Thursday, 14 September 2017

इतिहास और इतिहास दर्शन

सामान्य अर्थों में इतिहास अतीत में घटित राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक गतिविधियों का विश्लेषण है| इतिहास न केवल हमें अतीत से परिचित कराता है बल्कि वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में अतीत का मूल्यांकन भी करता है | किसी भी भाषा या देश के साहित्य के सम्यक मूल्यांकन में इतिहास की महत्वपूर्ण भूमिका होती है| किसी भी साहित्यिक रचना का अस्तित्व इतिहास के भीतर ही होता है, इतिहास के बाहर नहीं | इसलिए इतिहास की जानकारी के बिना साहित्य के क्रमिक विकास को समझा ही नहीं जा सकता है | साहित्य के इतिहास को समझने-समझाने के दृष्टिकोण, प्रयोजन और पद्धति की सहायता से साहित्य के इतिहास लेखन की सामाजिक सार्थकता का विकास हो सकता है| जिस प्रकार इतिहास घटनाओं का पुंज नहीं है उसी प्रकार साहित्य का इतिहास रचनाओं और रचनाकारों का विवरण मात्र नहीं है | साहित्य विशेष का इतिहास लेखन करते समय हमें सामान्य इतिहास की मदद लेने की जरुरत होती है | यह पूरी साहित्यिक परंपरा और प्रवृति को समझने का एक माध्यम है | साहित्य के इतिहास लेखन में साहित्य के परिवर्तन और विकास यात्रा की व्याख्या होती है| इतिहास और साहित्य के इस संबंध का अध्ययन हम इस इकाई में करेंगे |
हिंदी में साहित्येतिहास लेखन की परंपरा बहुत पुरानी नहीं है | गार्सा-द-तासी से शुरू हुई इतिहास लेखन की प्रक्रिया आज भी अनवरत जारी है और मानव सृष्टि तक बनी रहेगी | इस इकाई में साहित्य लेखन की परम्परा के साथ इतिहास लेखन की दृष्टि, इतिहास लेखन की चुनौतियों, नामकरण और काल विभाजन पर प्रकाश डाला गया है | इसके अतिरिक्त किस तरह के साहित्य और साहित्यकारों को साहित्य के विकास प्रक्रिया का अंग बनाया जाना चाहिए और गौण साहित्यकारों की क्या भूमिका हो, पर भी संक्षेप में विचार किया जाएगा |

इतिहास और इतिहास दर्शन
इतिहास में अतीत की वास्तविक और यथार्थ घटनाओं और प्रवृति का वर्णन, विवेचन और विश्लेषण कालक्रम की दृष्टि से किया जाता है| इतिहास में इतिवृत होता है, घटनाएँ होती हैं और तथ्य होता है लेकिन सभी मिलाकर भी इतिहास नहीं होता है| तथ्य किसी भी इतिहासकार के लिए कच्चे माल की तरह होता है| इतिहास अतीत की अंध-पूजा नहीं है| इतिहास में ऐतिहासिक घटनाओं, तथ्यों के परिवर्तन और विकास यात्रा की व्याख्या होती है| इतिहास में परम्परा और परिवर्तन के द्वंद्वात्मक संबंध का बोध  होता है| नलिन विलोचन शर्मा के अनुसार ‘घटनाओं के वास्तविक क्रम का द्योतन करने के लिए इतिहास शब्द का प्रयोग होता है|’ वस्तुतः इतिहास में तथ्यों और घटनाओं के आधार पर युग विशेष का मूल्यांकन और व्याख्या की जाती है| इतिहास में तथ्य और दृष्टिकोण, अनुसन्धान और व्याख्या का सामंजस्य प्रस्तुत करता है| इतिहास लेखन अनवरत चलती रहने वाली प्रक्रिया है| इतिहासकार अनुसन्धान के द्वारा प्राप्त नवीन तथ्यों का संकलन करता है, पुराने तथ्यों में संशोधन-परिवर्द्धन करता है और अपनी युगीन दृष्टिकोण के आधार पर उसकी व्याख्या करता है और उन्ही तथ्यों के आलोक में वर्तमान के परिप्रेक्ष्य का भी मूल्यांकन करता है और भविष्य की संभावनाओं को भी प्रक्षेपित करता है| इसप्रकार इतिहास अतीत, वर्तमान और भविष्य में एक तारतम्य स्थापित करता है |   
इतिहासकार या किसी द्रष्टा की चेतना में इतिहास की घटनाएँ जिस रूप में प्रतिबिंबित होती हैं, उसे इतिहास दर्शन कहते हैं | यह अनिवार्यतः चेतना के इतिहास रूपी प्रक्रिया की एक अवस्था है| दूसरे शब्दों में इतिहासकार अतीत की घटनाओं और तथ्यों का प्रयोग किस तरह से करता है, यह उसके इतिहास-दर्शन पर निर्भर करता है | इतिहास दर्शन अतीत की मूल चेतना एवं उपलब्धियों पर बल देता है और वर्तमान के साथ संवाद स्थापित करता है | यह एक ओर विश्लेषणात्मक एवं तर्कपूर्ण विवेचन करता है तो दूसरी ओर संश्लिष्ट प्रभाव का भी सृजन करता है | इतिहास दर्शन कालखंडों और उसमें घटित घटनाओं को एक अविच्छिन्न धारा के रूप में देखता है क्योंकि किसी भी युग की कोई भी घटना या क्रांतियाँ अचानक नहीं होती है |

