प्लेटो (427–347 ई.पू.) पाश्चात्य दर्शन के महानतम आदर्शवादी विचारकों में से एक माने जाते हैं। वे सुकरात के शिष्य और अरस्तू के गुरु थे। उनकी दार्शनिक दृष्टि का केंद्र आदर्श राज्य, न्याय, नैतिकता और लोकमंगल की अवधारणा थी। प्लेटो ने साहित्य और कला को केवल आनंद अथवा सौंदर्य की वस्तु मानने के बजाय, समाज-निर्माण और नैतिक उत्थान का साधन माना। इस दृष्टि से उनका दृष्टिकोण भारतीय साहित्यिक चिंतन, विशेषकर लोकमंगलवाद से अत्यंत निकट है।
प्लेटो का काव्य-दर्शन और लोकमंगल सिद्धांत
प्लेटो के अनुसार साहित्य का प्रमुख उद्देश्य केवल सौंदर्य-बोध कराना नहीं है, बल्कि वह समाज के लिए उपयोगी होना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि—
"कला और साहित्य की कसौटी 'आनंद' या 'सौंदर्य' नहीं, बल्कि 'उपयोगिता' है।"
उनके मत में, काव्य का प्रयोजन मानव-स्वभाव में जो महान, शुभ, नैतिक और न्यायपरायण है, उसका उद्घाटन करना है। यह उद्घाटन न केवल व्यक्तिगत चरित्र-निर्माण में सहायक हो, बल्कि राष्ट्रोत्थान और मानव कल्याण का भी साधन बने।
प्लेटो के इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए उनका प्रसिद्ध उदाहरण उल्लेखनीय है—
"चमचमाती हुई स्वर्णजटित अनुपयोगी ढाल से गोबर की उपयोगी टोकरी अधिक सुंदर है।"
अर्थात्, जो वस्तु समाज के लिए उपयोगी है, वही वास्तव में सुंदर है।
प्लेटो की दो प्रमुख स्थापनाएँ
प्लेटो के काव्य-दर्शन की नींव दो महत्त्वपूर्ण स्थापनाओं पर आधारित है—
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कला प्रकृति की अनुकृति है
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प्लेटो ने कला को "अनुकरण" (Imitation) की प्रक्रिया माना।
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उनके अनुसार अनुकरण वस्तुओं को उनके यथार्थ रूप में नहीं, बल्कि आदर्श रूप में प्रस्तुत करता है।
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चूँकि यह जगत स्वयं "आदर्श जगत" (World of Ideas) की प्रतिलिपि है, अतः कला (जो जगत का अनुकरण है) सत्य से तीन गुना दूर होती है।
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उदाहरणस्वरूप, बच्चों को सुनाई जाने वाली कहानियाँ प्रायः कल्पित होती हैं, अतः वे वास्तविक सत्य का अनुकरण नहीं कर पातीं।
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काव्य हमारी भावनाओं को उद्वेलित करता है
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प्लेटो का मानना था कि कवि और कलाकार अपनी रचनाओं से भावनाओं और वासनाओं को उत्तेजित कर सकते हैं।
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यदि यह उत्तेजना अनैतिक या विवेकहीन हो, तो समाज में दुर्बलता, अनाचार और अव्यवस्था फैल सकती है।
काव्य-वस्तु पर प्लेटो की आपत्तियाँ
प्लेटो ने काव्य की विषय-वस्तु पर गंभीर आपत्तियाँ उठाईं—
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कवि को सद्गुणों और नैतिक मूल्यों पर आधारित विषयों का चयन करना चाहिए।
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ऐसे साहित्य का निषेध होना चाहिए, जो असत्य, असंगत, अनैतिक या मानसिक रूप से हानिकारक हो।
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उन्होंने विशेष रूप से वीर पुरुषों के गुणों और देवताओं के स्तोत्रों को काव्य में स्थान देने की अनुशंसा की।
आदर्श काव्य-कृति की कसौटी
प्लेटो के अनुसार एक उत्तम काव्य-कृति के निर्माण के लिए—
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कवि को अपने विषय का पूर्ण और स्पष्ट बोध होना चाहिए।
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कृति के समस्त अंगों का विन्यास निश्चित क्रम और पूर्ण संगति के साथ होना चाहिए।
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रचना में नैतिक उत्थान, लोकमंगल, और ज्ञान-वृद्धि का उद्देश्य निहित होना चाहिए।
हिंदी आलोचना पर प्रभाव
प्लेटो का यह दृष्टिकोण हिंदी आलोचना में प्रत्यक्षतः लोकमंगलवादी साहित्य की धारणा में देखा जा सकता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और बाद के आलोचकों ने साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन न मानकर समाज-सुधार और राष्ट्रोत्थान का उपकरण माना। प्लेटो की उपयोगिता-केंद्रित सौंदर्य दृष्टि ने हिंदी आलोचना को नैतिकता और लोकहित के आदर्शों से जोड़े रखा, जिससे वह केवल कलात्मक विमर्श तक सीमित न रहकर सामाजिक चेतना का वाहक बनी।
इस प्रकार प्लेटो ने साहित्य को केवल सौंदर्य और आनंद का माध्यम न मानकर, उसे नैतिक और सामाजिक दायित्व से जोड़ा। उनका यह दृष्टिकोण न केवल पाश्चात्य साहित्यिक आलोचना में, बल्कि हिंदी आलोचना में भी गहरे तक रचा-बसा है। उनकी आदर्शवादी विचारधारा ने हिंदी साहित्य में लोकमंगल, नैतिकता और उपयोगिता को केंद्र में रखने की परंपरा को प्रेरित किया।
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