सन् 1955 में प्रकाशित इस
काव्य-नाटक में धर्मवीर भारती ने जिस प्रकार आधुनिक परिवेश में मूल्यों के संकट को
व्यंजित किया है, उससे यह अत्यंत आश्चर्य
होता है कि चार साल पहले तक रोमानी भाव-बोध वाला रचनाकार आधुनिक जीवन-परिवेश का एक
सशक्त चित्र और उसमें मूल्यों के विघटन और निर्माण की रूपरेखा प्रस्तुत कर रहा है।
एक पौराणिक मिथक, महाभारतकालीन कथानक, को द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर कालीन संदर्भ में रखकर तत्कालीन
बुनियादी सवालों से जूझने एवं संवेदना के जटिलतर होते संबंधों को देखने का प्रयास
किया गया है। किसी भी रचना की समय सापेक्षता ही उसे कालजयी बनाती है। रचना की
प्रासंगिकता तब तक समाप्त नही होती हो सकती,
जब तक मनुष्य
विरोधी स्थितियां बनी रहती है। महाभारत के कथानक पर आधारित काव्य-नाटक ‘अंधायुग’ दो महायुद्धों से उत्पन्न
मानवीय मूल्यों के विघटन की ऐसी ही वैश्विक समस्या है जिसके कारण मानवता, पाशविकता में बदल रही है और हम अंधे युग में जीने के लिए
अभिशप्त हैं।
‘अंधायुग’ में महाभारत युद्ध की अंतिम संध्या के बाद के युद्धोतर
परिणामों को कथानक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। पौराणिक कथा होने के कारण
महाभारत के पात्र युगों से हमारे सांस्कृतिक पटल पर छाये हुए हैं। अज्ञेय के
अनुसार मिथक किसी भी जाति की सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा का महत्वपूर्ण अस्त्र
है। किसी विशेष देशकाल में केवल ऐसे ही मिथक स्वीकृत होते हैं, जो जनमानस में रचे बसे हों। एक साहित्यकार से अपेक्षा की
जाती है तो वह युगीन यथार्थ-बोध की कसौटी पर मिथकों की प्रासंगिकता पर अच्छी तरह
से विचार कर ले, अन्यथा प्रयुक्त मिथक
अर्थ की जगह अनर्थ की जड़ बन जाते हैं। भारती जी की चेतना महाभारतकालीन युद्धोत्तर
परिणामों को बीसवीं सदी के विश्वयुद्धोत्तर परिणामों के समानधर्मा पाती है। इसलिए
महाभारत का यह पौराणिक-मिथकीय संदर्भ, वर्तमान समय में
राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर, सांस्कृतिक संकटों एवं मानवीय अस्तित्व के संकटों को समेटता
है। अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर विश्व युद्धों में हुए व्यापक नरसंहार एवं राष्ट्रीय
धरातल पर विश्व-मानवता का संदेश देने वाले गाँधीवाद की तिलांजलि ने मानव अस्तित्व
के सामने जो संकट उपस्थित किया, उसने धर्मवीर भारती को एक
ऐसा समानधर्मा कथानक चुनने को प्रेरित किया,
जिससे मानवीय
विघटन एवं सांस्कृतिक संकट का आख्यान प्रस्तुत किया जा सके। सुप्रसिद्ध
नाट्य-समीक्षक नेमिचन्द्र जैन ने इस नाटक को विश्वयुद्ध और भारत-विभाजन दोनों के
संदर्भ में देखा है-‘‘अंधायुग’’ महाभारत संग्राम के बाद की स्थिति के अन्वेषण के माध्यम से
दूसरे महायुद्ध के बाद की, बल्कि युद्ध मात्र से
उत्पन्न होने वाली मूल्यहीनता, अमानवीयता, विकृति और सामूहिक तथा वैयक्तिक विघटन का उद्घाटन करता है।