साहित्येतिहास : विविध दृष्टियाँ
साहित्य का इतिहास अतीत में लिखे गए साहित्य या साहित्यकारों का ब्यौरा मात्र नहीं है | यह अतीत की किसी रचना को अपने युग के यथार्थ के प्रतिबिम्बन का केवल साधन मात्र नहीं है | साहित्य के इतिहास का आधार है साहित्य के विकासशील स्वरूप की धारणा | अर्थात् साहित्य के इतिहास में साहित्य की विकासमान परंपरा, उसके उद्भव से आज तक की स्थिति का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है | आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार आदि से अंत तक जनता की चित्तवृतियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना साहित्य का इतिहास कहलाता है | जबकि द्विवेदी जी ने साहित्य के इतिहास को कालस्रोत में बहे आते हुए जीवंत समाज की विकास गाथा माना है | किसी भी देश का साहित्य उस देश की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वातावरण को प्रतिबिंबित करता है | इसलिए किसी भी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए उससे संबंधित जातीय परम्पराओं, राष्ट्रीय और सामाजिक स्थितियों और परिस्थितियों को समझना आवश्यक है |
साहित्य का इतिहास परिवर्तन और निरंतरता को भी व्याख्यायित करता है | साहित्य की प्रगति, परम्परा, निरंतरता और विकास को पहचानना साहित्य के इतिहास का प्रयोजन होता है | इसमें भी अतीत की रचनाओं का मूल्यांकन वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में किया जाता है क्योंकि वर्तमान से कटी हुई इतिहास चेतना न तो अतीत को समझ पाती है और न वर्तमान को | संक्षेप में, साहित्य के इतिहास में समाज की विकास गाथा के साथ ही कृतियों का मूल्यांकन, साहित्यिक मूल्यों एवं प्रवृतियों का विवेचन, उसके विचार और रूप पक्ष का विश्लेषण, रचनाकार की सृजनशील चेतना, मानवीय चिंतन-धारा और जातीय जीवन की प्रमाणिक झांकी होती है |
साहित्य के इतिहास लेखन की अनेक दृष्टियाँ अपनायी गयी है |
 सौष्ठववादी दृष्टि
इस दृष्टि के अनुसार कोई भी साहित्यिक कृति भाषा से निर्मित सौंदर्यबोधी वस्तु होती है, उसके सौन्दर्यपरक और ज्ञानात्मक प्रयोजन होते है | इस दृष्टि से साहित्य के स्वरूप के विश्लेषण में शब्द और अर्थ की संयुक्त सत्ता के विकास और परंपरा को स्वीकार करते हुए साहित्य के विकासमान स्वरूप का निरूपण किया जाता है |
 वैज्ञानिक दृष्टि
इसे इतिहासकार की निरपेक्ष दृष्टि भी कहा जाता है, जहाँ इतिहासकार तथ्यों को वैज्ञानिक और क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुत और व्याख्या करता है| कुछ विद्वानों ने मार्क्सवादी दृष्टि को भी वैज्ञानिक दृष्टि माना है | किन्तु मार्क्सवादी दृष्टि निरपेक्ष दृष्टि नहीं होती है | 
 विधेयवादी दृष्टि 
इस दृष्टि की मुख्य मान्यता यह है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है जिसमें समाज प्रतिबिम्बित होता है| इस दृष्टि के अनुसार साहित्य पर समाज का प्रभाव पड़ता है| किसी भी साहित्य के इतिहास के लेखन के लिए उससे संबंधित जातीय परम्पराओं, राष्ट्रीय और सामाजिक वातावरण और परिस्थितियों का विवेचन और विश्लेषण किया जाता है | विधेयवादी इतिहासकार साहित्य संबंधी आंकड़े एकत्र करने के अलावा तत्कालीन सामाजिक जीवन का अध्ययन करता है और इसके साथ ही समाज और साहित्य में कार्य-कारण संबंध स्थापित करता है| वे वैज्ञानिकता के नाम पर प्राकृतिक विज्ञानों की प्रणाली को साहित्य के इतिहास लेखन में लागू करते है| आचार्य रामचंद्र शुक्ल के ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में कुछ सीमा तक इसी दृष्टि से इतिहास लेखन हुआ है| लेकिन इस दृष्टि से इतिहास लेखन में साहित्यिक परम्परा का समुचित मूल्यांकन संभव नहीं होता है| साहित्य निर्माण में परम्परा का भी योगदान होता है | इस दृष्टि की दूसरी सीमा यह है कि रचनाकार की क्रियाशीलता की उपेक्षा होती है| लेखक सामाजिक यथार्थ को रचना में प्रतिबिंबित ही नहीं करता है बल्कि उसकी पुनर्रचना भी करता है| तीसरी सीमा यह है कि शिल्प के विकास का विवेचन नहीं होता है |
 समाजशास्त्रीय दृष्टि
समाजशास्त्रीय दृष्टि की आधारभूत मान्यता यह है कि साहित्य एक सामाजिक सृष्टि है | इतिहासकार का कर्तव्य साहित्य में अन्तर्निहित सामाजिक या लोक तत्वों का उद्घाटन कर उसकी मूल प्रेरणा का विश्लेषण और जनहित की कसौटी पर उसका मूल्यांकन करना है | आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में साहित्यिक रचनाओं में निहित लोकमंगल या लोकहित का उद्घाटन करते है और उसकी मूल प्रेरणा का भी मूल्यांकन करते है | उनके इतिहास में ‘लोक’ आदि से अंत तक विद्यमान है |
 मार्क्सवादी दृष्टि
कुछ इतिहासकारों ने समाजशास्त्रीय दृष्टि को मार्क्सवादी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर आधारित माना है | मार्क्स ने समाज रचना और उसकी विकास प्रक्रिया में द्वंद्व की भूमिका को गहराई से विवेचित किया है | इस साहित्य पर सामाजिक सृष्टि होने के नाते साहित्य पर इस सामाजिक द्वंद्व का असर पड़ना स्वाभाविक है | मार्क्सवाद साहित्य के वर्गीय स्वरूप, प्रयोजन और विचारधारात्मक रूप को पहचानते हुए साहित्य के इतिहास को समाज के वर्ग-संघर्ष के इतिहास से जोड़कर देखता है | लेकिन समाजशास्त्रीय दृष्टि को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दायरे से सीमित करना उचित नहीं है | समाजशास्त्रीय दृष्टि समाज और साहित्य का विकासशील संबंध को स्थापित करता है जिसे केवल भौतिकवादी विकास के दायरे में सीमित नहीं किया जा सकता है | मार्क्सवादी दृष्टि इतिहासकार की अंतर-दृष्टि, विवेक और उसके इतिहास-बोध को महत्त्व नहीं देती है जबकि इसके बिना इतिहास लेखन के मूर्त होने की कल्पना नहीं की जा सकती है |  

