जुलाई 2017 में अहमदाबाद के साबरमती आश्रम
में आयोजित एक कार्यक्रम में केन्द्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने जब कहा कि ''राष्ट्र
भाषा के रूप में हिन्दी बहुत महत्वपूर्ण है, इसके बिना हमारा
काम नहीं चल सकता, हमारे देश में अधिकतर लोग हिन्दी बोलते हैं, ऐसे
में हिन्दी सीखना भी महत्वपूर्ण है”
तो सियासत के गलियारों में माहौल
गर्म होने लगा | मैकाले मानस-पुत्रों को तो अन्य भाषाओँ का गला घोंटने और रोजी
रोटी छीनने के षड्यंत्र का एहसास होने लगा है । इस हाय-तौबा में उन लोगों की आवाज सबसे
अधिक ऊँची है जिनका भारतीय भाषाओँ से संबंध मात्र उतना ही है जितना वह भाषा उनकी
सियासी जरूरतों एवं आकांक्षाओं को पूरा करने का माध्यम भर है या उन लोगों की है जो
अंग्रेजी को काबिलियत की एकमात्र कसौटी मानते है|
यदि
केन्द्रीय मंत्री वेंकैया नायडू के पूरे बयान को देखा जाय तो वास्तव
में उन्होंने अंग्रेजी के बरक्स मातृभाषाओं की वकालत की | नायडू ने कहा कि “हमें गुजराती, मराठी, भोजपुरी
जैसी अपनी मातृभाषा में भी धाराप्रवाह होना चाहिए......मैं उन्हें क्षेत्रीय भाषा
नहीं बोल रहा हूं क्योंकि वे मातृभाषाएं और राष्ट्रीय भाषाएं हैं, अंग्रेजी इसके
बाद आती है|”
उन्होंने कहा, ''भाषा और भावना साथ चलती है. अपनी भावना
को व्यक्त करने के लिए भाषा बहुत जरूरी है. इसलिए लोग अपनी मातृभाषा में पढ़ें,
ये
बहुत जरूरी है.........यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमने अंग्रेजी माध्यम को बहुत
ज्यादा महत्व दिया. धीरे-धीरे अंग्रेजी सीखते सीखते हमारे अंदर अंग्रेजी मानसिकता
भी आ गयी. ये अच्छा नहीं है, देशहित में नहीं है|'' नायडू
के इस बयान को लेकर हमारे अंग्रेजीदां बौद्धिक परजीवियों ने हिंदी को ‘राष्ट्रीय भाषा’
कहे जाने को लेकर बयानों की उल्टियाँ करने लगे है कि देश में सबसे अधिक बोली और
समझी जाने वाली भाषा होने मात्र से इसे किसी पर जबरदस्ती थोपा नहीं जाना चाहिए,
जबकि नायडू के बयान में कही भी हिंदी भाषा के थोपे जाने का संकेत, मंशा या
निहितार्थ नहीं है |
अब सवाल यह भी उठता है कि शशि थरूर
जैसे दक्षिण भारतीय नेताओं, लोगों और पार्टियों को आखिर हिंदी से
दिक्कत क्या है? तमिलनाडु में हाईवे पर माइल स्टोन और साइन
बोर्ड पर हिंदी लिखने के विरोध में डीएमके
के कार्यकारी अध्यक्ष एमके स्टालिन ने हिंदी विरोधी आंदोलन शुरू करने की चेतावनी
दी है। इसी तरह कर्नाटक में जनता दल (सेक्यूलर) मेट्रो के साइन बोर्ड हिंदी में
बनाने पर विरोध कर रही है। यदि इनकी समस्या हिंदी को राष्ट्रीय भाषा कहे जाने को
लेकर है तो वास्तव में सियासी रोटी सेंकने के सिवा इस विरोध का कोई मतलब नहीं है |
हिंदी विरोध करने वाले सुनियोजित रूप से इस तथ्य को नजरन्दाज करते है कि भारतीय
संविधान में राष्ट्रभाषा का कोई प्रावधान नहीं है| अगर नायडू ने हिंदी के साथ राष्ट्रीय
भाषा शब्द का प्रयोग किया है इसका यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि वे
राष्ट्रीय भाषा का संवैधानिक दर्जा देने की हिमायत कर रहे है | हिंदी देश में सबसे
अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है, कन्याकुमारी से कश्मीर तक लोगों की मुख्य
संपर्क भाषा है | इस रूप में यह निःसंदेह राष्ट्रीय भाषा है | हिंदी के