आनुषंगिक रूप से वह देश के विभाजन में निहित आंतरिक गृहकलह की परिणतियों की ओर भी
इंगित करता है।’’1
‘अंधायुग’ का रचना-संसार, निराशा, कुंठा, वेदना, पश्चाताप, ग्लानि, मूल्यहीनता एवं अंधापन से निर्मित संसार है जो युद्धोपरांत
उपस्थित हुआ था-‘युद्धोपरांत/यह अंधायुग
अवतरित हुआ।’ भारती जी के अनुसार इस
युद्ध के लड़नेवाले सभी अंधे थे, पथभ्रष्ट थे, आत्महारा थे और अपनी अन्तर के गुफाओं के वासी थे। युद्ध एक
ऐसी स्थिति है जहाँ लड़नेवाले से किसी सत्य,
नैतिकता एवं
मर्यादा-पालन की आशा नहीं की जा सकती है। हमारे पौराणिक मिथक या महाभारतकार व्यास
भले ही यह घोषणा करें कि कौरवों का पक्ष अन्याय का और पाण्डवों का पक्ष न्याय का
था, इसलिए सत्य एवं न्याय की
रक्षा के लिए पाण्डवों द्वारा कुछ मूल्य-मर्यादाओं को तोड़ना जरूरी हो जाता है।
परन्तु भारती जैसा आधुनिक संवेदना वाला रचनाकार सत्य और धर्म की विजय के नाम पर
मूल्यों एवं मर्यादाओं के उलंघन की अनदेखी नहीं कर सकता है। व्यास एवं भारती की
दृष्टि में यहीं फर्क है। वास्तव में, यह युगीन संवेदना का फर्क
है। व्यास भले ही पाण्डवों के पक्ष को सत्य,
न्याय एवं धर्म का
पक्ष देखते हों, परन्तु भारती द्वारा यह
संभव नहीं था कि द्वितीय विश्व युद्ध में फासिस्ट कौरवों के समक्ष मित्र राष्ट्रों
के पक्ष को न्यायोचित ठहराये। ऐसा करके मित्र राष्ट्रों की साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी एवं अन्यायपूर्ण व्यापारिक नीतियों के पक्ष में
वे अपने को खड़ा नहीं कर सकते थे। जो आलोचक ‘‘दोनो पक्षों ने तोड़ी
मर्यादा’’ की तीखी आलोचना करते हैं
वे वास्तव में महाभारत के मिथक और द्वितीय विश्वयुद्ध के परिवेश के मूलभूत अन्तर
को समझ नहीं पाते हैं। भारती जी महाभारत के इस युद्ध के माध्यम से आधुनिक
विश्वयुद्धों के परिणामस्वरूप मानवीय टेªजडी की कथा रचते हैं। वे
भक्ति-भाव से महाभारत की कथा की पुनर्रचना नहीं करते हैं। वास्तव में धर्मवीर
भारती आधुनिक भाव-बोध की कसौटी पर ही महाभारत-युद्ध को देखते हैं। उन्होने युद्ध
के बाद विसंस्कृतिकरण, निराश और पराजय से उपजी
मानसिकता, रक्तपात, विध्वंस, कुरूपता, हिंसा, नृशंसता, हासोन्मुख मनोवृति आदि गिरते और ध्वस्त होते मानवीय मूल्यों
को हमेशा अपनी दृष्टि में रखा है। कोई भी रचनाकार अपने युगीन परिवेश के
परिप्रेक्ष्य में ही किसी ऐतिहासिक-पौराणिक तथ्यों या मिथकों को देखता है। जब वे
कहते हैं कि कौरवों एवं पांडवों, दोनों पक्षों में विवेक
हार गया, युग का अंधापन जीत गया, तो उनकी नजर में बीसवीं सदी में साम्राज्यवादी एवं
उपनिवेशवादी हितों की रक्षा के लिए टकराते राष्ट्रों का अंधापन है। युद्धरत किसी
भी राष्ट्र का पक्ष न्यायोचित नहीं था और जो राष्ट्र लोकतांत्रिक अधिकारों एवं
स्वतंत्रता के नाम पर मित्र राष्ट्रों के पक्ष में खड़े हुए थे, वे भी भ्रम में थे। ‘अंधायुग’ में भारती जी ने यह दिखाया है कि युयुत्सु ने महाभारत युद्ध
में सत्य और न्याय की रक्षा के लिए कौरव-पक्ष छोड़कर पांडव-पक्ष ग्रहण करने का विवेकपूर्ण