निष्कर्षतः साहित्येतिहास लेखन का कोई पूर्व निर्धारित फार्मूले को अपनाया नहीं जा सकता है | साहित्य के इतिहास में साहित्य और समाज का संबंध, परम्परा और रचनाकार के संबंध, इतिहासकार की अंतर-दृष्टि, विवेक और उसके इतिहास-बोध की जानकारी आवश्यक है |
हिंदी साहित्य इतिहास लेखन की परम्परा
हिंदी साहित्य के इतिहास का लेखन उन्नीसवीं शताब्दी से आरम्भ हुआ है | यद्यपि इसके पूर्व विभिन्न लेखकों ने ऐसे ग्रंथों की रचना हुई है जिसमें हिंदी के विभिन्न रचनाकारों के जीवन वृत्त और कृतित्व का परिचय दिया गया है | जैसे-
1.       चौरासी वैष्णवन की वार्ता (गोकुलदास )
2.       दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता
3.       भक्त नामावली ( ध्रुवदास )
4.       भक्तमाल (नाभा दास)
5.       कविमाला
6.       कालिदास हजारा(कालिदास त्रिवेदी)
लेकिन इन्हें इतिहास नहीं कहा जा सकता है | ये ग्रन्थ मूलतः इतिवृतात्मक है और इसमें कालक्रम एवं संवत् आदि का भी अभाव है |
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन का पहला प्रयास फ्रांसीसी विद्वान गार्सा-द-तासी ने किया | उन्होंने फ्रांसीसी भाषा में "इस्त्वार द ला लितरेत्युर एन्दुई एन्दुस्तानी" नाम से हिन्दुस्तानी का इतिहास लिखने की कोशिश की| इस इतिहास में कवियों का वर्णन अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार किया है| इसमें कुल 738 कवि/लेखक हैं, जिनमें हिंदी के सिर्फ 72 हैं । नलिन विलोचन शर्मा ने इसे हिंदी का प्रथम साहित्येतिहास ग्रन्थ माना है । किन्तु इसमें ऐतिहासिकता पर ध्यान नहीं होने से यह त्रुटिपूर्ण है | फिर भी प्रथम प्रयास होने के कारण महत्वपूर्ण है |

इसके बाद ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने 1877 में ‘शिवसिंह सरोज’ प्रकाशित हुआ जिसमें भी हिंदी वर्णानुक्रम से 1000 कवियों का उल्लेख किया है जो तासी के इतिहास लेखन की तुलना में अधिक व्यवस्थित और सुनियोजित है लेकिन फिर भी इसे इतिहास ग्रन्थ नहीं कह सकते है | कुल मिलाकर ‘शिवसिंह सरोज’ एक अच्छा कवि वृत्त संग्रह बन सका है |

