Monday, 25 September 2017

एकात्म मानववाद और भारतीय संस्कृति

एकात्म मानववाद और भारतीय संस्कृति

कुछ लोग सिर्फ समाज का भला करने और समाज बदलने के लिए जन्म लेते हैं और इस महायज्ञ में अपना सर्वस्व आहुति समर्पण कर जाते है | पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जीवन-यात्रा एक ऐसे व्यक्तित्व का सफरनामा है, जिसने अपनी हर सांस के साथ भारतीय सभ्यता, संस्कृति, समाज और राजनीति को जिया और मानव मात्र की बेहतरी के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया | मानव मात्र के सर्वांगीण कल्याण एवं विकास की आकांक्षी पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। एकात्म मानववाद उनके चिंतन की एक ऐसी मौलिकता है, जो भारतीय इतिहास, परंपरा, राजनीति और भारतीय अर्थनिति के समावेशी धरातल पर स्थित है |
दीनदयाल द्वारा स्थापित एकात्म मानववादकी अवधारणा के अनुसार मनुष्य केवल शरीर नहीं है बल्कि मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का एक समुच्चय है| जिस प्रकार मनुष्य का शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग स्वस्थ और समुचित रूप से काम करते है तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है, उसी प्रकार समाज और संस्कृति के विभिन्न अंग पारस्परिक समन्वय के साथ और स्वस्थ रूप से काम करते है तभी एक ऐसे समाज और ऐसी संस्कृति का विकास संभव होता है, जिसमें मनुष्य का साथी मनुष्यों, अन्य प्राणियों से और प्रकृति से सार्थक संबंध हो | समष्टि व्यक्तियों से मिलकर बनती है, इसलिए उसमें भी इन तत्वों का किसी न किसी रूप में दर्शन होना चाहिए | इस प्रकार समष्टि भी देश, जन, संस्कृति और चैतन्यता का समुच्चय है | यह समस्त चर-अचर जगत में एक ही मानवता की भावना के दर्शन की अवधारणा है | यह यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे की विराट अवधारणा है | भारतीय चिंतन और संस्कृति में जिस तरह से सृष्टि और समष्टि को एक समग्र रूप में देखने की प्रवृति रही है उसी के अनुकूल पं दीनदयाल ने एकात्म मानववाद के द्वारा मानव, समाज और प्रकृति व उसके संबंध को समग्र रूप में देखा है | इसमें व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और फिर मानवता और चराचर सृष्टि का विचार किया है| टुकड़ों-टुकड़ों में विचार करना विशेषज्ञ की दृष्टि से उत्तम हो सकता है लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से उचित नहीं | पश्चिम के आधुनिक विचारों की मुख्य समस्या यही है कि वे जीवन और समाज के संबंध में खंड-खंड विचार करते हैं और फिर उन्हें आपस में जोड़ने की कोशिश करते है | भारतीय चिंतन परम्परा में जीवन की अनेकता और विविधता को स्वीकार और सम्मान करते हुए उनके मूल में निहित एकता को खोजने और स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है|
दीनदयाल उपाध्याय ने आज़ादी के बाद या आज़ादी के पहले से हो जिस तरह से तत्कालीन भारतीय परिवेश में पूंजीवाद और साम्यवाद या समाजवाद जैसी पश्चिम से आयातित विचारधाराओं को उन्नति का महामंत्र साबित करने की होड़ मची हुई थी, उस दौर में अपनी पुस्तक एकात्म मानववाद (इंटीगरल ह्यूमेनिज्म) में साम्यवाद और पूंजीवाद का विश्लेषण करते हुए दोनों को भारतीय समाज और संस्कृत्ति के लिए प्रतिकूल घोषित किया | एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत की आजादी पश्चिमी अवधारणाओं जैसे- व्यक्तिवाद, लोकतंत्र, समाजवाद, साम्यवाद और पूंजीवाद पर निर्भर होकर सार्थक नहीं हो सकती है | इन सभी पश्चिमी अवधारणाओं ने एकमात्र भौतिक समृधि को विकास का पर्याय माना लेकिन वास्तव में भौतिक समृधि के शिखर पर पहुँचने के बावजूद पश्चिम का समाज सुखी नहीं हो सका क्योंकि पश्चिम में मनुष्य पर पूर्णता से विचार नहीं किया गया | पूंजीवाद ने मानव को एक आर्थिक इकाई माना और व्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर मुक्त अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया और व्यक्ति को उपभोक्ता से अधिक कुछ नहीं समझा | साम्यवाद ने समानता के आधार पर व्यक्ति को मात्र एक कार्मिक इकाई माना और समाज के विकास को द्वंदात्मक शक्तियों का परिणाम मानकर मनुष्य को नियंता होने की क्षमता से ही वंचित कर दिया | अर्थात् पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ने ही मनुष्य के व्यक्तित्व को नष्ट कर दिया | दीनदयाल जी ने दोनों की कमियों की ओर संकेत करते हुए स्पष्ट किया कि मनुष्य के व्यक्तित्व के विनाश के द्वारा संतुलित और उचित विकास संभव नहीं है | उनके अनुसार मानव की प्रगति का अर्थ शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारों की प्रगति है | भारतीय चिंतन या संस्कृति के बारे में यह महज भ्रम फैलाया गया है कि हम अध्यात्मवादी है, केवल आत्मा की चिंता करते है| सच तो यह है कि आत्मा की चिंता करते हुए शरीर को नहीं भूलते हैं क्योंकि हम जानते है कि ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ शरीर धर्म पालन का पहला साधन है । साथ ही यह भी मानते है कि ‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः।’ आत्मा का साक्षात्कार दुर्बल व्यक्ति नहीं कर सकता है | इसप्रकार एकात्म मानववाद भारतीय संस्कृति की अभिन्न विशिष्टता है |
पंडित जी के अनुसार अंग्रेजी दासता से हम मुक्ति इसीलिए चाहते थे कि वे न केवल हमारी स्वाधीनता में बाधक थे, बल्कि वे अपने रीति रिवाजों से हमारे समाज, जीवन और संस्कृति को भी दूषित करते जा रहे थे | अतः आज़ादी की सार्थकता तभी संभव है जब हमें उसकी आत्मानुभूति हो और आत्मानुभूति होने के लिए देश की संस्कृति, प्रकृति और स्वभाव के अनुकूल प्रणालियों का निर्माण होना चाहिए | दीनदयाल जी के अनुसार पूंजीवाद और साम्यवाद या समाजवाद की प्रणालियाँ भारतीय समाज के लिए उपयुक्त नहीं हो सकती है | लेकिन तत्कालीन नीति-निर्माताओं ने भारत के विकास की जो रूप-रेखा तय की और आज़ादी के 70 वर्षों में भारत के विकास की जो प्रक्रिया देखि जा रही है उससे दीनदयाल जी की बातें अक्षरशः सही साबित हो रही है | इस प्रकार पं दीनदयाल का एकात्म मानववादमहज एक वैचारिक अनुष्ठान नहीं है| इसमें राजनीति, समाजनीति, अर्थव्यवस्था, उद्योग, उत्पादन, शिक्षा, लोक-नीति आदि पर व्यापक और व्यावहारिक नीति-निर्देश शामिल है |



2 comments:

  1. आज भी प्रासंगिक है

    ReplyDelete
  2. बहुत सारगर्भित लेख

    ReplyDelete