Tuesday, 15 July 2025

हिंदी: टकराव की भाषा नहीं, आत्मनिर्भर भारत की आवाज़

 हाल ही में केंद्र सरकार के आधिकारिक भाषा विभाग के स्वर्ण जयंती समारोह में गृह मंत्री अमित शाह ने एक बेहद संतुलित और प्रासंगिक बयान दिया  कि हिंदी किसी भारतीय भाषा की विरोधी नहीं है, बल्कि यह सभी भारतीय भाषाओं की मित्र है और देश में किसी विदेशी भाषा का विरोध नहीं होना चाहिए। यह बयान उस समय आया है जब कुछ राज्यों में हिंदी को "थोपी जा रही भाषा" कहकर राजनीतिक माहौल गरमाने की कोशिशें की जा रही हैं।

विगत कुछ दशकों में यह दुर्भाग्यपूर्ण प्रयास किया गया कि भारत की भाषाई विविधता को आपसी टकराव का कारण बना दिया जाए। अक्सर कुछ गलतफहमियों के चलते और कुछ राजनीतिक लाभ लेने की कुत्सित मंशा के कारण यह धारणा बनाई जाती है कि हिंदी को बाकी भाषाओं के ऊपर थोपने की कोशिश की जा रही है। यह दावा न तो वास्तविकता पर आधारित है, न संविधान की भावना के अनुरूप। इसका असली उद्देश्य भाषाई ध्रुवीकरण कर जनता को भ्रमित करना है | लेकिन इसके पीछे असल में भारत की बढती आर्थिक ताकत और आत्मनिर्भरता को देखकर असहज और अंग्रेजी या औपनिवेशिक मानसिकता से अभिशप्त लोग है | ये वही लोग हैं जो अब भी अंग्रेज़ी को सभ्यता और श्रेष्ठताकी भाषा मानते हैं, और हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं को स्थानीय और पिछड़ाकहकर देखना चाहते हैं। ऐसे लोग अंग्रेज़ी के प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए हिंदी और अन्य भाषाओं के बीच टकराव की हवा बनाते हैं, ताकि देश की एकता और विकास की रफ्तार को धीमा किया जा सके। लेकिन यह प्रयास सफल नहीं हो सका, क्योंकि भारत का आम नागरिक यह भली-भांति समझता है कि भाषा उसकी पहचान है, और उस पहचान के साथ राष्ट्रीय एकता भी जरूरी है। भाषाओं के नाम पर भारत को तोड़ने के प्रयास को हर बार भारत की जनता की समझदारी ने विफल कर दिया |

वर्तमान समय में जैसे-जैसे भारत की अर्थव्यवस्था का कद वैश्विक मंच पर बढ़ रहा है, हिंदी का प्रभाव भी फैल रहा है| हिंदी अपने बाजार की शक्ति को भी स्थापित कर चुकी हैव्यापार में, तकनीक में, मीडिया में और शिक्षा में। कई विदेशी यूट्यूबर्स, इंस्टाग्राम इन्फ्लुएंसर्स, और फिल्म निर्माता अब हिंदी में कंटेंट बना रहे हैं, नेटफ्लिक्स, डिज़्नी प्लस, अमेज़न प्राइम जैसी कंपनियाँ अपनी वैश्विक फिल्मों के लिए हिंदी डबिंग को प्राथमिकता देने लगी हैं क्योंकि उन्हें इसमें एक बड़ा, सक्रिय और मुनाफे वाला दर्शक वर्ग दिखाई देता है। हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या बहुत बड़ी है| इसका मतलब यह है हिंदी केवल भाषा नहीं, बल्कि एक बड़ी आर्थिक ताकत है | स्टार्टअप्स, फिनटेक, हेल्थटेक, एग्रीटेक जैसे क्षेत्रों में अब हिंदी में कस्टमर इंटरफेस, मार्केटिंग कंटेंट और ट्रेनिंग मटेरियल तैयार हो रहा है। बायोडाटा में हिंदी भाषा का उल्लेख एक 'प्लस पॉइंट' बन रहा है | अब नौकरियों में भी हिंदी को वरीयता मिलने लगी है, विशेषकर कस्टमर सपोर्ट, सेल्स, मार्केटिंग, मीडिया, और जनसंपर्क जैसे क्षेत्रों में।

पहले कहा जाता था कि अंग्रेज़ी ही तरक्की की भाषा है। लेकिन अब यह धारणा टूट रही है | हिंदी में पैसा है, मार्केट है, यूज़रबेस है, और आत्मसम्मान है। यह बाज़ार की ज़रूरत बन चुकी है और बाजार वही बोलता है, जो जनता की जुबान होती है।