कवियों का वर्गीकरण कालक्रमानुसार करते हुए इतिहास लेखन का प्रथम प्रयास सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने किया, जिनके ग्रन्थ द माडर्न वर्नेक्युलर लिटरेचर ऑफ़ हिन्दुस्तान" का प्रकाशन 1888में हुआ | इस इतिहास में ‘हिंदुस्तान’ से अभिप्राय हिंदी भाषा-भाषी प्रदेश से है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि इसमें न तो संस्कृत-प्राकृत को शामिल किया गया है न ही अरबी-फ़ारसी मिश्रित उर्दू को। इस प्रकार यह स्पष्टत: हिंदी से संबंधित इतिहास ग्रन्थ है| इसमें यत्र-तत्र साहित्यिक और सामाजिक प्रवृतियों को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है | हिंदी साहित्य को चारण काव्य, धार्मिक काव्य, प्रेम काव्य, दरबारी काव्य के रूप में हिंदी साहित्य को बांटना, भक्तिकाल को पन्द्रहवीं सदी का धार्मिक पुनर्जागरण कहना और 16वीं-17वीं शताब्दी के युग ( भक्तिकाल ) को हिंदी का स्वर्णयुग मानना इस इतिहास ग्रन्थ की महत्वपूर्ण विशेषता है | लेकिन काल विभाजन में न तो किसी साहित्यिक प्रवृति को आधार बनाया गया है और न ये विभाजन किसी साहित्यिक परिवर्तन की ओर ही संकेत करते है | फिर भी ग्रियर्सन के इस व्यापक प्रयास को देखकर हिंदी विद्वानों ने यह महसूस किया कि सही मायने में अभी तक हिंदी साहित्य का इतिहास नहीं लिखा गया है | इसलिए नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने मिश्र-बंधुओं-गणेश बिहारी मिश्र, श्याम बिहारी मिश्र और शुकदेव बिहारी मिश्र से हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने का प्रस्ताव किया | मिश्र-बंधुओं ने ‘मिश्र-बंधु विनोद’ नाम से लिखे साहित्येतिहास में कालविभाजन और नामकरण के द्वारा इतिहास लेखन का आधार तैयार किया| किन्तु कालविभाजन और नामकरण में प्रवृतियों को लेकर स्पष्ट संबंध के अभाव के कारण भ्रम की स्थिति बरकरार रही और जिस उद्देश्य से इतिहास लेखन का प्रयास किया गया था वह पूरा नहीं हुआ | यह काम आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हाथों 1929 में हुआ |

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का इतिहास लेखन
हिंदी साहित्य का सर्वप्रथम व्यवस्थित इतिहास लेखन का श्रेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल को है | रामचंद्र शुक्ल ने युगीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में साहित्य के विकास क्रम की व्याख्या करने का प्रयास किया | उनके साहित्येतिहास संबंधी अवधारणा में निम्न बातें शामिल हैं:-
  • प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृति का संचित प्रतिबिंब होता है |
  • जनता की चित्तवृति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप भी परिवर्तित होता चला जाता है |
  • जनता की चित्तवृति के परिवर्तन के चलते राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थितियों का अवलोकन आवश्यक है |

