स्वच्छंदतावाद साहित्यिक और कलात्मक अभिव्यक्ति की वह प्रवृत्ति है, जिसमें रचनाकार किसी भी पूर्व निर्धारित वाद, विचारधारा या सिद्धांत की बंधन-रेखाओं से मुक्त होकर अपनी व्यक्तिगत दृष्टि, अनुभव और कल्पनाशक्ति के आधार पर रचना करता है। इसका मूल आधार रचनाकार की पूर्ण मानसिक स्वतंत्रता है—जहाँ वह सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक मान्यताओं की कठोर मर्यादाओं से ऊपर उठकर अपने अंतःकरण की पुकार को स्वर देता है।
पाश्चात्य साहित्य में इसका समानांतर रूप ‘रोमांटिसिज्म’ (Romanticism) के रूप में देखा जाता है। रोमांटिसिज्म अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में यूरोप में एक व्यापक कलात्मक एवं साहित्यिक आंदोलन के रूप में उभरा। यह आंदोलन विशेष रूप से ‘क्लासिसिज्म’ (Classicism) अथवा ‘अभिजात्यवाद’ (Aristocratism) की रूढ़, कृत्रिम और निर्जीव कलात्मक परंपराओं की प्रतिक्रिया स्वरूप विकसित हुआ।
क्लासिसिज्म में नियमबद्धता, आदर्शरूप, और शास्त्रीय अनुशासन को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था, जिसके कारण रचना में भावनात्मक जीवन्तता और नवीनता का अभाव हो गया था। इसी जड़ता के विरुद्ध रोमांटिसिज्म ने मानवीय संवेदनाओं, व्यक्तिगत अनुभवों, प्रकृति-प्रेम और मुक्त कल्पना को महत्व देकर रचनात्मकता में एक नई चेतना और ऊर्जा का संचार किया।
साहित्य और कलाओं के प्रति ‘स्वच्छंदतावादी’ दृष्टिकोण के पीछे एक महत्त्वपूर्ण प्रेरक राजनीतिक घटना फ़्रांस की महान क्रांति (French Revolution) रही। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुई इस क्रांति ने न केवल राजनीतिक परिदृश्य को बदला, बल्कि यूरोप के सांस्कृतिक और साहित्यिक चिंतन पर भी गहरा प्रभाव डाला। इस क्रांति में दार्शनिक ज्यां जाक रूसो (Jean-Jacques Rousseau) ने “स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व” का नारा देकर व्यक्ति की स्वाधीनता और मानवीय गरिमा के अधिकार की जोरदार वकालत की। यह मूलतः बंधनों से मुक्ति और जड़ संस्थागत व्यवस्थाओं के विरुद्ध जन-आन्दोलन था, जिसने रचनाकारों और कलाकारों को मानसिक तथा सृजनात्मक स्वतंत्रता के नए क्षितिज प्रदान किए।
इसी कारण स्वच्छंदतावाद किसी एक तयशुदा साँचे या कठोर नियमों में सीमित नहीं रहा; वह विविध रूपों और शैलियों में अभिव्यक्त हुआ। इस प्रवृत्ति की कलात्मक विशेषताएँ अंग्रेज़ी कविता में वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, शेली, कीट्स और बायरन जैसे कवियों के कार्यों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं।
विशेष रूप से विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को “प्रबल मनोवेगों का सहज उच्छलन” (spontaneous overflow of powerful feelings) कहा, और इस प्रकार भाव-प्रधानता तथा अंतःकरण की सच्ची अभिव्यक्ति को साहित्य का मूल माना। उनके अनुसार यह भावोच्छलन अराजक या अनुशासनहीन नहीं होता; बल्कि इसके पीछे एक गहरी सूक्ष्म संवेदनशीलता का आग्रह होता है, जो कल्पना के साथ मिलकर रचनाकार की आंतरिक अनुभूतियों को ईमानदारी और निष्ठा से उद्घाटित करता है।
