देश में सफाई को लेकर कभी अभियान भी छेड़ा जा
सकता है | महात्मा गाँधी ने एक “स्वच्छ भारत”
का सपना देखा था और वे इसके लिए प्रयासरत भी
थे, लेकिन आजादी के बाद सरकारों ने स्वच्छता के महत्व को समझने की कोशिश भी
नहीं की, इसलिए हमारे देश में स्वच्छता कभी भी प्राथमिकता नहीं रही | इसके लिए संकल्प
करने की बात तो दूर की कौड़ी थी | फिर भी स्वच्छ
भारत अभियान शुरू हुआ | नेता से लेकर व्यापारी, फिल्म स्टार और अधिकारी सब झाड़ू
लेकर सड़क साफ करने, दिखावटी ही सही, लगे। यह उम्मीद बंधी कि यह अभियान लोगों की
आदतों, व्यवहार, आचरण, मानसिकता, जीवन पद्धति और संस्कार का अहम हिस्सा बनकर एक सकारात्मक
बदलाव की दिशा तय करेगा | लेकिन वास्तविकता यह है कि सफाई को लेकर लोगों की सोच
एवं व्यवहार में बदलाव की प्रक्रिया अत्यंत ही निराशाजनक है |
ऐसा नहीं
है कि लोग स्वच्छता की महता से अपरिचित है या स्वच्छता के प्रति जागरूक नहीं है।
अक्सर सभी लोग अपने घरों या दूकानों या निजी परिसरों की साफ-सफाई करते हैं लेकिन
समस्या तब खड़ी होती है जब वे अपने घरों या दूकानों के दायरे से बाहर होते है तब
उनका स्वच्छता-बोध अचानक ही विलुप्त हो जाता है| दीपावली से पहले या अन्य अवसरों
पर हम अपने-अपने घरों को साफ करके कूड़ा सड़क पर, मोहल्ले में या सार्वजानिक स्थलों
पर फेंक देते है| बड़ी-बड़ी महंगी गाड़ियों में बैठे लोग खाली बोतल या चिप्स के
खाली पैकेट बाहर सड़क पर गिरा देते हैं या कही भी दरवाजा खोलकर गुटके का थूक सड़क
पर निकाल देते हैं और शान से आगे बढ़ जाते हैं। आज नगरों में यह समस्या अत्यंत गंभीर
है, जहाँ तमाम प्रचार तंत्र, सफाई के इन्फ्रास्ट्रक्चर के बावजूद लोग कूड़ा फ़ैलाने
से बाज नहीं आते है| दिल्ली की मेट्रो सेवा साफ-सफाई रखने में एक मिसाल है| मेट्रो
परिचालन के दौरान हर क्षण लोगों से गंदगी नहीं फ़ैलाने या यत्र-तत्र नहीं थूकने की
अपील की जाती है| फिर भी कुछ लोग पानी बोतल, खाद्य वस्तुओं के पैकेट-प्लास्टिक-रैपर-थैली-बोतल
या कैन फेंकने और कहीं भी गुटखे की पीक थूकने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते है |
ऐसे लोगों में मेट्रो की सफाई देखकर भी स्वच्छता-बोध नहीं होता है| उनके अचेतन में
यह भाव निहित होता है कि सार्वजानिक स्थलों की सफाई करना हमारा नहीं, दूसरों का या
सरकार का काम है। यह उनका स्वच्छता-बोध उस दायित्व-बोध से रहित होता है जो यह समझता
है कि स्वच्छता सबकी नैतिक जवाबदेही है। अर्थात् स्वच्छता की सामूहिक जिम्मेदारी
से मानसिकता से रहित होना सबसे बड़ी समस्या है |
महात्मा
गांधी ने सफाई को आजादी के आंदोलन का हिस्सा इसलिए बनाया था, क्योंकि
समाज की बाहरी गंदगी उसके अंदर व्याप्त गंदगी को ही दिखाती है। गांधीजी सफाई को
हमारे समाज में व्याप्त कुरीतियों और कमजोरियों को दूर करने का माध्यम बनाना चाहते
थे। वे पहले लोगों के संस्कार और स्वभाव में बदलाव के द्वारा स्वच्छता को जीवन
पद्धति का एक हिस्सा बनाकर एक सर्व स्वीकृत सामाजिक मूल्य के रूप में देखना चाहते
थे| अंत:करण की शुद्धता से शुरू होने वाला यह अभियान एक दिन के लिए किया जाने वाला
नाटक नहीं है। इस मानसिकता में सकारात्मक
बदलाव लाने के लिए जरुरी है कि साफ-सफाई की जिम्मेदारी समाज के एक खास वर्ग या
सरकार पर डालकर स्वयं को कथित सभ्य समाज बनने की प्रवृति से मुक्त होने का संस्कार
विकसित करना होगा | इसके लिए दंड और प्रोत्साहन की दोतरफा नीति को प्रभावी ढंग से
अमल में लाए जाने की जरुरत है| एक ओर कूड़ा और गंदगी फैलाने वालों से सख्ती से
निपटा जाना चाहिए तो दूसरी ओर स्वच्छता की संस्कृति की नींव स्कूलों और शिक्षा संस्थानों से ही डाली जानी चाहिए, तभी आने वाली पीढ़ी स्वच्छता को
एक जीवन मूल्य के रूप में अपना सकेगी। गांधीजी ने भी स्वच्छता के लिए कठोर नियमों
के पालन की वकालत की थी। दूसरी ओर यदि स्वच्छता की मानसिकता और हमारे स्वास्थ्य से
उसके संबंध को हमारी शिक्षा-व्यवस्था का अनिवार्य
हिस्सा बनाया गया होता तो लोगों के लिए गंदगी साफ करना अपमान नहीं, सम्मान की
बात होती | साफ-सफाई को महज धार्मिक आयोजनों तक सीमित रहने न देकर उसे व्यापक
सामाजिक आचरण के रूप में सुनिश्चित किया जाना चाहिए|
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