निर्णय लिया था। उसने माना कि सत्य बड़ा है कौरव वंश से। परन्तु यह देखकर आहत हो
जाता है कि पांडव भी सत्य के पक्षधर नहीं है। जिसे प्रभु जाना था, उसने भी युद्ध में जीत के लिए मर्यादा तोड़ी है। कृष्ण ने
कुरुक्षेत्र के मैदान में घोषणा की थी कि जिधर मैं हूँ, उधर धर्म है, जिधर धर्म है, उधर जय है। युयुत्सु ने यहीं किया, पर युयुत्सु को क्या मिला? पांडव-पक्ष ग्रहण
करने से न केवल उसके अन्तर में वितृष्णा पैदा हो जाती है, बल्कि अपनी मां द्वारा भी उसे उपेक्षा एवं घृणा मिलती है।
युयुत्सु द्वारा सत्य का पक्षधर होने के भ्रम की भर्त्सना करते हुए गांधारी कहती
है-‘‘बेटा/भुजाएं ये
तुम्हारी/पराक्रम भरी/थकी तो नहीं/अपने बंधुजनों का/वध करते-करते’’ अपने को विसंगति स्थिति में पाकर युयुत्सु स्वयं को छला हुआ
महसूस करता है, उसे लगता है कि ‘‘अंतिम परिणति में/दोनों जर्जर करते है/पक्ष चाहे सत्य
हो/अथवा असत्य का।’’
यहां भारती जी की चिंता
के केन्द्र में घातक हथियारों का जखीरा खड़ा करने वाले, उन हथियारों का व्यापार कर राष्ट्रों को आपस में लड़ाने का
उपक्रम करने वाले, अपने स्वार्थों के लिए
विश्व को युद्ध में झोंकने वाले, किसी भी कमजोर राष्ट्र, राज्य, जाति, धर्म एवं नस्ल की सम्प्रभुता एवं स्वतंत्रता का हनन करने
वाले तथा लोकतंत्र, मानवाधिकार एवं
निःशस्त्रीकरण की दिखावटी हिमायत करने वाले अगुवा राष्ट्र हैं जो समस्त मूल्यों, नियमों एवं नीतियों को अपने स्वार्थ की कसौटी पर परखते हैं।
ऐसे विनाशकारी युद्ध में, चाहे महाभारत का हो या द्वितीय विश्वयुद्ध हो, जिसकी प्रतिबद्धता सत्य,
न्याय, मानवता तथा लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति है, वह अपने को छला हुआ महसूस करता है। चाहे वह युयुत्सु हो या
अपने लोकतांत्रिक अधिकारों तथा सम्प्रभुता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध राष्ट्र हो।
युयुत्सु यह कहता है कि मैं उस पहिए की तरह हूँ जो पूरे युद्ध के दौरान रथ की गलत
धुरी में लगा था और अब अपनी धुरी से उतर गया है। युयुत्सु की अनुभूति युद्ध में
मानव-विवेक की पराजय की अनुभूति है। आज के समय में एक-एक करके सारे मूल्य टूटते और
बदलते जा रहे है। इसने हमारा विश्वास तोड़ ही तोड़ डाला है । लोगों के जीने का एक
बड़ा मानसिक सहारा उनसे छिनता जा रहा है । युयुत्सु की आत्महत्या उसी का परिणाम
है। वह घृणा एवं अपमान के कड़वे घूँट पीकर आत्महत्या करने के लिए विवश होता है।
उसका यह आत्माघात केवल एक व्यक्ति का आत्मघात नहीं था, बल्कि कृपाचार्य के शब्दों में-‘‘यह आत्महत्या होगी प्रतिध्वनित/इस पूरी संस्कृति में/दर्शन
में, धर्म में, कलाओं में, शासन-व्यवस्था
में/आत्मघात होगा बस अंतिम लक्ष्य मानव का।’’
अर्थात् युयुत्सु
का आत्मघात संपूर्ण मानवीय संस्कृति, धर्म एवं मूल्यों का
आत्मघात है। द्वितीय विश्व युद्ध में जो राष्ट्र लोकतंत्र एवं विश्व मानवता के नाम
