Thursday, 31 July 2025

उत्तर संरचनावाद

उत्तर संरचनावाद (Post-Structuralism) एक प्रमुख बौद्धिक आंदोलन है, जिसने 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भाषा, साहित्य, समाजशास्त्र, दर्शन, इतिहास तथा संस्कृति-अध्ययन की पारंपरिक मान्यताओं को गहराई से प्रभावित किया। यह संरचनावाद (Structuralism) की सीमाओं को चुनौती देने और उसके प्रतिपक्ष में विकसित हुआ दर्शन है। इसका मूल आधार यह है कि 'अर्थ कोई स्थिर और अंतिम अवधारणा नहीं है', बल्कि वह भाषा, संदर्भ, पाठ और पाठक के बीच एक निरंतर गतिशील प्रक्रिया है। 

जन्म और विकास: 1966 की ऐतिहासिक घटना

उत्तर संरचनावाद का औपचारिक आरंभ 1966 में अमेरिका की जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी (Johns Hopkins University) में आयोजित एक संगोष्ठी के दौरान हुआ, जहाँ फ्रांसीसी दार्शनिक जैक देरिदा (Jacques Derrida) ने अपना ऐतिहासिक व्याख्यान “Structure, Sign and Play in the Discourse of the Human Sciences” प्रस्तुत किया। यही व्याख्यान उत्तर संरचनावाद की विचारधारा का बीज बन गया, जिसने तत्कालीन बौद्धिक जगत में हलचल मचा दी।

 संरचनावाद बनाम उत्तर संरचनावाद

संरचनावाद का मुख्य दावा यह था कि भाषा संकेतों (Signs) का एक ऐसा सुव्यवस्थित तंत्र है, जिसमें अर्थ आपसी अंतर (Difference) के आधार पर उत्पन्न होता है। भाषा की संरचना में शब्दों का कोई स्वतंत्र अर्थ नहीं होता, बल्कि एक शब्द अपने आसपास के शब्दों के सापेक्ष ही अर्थ ग्रहण करता है। इसका प्रमुख प्रतिपादक फर्डिनान्द डी सॉश्योर (Ferdinand de Saussure) था, जिसने भाषा को एक बंद प्रणाली के रूप में देखा।

 इसके विपरीत, उत्तर संरचनावाद मानता है कि यह व्यवस्था वस्तुतः भ्रमात्मक है। देरिदा ने बताया कि अर्थ कभी स्थिर नहीं होता, वह निरंतर खिसकता रहता है जिसे उन्होंने "différance" (एक साथ भिन्नता और विलंबन) शब्द से अभिहित किया। किसी भी शब्द का अर्थ तय नहीं होता, बल्कि वह केवल एक संकेत को दूसरे संकेत से जोड़ता है, और यह श्रृंखला अंतहीन है।

मुख्य अवधारणाएँ

1. Différance (भिन्नता + विलंबन)

देरिदा ने ‘difference’ को फ्रांसीसी भाषा के एक विशेष प्रयोग ‘différance’ से स्पष्ट किया, जिसमें न केवल अंतर की प्रक्रिया है, बल्कि अर्थ का स्थगन भी है। किसी भी शब्द को तभी समझा जा सकता है जब वह 'क्या नहीं है' से परिभाषित हो जैसे "पंकज" तब समझा जा सकता है जब यह 'पंक' नहीं है। इसी तरह अर्थ कभी पूर्णतः प्रकट नहीं होता, बल्कि टलता रहता है।

2. Deconstruction (विखंडनवाद)

देरिदा का सबसे प्रसिद्ध सिद्धांत है विखंडन’, जिसमें किसी भी पाठ की स्थिर व्याख्या को अस्वीकार किया जाता है। वह कहते हैं कि कोई भी पाठ एक नहीं, अनेक अर्थों को जन्म देता है। इसलिए, आलोचक का कार्य किसी पाठ के "गोपित अर्थों" को खोजना नहीं, बल्कि उसके अंतर्विरोधों, विसंगतियों और अपूर्णताओं को उजागर करना है।

3. Adwriting (आद्य लेखन)

देरिदा ने लेखनको बोलनेसे अधिक प्राथमिकता दी। सॉश्योर तथा परंपरागत परिपाटी में उच्चारित भाषा को प्राथमिक माना गया, परन्तु देरिदा ने कहा कि लेखन अधिक मूल और गहन है क्योंकि वह स्वयं में अनुपस्थित अर्थ की खोज है। लेखन में उपस्थित चिह्न (traces) हमेशा किसी अप्रस्तुत अर्थ की ओर संकेत करते हैं।

