Monday, 21 July 2025

अपभ्रंश और हिन्दी की उपभाषा


*   जार्ज ग्रियर्सन ने केवल ब्रजभाषा, खड़ीबोली, बाँगरू, कन्नौजी, बुंदेली, अवधी, बघेली और छतीसगढ़ी को ही हिन्दी की उपभाषा माना ।
*       डॉ रामविलास शर्मा खड़ी बोली पर आधारित परिनिष्ठित हिन्दी को ही जातीय भाषा हिन्दी मानते हैं। 
*     खड़ी बोली को ग्रियर्सन ने हिन्दोस्तानी”, धीरेन्द्र वर्मा ने खड़ी बोली और डॉ- भोलानाथ तिवारी ने कौरवी कहा है। इसका एक अन्य नाम सरहिन्दी है। 
*       खड़ी बोली को पश्चिमी हिन्दी की उपभाषा माना गया है।
*       बाँगरू भी पश्चिमी हिन्दी की उपभाषा है । इसे जाटू या हरियाणवी भी कहा जाता है ।
*       पश्चिमी हिन्दी की प्रमुख उपभाषा ब्रजभाषा है । इसे अंतर्वेदी भी कहा जाता है।
*       ब्रजभाषा का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है ।
*       अवधी का विकास अर्धमागधी अपभ्रंश से हुआ है।
*       परसर्गो का प्रयोग मानक हिन्दी की प्रमुख विशेषता है । इसमें विभक्तियों का प्रयोग नही होता है।
*       मानक हिन्दी परसर्ग ने का प्रयोग अपभ्रंश और अवधि में नही होता है जबकि ब्रजभाषा में काफी कम प्रयोग मिलता है।
*       प्राकृत वैयाकरण चण्ड ने ईसा की छठी शताब्दी में अपने प्राकृत लक्षणम् नामक ग्रंथ में पहली बार भाषा के अर्थ में अपभ्रंश शब्द का प्रयोग किया।
*       गुजरात और राजस्थान में अप्रभंश साहित्य के रचयिता जैन कवि थे ।
*       स्वयंभू, देवसेन (933 ई-), पुष्पदंत(959-72 ई-), वीर कवि(953-1028 ई-), जोइंन्दु(1000 ई-), राम सिंह(1000 ई-), और धनपाल(1000 ई-) अपभ्रंश के प्रमुख कवि हैं। इन कवियों ने जैन साहित्य की रचना की। 
*       स्वयंभू ने पउमचरिउ की रचना की ।
*       स्वयंभू ने अपनी भाषा को सामान्य भाषा”, ग्रामीण भाषा और देशी भाषा कहा है।
*       स्वयंभू रामकथा को सरोवर कहा है।
*       राहुल सांकृत्यायन ने स्वयंभू का मूल स्थान कोसल या मध्यदेश माना है।
*       महापुराण के रचयिता पुष्पदंत हैं । इसमें कृष्ण की लीलाओं का वर्णन है।         
*       बिहार में अप्रभंश साहित्य के रचयिता सिद्ध कवि थे, जिन्होने बौद्ध साहित्य की रचना की ।
*       सरहपा बौद्ध सिद्ध कवि थे जिन्होनें आठवीं शताब्दी में दोहा कोश और चर्या गीतियों की रचना की ।
*      अप्रभंश में लौकिक साहित्य की भी रचनाएं हुई
*       राहुल सांकृत्यायन अपभ्रंश को संस्कृत(छान्दस्), पालि और प्राकृत से भिन्न भाषा मानते हैं।
*       अप्रभंश शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने अपने वर्ण रत्नाकर में किया है। 
*       वैयाकरण किसी भाषा की संरचना का अध्ययन करने के लिए सबसे पहले उसकी ध्वनि व्यवस्था पर विचार करते हैं।
*       व्यंजन ध्वनि “ण” का बहुप्रयोग अपभ्रंश की सबसे बड़ी पहचान है। अपभ्रंश में अनेक शब्द “ण” से भी शुरू होते हैं।
*       व्यंजन ध्वनियों “श” और “ष” का प्रयोग अपभ्रंश में नही मिलता है।
*       अपभ्रंश में काल-रचना में तिडन्त रूपों के स्थान पर कृदन्त रूपों का प्रयोग अधिक होता है।
*       “ड़” और “ढ़” ध्वनियाँ संस्कृत में नही है लेकिन अवधी, ब्रजभाषा और मानक हिन्दी में हैं। 
*       आचार्य हेमचंद्र ने “देशी नाममाला” में देशी शब्दों का उल्लेख किया है।
*       अवहट्ठ में “ऐ” और “औ” तथा “ड़” और “ढ़” ध्वनियों का प्रयोग मिलने लगता है।
*       डिंगल राजस्थानी भाषा मिश्रित अवहट्ठ है जबकि पिंगल ब्रजभाषा मिश्रित अवहट्ठ है।
*       डिंगल चारण वर्ग की भाषा थी जबकि पिंगल लोक प्रचलित व्यापक जनसमुदाय की भाषा थी ।
*       “वात” को कथा साहित्य और “ख्यात” को इतिहास साहित्य कह सकते हैं।
*       क्षतिपूरक दीर्घीकरण की योजना, अन्त्य स्वर का लोप, पंचमाक्षर के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग, परसर्गो का विकास और कृदन्त रूपों का प्रयोग अपभ्रंश और अवहट्ठ का हिन्दी को प्रमुख योगदान है।  
*       11 वीं शताब्दी में (1010 ई-) अद्दहमाण या अब्दुल रहमान ने संदेश रासक नामक काव्य ग्रंथ की रचना की ।
*       अद्दहमाण ने अपनी भाषा को अवहट्ठकहा है।
*       12वीं शताब्दी में प्रसिद्ध वैयाकरण हेमचन्द्राचार्य ने शब्दानुशासन या सिद्धहैम व्याकरण नामक व्याकरण ग्रंथ लिखा, जिसमें संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का व्याकरण है।