पर शामिल होते हैं वे भी युयुत्सु की तरह आहत होते हैं। उन्हें महसूस होता है कि
युद्ध का समस्त आयोजन साम्राज्यवादी एवं व्यापारिक स्वार्थों के लिए किया गया था।
लेकिन जबतक वे संभलते तबतक वे सदियों से संजोयी अपनी संस्कृति, कला, दर्शन, आदि से श्री हीन होकर पूर्णतः खोखले हो चुके थे। उनका यह
सांस्कृतिक खोखलापन आत्मघात का ही प्रतीक है। भारती जी ने यहां सांस्कृतिक खोखलापन
के माध्यम से युद्ध के औचित्य को चुनौती दी है और महाभारत में-जिसमें ऐसा कहा गया
था कि धर्मयुद्ध का पालन किया गया है-कुटिल योजनाओं की झलक दिखलाई गई है।
धर्मवीर भारती युद्ध के
स्वतंत्र एवं स्वयंचालित स्वरूप पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। युद्ध की प्रक्रिया
की एक बार शुरूआत हो जाने के बाद सत्य, न्याय, धर्म, नीति, कर्तव्य आदि का प्रश्न ही अप्रासंगिक हो जाता है। युद्धरत
पक्षों का एकमात्र उद्देश्य होता है किसी भी कीमत पर शत्रु का विनाश और युद्ध में
विजय प्राप्त करना। अंधी और स्वार्थ में डूबी सत्ता धृतराष्ट्र बनने को बाध्य होती
है। सत्य के ध्वजाधारक भी असत्य का सहारा लेने से नही चूकते हैं। युग की मर्यादाएं
टूटने लगती हैं । मानव-अस्तित्व एवं मानव-मूल्यों का हनन अपने चरम पर पहुँच जाता
है। लोग भविष्य के सपनों की भ्रूण हत्या करने में संकोच नहीं करते। मानवता के
प्रति यह अंधापन कभी ब्रह्मास्त्र के द्वारा गर्भ नष्ट करता है तो कभी अणुबम
गिराकर शहर की संपूर्ण आबादी का समूल नाश कर देता है।
सबसे बड़ी विडम्बना यह है
कि इस महायुद्ध में जिनके पास विवेक है, वे भी परिस्थितिवश अपने
विवेक का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। उनकी स्वातंत्र्य-चेतना या तो भोथरी पड़ जाती
है या वे इसका इस्तेमाल अमर्यादित आचरण के लिए ही करते हैं। धर्मराज एवं कृष्ण
जैसे चरित्र भी युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए अनीति का सहारा लेने से चूकते
नहीं है। धृतराष्ट्र और गांधारी यह जानते हुए भी कि उनके पुत्र धर्म की तरफ से
युद्ध नहीं कर रहे हैंए अपने पुत्रों की जीत की आस लगा रखे थे। गांधारी में विवेक
तो है परन्तु ममता के कारण अपने विवेक का उपयोग नहीं कर पाती। प्रतिहिंसा के कारण
गांधारी का विवेक इतना कुंद पड़ जाता है कि वह घायल दुर्योधन के प्रति सहानुभूति
प्रकट करने के बजाय न केवल अश्वत्थामा की वध-नीति का समर्थन करती है, बल्कि कृष्ण को शाप भी देती है। उसका विवेक मर्यादित आचरण
से शून्य पड़ जाता है। यही स्थिति युधिष्ठिर की है। धर्मराज के अमर्यादित आचरण के
परिणाम तो अत्यंत ही त्रसद है जिसका एहसास उन्हें निरर्थक विजय की प्राप्ति के बाद
होता है। द्रोण जैसे महारथी पर नियंत्रण पाने के लिए सत्यवादी युधिष्ठिर ने
अर्धसत्य का सहारा लिया, जिसके परिणामस्वरूप
अश्वत्थामा में प्रतिशोध की भावना बलवती हो जाती है। उसकी समस्त कोमलता एवं मानवता, कठोरता एवं पशुता में बदल गई। भारती जी लिखते हैं-‘‘अश्वत्थामा समूचे महाभारत के सामने, समूची गीता के सामने,