इस प्रकार, फ़्रांस की क्रांति ने जिस स्वतंत्रता की चेतना को जन्म दिया, उसी ने साहित्य और कलाओं में स्वच्छंदतावाद के रूप में एक ऐसी धारा को प्रवाहित किया, जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्र सोच, गहन संवेदनशीलता और मौलिक कल्पना को सर्वाधिक महत्व मिला।
भाव-प्रवणता के प्रभाव से स्वच्छंदतावादी आलोचना में वैयक्तिकता, आत्म-सृजन, कल्पनाशीलता और स्वानुभूति को स्वतंत्र एवं महत्वपूर्ण साहित्यिक मूल्यों के रूप में स्वीकार किया गया। इस दृष्टिकोण में रचनाकार के अंतर-जगत को समझना, उसकी सृजन-प्रक्रिया का मूल आधार माना गया। कॉलरिज ने कवि-कल्पना के महत्व को विशेष रूप से रेखांकित करते हुए इसे सृजनकारिणी “आदि शक्ति” और मस्तिष्क की सबसे प्राणवान क्रिया की संज्ञा दी। इसलिए स्वच्छंदतावादी आलोचक मानते थे कि किसी भी रचना की व्याख्या के लिए रचनाकार की अंतर्वृत्तियों, निजी अनुभूतियों और मानसिक प्रवृत्तियों का अध्ययन अनिवार्य है।
स्वच्छंदतावाद की एक और मूलभूत विशेषता थी—जड़ता, कृत्रिमता, रूढ़ियों और अप्रासंगिक हो चुकी साहित्यिक परंपराओं के विरुद्ध विद्रोह। विषय-वस्तु के स्तर पर इन आलोचकों ने परंपरागत रूप से महिमामंडित उदात्त चरित्रों और असाधारण घटनाओं की कथाओं के स्थान पर साधारण मानव के सामान्य अनुभवों, सांस्कृतिक मूल्यों और अपने परिवेश को महत्व दिया। उनके लिए साहित्य का सौंदर्य जीवन के सहज और सजीव अनुभवों में निहित था।
शैली और शिल्प के स्तर पर उन्होंने प्रयोगशीलता और वैविध्यता को रचनात्मक स्वतंत्रता का प्रतीक माना—जो अभिजात्यवादी अनुशासन में संभव नहीं थी। भाषा के स्तर पर उन्होंने सूक्ष्म अर्थच्छायाओं को उभारने और भाव-संप्रेषण को प्रभावी बनाने के लिए सहज, स्वाभाविक और जनजीवन से जुड़ी भाषा के प्रयोग को आवश्यक माना।
स्वच्छंदतावादी आलोचना का दृष्टिकोण पूरी तरह रसवादी था, लेकिन उसमें वे रस को केवल सौंदर्य या भावोच्छलन तक सीमित नहीं रखते थे; बल्कि उसमें मानवतावादी यथार्थ को भी विशेष महत्व देते थे। उनकी सौंदर्य चेतना का मूल आधार था—प्रकृति के विविध रूपों में विद्यमान उन्मुक्त सौंदर्य के प्रति सहज आकर्षण और संवेदनशीलता।
हालाँकि, स्वच्छंदतावाद की लोकप्रियता और व्यापकता के वही कारक अंततः उसके अवसान का कारण भी बने। वैयक्तिकता और आत्मपरकता के अत्यधिक आग्रह ने कई रचनाकारों को विशुद्ध रूप से आत्मकेंद्रित बना दिया, जिसके परिणामस्वरूप वे बाह्य जीवन, समाज और परिवेश के प्रति धीरे-धीरे उदासीन होते गए। हिंदी साहित्य में भी छायावादी आंदोलन, जो स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियों का प्रमुख प्रतिनिधि था, “नाना अर्थभूमियों के संकोच” के कारण अपेक्षाकृत अल्पकालिक सिद्ध हुआ और अपने उत्कर्ष के कुछ ही वर्षों बाद मद्धिम पड़ गया।
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