शुक्ल जी की इस धारणा में साहित्य और समाज के बीच जनता की चित्तवृति है | यह चित्तवृति साहित्य में प्रतिबिंबित होती है, सीधे समाज नहीं | जनता की चित्तवृति व्यापक राजनीतिक और सामाजिक परिवेश से प्रभावित होती है और साहित्य के परिवर्तनों को प्रभावित करती है | समाज से साहित्य के संबंध का दूसरा स्तर चित्तवृतियों की परम्परा से साहित्य की परम्परा के संबंध में निहित है| इसप्रकार साहित्य का इतिहास समाज और चेतना के विकास से जुड़ा हुआ है| आचार्य शुक्ल ने साहित्य के विकास में पाठकों की रूचि की भूमिका की व्याख्या करते हुए लिखा है कि “हिंदी साहित्य का विवेचन करने में यह बात ध्यान में रखनी होगी कि किसी विशेष समय में लोगों में रूचि विशेष का संस्कार और पोषण किधर से और किस प्रकार हुआ|” उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास में वीरगाथा काल, भक्तिकाल और रीतिकाल की साहित्यिक प्रवृतियों के विकास में साहित्यिक अभिरुचि की भूमिका का विवेचन किया है | इसके अतिरिक्त आचार्य शुक्ल ने साहित्यिक कृतियों की प्रसिद्धि और विशेष तरह की रचनाओं की प्रचुरता को हिंदी साहित्य के इतिहास के विभिन्न कालों के नामकरण और काल विभाजन का एक महत्वपूर्ण आधार बनाया है | उन्होंने ग्रंथों की प्रसिद्धि को जनभावना की अभिव्यक्ति मानते हुए लिखा है कि “प्रसिद्धि भी किसी काल की लोक प्रवृति की प्रतिध्वनि है |” अर्थात उनके अनुसार रचनाओ की श्रेष्ठता की कसौटी लोक रूचि है | वे इस तथ्य से अपरिचित नहीं थे कि किसी काल विशेष में एक विशेष प्रकार की रचना प्रवृति की प्रधानता के साथ-साथ दूसरी कई प्रकार की रचना प्रवृतियाँ भी सक्रिय रहती है | वे इतिहास लेखन में किसी भी साहित्येतर मानदंड स्वीकार नहीं करते | राम स्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार “ आदिकाल के विविध मुखी साहित्य के केंद्र में उन्होंने वीरगाथा काव्य को रखा|” जबकि जैनों सिद्धों और नाथों के साहित्य को सांप्रदायिक और धर्मोपदेश मात्र होने के कारण नामकरण की कसौटी से बाहर कर देते है | उनका उल्लेख वे केवल यह दिखाने के लिए करते हैं कि एक भाषा के रूप में अपभ्रंश का व्यवहार कब से हो रहा था | यही नहीं वे आधुनिक काल में राजनीति के आक्रांतकारी प्रभाव के प्रति भी सजग है और आधुनिक काल का नामकरण भी विशुद्ध साहित्यिक प्रवृति के आधार पर गद्यकाल करते हैं | जिसप्रकार वे भक्तिकाल की कविता को जनता की चित्तवृति का प्रवाह मानते है और रीतिकाल  में श्रृंगार की प्रधानता का कारण आश्रयदाताओं की रूचि को | इसी क्रम में वे अपने इतिहास लेखन में सामन्ती संस्कृति, दरबारी साहित्य और कलावादी मूल्यों एवं सिद्धांतों का विरोध भी करते है |
आचार्य शुक्ल अपने इतिहास में हिंदी साहित्य का आरम्भ देशी भाषा काव्य से मानते है क्योंकि वे अपभ्रंश को पूरानी हिंदी कहने के बावजूद उसे हिंदी साहित्य की पृष्ठभूमि में ही रखते हैं | आचार्य शुक्ल हिंदी साहित्य के इतिहास का आरम्भ दसवीं शताब्दी से मानते हैं | वे अपभ्रंश के बजाय परवर्ती अपभ्रंश, जिसे वे प्राकृताभाष हिंदी कहते हैं, को हिंदी के अंतर्गत मानते है | इसप्रकार आचार्य शुक्ल के इतिहास लेखन में हिंदी साहित्य के काल विभाजन, प्रवृतियों, सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के अतिरिक्त लेखकों पर उनकी संक्षिप्त आलोचनात्मक टिप्पणियां भी हैं | कहना न होगा कि शुक्ल जी का इतिहास कालजयी इतिहास है और साहित्येतिहास की समस्त अपेक्षाएं पूरी करता है |


आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का इतिहास लेखन
आचार्य शुक्ल द्वारा इतिहास-लेखन के व्यवस्थित ढांचें को आगे ले जाने का महत्वपूर्ण काम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किया | आचार्य द्विवेदी ने इतिहास लेखन में विस्मृत परम्पराओं की खोज के साथ ही साहित्य की अविच्छिन्न परम्परा का पुनर्मूल्यांकन और नए विकास की संभावनाओं की ओर संकेत करते हुए इतिहास लेखन को एक सार्थक दिशा दी है| उन्होंने आचार्य शुक्ल के युग रुचिवादी दृष्टिकोण के समानांतर अपने परम्परापरक दृष्टिकोण को स्थापित करके हिंदी साहित्य के संतुलित इतिहास दर्शन का विकास किया | द्विवेदी जी के अनुसार इतिहास मानव समाज के संघर्ष और विकास की कथा है | इस सामाजिक संघर्ष और विकास के बीच से ही मनुष्यता का विकास होता है, साहित्य और उसके इतिहास का निर्माण होता है | दरअसल परम्परा और युगीन परिस्थितियों के सम्यक मूल्यांकन से संतुलित इतिहास का निर्माण हो सकता है |

अन्य इतिहास लेखन
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से पूर्व 1938 में रामकुमार वर्मा ने ‘हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ लिखा, जिसमें शुक्ल जी पृथक कोई नयी पद्धति नहीं अपनायी गई है लेकिन नवीन शोधों से उपलब्ध सामग्री को अवश्य शामिल किया गया है | इसके अतिरिक्त अन्य कई साहित्येतिहासकारों ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा | इनमें धीरेन्द्र वर्मा, नगेन्द्र, रामविलास शर्मा, राम स्वरूप चतुर्वेदी और बच्चन सिंह प्रमुख है | लेकिन इनमें से रामविलास शर्मा को छोड़कर अन्य इतिहासकारों ने कमोबेश आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी या रामविलास शर्मा की मान्यताओं और इतिहास लेखन की ही पुनः प्रस्तुति की है |