भारत की समूची
जीवन-दर्शन परम्परा के सामने एक मुजस्सिम सवाल है-‘यह क्यों’?’’2 वह प्रतिशोध एवं हत्या की पैशाचिक मानसिकता से ग्रस्त हो
जाता है। वह चित्कार कर उठता है-‘‘वध मेरे लिए नहीं नीति है, वह है अब मनोग्रंथि।’’
ऐसी हिंसक मनोग्रंथि
से ग्रस्त हो जाने के बाद मानवता की कोई सार्थकता नहीं रह जाती है। अश्वत्थामा
अविवेकपूर्ण ढंग से घोषणा करता है-‘पक्ष में नहीं है जो मेरे
शत्रु हैं’। उसकी बर्बरता की चरम
परिणति तब होती है जब मानव जाति का समूल नाश करने वाले ब्रह्मास्त्र को उत्तरा के
गर्भ पर फेंकता है। इस प्रकार न तो युधिष्ठिर के अर्ध-सत्य के पीछे
व्यक्ति-स्वातं=य की चेतना का निर्णय था और न ही अश्वत्थामा का आचरण ही मर्यादित
था। दोनों का निर्णय युद्ध की मानसिकता से परिचालित था। सभी ने अपने-आप को ‘अन्य वस्तु’ (जिसके होने की चेतना न
हो) की तरह युद्ध की नियति पर छोड़ दिया था। युद्ध की ऐसी मनःस्थिति में लिया गया
कोई भी निर्णय अंधी सामूहिकता का निर्णय होता है। ऐसे निर्णय लोकतांत्रिक मूल्यों
एवं मानवाधिकारों के नाम पर युद्ध की अंधी दौड़ में शामिल राष्ट्रों के समक्ष एक
गंभीर प्रश्नचिह्न है।
संजय की ट्रेजडी और भी मर्मान्तक है। उसके पास दिव्य-दृष्टि है परन्तु वह
तटस्थ द्रष्टा मात्र है। युद्ध की विनाशकारी स्थितियों के समक्ष उसकी चेतना
निःशक्त हो जाती है। उसकी चेतना कचोटती है-‘‘मुझ सा निरर्थक होगा कौन’’। परिणामतः उसकी दिव्य-दृष्टि सम्पन्नता उसके लिए व्यर्थ हो
जाती है। युद्ध के प्रति निराकार निषेध का कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता है। यह
विश्लेषण खुद संजय का है जो निर्णय के उत्तरदायी क्षणों में भटक जाता है। वह आस्था
और अनास्था के अंतर्द्वन्द्व से ग्रस्त हो जाता है। युद्ध के समाप्त होते ही यह
दिव्य दृष्टि स्वतः समाप्त हो जाती है। युद्ध की विभीषिका कराते हुए वह अपने
अस्तित्व का अर्थ खोता जाता है-
‘मैं तो निष्क्रिय, निरपेक्ष सत्य
मार नही पाता हूं, बचा नही पाता हूं, कर्म से पृथक्
खोता जाता हूं, अर्थ अपने अस्तित्व का’
दूसरी ओर कृष्ण है जिनका व्यक्तित्व भी प्रश्नों के घेरे में है। ‘अंधा युग’ में कृष्ण की प्रत्यक्ष
उपस्थिति नही है, लेकिन युद्ध में उनकी
भूमिका विवादास्पद है। उनका आचरण भी युद्ध को विनाशकारी परिणामों की ओर ले जाता
है। गांधारी उन्हें वंचक कहती है। बलराम ‘कूटबुद्धि’ कहते हैं। वे अपनी प्रभुता का दुरूपयोग करते हैं। यदि वे
प्रभु हैं और यदि वे चाहते तो अप्रतिम योद्धाओं का छलपूर्ण वध नहीं हो पाता।
परन्तु आधुनिक युग के रचनाकार भारती जी द्वारा यह संभव नहीं था कि वे कृष्ण को
विष्णु के अवतार तथा धर्म के संस्थापक के रूप में ‘प्रभु’ माने। इसीलिए उन्होंने कृष्ण को केवल आस्था का केन्द्र नहीं
माना है। भारती जी ने कृष्ण को परात्पर प्रभु के स्थान पर सहज मानव रूप में
प्रस्तुत किया है। उन्होंने विदुर से कहलवाया है कि
‘आस्था तुम लेते
हो/अनास्था लोगा कौन?’