कन्याकुमारी से कश्मीर तक बोले जाने को लेकर तबतक कोई विवाद नहीं होता जबतक कोई
नेता या समूह इसके प्रसार की वकालत नहीं करता है |
हकीकत यह है कि आजादी के बाद से ही गैर
हिंदी विशेषकर दक्षिण भारतीय नेताओं और पार्टियों को जब भी हिंदी के विरोध से
सियासी रोटी के पकने की संभावना दिखी, तब-तब उन्हें लगता रहा है कि
दक्षिण भारतीय भाषाओँ को हिंदी से खतरा है । वास्तव में राजनीतिक, प्रशासनिक और व्यावसायिक हितों को बनाए
रखने के लिए दक्षिण भारतीय राजनीतिज्ञों ने हिंदी का विरोध किया और अपनी मातृभाषाओँ
के बजाय अंग्रेजी को प्रश्रय दिया | इसकी परिणति आज यह हुई है कि हिंदी के प्रभाव
से नहीं बल्कि अंग्रेजी के वर्चस्व से दक्षिण भारतीय भाषाएँ हाशिए पर सिमटने को
विवश है । ये नेता हिन्दी के विरोध में मद्रास हाईकोर्ट में दायर उस याचिका को भूल
जाते है, जिसमें सरकार के 2006 के उस फैसले को
चुनौती दी गई है, जिसके
अनुसार तमिलनाडु में दसवीं कक्षा तक के बच्चे स्कूल में सिर्फ तमिल भाषा ही पढ़
सकते हैं। याचिका दायर करने वालों का कहना है कि उनके बच्चों को हिंदी और दूसरी
भाषाओं को जानना भी बहुत जरूरी है,
क्योंकि इससे वे कहीं भी जाकर नौकरी या कोई दूसरा कामकाज कर सकते
हैं।
सच्चाई यह है कि जब भी अंग्रेजी के प्रभाव
से मुक्त होने की बात या कोशिश होती है, कुछ लोगों और
क्षेत्रों को हिंदी थोपे जाने का डर सताने लगता है। इसका कारण यह है कि मैकाले
मानस-पुत्रों ने सम्पूर्ण प्रशासनिक या राजनीतिक मशीनरी को इस तरह से अपने शिकंजे
में जकड़ रखा है कि हमारे नेता उनके जाल में उलझ गये है तात्पर्य है कि अंग्रेजीदां
लोगों ने बड़े ही धूर्ततापूर्ण तरीके से एक ओर भाषा के प्रश्न को सियासत का प्रश्न
बना दिया है और विकल्प के रूप में अंग्रेजी से चिपकने के लिए विवश किया है ।
अँगरेजी मानसिकता से पोषित तथाकथित विद्वानों और
नेताओं का तर्क है कि आधुनिक ज्ञान विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी का विकास
अंग्रेजी बोले जाने वाले देशों में ही हुआ है जिसके कारण यह भाषा आधुनिक ज्ञान
विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी के विकास की पर्यायवाची बन गयी है । लेकिन यह कपटी
तर्क है । जापान, जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, दक्षिण कोरिया और चीन जैसे देशों ने विकास के लिए कभी भी अंग्रेजी को
माध्यम नहीं बनाया । फिर भी ये देश आधुनिक ज्ञान विज्ञान और उच्च प्रौद्योगिकी के
क्षेत्र में विकसित देशों की क़तार में खड़े है और आर्थिक विकास की दौड़ में तो भारत
से काफ़ी आगे है जहाँ अंग्रेजी के पीछे अंधी दौड़ बच्चे के जन्म लेने के साथ ही शुरू
हो जाती है। इन देशों ने सिद्ध किया है कि आधुनिक ज्ञान विज्ञान और प्रौद्योगिकी
अंग्रेजी भाषा का मोहताज नहीं है और कोई भी देश अपनी मातृभाषा को त्यागकर या हाशिए
पर धकेलकर विकसित देशों की पंक्ति में शामिल नहीं हो सकता है। अंग्रेजी भाषा का ज्ञान और अंग्रेजी पढ़ना गलत
नहीं है, अंग्रेजीयत की मानसिकता बुरी है जो व्यक्ति को
उसकी अपनी जमीन से काट देती है। वर्तमान समय भारतीय समाज में जो मूल्यहीनता है वह
इसी जमीन से कटे होने का परिणाम है।
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