*       प्राकृत पैंगलम् के रचयिता हरिहर बंभ है । यह छन्दशास्त्र का ग्रंथ है।
*       प्राकृत पैंगलम् चौदहवीं शताब्दी की रचना है।
*       प्राकृत पैंगलम् के टीकाकार वंशीधर ने इसकी भाषा को अवहट्ठ माना है।
*       महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर की ज्ञानेश्वरी की भाषा अवहट्ठ मानी जाती है।
*       चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने विक्रम की सातवीं शताब्दी से ग्यारहवीं शताब्दी तक की अपभ्रंश भाषा को अपभ्रंश और उसके बाद की अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी कहा है। लेकिन इन दो भाषाओं के समय और देश के बीच कोई स्पष्ट रेखा नही है।
*       गुलेरी जी के अनुसार पुरानी अपभ्रंश संस्कृत और प्राकृत से मिलती है और उसके बाद की अपभ्रंश पुरानी हिन्दी से मिलती है।
*       गुलेरी जी ने राजा मुंज को पुरानी हिन्दी का कवि माना है, जो दसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में थे ।
*       बीसलदेव रासो का ढोलामारूरा दूहा और बेलि क्रिसन रूक्मिणी री आदि हिन्दी के गौरव ग्रंथ हैं।
*       राजस्थानी हिन्दी टवर्ग बहुला भाषा है। मारवाड़ी, जयपुरी या ढुँढाणी, मेवाती और मालवी इसकी प्रमुख बोलियाँ हैं।
*       पश्चिमी हिन्दी की दो शाखाएँ हैं-आकार बहुला(कौरवी, हरियाणवी) और ओकार बहुला(ब्रजभाषा, बुंदेली और कन्नौजी)
*       पूर्वी हिन्दी की तीन बोलियाँ हैं- अवधी, बघेली और छतीसगढ़ी । 
*       बिहारी हिन्दी की तीन बोलियाँ हैं-भोजपुरी, मगही और अंगिका ।
*       पहाड़ी हिन्दी की दो बोलियाँ हैं-गढ़वाली और कुमायूँनी ।
*       पूर्वी हिन्दी में कर्ता के साथ ने का प्रयोग नही होता है।
*       मारवाड़ी जोधपुर और जैसलमेर आदि क्षेत्रों में बोली जाती है।
*       मेवाती मेवात क्षेत्र अलवर, भरतपुर के कुछ क्षेत्रों में बोली जाती है।
*       मालवी मालव क्षेत्र उज्जैन के आसपास बोली जाती है।
*       बुंदेली बुंदेलखंड क्षेत्र झांसी, उरई, जालौन, हमीरपुर, बांदा, पन्ना, दतिया, होशंगाबाद आदि क्षेत्रों में बोली जाती है।
*       कन्नौजी हरदोई, शाहजहांपुर और पीलीभीत के क्षेत्रों में बोली जाती है।
*       छतीसगढ़ी सरगुजा, रायपुर, विलासपुर, रायगढ़, दुर्ग और नंदगांव के क्षेत्रों में बोली जाती है।
*       बघेली रीवा और दमोह के क्षेत्रों में बोली जाती है।
*       गढ़वाली टिहरी-गढ़वाल, उत्तर काशी और चमोली जिलों में बोली जाती है।
*       कुमायूँनी नैनीताल, अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ में बोली जाती है।
*       भाषा के रूप में अवधी का प्रथम स्पष्ट उल्लेख अमीर खुसरो की खालिकबारी में मिलता है। 
*       अवधी का प्रथम साहित्यिक प्रयोग रोडा द्वारा रचित राउलबेल में मिलता है।  
*       मौलाना दाऊद की चंदायन ठेठ अवधी में रचित पहली कृति है। इसे लोरकहा भी कहा जाता है। 
*       मौलाना दाऊद और जायसी ने बारहमासा का वर्णन किया है।
*       ह्रदय राम का हनुमन्नाटक अवधी मे संवाद शैली में लिखा गया ग्रंथ है।
*       नाभादास का अष्टयाम ब्रजभाषा में रचित राम काव्य है।
*       अठारहवीं शताब्दी के पूर्व ब्रजभाषा को पिंगल के नाम से जाना जाता था। 
*       ब्रजभाषा को काव्यभाषा के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाने का श्रेय सूरदास को है।
*      आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार “भक्तवर सूरदास जी ने ब्रज की चलती भाषा को परम्परा से आती हुई काव्यभाषा के बीच पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित करके साहित्यिक भाषा को लोक-व्यवहार के मेल में लाए । उन्होने से परंपरा से चली आती हुई काव्यभाषा का तिरस्कार करके उसे एक नया चलता रूप दिया ।“
*      मुसलमानों के भारत आने के बाद उनका पहला संपर्क दिल्ली और उसके आसापास बोली जाने वाली खड़ी बोली से हुआ ।
*    प्रशासनिक और सांस्कृतिक भाषा के लिए मुसलमानों ने पफ़ारसी को अपनाया लेकिन दैनिक व्यवहार के लिए खड़ी बोली, जिसे अबुल पफ़जल ने देहलवीकहा है, को ग्रहण किया ।

*     इस आम बोलचाल की भाषा में अरबी, फ़ारसी और तुर्की आदि शब्दों को मिश्रण हुआ । इस मेलजोल से जो भाषा विकसित हुई, उसे उस समय हिन्दवी या हिन्दुस्तानी कहा गया । 

No comments:

Post a Comment