भारती जी कृष्ण के प्रति अपनी आस्था को छोटी सी पगडण्डी मानते है-‘जरा अलग यह छोटी सी/मेरी आस्था की पगडण्डी।’ ऐसा कहकर भारती जी अपनी सृजनात्मक क्षमता के बल पर हत्या, षडयंत्र और युद्ध के अंधेपन के बीच कृष्ण के आदर्श रूप
(विराट रूप) तथा वास्तविक रूप (युद्ध में भूमिका) के बीच समन्वय स्थापित करते हैं।
यही कारण है कि युद्ध में विवादास्पद भूमिका तथा सबकी ईर्ष्या एवं आक्रोश के पात्र
होते हुए भी कृष्ण जिन जीवन-मूल्यों को प्रस्तुत करते हैं, वे अनुकरणीय एवं काम्य हैं। भारती जब कृष्ण को ‘प्रभु’ कहते हैं तो उनके लिए ‘प्रभु’ का संबंध अनुकरणीय
मानव-आदर्शों एवं जीवन-मूल्यों की समग्रता से है, जिससे नूतन
मानवता का सर्जन संभव है। भारती जी ने ‘पश्यन्ती’ में लिखा है कि ‘‘‘प्रभु’ मानवीय मूल्यों की सम्रगता है’’3 कृष्ण समस्त अच्छे-बुरे कार्यों को अपने भीतर समेटकर
स्वीकार करते हैं-‘अठारह दिनों के इस भीषण
संग्राम में कोई नहीं, केवल मैं ही मरा हँूं
करोड़ो बार।’ ‘अंधायुग’ में भी वे कृष्ण को इसी रूप देखते हैं, विष्णु के अवतार के रूप में नहीं। यहीं कारण है कि अपने
अमर्यादित आचरणों के लिए गांधारी से शापग्रस्त होकर भी पुत्र रूप में शाप को
स्वीकार कर लेते हैं। यहीं नहीं, अर्जुन को अनासक्त भाव से
युद्ध करने का उपदेश भले ही विनाशकारी स्थितियों को जन्म देता है परन्तु इसी उपदेश
में मानव की पूर्व निर्धारित नियत्ति को बदल देने की क्षमता भी निहित हैं।
युद्ध की विनाशकारी परिणतियों के संदर्भ में भारती जी मूल्य-विषयक आधार की
समस्या से जूझने का प्रयास करते हैं - क्या मनुष्य का निर्णय या आचरण निर्णायक
क्षणों में मूल्यों के आलोक में निर्धारित होते हैं या स्वतः चलित यंत्रवत मानवीय
वृतियों से या परिस्थितियों से? युद्ध में अमर्यादित आचरण
इस बात का प्रमाण है कि निर्णायक क्षणों में मानवीय मूल्य निरर्थक पड़ जाते हैं।
मनुष्य के भीतर बैठा अंधा बर्बर पशु स्वतः स्फूर्त रूप में विवेक, नैतिकता एवं मानवता को लाँंघ जाता है। गांधारी कहती है-‘‘निर्णय के क्षण में विवेक एवं मर्यादा/व्यर्थ सिद्ध होते आए
हैं सदा।’’ लेकिन भारती जी इस
स्वतःस्फूर्त बर्बरता या अंधी प्रवृतियों को मानवता का आधार नहीं मान सकते। वे
मनुष्य की रचनात्मक क्षमता पर भरोसा जताते हैं और मनुष्य के मर्यादित आचरण को
मानवता का आधार घोषित करते हैं। वे विदुर से कहलवाते हैं ‘‘केवल स्वयं किया हुआ मर्यादित आचरण कवच है जो व्यक्ति को
बचाता है’’ और यदि आचरण मर्यादित हो
तो मनुष्य की रचनात्मकता अंधी नहीं होगी। यहीं मनुष्य सभी परिस्थितियों का
अतिक्रमण करते हुए अनासक्त भाव से इतिहास को चुनौती देने में सक्षम हो सकता है।
भारती जी ने वृद्ध याचक के मुँह से कहलवाया है-‘‘जब कोई भी
मनुष्य/अनासक्त होकर चुनौती देता है इतिहास को/उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती
है/नियत्ति नहीं पूर्व निर्धारित/उसको हर क्षण मानव-निर्णय बनाता मिटाता है।’’ भारती के मूल्य चिन्तन का यह सकारात्मक पक्ष है।
धर्मवीर भारती की व्यक्ति-स्वातंत्र्य की चेतना के प्रति प्रतिबद्धता और इसके
आधार विवेकपूर्ण निर्णय की हिमायत उन्हें अस्तित्ववादी चिंतकों के समीप खड़ा करती
है। परन्तु व्यक्ति-स्वातंत्र्य के आधार पर आधुनिकता की चेतना के केन्द्र में
शामिल किए गए अस्तित्ववादी चिंतकों से भी भारती जी सर्वथा अलग दिखाई देते हैं। अलग
दिखाई देने का आधार है जीवन में आस्था रखने की उनकी दृष्टि। ‘अंधायुग’ के कृष्ण युद्ध के
विध्वंसक परिणामों, टूटी हुई मर्यादा, स्खलित मूल्य एवं खंडित गरिमा के अवशेष पर पुनः जीवित होने, नूतन सर्जन करने तथा मानव सृष्टि के अस्तित्व में आने की
बात करते हैं। भविष्य के निर्माण की इसी कल्पना से वे अस्तित्ववादी चिंतन के
वर्तमान क्षण की कटु निराशा, अनास्था एवं वेदना से ऊपर
उठ जाते हैं। यह आस्थापरक दृष्टि भारती के आधुनिक भाव-बोध को पूर्णता प्रदान करती
है। ‘अंधायुग’ का अंतिम कथा-गायन इसी विश्वास की ओर संकेत करता है -
‘‘पर एक तत्व है बीजरूप
स्थित मन में
साहस में, स्वतंत्रता में, नूतन सर्जन में।’’
यदि युद्ध का आयोजन मनुष्य की विकृति है तो उसका शमन करने की क्षमता भी मनुष्य
में निहित है। यह संभावना ही मनुष्य की अपराजेय शक्ति में आस्था को पुनर्जीवित
करती है। मनुष्य की सृजनात्मक क्षमता अपरिमित है जिनके प्रति आस्था रखकर गहन
अंधेरे को भेदा जा सकता है। संपूर्ण आधुनिक साहित्यिक परिवेश में इस सृजन-क्षमता
को ही शक्ति का मुख्य स्रोत मानकर मानव की जयगाथा का आख्यान किया गया है। नये
साहित्य की यह मानवतावादी प्रकृति है।
आधुनिक भाव-बोध के कटघरे में भारती जी पारम्परिक मूल्यों का भी परीक्षण करते
हैं। वे गीता के ‘स्वधर्म’ का मूल्यांकन करते हैं। ‘स्वधर्म’ का अर्थ है-अपने द्वारा निर्धारित दायित्वपूर्ण कर्म।
स्वकर्म का यह सिद्धांत एक ओर भारती के विवेकपूर्ण निर्णय का समर्थन करता है तो
दूसरी ओर उनके व्यक्ति-स्वातंत्र्य की चेतना को भी स्थापित करता है। भारती जी की
स्वीकृति है कि यह स्वधर्म हर व्यक्ति को उसकी वैयक्तिक सार्थकता प्रदान करता है।
इसी के द्वारा उसके स्वतंत्र अस्तित्व को नया सामाजिक अर्थ प्राप्त होता है।4
कुछ आलोचकों ने भारती जी की आस्थावादी दृष्टि को स्वस्थ दृष्टि नहीं माना है।
डा- इन्द्रनाथ मदान के अनुसार ‘‘अंधायुग की यह आस्था, आधुनिकता को खंडित करती जान पड़ती है और यह रचनाकार की
कमजोरी है।’’5 यहाँ मदान जी स्वयं संशय
की स्थिति में हैं। नामवर सिंह ने भी भारती के व्यक्ति-स्वातंत्र्य और आस्थावादी
दृष्टि को अवसरवादी और बाहर से उधार लिया हुआ चिंतन कहा है और माना है कि भूत और
भविष्य को अस्वीकार कर केवल वर्तमान के क्षण में जीवित रहने वाले के लिए वर्तमान
भी भूत जैसा लगता है।6