रामविलास शर्मा का इतिहास लेखन
रामविलास शर्मा की इतिहास दृष्टि का आधार मार्क्सवादी सिद्धांत और मान्यताएं हैं | उन्होंने आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी की तरह हिंदी साहित्य का इतिहास नहीं लिखा है, लेकिन भारतेंदु, महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद और निराला के साहित्य, मान्यताओं और सूत्रों का मूल्यांकन करते हुए और उसे आगे बढ़ाते हुए हिंदी भाषा के गठन, निर्माण और विकास का प्रमाणिक विवेचन किया है | उनके इतिहास लेखन में हिंदी भाषा के जातीय स्वरूप की पहचान, खोज और रक्षा का प्रयास दृष्टिगत होता है | इस इतिहास लेखन में उन्होंने हिंदी भाषी समाज और हिंदी भाषा के जातीय स्वरुप के विकास से जुडी हुई जटिल समस्याओं पर नए ढंग से चिंतन करते हुए हिंदी साहित्य के जातीय रूप के आधार को स्पष्ट किया है |
इसप्रकार हिंदी साहित्य में इतिवृत संग्रह और कालानुक्रमिक विवरणों से शुरू हुई इतिहास लेखन की बाल-कोशिश आचार्य रामचंद्र शुक्ल के व्यवस्थित ढाँचे से होते हुए आचार्य द्विवेदी के परम्परा परक इतिहास-बोध से संपृक्त होकर रामविलास शर्मा के हिंदी जातीय स्वरूप की विकासशील परम्परा तक पहुँच गयी है | आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने युगीन परिस्थितियों पर बल दिया है वहीँ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का इतिहास लेखन आचार्य शुक्ल के इतिहास लेखन का पूरक है | बाद के इतिहासकारों ने अपनी-अपनी रूचि और साहित्य बोध के अनुकूल दोनों इतिहास दृष्टियों का संतुलित या कभी-कभी कमोबेश उपयोग अपने इतिहास लेखन में करते है |

हिंदी साहित्य का इतिहास : कालविभाजन की समस्या
यद्यपि काल का प्रवाह अविच्छिन्न होता है जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य अनुस्यूत रहते है| जैसे किसी राज्य को शासन व्यवस्था की सुविधा की दृष्टि से कई जिलों और जिलों को तहसीलों में बाँटा जाता है वैसे ही किसी भी इतिहास के अध्ययन की सुविधा के लिए हम कई काल खण्डों में विभाजित कर लेते है | लेकिन इस काल विभाजन का कोई उचित आधार होना चाहिए |

काल विभाजन की आवश्यकता
इतिहास की सही एवं समुचित समझ के लिए सुसंगत काल विभाजन आवश्यक है | इससे इतिहास और इतिहास के अध्ययन में एक व्यवस्था आती है | रेनवेलेक के अनुसार काल विभाजन के बिना साहित्य का इतिहास घटनाओं की अंध व्यवस्था का समूह, मनमाना नामकरण और साहित्य का दिशाहीन प्रवाह हो जाता है| काल विभाजन से साहित्य के विकास को दिशा, विकास को प्रभावित करने वालों तत्वों, विभिन्न परिवर्तनों और मोड़ों का पता चलता है | दूसरी बात यह है कि इतिहास के विभिन्न युगों की परिस्थितियां और प्रवृतियां एक जैसी नहीं होती है, इसलिए इतिहास को परिस्थितियों और प्रवृतियों के हिसाब से विभिन्न कालों में विभाजित किया जाता है |
काल विभाजन का आधार
काल विभाजन के लिए कभी ऐतिहासिक कालक्रम को आधार बनाया जाता है तो कभी शासक और शासनकाल को आधार बनाया जाता है तो कभी-कभी साहित्यकार राष्ट्रीय, सामाजिक, सांस्कृतिक प्रवृति और साहित्यिक प्रवृति को | लेकिन सुसंगत काल विभाजन और नामकरण वही होता है जो साहित्य की परम्परा और प्रवृतियों को सही ढंग से व्यक्त करने में सक्षम हो | काल विभाजन के मुख्यतः तीन आधार हैं :
१.        काल विभाजन का आधार साहित्यिक प्रवृति होना चाहिए |
२.       काल विभाजन और नामकरण साहित्यिक प्रवृति के अनुसार होना चाहिए | ऐसा संभव नहीं होने की स्थिति में राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक प्रवृति को आधार बनाया जाना चाहिए |
३.       युगों की सीमा का निर्धारण मूल प्रवृतियों के शुरू होने और अस्त होने आधारित होना चाहिए | जहाँ से साहित्य की मूल चेतना में परिवर्तन दिखाई पड़े, वही से नए काल की शुरुआत मानी जानी चाहिए |

