Wednesday, 13 August 2025

हिंदी आलोचना पर पाश्चात्य प्रभाव

वर्तमान समय में हिंदी आलोचना के स्वरूप के निर्माण में पाश्चात्य प्रभाव की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस प्रभाव का प्रारंभ भारतेंदु युग के ‘नाटक’ संबंधी विचारों से हो जाता है, किंतु इसे व्यवस्थित रूप देने का श्रेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल को जाता है, जिन्होंने पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय चिंतन को साधिकार अपनाया। यद्यपि उनका आलोचनात्मक आधार मुख्यतः संस्कृत काव्यशास्त्र रहा, जिसके केंद्र में कविता ही थी, तथापि पाश्चात्य साहित्य में भी काव्यशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र के समानांतर सिद्धांत मौजूद थे।

पश्चिम में सृजन, सौंदर्य और विचार के क्षेत्र में हुए विविध कलात्मक एवं बौद्धिक आंदोलनों ने वहां की साहित्यिक आलोचना को निरंतर परिवर्तित किया, जिसका प्रभाव हिंदी आलोचना पर भी पड़ा। इस संदर्भ में प्लेटो, अरस्तू, लोंजाइनस, क्रोचे, टी.एस. एलियट, वर्ड्सवर्थ, तथा अस्तित्ववादी चिंतकों सार्त्र और कामू के विचार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का केंद्र यूनान था और पाश्चात्य साहित्यिक चिंतन का मूल स्रोत प्लेटो माने जाते हैं। प्लेटो से प्रारंभ होकर यह धारा यूनान, रोम और मध्यकालीन यूरोप से होते हुए आधुनिक यूरोपीय भाषाओं तक पहुंची। प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने अपने गुरु के कई सिद्धांतों का खंडन करते हुए उनके तार्किक समाधान प्रस्तुत किए। यूनान के एक अन्य महत्त्वपूर्ण चिंतक लोंजाइनस ने काव्य में औदात्य के सिद्धांत को स्थापित किया, जिससे पश्चिम में स्वच्छंदतावाद और सौंदर्यवाद को नया आयाम मिला।

उन्नीसवीं शताब्दी में वर्ड्सवर्थ के विचारों ने स्वच्छंदतावादी काव्य-प्रतिमानों को दृढ़ आधार प्रदान किया। वहीं बीसवीं शताब्दी में, विश्व-युद्धोत्तर परिस्थितियों में, अस्तित्ववादी चिंतन ने साहित्यिक प्रतिमानों और मूल्यों को व्यापक रूप से प्रभावित किया। हिंदी आलोचना ने इन पाश्चात्य साहित्यिक अवधारणाओं से निरंतर संवाद किया और अपने स्वरूप का विस्तार किया।

हिंदी आलोचना पर पाश्चात्य प्रभाव : प्रमुख प्रवृत्तियाँ

हिंदी आलोचना के विकास में पाश्चात्य प्रभाव की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। इस प्रभाव के कारण हिंदी आलोचना का स्वरूप अधिक वस्तुपरक, विवेचनात्मक और विचार-समृद्ध हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पाश्चात्य आलोचनात्मक दृष्टियों को अपनाते हुए परंपरागत साहित्यशास्त्र को एक नए ढाँचे में प्रस्तुत किया। उन्होंने ‘आनंद की साधनावस्था’ की तुलना डंटन द्वारा परिभाषित ‘शक्ति-काव्य’ से की। उनके द्वारा प्रशस्त मार्ग पर चलते हुए बाबू गुलाब राय, नंद दुलारे वाजपेयी और डॉ. नगेंद्र ने भारतीय और पाश्चात्य साहित्यशास्त्र को समीप लाने का संगठित एवं सराहनीय प्रयास किया।

हिंदी आलोचना का पाश्चात्य प्रभाव चार प्रमुख आलोचनात्मक अवधारणाओं में विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है—

1. स्वच्छंदतावादी आलोचना

  • यह प्रवृत्ति सर्वप्रथम हिंदी आलोचना को प्रभावित करने वाली पाश्चात्य धारा है।

  • आचार्य शुक्ल को भी कुछ आधारों पर स्वच्छंदतावादी माना जाता है।

  • इस दृष्टि ने छायावादी साहित्य के मूल्यांकन और विश्लेषण के लिए नई बौद्धिक रूपरेखा प्रदान की।

  • नंद दुलारे वाजपेयी ने हिंदी आलोचना में स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियों को सशक्त रूप से विकसित किया।

2. मार्क्सवादी आलोचना

  • मार्क्सवादी दृष्टिकोण ने साहित्य के सामाजिक संदर्भों और यथार्थ की पहचान पर बल दिया।

  • इस धारा के प्रमुख संवाहक रहे — प्रकाशचंद्र गुप्त, शिवदान सिंह चौहान, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, और नामवर सिंह

  • इस दृष्टि ने साहित्य को वर्ग-संघर्ष, उत्पादन संबंधों और ऐतिहासिक भौतिकवाद के आलोक में परखने की दिशा दी।

3. मनोवैज्ञानिक एवं मनोविश्लेषणात्मक आलोचना

  • इस दृष्टिकोण के अंतर्गत लेखक के अंतर्मन, उसकी सृजन-प्रक्रिया और अवचेतन मन की पड़ताल की जाती है।

  • हिंदी में अज्ञेय पर आधुनिक मनोविज्ञान और टी.एस. एलियट का गहरा प्रभाव देखा जाता है।

  • डॉ. नगेंद्र पाश्चात्य अवधारणाओं के प्रति अत्यधिक आग्रहशील रहे; वे फ्रायड के विचारों से प्रभावित होते हुए भी मूलतः रसवादी दृष्टिकोण के समर्थक रहे।

  • डॉ. देवराज ने विशेष रूप से कथाकारों के अंतर्मन के स्वरूप के अन्वेषण पर बल दिया।

4. अस्तित्ववादी आलोचना

  • द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल में अस्तित्ववाद का प्रभाव विश्व साहित्य के साथ हिंदी आलोचना में भी दृष्टिगोचर हुआ।

  • इस दृष्टि ने व्यक्ति की स्वतंत्रता, विकल्प, दायित्व और अस्तित्वगत संकट पर विमर्श को केंद्र में रखा।

  • स्वातंत्र्योत्तर हिंदी आलोचना में आधुनिकतावाद, उत्तर-आधुनिकतावाद, संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद जैसी अनेक पाश्चात्य अवधारणाओं का समावेश हुआ, जिससे आलोचना की बौद्धिक सीमा का व्यापक विस्तार हुआ।

पाश्चात्य प्रभाव ने हिंदी आलोचना को पारंपरिक संस्कृत काव्यशास्त्र की सीमाओं से निकालकर एक बहुआयामी, विज्ञानसम्मत और वैश्विक दृष्टि संपन्न स्वरूप प्रदान किया। इससे न केवल आलोचना में विश्लेषणात्मक गहराई आई, बल्कि साहित्य को सामाजिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक संदर्भों में परखने की नई दृष्टियाँ भी विकसित हुईं।

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