मुक्तिबोध के अनुसार भारती ने नैतिक गिरावट एवं मूल्यों के स्खलन के कारणों को
गहराई से तहकिकात नहीं किया है। उनके अनुसार ‘‘भारती सभ्यता की आलोचना
तो करते हैं किन्तु समाजशास्त्री जिज्ञासा के अभाव का शिकार होकर।’’7 इसलिए जिस मर्यादापूर्ण आचरण एवं दायित्व को भारती सभ्यता
के अवलम्ब के रूप में प्रकट करते है उसके सामाजिक रूपान्तर के लिए ठोस वैज्ञानिक
आधार का अभाव है। अतः ‘‘श्री भारती का
आशात्मक-भविष्यवाद एक बहलावा है।’’8
लेकिन उपर्युक्त आरोप तभी तर्कसंगत होते जब आधुनिक भाव-बोध का अर्थ जीवन की
विकृतियों को दिखाना होता। अगर साहित्यकार का दायित्व सर्जनात्मक और मानवीय
मूल्यों के प्रति है तो मानव मुक्ति के लिए या मानव के भविष्य के लिए आस्था का
प्रश्न ‘अंधायुग’ को सामयिक परिस्थितियों में सार्थकता प्रदान करता है। अंधों
के माध्यम से ‘अंधायुग’ ज्योति की कथा बन जाता है। भारती ने मूल्यों के स्खलन एवं
नैतिक गिरावट को फैशन के धरातल से नहीं देखा है बल्कि इनके गहरे
सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार है। जिन आलोचकों को आस्था एवं विवेकपूर्ण निर्णय फैशन
मात्र या आयातित लगता है, उनके सामने यह
प्रश्नचिह्न खड़ा होता है कि क्या वे यथार्थ के नाम पर जीवन की विनाशकारी एवं
भयानक स्थितियों के चित्रण को साहित्य का उद्देश्य मानते हैं? क्या इन स्थितियों से बाहर निकलने के लिए नूतन सर्जन की राह
दिखाना साहित्य का उद्देश्य नहीं हैं? क्या नवीन मानवीय
संस्कृति, जिसमें मनुष्य की गरिमा
और अस्तित्व सुरक्षित हो, के निर्माण में साहित्य
की कोई भूमिका नहीं होती है? अगर मानवता के प्रति
साहित्यकार की भूमिका रचनात्मक होती है तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि भारती जी ने ‘अंधायुग’ में एक ओर मानवीय मूल्यों
के नवनिर्माण के प्रति आस्था प्रकट की है तो दूसरी ओर आधुनिकता के फैशनों से अपनी
रचनाशीलता को बचाया भी है। उन्होंने आधुनिक भाव-बिन्दुओं, समाज में घटित घटनाओं,
मानव की नियति
एवं अपनी अनुभूतियों का पौराणिक कथानक के साथ सुन्दर समन्वय ‘अंधायुग’ में किया है। इसमें
कुत्सित एवं स्खलित मूल्यों एवं आदर्शों के उद्घाटन के साथ ही मानव समाज एवं
संस्कृति के सुन्दर रूप की स्थापना का वैश्विक संदेश है।
संदर्भ स्रोत:
1- कसौटी, अंक-15, सन् 2003, पृ.सं.--288
2- धर्मवीर भारती की साहित्य
साधना, सं--पुष्पा भारती, पृ.सं.- 703
3- धर्मवीर भारती ग्रंथावली
भाग-4, पृ.सं.- 476
4- धर्मवीर भारती ग्रंथावली
भाग-5, पृ.सं.- 266
5- आधुनिक और हिन्दी
साहित्य-इन्द्रनाथ मदान, पृ.सं.- 20
6- इतिहास और आलोचना-नामवर
सिंह, पृ.सं.- 68
7- धर्मवीर भारती की
साहित्य-साधना-सं- पुष्पा भारती, पृ.सं.- 449
8- वहीं, पृ.सं.- 450
Search option nahi jiske karan kathinaiyan hoti hai topics khojne me
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