हम जानते हैं कि हिंदी साहित्य के उत्तर मध्यकाल (लगभग 1650 से 1850 ई.) को साहित्य इतिहासकारों ने “रीतिकाल” नाम दिया है। यहाँ ‘रीति’ शब्द संस्कृत काव्यशास्त्र के ‘रीति संप्रदाय’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है—विशेष प्रकार की पदरचना। इस काल में काव्य रचना के लिए निश्चित नियमों और मान्यताओं का पालन अनिवार्य माना गया, जिन्हें ‘रीति’ कहा गया। परिणामस्वरूप, अधिकांश कवियों ने संस्कृत काव्यशास्त्र की निर्धारित परंपरा और मानकों के अनुसार ही सृजन किया।
इसी पद्धति को ध्यान में रखते हुए हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने रीतिकाल के कवियों को उनकी रीति-संबद्धता के आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया—रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त कवि। प्रस्तुत पाठ में विशेष रूप से ‘रीतिसिद्ध’ काव्य की विविध प्रवृत्तियों पर चर्चा की गई है। यहाँ ‘रीतिसिद्ध’ शब्द का प्रयोग रीतिकालीन काव्य के एक विशिष्ट संदर्भ में हुआ है, जिसके आधार पर रीतिबद्ध और रीतिमुक्त काव्य से इसका अंतर स्पष्ट किया गया है।
अवधारणा
(1) रीतिसिद्ध काव्य का अभिप्राय
रीतिकाल की लगभग दो शताब्दियों (1650–1850 ई.) में रचित साहित्य का विश्लेषण करें तो स्पष्ट होता है कि इसका दो-तिहाई से अधिक भाग ऐसे रचनाकारों का है, जिनका मुख्य उद्देश्य काव्यशास्त्रीय अंगों और नियमों का विवेचन या काव्यशास्त्रीय ज्ञान का प्रदर्शन था, न कि मौलिक कवित्व का सृजन। ये कवि अपने द्वारा गढ़े गए काव्यांग-लक्षणों के साथ अन्य कवियों के उदाहरण देकर विषय का विस्तार से विवेचन करते थे, जिससे कवि की व्यक्तिगत प्रतिभा गौण हो जाती थी।
दूसरा वर्ग उन कवियों का था, जिन्होंने रस, छंद और अलंकार जैसे विशिष्ट काव्यांगों के लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपनी काव्य प्रतिभा और शास्त्रज्ञान—दोनों का संतुलित प्रदर्शन किया। इनके द्वारा दिए गए उदाहरण, बताए गए लक्षणों पर पूर्णतः खरे उतरते थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ऐसे कवियों को रीतिबद्ध कवि कहा है।
तीसरा वर्ग उन रचनाकारों का है, जिन्होंने कोई लक्षण-ग्रंथ नहीं लिखा, लेकिन रीति का पूर्ण ज्ञान रखते हुए अपने काव्य सृजन में काव्यशास्त्रीय नियमों का सहज पालन किया। इनका मुख्य उद्देश्य कवित्व का प्रदर्शन था, न कि काव्यांगों की औपचारिक विवेचना। ऐसे कवि, बिना किसी शास्त्रीय विवेचन के भी, रीति के विधान में पारंगत थे और रचना करते समय इन नियमों से कभी विचलित नहीं हुए। इन्हें रीतिसिद्ध कवि कहा जाता है।
रीतिसिद्ध कवि शास्त्रीय नियमों से संस्कारवश बंधे होते थे, जबकि रीतिबद्ध कवि इन नियमों का पालन अनिवार्यतः करते थे। दोनों वर्गों में काव्यशास्त्रीय संस्कार समान थे, पर अंतर यह था कि रीतिबद्ध काव्य में काव्यांग-लक्षण प्राथमिक और कविता गौण थी, जबकि रीतिसिद्ध काव्य में कविता प्राथमिक थी, यद्यपि शास्त्रीय अनुशासन के साथ। इस प्रकार, रीतिसिद्ध रचनाएँ केवल रीति की पुनरावृत्ति नहीं थीं, बल्कि उनमें मौलिक और चमत्कारपूर्ण काव्य सौंदर्य भी निहित था।
किसी रीतिसिद्ध रचना में नायिका-चित्रण या नखशिख वर्णन की उपस्थिति यह सिद्ध नहीं करती कि वह रीति-ग्रंथ है। वास्तव में, ‘रीतिबद्ध’ और ‘रीतिसिद्ध’ का भेद प्रायः कवि-वर्ग पर नहीं, बल्कि रचना-विशेष पर आधारित है। रीतिसिद्ध काव्य को एक प्रकार से रीतिबद्ध काव्य का परिष्कृत रूप कहा जा सकता है।