भाषा को केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण की नींव है | राष्ट्र निर्माण की या लोकतंत्र की जड़ें तभी गहरी होती हैं जब आम आदमी अपनी भाषा में शासन को समझे और जुड़ाव महसूस करे। आज भी बहुत से सरकारी दस्तावेज, आदेश, और संवाद अंग्रेज़ी में होते हैं, जो आम नागरिक की समझ से बाहर होते हैं। अगर प्रशासनिक कामकाज हिंदी, मराठी, तमिल, बंगाली, गुजराती या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में हो, तो न केवल पारदर्शिता बढ़ेगी, बल्कि आम लोगों का विश्वास भी। भाषा अगर जनता की होगी, तो शासन भी जनता का महसूस होगा। इसलिए शासन व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो देश की संस्कृति, परंपरा, और जनभावनाओं का सम्मान करे।

गृहमंत्री द्वारा राज्यों से यह आग्रह कि इंजीनियरिंग और चिकित्सा की पढ़ाई राज्य की भाषा में हो, यह केवल भाषाई आग्रह नहीं, बल्कि शैक्षणिक न्याय और बौद्धिक आत्मनिर्भरता का प्रस्ताव है। बच्चों को यदि गणित, विज्ञान, इंजीनियरिंग और चिकित्सा जैसे विषय उनकी अपनी भाषा में मिलें, तो उनकी सीखने की क्षमता और आत्मविश्वास कई गुना बढ़ जाएगा। दुनिया के कई विकसित देशजैसे जर्मनी, जापान, फ्रांसअपने यहां मातृभाषा में ही उच्च शिक्षा देते हैं, फिर भारत क्यों नहीं?

भारत केवल एक भूगोल नहीं है, यह विविध भाषाओं, संस्कृतियों और परंपराओं का एक जीवंत संगम है। भाषाई विविधता भारत की सबसे बड़ी ताक़त है। जिसे अपनी भाषा से प्रेम नहीं, वह अपने इतिहास और संस्कृति को भी नहीं समझ सकता। भारतीय भाषाएं लोकगीतों, महाकाव्यों, परंपराओं, और जनजीवन की जीवित परछाइयां हैं। अगर इन भाषाओं को शिक्षा और प्रशासन से अलग किया गया, तो धीरे-धीरे हमारी सांस्कृतिक जड़ें कमजोर होती जाएंगी।

आजकल एक विचित्र स्थिति देखने को मिलती है| चाहे वह सोशल मीडिया पोस्ट हो, टीवी डिबेट हो या जनसभा का भाषण, क्षेत्रीय भाषाओं की हिमायत और हिंदी का विरोध हिंदी भाषा में ही होती है। यह न केवल विडंबनात्मक है, बल्कि यह दिखाता है कि हिंदी की पहुंच और स्वीकार्यता इतनी व्यापक है कि विरोध करने वाला भी उससे बाहर नहीं जा सकता। हिंदी का विरोध यदि हिंदी में ही करना पड़े, तो समझ लीजिए कि हिंदी अब भाषा नहीं, वास्तविकता बन चुकी है और उस वास्तविकता से मुंह मोड़ने की नहीं, समझदारी से समाहित करने की ज़रूरत है।

संविधान में हिंदी के साथ 22 अन्य भाषाओँ को भी राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है | इसका अर्थ है कि दूसरी भारतीय भाषाएँ हिंदी से कहीं भी कमतर नहीं है, और नहीं हिंदी की विरोधी है | हिंदी बाकी भारतीय भाषाओं की प्रतिद्वंद्वी नहीं है| दूसरी भारतीय भाषाओं के लिए हिंदी एक सेतु के रूप में है, जो भारत की अनेकता में एकता को स्थापित कर सके | हिंदी उत्तर भारत में जितनी सहज है, दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत में भी वह संवाद का माध्यम है, न कि कोई थोपी गई भाषा है| हिंदी वह भाषा है जो तमिल, तेलुगु, बांग्ला, मराठी, गुजराती जैसी भाषाओं की सांस्कृतिक अस्मिता को बनाए रखते हुए उन्हें आत्मसात करती है| हिंदी  दूसरी भारतीय भाषाओं की पहचान छिनती नहीं है बल्कि उनकी पहचान को एक व्यापक राष्ट्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक रंगमंच प्रदान करती है | जब तक भारत की हर भाषा को समान सम्मान मिलेगा, तब तक भारत एक सशक्त और एकजुट राष्ट्र बना रहेगा।

हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा का विरोध दरअसल भारत की आत्मा का विरोध है। यह समय है जब हमें तय करना होगा कि क्या हम अपनी भाषाओं पर गर्व करेंगे और उन्हें विकास और तकनीक के साथ जोड़ेंगे, या फिर राजनीतिक भ्रम में पड़कर औपनिवेशिक सोच की मानसिकता में जकड़े रहेंगे। भाषा को हथियार नहीं, सेतु बनने दीजिए। हिंदी को दुश्मन नहीं, सहयोगी मानिए। हिंदी भाषा की अब केवल सांस्कृतिक या भावनात्मक पहचान भर नहीं, बल्कि आर्थिक, राजनीतिक  और व्यावसायिक स्तर पर भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा चुकी है।

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