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“ब्रजभाषा हेत ब्रजवास ही न अनुमानौ,
ऐसे ऐसे कबिन की बानी हू सो जानिए”-
भिखारी दास
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“तुलसी गंग दुवौ भए सुकबिन के सरदार
।
इनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार”- भिखारी दास
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“ब्रजभाषा भाष रूचिर,
कहैं,
सुमति सब कोइ।
मिल संस्कृत पारस्यौ,
पै अति प्रकट जु होइ।।”- भिखारी दास
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अति सूधौ सनेह को मारग है,
जहाँ नेको सयानव बाँक नही ।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकै कपटी जो निसांक नही ।।-घनानंद
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श्रीमाननि के भौन में
भोग्य भामिनी और।
तिनहूँ को सुकियाह में गनैं सुकवि सिरमौर- भिखारी दास
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अब तो बिहारी के वे बानक
गए री, तेरी
तन दूति केसर को नैन कसमीर भो।
श्रौन तुव बानी स्वाति बूँदन के चातक भे,
साँसन को भरिबो दु्रपदजा को चीर भो-------भिखारी दास
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अत्युक्ति, अलंकार अत्युक्ति यह बरनत
अतिसय रूप।
जाचक तेरे दान तें भए कल्पतरु भूप
पर्यस्तापह्नुति, पर्यस्त जु गुन एक को और विषय
आरोप।
होइ सुधाधर नाहिं यह वदन सुधाधर ओप------भूषण
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कुंदन को रँग फीको लगै, झलकै अति अंगनि चारु
गोराई।
ऑंखिन में अलसानि चितौनि में मंजु विलासन की सरसाई
को बिनु मोल बिकात नहीं मतिराम लहे मुसकानि मिठाई।
ज्यों ज्यों निहारिए नेरे ह्वै नैननि त्यौं त्यौं खरी
निकरै सी निकाई-----मतिराम
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इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अंभ पर,
रावन सदंभ पर रघुकुल राज हैं।
पौन वारिवाह पर, संभु रतिनाह पर,
ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज हैं
दावा द्रुमदंड पर, चीता मृगझुंड पर,
भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज हैं।
तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,
त्यों मलेच्छ बंस पर सेर सिवराज हैं----------------भूषण
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अभिधा उत्तम काव्य है; मध्य लक्षणा लीन।
अधम व्यंजना रस विरस, उलटी कहत नवीन----------देव
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सुनो कै परम पद, ऊनो कै अनंत मद
नूनो कै नदीस नद, इंदिरा झुरै परी।
महिमा मुनीसन की, संपति दिगीसन की,
ईसन की सिद्धि ब्रजवीथि बिथुरै परी
भादों की अंधेरी अधिाराति मथुरा के पथ, -----------देव
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भूषन भूषित दूषन हीन
प्रवीन महारस मैं छबि छाई।
पूरी अनेक पदारथ तें जेहि में परमारथ स्वारथ पाई
औ उकतैं मुकतै उलही कवि तोष अनोषभरी चतुराई।
होत सबै सुख की जनिता बनि आवति जौं बनिता कविताई-----तोषनिधि
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माने सनमाने तेइ माने
सनमाने सन,
माने सनमाने सनमान पाइयतु है।-----------दुलह कवि
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प्रेमरंग-पगे जगमगे जगे
जामिनि के,
जोबन की जोति जगी जोर उमगत हैं।
मदन के माते मतवारे ऐसे घूमत हैं,
झूमत हैं झुकिझुकि झ्रपि उघरत हैं--------------आलम
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गुरनि बतायो, राधा मोहन हू गायो सदा,
सुखद सुहायो वृंदावन गाढ़े गहि रे।
अद्भुत अभूत महिमंडन, परे तें परे,
जीवन को लाहु हा हा क्यों न ताहि लहिरे
आनंद को घन छायो रहत निरंतर ही,
सरस सुदेस सो,
पपीहापन बहि रे।
जमुना के तीर केलि कोलाहल भीर ऐसी,
पावन पुलिन पै पतित परि रहि रे------------घनानंद
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बहुत दिनान को अवधि आसपास
परे,
खरे अरबरन भरे हैं उठि जान को।
कहि कहि आवन छबीले मनभावन को,
गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को------------घनानंद
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परकारज देह को धारे फिरौ
परजन्य! जथारथ ह्वै दरसौ।
निधि नीर सुधा के समान करौ, सबही बिधि सुंदरता सरसौ
घनआनंद जीवनदायक हो, कबौं मेरियौ पीर हिये परसौ।
कबहूँ वा बिसासी सुजान के ऑंगन में अंसुवान को लै बरसौ------------घनानंद
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अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं।
तहँ साँचे चलै तजि आपनपौ, झिझकैं कपटी जो निसाँक नहीं
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ, इत एक तें दूसरो ऑंक नहीं।
तुम कौन सी पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं------------घनानंद
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विप्रलंभ श्रृंगार ही
अधिकतर इन्होंने लिखा है। ये वियोग श्रृंगार के प्रधान मुक्तक कवि हैं। 'प्रेम की पीर' ही को लेकर इनकी वाणी का
प्रादुर्भाव हुआ। प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धाीर पथिक तथा जबाँदानी का ऐसा दावा
रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ। ------रामचंद्र शुक्ल
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भाषा पर जैसा अचूक अधिकार
इनका था, वैसा और किसी कवि का नहीं। भाषा मानो इनके हृदय के साथ जुड़कर ऐसी
वशवर्तिनी हो गई थी कि ये उसे अपनी अनूठी भावभंगी के साथ साथ जिस रूप में चाहते थे
उस रूप में मोड़ सकते थे।------रामचंद्र शुक्ल
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गुरुपद पंकज पावन रेनू।
गुरुपद रज अज हरिहर धामा।
तब लगि जग जड़ जीव भुलाना।------------सरजू राम पंडित
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यह प्रेम को पंथ कराल महा
तरवारि की धार पै धावनो है-------बोधा
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जो नर दुख में दुख नहिं
मानै।
सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै
नहिं निंदा नहिं अस्तुति जाके, लोभ मोह अभिमाना।
हरष सोक तें रहै नियारो, नाहि मान अपमाना.............नानक
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यह मसीत यह देहरा सतगुरु
दिया दिखाइ।
भीतर सेवा बंदगी बाहिर काहे जाइ............दादू
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भाई रे! ऐसा पंथ हमारा।
द्वै पख रहित पंथ गह पूरा अबरण एक अधारा।
वाद-विवाद काहु सौं नाहीं मैं हूँ जग थें न्यारा।........दादू
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गुजरात पर 'आभड़ छोत अतीत सों होत
बिलार और कूकर चाटत हाँडी', मारवाड़ पर 'वृच्छ न नीर न उत्तम चीर सुदेसन में गत देस है मारू', दक्षिण पर 'राँधत प्याज, बिगारत नाज, न आवत लाज, करै सब भच्छन'; पूरब देश पर 'ब्राह्मन, क्षत्रिय, वैसरु, सूदर चारोइ बर्न के मच्छ
बघारत'।.........सुन्दर
दास
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सबहिन के हम सबै हमारे ।
जीव जंतु मोहि लगैं पियारे
तीनों लोक हमारी माया । अंत कतहुँ से कोइ नहिं पाया
छत्तिस पवन हमारी जाति । हमहीं दिन औ हमहीं राति
हमहीं तरवरकीट पतंगा । हमहीं दुर्गा हमहीं गंगा
हमहीं मुल्ला हमहीं काजी । तीरथ बरत हमारी बाजी
हमहीं दसरथ हमहीं राम । हमरै क्रोध औ हमरै काम
हमहीं रावन हमहीं कंस । हमहीं मारा अपना बंस.........मलूक
दास
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विक्रम धँसा प्रेम के बारा
। सपनावति कहँ गयउ पतारा
मधूपाछ मुगधावति लागी । गगनपूर होइगा बैरागी
राजकुँवर कंचनपुर गयऊ । मिरगावती कहँ जोगी भयऊ
साधो कुँवर ख्रडावत जोगू । मधुमालति कर कीन्ह बियोगू
प्रेमावति कह सुरबर साधा। उषा लागि अनिरुधा बर बाँधा..............
जायसी
इन पद्यों में जायसी के पहले के चार काव्यों का उल्लेख
है मुग्धावती, मृगावती, मधुमालती और प्रेमावती।
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सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहति अस होय।
गोद लिये हुलसी फिरैं, तुलसी सो सुत होय................रहीम
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लाज न लागत आपको दौरे आएहु
साथ।
धिक धिक ऐसे प्रेम को कहा कहौं मैं नाथ
अस्थि चर्ममय देह मम तामे जैसी प्रीति।
तैसी जौ श्रीराम महँ, होति न तौ भवभीति........रत्नावली
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गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग।............तुलसीदास
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कलि कुटिल जीव तुलसी भए, वाल्मीकि अवतार धारि।' .............नाभा दास
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त्रोता काव्य निबंध करी सत
कोटि रमायन।
इक अच्छर उच्चरे ब्रह्महत्यादि परायन
अब भक्तन सुख दैन बहुरि लीला बिस्तारी।
रामचरनरसमत्ता रहत अहनिसि व्रतधारी
संसार अपार के पार को सुगम रूप नौका लियो।
कलि कुटिल जीव निस्तारहित वाल्मीकि तुलसी भयो.............नाभा दास
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उक्ति चोज अनुप्रास बरन
अस्थिति अति भारी।
बचन प्रीति निर्वाह अर्थ अद्भुत तुक धारी
प्रतिबिंबित दिवि दिष्टि, हृदय हरिलीला भासी।
जनम करम गुन रूप सबै रसना परकासी
बिमल बुद्धि गुन और की जो यह गुन श्रवननि धारै।
सूर कवित सुनि कौन कवि जो नहिं सिर चालन करै.............नाभा दास
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संतन को कहा सीकरी सों काम?
आवत जात पहनियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम...........कुम्भन
दास
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मानुष हों तो वही रसखान
बसौं सँग गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हों तो कहा बसु मेरो चरौं नित नंद की धोनु मझारन
पाहन हों तो वही गिरि को जो कियो हरि छत्रा पुरंदर धारन।
जौ खग हों तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन........रसखान
- हमारे उपन्यासकारों को देश के वर्तमान जीवन के भीतर अपनी दृष्टि गड़ाकर देखना चाहिए; केवल राजनीतिक दलों की बातों को लेकर ही न चलना चाहिए।साहित्य को राजनीति के ऊपर रहना चाहिए; सदा उसके इशारों पर ही न नाचना चाहिए।.................आचार्य रामचंद्र शुक्ल
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