ऐतिहासिक परिस्थितियों में प्रशासनिक
जरूरतों, मुसलमानों के
साम्राज्य विस्तार, धर्मप्रचार और
व्यापारिक आवाजाही के कारण यह बोली सैनिकों, व्यापारियों और सामान्य सेवाकर्मियों
के साथ दक्षिण भारत में भी पहुंची की, जहां की स्थानीय विशेषताओं को
आत्मसात करते हुए दक्किनी कहलायी ।
दक्खिनी हिन्दी का प्रथम कवि सूफी
संत बन्दा नवाज गेसूदराज को माना जाता है।
“चक्कीनामा” और “मेराजनामा” गेसूदराज की
काव्य-पुस्तकें हैं।
उत्तर भारत में इस बोली को कविता की
भाषा बनाने का प्रथम श्रेय प्रसिद्ध सूफी संत शेख फ़रीद शंकरगंज (1173-1265 ई-) को
दिया जाता है।
दक्खिनी हिन्दी काव्यधारा का अंतिम
महान कवि बली मुहम्मद को माना जाता है।
दक्खिनी हिन्दी में गद्य-रचना का
श्रेय भी सूफी संत बन्दा नवाज गेसूदराज को है।
दक्खिनी हिन्दी को श्रेष्ठ साहित्यिक
स्तर प्रदान करने का श्रेय मुल्ला वजही को जाता है जिन्होने “सबरस” नामक रचना की ।
अकबर के समकालीन कवि गंग ने “चंद छंद बरनन की महिमा” में गद्य रचना
की है जिसमें खड़ी बोली के स्वरूप की जानकारी मिलती है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 1741 ई में
पं. राम प्रसाद निरंजनी द्वारा रचित “भाषा योग वशिष्ठ” को खड़ी बोली की
पहली गद्य रचना मानते हैं।
सन 1800 में कलकत्ता में फ़ोर्ट
विलियम कॉलेज की स्थापना हुई, जिसमें जॉन गिलक्राइस्ट हिन्दुस्तानी
विभाग के अध्यक्ष नियुक्त किए गए ।
जॉन गिलक्राइस्ट जिस हिन्दुस्तानी के
पक्षधर थे, वह फारसी
शब्दों से युक्त खड़ीबोली थी, जिसे उर्दू भी कहा गया।
साधारण बोलचाल की भाषा, जिसमें
अरबी-फारसी के प्रचलित शब्द मिले रहते थे, को “हिन्दुस्तानी” या “रेख्ता” कहा जाता
था।
फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में लल्लू लाल
जी और सदल मिश्र की नियुक्ति भाषामुंशी के रूप में हुई ।
जॉन गिलक्राइस्ट के आदेश पर ही लल्लू
लाल जी ने 1803 में आम जनता के बीच प्रचलित हिन्दवी में “प्रेमसागर” की रचना की, जिसमें
श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध की कथा वर्णित है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार
अकबर के समय गंग कवि ने जैसी खड़ी बोली लिखी है वैसी ही खड़ी बोली लल्लू लाल जी ने
भी लिखी है ।
सदल मिश्र ने 1803 में ही “नासिकेतोपाध्यान” की रचना की ।
लल्लू लाल जी ने बैताल पचीसी के
अनुवाद की भाषा को रेख्ता कहा है ।
इंशाउल्ला खाँ ने ‘रानी केतकी की
कहानी’
की
रचना ठेठ बोलचाल की भाषा में की, जिसमें हिन्दवीपन और
भाखापन(ब्रजभाषन) का पुट नही है।
फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में अंग्रेज
पदाधिकारियों को भाषा सिखाने के लिए जो पुस्तकें लिखी गई, उसमें तीन गद्य
शैलियाँ दिखाई देती हैं (1) हिन्दी शैली, जिसका उदाहरण “प्रेमसागर” और “नासिकेतोपाख्यान” है ।
(2) हिन्दुस्तानी शैली, जिसका प्रतिनिधित्व
“बैताल पचीसी” और “सिंहासन बतीसी” जैसी पुस्तके
करती हैं।
(3) उर्दू शैली” जिसका उदाहरण
मीर अम्मन का बागोबहार है।
ईसाई धर्म प्रचारकों ने खड़ी बोली की
उस शैली को अपनाया जिसमें तत्सम और तदभव शब्दों का अधिक प्रयोग होता था ।
राजा लक्ष्मण सिंह ने “अभिज्ञानशाकुंतलम्” का शंकुन्तला
नाटक नाम से और “रघुवंश” का भी हिन्दी
में अनुवाद किया ।
हिन्दी का पहला समाचार पत्र “उदन्त मार्तन्ड”(1826 ई-)को
माना जाता है । इसका प्रकाशन कलकत्ता से होता था और इसके संपादक पं. जुगल किशोर
शुक्ल थे ।
10 मई 1827 को कोलकाता से ही “बंगदूत” नामक साप्ताहिक
पत्र का प्रकाशन शुरू हुआ ।
1844 ई में राजा
शिवप्रसाद सिंह के संरक्षण में बनारस से “बनारस अखबार” नामक साप्ताहिक
पत्र का प्रकाशन शुरू हुआ ।
हिन्दी का पहला दैनिक पत्र “समाचार सुधा वर्षण” 1854 में
कोलकाता से प्रकाशित हुआ । इसी दौरान पंजाब से नवीनचंद्र राय ने “ज्ञान प्रकाशिनी पत्रिका” निकाली ।
अरबी फारसी के शब्दों को लिखने के
लिए क, ख, ग, ज, फ, झ के नीचे
नुक्ता लगाने का प्रचलन राजा शिवप्रसाद सिंह ने ही किया ।
भारतेन्दु ने “हिन्दी नयी चाल में ढ़ली, सन् 1873 में” का उल्लेख “कालचक्र” नामक अपनी
पुस्तक में नोट किया है।
भारतेन्दु ने “दशरथ विलाप” नामक कविता खड़ी
बोली में लिखा ।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतेन्दु
की गद्य भाषा को “पंडिताऊपन”, “ब्रजभाषापन”,”पूरबीपन”,”उर्दूपन” और “आगरे की बोलचाल की पुट से मुक्त
निखरी हुई” भाषा कहा
है।
1871 में डब्ल्यू एथरिंगटन ने “भाषा भाष्कर” नामक हिन्दी का
व्याकरण लिखा ।
मदन मोहन ने “भाषा व्याकरण” नामक हिन्दी का
व्याकरण लिखा ।
श्रीधर पाठक ने “एकान्तवासी योगी” की रचना लावनी
छंद में की जो गोल्ड स्मिथ के हरमिट का अनुवाद है।
श्रीधर पाठक ने गोल्ड स्मिथ के ट्रैवेलर का अनुवाद “श्रान्त पथिक” नाम से खड़ी
बोली में किया, जो रोला छंद
में है।
श्रीधर पाठक ने खड़ी बोली में “जगत सचाई सार” नाम से काव्य
पुस्तक भी लिखी ।
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