



“काव्य की रीति सिखी सुकबीन सों देखी सुनी बहुलोक की बातें” भिखारीदास
की रचना है।
“हरि रस पीया जानिए, जे कबहूँ न जाय खुमार मैमंता घूमत फिरै, नाहीं तन
की सार” कबीर दास की रचना है।
साहित्य लहरी के रचनाकार सूरदास है।
अष्टछाप की स्थापना विट्ठल
दास ने की है।
सखी संप्रदाय की स्थापना हित हरिवंश ने की है।
गोस्वामी तुलसीदास की अंतिम रचना ‘विनय पत्रिका’ है।
मृगावती की कुतुबन की रचना
है।
“श्रुति सम्मत हरिभक्ति पथ संजुत विरति विवेक” तुलसीदास के रामचरित मानस की पंक्तियाँ
हैं ।
भारतीय आर्यभाषा के विकास क्रम को तीन भागों
में बाँटा जाता है
प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (वैदिक संस्कृत और
लौकिक संस्कृत )-2000 ई- पूर्व से 500 ई- पूर्व तक ।
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्ठ
)-500 ई- पूर्व से 1000 ई- तक।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (हिन्दी और हिन्दीतर
भाषाएं)-1000 ई- से अब तक।
भाषा |
अवधि |
वैदिक
संस्कृत |
2000
से 1000 ई- पूर्व |
लौकिक
संस्कृत |
1000
से 500 ई- पूर्व |
पालि |
500
ई- पूर्व से 1 ई- तक |
प्राकृत |
1
ई- से 500 ई- तक |
अपभ्रंश
और अवहट्ठ |
500
ई- से 1100 ई- तक |
वाल्मीकि को लौकिक संस्कृत का आदि कवि
कहा जाता है।
हिन्दी के विकास के तीन कालक्रम हैं
भाषा |
अवधि |
प्राचीन
हिन्दी |
1100
ई- से 1400 ई- तक |
मध्यकालीन
हिन्दी |
1400
ई- से 1850 ई- तक |
आधुनिक
हिन्दी |
1850
ई- से अबतक |
ऐतिहासिक दृष्टि से भाषा के अर्थ में ‘हिन्दी’ पद
का प्रयोग तेरहवीं शताब्दी से मिलता है।
तेरहवीं शताब्दी में प्रसिद्ध भारतीय पफ़ारसी
कवि औफी (1228 ई-) ने सर्वप्रथम हिन्द (संभवतः मध्स देश की) की देशी भाषा के लिए ‘हिन्दवी’ शब्द
का प्रयोग किया ।
तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में प्रसिद्ध कवि अमीर
खुसरो ने उत्तर भारत की देशी भाषा को ‘हिन्दी’ या ‘हिन्दवी’ की संज्ञा प्रदान की ।
अमीर खुसरो की प्रसिद्ध
रचना “खालिकबारी” में “हिन्दी” और “हिन्दवी” का प्रयोग देशी
भाषा के लिए हुआ है ।
मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने
काव्यग्रंथ पदमावत (1527-1540 ई-) की भाषा
को हिन्दवी कहा है।
पदमावत में “तुर्की अरबी हिन्दवी
भाषा जेती आहिं । जामें मारग प्रेम का सबै सराहैं ताहि ।।“ पकि्ंत हिन्दवी भाषा के
अस्तित्व का प्रमाणित करती हैं।
सूफी परम्परा से जुड़े मुसलमान कवि
देशी भाषा के लिए “हिन्दवी” शब्द का प्रयोग करते हैं जबकि भारतीय
परम्परा से जुड़े कवि देशी भाषा के लिए “भाषा” या “भाखा” शब्द का प्रयोग
करते हैं ।
“संसकीरत है कूप जल, भाखा बहता नीर” में कबीर दास
अपनी भाषा को भाखा कहते हैं ।
तुलसीदास अपनी अपनी भाषा को भाषा ही
कहते हैं- “का भाषा का
संस्कृत प्रेम चाहिए सांच” ।
ब्रजभाषा के प्रथम व्याकरण के लेखक
मिर्जा खाँ (1676 ई-) ने अपने “तहफ्रफुल हिंद” में ब्रजभाषा
को हिंदी कहा है ।
जॉन गिलक्राइस्ट ने “हिन्दुस्तानी” का प्रयोग
उर्दू (दरबारी)के लिए किया ।
फोर्ट विलियम कॉलेज के हिन्दुस्तानी
विभाग में “हिन्दुस्तानी” नाम से उर्दू
पढ़ायी जाती थी ।
1824 में सबसे पहले विलियम प्राइस ने अपने
को हिन्दी प्रोफेसर कहा ।
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