उत्तर संरचनावाद और उत्तर आधुनिकता का संबंध

उत्तर संरचनावाद को उत्तर आधुनिकतावाद (Postmodernism) के साथ गहराई से जोड़ा जाता है क्योंकि दोनों ही स्थायित्व, मूल सत्य, केन्द्र और सार्वभौमिक व्याख्याओं को अस्वीकार करते हैं। उत्तर आधुनिकता का मूल विश्वास है — "सत्य एक नहीं, अनेक हैं; और सब कुछ संदिग्ध है।" उत्तर संरचनावाद इसी सिद्धांत को भाषा और पाठ के स्तर पर लागू करता है।

अन्य प्रमुख विचारक और योगदान

1. मिशेल फूको (Michel Foucault)

फूको ने देरिदा के अत्यधिक नकारात्मक एवं ध्वंसात्मक दृष्टिकोण को आलोचना का विषय बनाया। उनके अनुसार, अर्थ का निर्धारण केवल पाठ के अंदर से नहीं, बल्कि उस 'विमर्श प्रणाली (discourse system)' से होता है जिसमें वह पाठ लिखा गया। विमर्श वह सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और बौद्धिक ढांचा है, जो किसी विचार या ज्ञान को अर्थ देता है।

फूको का कथन था कि कोई भी विचारधारा या सिद्धांत तभी स्वीकृत होती है जब वह अपने समय के सत्ता केन्द्रों के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके। उन्होंने भाषा और ज्ञान के निर्माण में सत्ता के हस्तक्षेप को उजागर किया। उनके ग्रंथ "Discipline and Punish" और "The Archaeology of Knowledge" इस दिशा में महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

2. रोलां बार्थ (Roland Barthes)

बार्थ ने अपने प्रसिद्ध लेख "The Death of the Author" में यह प्रस्तावित किया कि लेखक का जीवन और मंशा किसी पाठ के अर्थ को तय नहीं करती। पाठ का अर्थ केवल पाठक की व्याख्या और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है। यह विचार उत्तर संरचनावाद की आलोचनात्मक शैली को और अधिक बल देता है।

साहित्य और आलोचना में प्रभाव

उत्तर संरचनावाद का साहित्यिक आलोचना पर गहरा प्रभाव पड़ा। परंपरागत आलोचना जहाँ रचना के अर्थ, उद्देश्य और नैतिकता की खोज करती थी, वहीं उत्तर संरचनावादी दृष्टिकोण ने रचना को "अनिर्णेयता (aporia)" के रूप में देखा एक ऐसा स्थान जहाँ किसी निश्चित व्याख्या की संभावना नहीं होती।

अब साहित्य का अर्थ वह नहीं रहा जो लेखक ने कहना चाहा, बल्कि वह है जिसे पाठक ने समझा या समझना चाहा। इसने साहित्य को अनंत पाठों की श्रृंखलामें बदल दिया, जहाँ हर पाठ में असंख्य निर्वचन (interpretations) संभव हैं।

उत्तर संरचनावाद पर सबसे बड़ी आलोचना यही है कि यह साहित्य, संस्कृति और समाज के स्थायी मूल्यों को अस्वीकार करता है। देरिदा की दृष्टि में न कोई 'सत्य' है, न कोई 'मूल्य' — बस अंतहीन चिह्नों की श्रृंखला है जिसमें हम अर्थ की खोज तो करते हैं, पर वह कभी प्राप्त नहीं होता।

इस दृष्टिकोण से यह आरोप भी लगाया गया कि यह साहित्य और भाषा की आत्मा-हत्याहै, जिसमें हर रचना का कोई निश्चित संदेश, सौंदर्य या सामाजिक उपयोगिता नहीं रह जाती। पारंपरिक दृष्टिकोण से यह एक प्रकार का सांस्कृतिक आतंकवाद प्रतीत होता है।

उत्तर संरचनावाद ने भाषा और साहित्य की अवधारणाओं को जड़ से बदल दिया। जहाँ पहले रचना को एक स्थिर, पूर्ण और मूल्यनिष्ठ कृति माना जाता था, वहीं उत्तर संरचनावाद ने उसे एक गतिशील, बहुस्तरीय और संदिग्ध पाठ के रूप में पुनर्परिभाषित किया। इसने आलोचना की दिशा को लेखक-केंद्र से हटाकर पाठ और पाठक-केंद्रित बना दिया।

हालाँकि, इसकी ध्वंसात्मक प्रकृति के कारण यह बहस का विषय भी रहा है। साहित्यिक परंपराएँ, सांस्कृतिक मूल्य और सामाजिक संदर्भों से इसके कटाव को लेकर गहरी चिंताएँ भी उठाई गई हैं। फिर भी, उत्तर संरचनावाद ने आधुनिक आलोचना और चिंतन को नई दिशा दी है और यह समकालीन बौद्धिक विमर्श का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा बना हुआ है।

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