हिंदी साहित्य के कालविभाजन की समस्या
हिंदी साहित्य के कालविभाजन की कई समस्याएं है | मसलन, हिंदी साहित्य के इतिहास का आरम्भ कब से माना जाय, हिंदी साहित्य के इतिहास में अपभ्रंश भाषा और उसके साहित्य को शामिल किया जाय या नहीं ? इन समस्याओं पर विद्वानों के अलग-अलग मत है | हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध इतिहास लेखक जार्ज ग्रियर्सन ने हिंदी साहित्य का आरम्भ सातवीं शताब्दी से माना है | जबकि आचार्य शुक्ल का मत है कि पुरानी हिंदी का जन्म तो सातवीं शताब्दी का आसपास हो गया था तथा उसमें सिद्धों, जैनियों और नाथ पंथियों ने काव्य भी लिखा था, परन्तु उनके काव्य में धर्मोपदेश और धार्मिक शिक्षाएं है जिसे काव्य की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है | आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने इन कवियों के काव्य को कोरी ‘सांप्रदायिक शिक्षा’ मानकर काव्य के दायरे से बाहर कर दिया | उनके अनुसार हिंदी का वास्तविक काव्य वह है जो विक्रम संवत् 1050(993 ई.) के बाद लिखा गया है | इसलिए हिंदी साहित्य का आरम्भ संवत 1050 या 993 ई. से ही मानना चाहिए | आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य का आरम्भ दसवीं शताब्दी से मानते हैं | डॉ राम कुमार वर्मा और डॉ नगेन्द्र इसका आरम्भ सातवीं शताब्दी से मानते है |
हिंदी साहित्य का इतिहास हिंदी भाषा के इतिहास से जुड़ा हुआ है | कुछ विद्वानों ने अपभ्रंश के परवर्ती रूप को पुरानी हिंदी मानकर वहीँ से हिंदी साहित्य का इतिहास माना है | आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत है कि ‘प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिंदी साहित्य का आविर्भाव माना जा सकता है|’ उन्होंने अपभ्रंश को ‘प्राकृताभाष हिंदी’ कहा है| लेकिन कुछ भाषा विद्वानों के अनुसार प्राकृत भाषा से अपभ्रंश भाषा का और अपभ्रंश भाषा से आधुनिक भारतीय भाषाओँ, जिनमें हिंदी भी एक है, का विकास हुआ | राहुल सांकृत्यायन ने अपभ्रंश को ही ‘पुरानी हिंदी’ की संज्ञा देते हुए अपभ्रंश के सारे कवियों को हिंदी का कवि मान लिया है | अतः यदि राहुल सांकृत्यायन के मत को स्वीकार किया जाय तो हिंदी साहित्य का आरम्भ सातवीं शताब्दी से मानना पड़ेगा और तब अपभ्रंश के पहले कवि सरहपाद ही हिंदी के पहले कवि होंगे | डॉ नगेन्द्र ने भी सरहपा को हिंदी का पहला कवि माना है | आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा अपभ्रंश को हिंदी नहीं मानने का आधार यह है कि वे प्राकृत और अपभ्रंश, दोनों को ही बोलचाल की भाषाएँ नहीं मानते | वे अपने इतिहास में हिंदी साहित्य का आरम्भ देश भाषा काव्य से मानते हैं | बाद में रामविलास शर्मा ने नए प्रमाणों और तर्कों से आचार्य शुक्ल के विचारों को प्रामाणिक सिद्ध किया| आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपभ्रंश और हिंदी के एक भाषा होने की मान्यता का दृढ़ता से खंडन किया और आचार्य शुक्ल के इस मत को स्वीकार किया कि हिंदी भाषा और साहित्य का आरम्भ दसवीं शताब्दी से हुआ है | दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक का  साहित्य अपभ्रंश से भिन्न भाषा का साहित्य है| इसमें हिंदी की आधुनिक बोलियों के पूर्व रूप की झलक मिल जाती है| इसलिए हिंदी साहित्य का आरम्भ अब सर्व सम्मति से दसवीं शताब्दी से मान लिया गया है| हिंदी साहित्य का आरम्भ वहां मान लिया गया है जहाँ से वह धार्मिक कर्म-कांड और रहस्य भावना से मुक्त हो रहा है | 
हिंदी साहित्य के काल विभाजन के विभिन्न प्रयास
हिंदी साहित्येतिहास के काल विभाजन का प्रथम श्रेय जार्ज ग्रियर्सन को है | उन्होंने द्वारा किया गया काल विभाजन इस प्रकार है :
(क)      चारण काल (700 ई. से 1300 ई. तक) (ख) पंद्रहवीं शती का धार्मिक पुनर्जागरण (ग) जायसी की प्रेम कविता (घ) कृष्ण संप्रदाय (च) मुग़ल दरबार (छ) तुलसीदास (ज) प्रेमकाव्य (झ) तुलसीदास के अन्य परवर्ती (ट) अठारहवीं शताब्दी (ठ) कंपनी के शासन में हिंदुस्तान (ड) विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान |
जार्ज ग्रियर्सन के इस काल विभाजन में न तो किसी साहित्यिक प्रवृति को आधार बनाया गया है और न ये विभाजन किसी साहित्यिक परिवर्तन की ओर ही संकेत करते है| मुग़ल दरबार, अठारहवीं शताब्दी, कंपनी के शासन में हिंदुस्तान, विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान जैसे काल विभाजन किसी साहित्यिक प्रवृति या परिवर्तन को सूचित नहीं करते हैं| लेकिन हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल विभाजन के प्रयास का अपना एक महत्व है |
ग्रियर्सन के बाद मिश्र बंधु, रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य के काल विभाजन का प्रयत्न किया है | इसके अतिरिक्त भारतीय हिंदी परिषद् (डॉ धीरेन्द्र वर्मा द्वारा संपादित) डॉ गणपतिचन्द्र गुप्त ने काल विभाजन का प्रयास किया है |
सर्वप्रथम हम मिश्र बंधुओं द्वारा ‘मिश्रबंधु विनोद’ किए गए काल विभाजन को देखते है :
१.        आरंभिक काल          (क) पूर्व आरंभिक काल-सं.700 से 1343 तक(643 ई. से 1286 ई. तक)
(ख)     उत्तर आरंभिक काल-सं.1343 से 1444 तक(1287 ई. से 1387 ई. तक)
२.       माध्यमिक काल       (क) पूर्व माध्यमिक काल-सं.1445 से 1560 तक(1338 ई. से 1503 ई. तक)
 (ख) प्रौढ़ माध्यमिक काल-सं.1561 से 1680 तक(1504 ई. से 1624 ई. तक)
३.       अलंकृत काल         (क) पूर्व अलंकृत काल-सं.1681 से 1790 तक(1624 ई. से 1733 ई. तक)
 (ख) उत्तर अलंकृत काल-सं.1791 से 1889 तक(1734 ई. से 1832 ई. तक)
४.       परिवर्तन काल             सं. 1890 से 1925 तक (1833 से 1868)     
५.      वर्तमान काल              सं. 1926 से आगे |
मिश्रबंधुओं के इस काल विभाजन में न तो किसी साहित्यिक प्रवृति को आधार बनाया गया है और न उपखण्डों के विभाजन का कोई ठोस आधार दिया गया है | इससे स्पष्टता के बजाय भ्रम ही पैदा होता है | इसलिए मिश्रबंधुओं के विभाजन को स्वीकार नहीं किया गया है |
सर्वप्रथम साहित्यिक प्रवृतियों के आधार पर काल विभाजन का श्रेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल को है | हिंदी साहित्य के इतिहास’ में उन्होंने इसप्रकार काल विभाजन किया है :
१.        वीरगाथा काल          सं 1050 से सं. 1375(993 ई. से 1318 ई.)
२.       भक्तिकाल              सं 1375 से सं. 1700(1318 ई. से 1643 ई.)
३.       रीतिकाल              सं 1700 से सं. 1900(1643 ई. से 1843 ई.)
४.       आधुनिक काल          सं 1900 से अब तक (1843 ई. से अब तक )

    आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने रामचंद्र शुक्ल के विभाजन को ही स्वीकार किया है | परन्तु संवत् के स्थान पर ईस्वी सन का प्रयोग करके विभाजन को और व्यवस्थित कर दिया है |
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया काल विभाजन :
१.        आदिकाल              सन 1000 ई. से सन 1400 ई.
२.       पूर्व मध्यकाल          सन 1400 ई. से सन 1700 ई.
३.       उत्तर मध्यकाल          सन 1700 ई. से सन 1900 ई.
४.       आधुनिक काल          सन 1900 से अब तक
   बाद में कई अन्य इतिहासकारों ने काल विभाजन किया है | डॉ धीरेन्द्र वर्मा द्वारा संपादित भारतीय हिंदी साहित्य परिषद् के इतिहास में केवल तीन काल खण्डों की ही कल्पना की गई है:
१.        आदिकाल
२.       मध्यकाल
३.       आधुनिक काल
इनका तर्क है की संतकाव्य से लेकर प्रेमाख्यानक काव्य, रामकाव्य, कृष्णकाव्य और रीतिकाव्य तक पूरे मध्यकाल में चेतना लगभग एक जैसी रही है | गणपति चन्द्र गुप्त ने भी इसी विभाजन को स्वीकार किया है| लेकिन यह काल विभाजन और इसके पीछे के तर्क से सहमत नहीं हुआ जा सकता है | सत्रहवीं शताब्दी में काव्य की मुख्य प्रवृति ही नहीं बदली बल्कि काव्य का रूप भी बदला गया | भक्ति के स्थान पर श्रृंगार, अलंकरण और विलास प्रधान हो गया | इसप्रकार मध्यकाल को दो उपखंडों में विभाजन आवश्यक है |

कुलमिलाकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्विवेदी के कालविभाजन ही अंतिम रूप तर्कसंगत और औचित्यपूर्ण है जो न केवल साहित्यिक प्रवृति पर आधारित है बल्कि ये साहित्यिक परिवर्तन की ओर भी संकेत करते है| 

17 comments:

  1. बेहद प्रयोगी सामग्री का संयोजन है👌👌👌✍️✍️

    ReplyDelete
  2. thankyou so much . it is very helful

    ReplyDelete
  3. आपका धन्यवाद,मुझे इससे पढ़ने में बहुत सहायता मिली है।

    ReplyDelete
  4. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  5. Very fine and clear material

    ReplyDelete
  6. बहुत अच्छी है

    ReplyDelete
  7. बहुत ही सार्थक लेख!!

    ReplyDelete
  8. सर आप का मैं तहे दिल धन्यवाद करता हूँ

    ReplyDelete
  9. सर आपका मैं तहे दिल से धन्यवाद करती हूं

    ReplyDelete
  10. बहूत बहुत धन्यवाद सर💐💐🙏🙏🙏

    ReplyDelete