बिहारीलाल इस धारा के प्रमुख कवि हैं—उन्होंने कोई लक्षण-ग्रंथ नहीं लिखा, फिर भी रीति की सभी विशेषताओं को आत्मसात किया। भागीरथ मिश्र के अनुसार, “ऐसे अनेक कवि हुए हैं, जिन्होंने इसी परंपरा में रचनाएँ कीं, पर उनकी देन मुख्यतः काव्य के क्षेत्र में है, शास्त्र के क्षेत्र में नहीं।” रीतिकाल में सर्वाधिक लोकप्रियता इन्हीं रीतिसिद्ध कवियों को मिली, और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी स्वीकार किया है कि “रीतिकाल के सबसे अधिक लोकप्रिय कवि बिहारीलाल थे।”
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बिहारी — सतसई
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सेनापति — कवित्त रत्नाकर
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मतिराम — मतिराम सतसई
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भूषण — शिवाबावनी, छत्रसाल दशक
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रसनिधि — रतन हजारा
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वृन्द — नीति सतसई
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कालिदास त्रिवेदी — कालिदास हजारा
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भूपति — सतसई
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विक्रम — सतसई
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पद्माकर — गंगा लहरी, प्रताप सिंह विरुद्धावली
(3) रीतिसिद्ध कवियों के वर्ण्य विषय
रीतिकालीन अधिकांश काव्य राजाओं, नवाबों और सामंतों के आश्रय में रचे गए। चूँकि ये आश्रयदाता प्रायः विलासी प्रवृत्ति के थे, इसलिए आश्रित कवियों के लिए आवश्यक था कि वे ऐसी श्रृंगारप्रधान रचनाएँ प्रस्तुत करें, जो उनके आश्रयदाताओं के भोग-विलासपूर्ण संस्कारों को तृप्त कर सकें। यहाँ श्रृंगार का आशय आध्यात्मिक नहीं, बल्कि पूर्णतः लौकिक और सांसारिक था—जिसका केंद्रबिंदु सौंदर्य और प्रेम था।
इस क्रम में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियाँ—प्रिय से मिलने की उत्कंठा, वियोग की व्याकुलता, चांदनी या अंधेरी रात के आलिंगन व चुम्बन, विरह के विविध भाव, नायिका-नायक की शारीरिक चेष्टाएँ और भाव-क्रियाएँ—रीतिसिद्ध कवियों के प्रमुख विषय बने।
हालाँकि आश्रयदाता केवल विलास में ही लीन नहीं रहते थे, बल्कि राज्य, सीमाओं और शासन की रक्षा हेतु युद्ध भी करते थे। ऐसी स्थिति में कवियों ने उनके युद्ध-वीर्य और पराक्रम का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन कर उन्हें तथा उनकी सेना को युद्ध हेतु प्रेरित किया। साथ ही उनके वैभव, दानशीलता, क्षमाशीलता और धर्मपरायणता की प्रशस्तियाँ लिखकर उन्हें प्रसन्न भी किया।
इनकी श्रृंगारिक रचनाओं में प्रकृति एक महत्त्वपूर्ण सहायक तत्व के रूप में रही। ऋतु-परिवर्तन, पुष्प-वन, नदी-सरिता, पक्षियों के कलरव जैसे दृश्य इनके काव्य में सौंदर्य-वृद्धि करते हैं। जीवन के अनुभवों से प्रेरित होकर कई कवियों ने नीतिपरक रचनाएँ भी लिखीं, जिनमें जीवन-जगत से जुड़े व्यावहारिक उपदेश निहित थे।
रीतिसिद्ध कवियों ने भक्ति-प्रधान रचनाएँ भी कीं—कुछ उनकी व्यक्तिगत भक्ति-भावना का परिणाम थीं, तो कुछ ग्रंथों के प्रारंभ में ईश्वर-स्तुति या देवी-स्तवन के रूप में आईं। इसके अतिरिक्त, दर्शनपरक रचनाओं में आत्मा-परमात्मा, जीव, जगत, माया, ज्ञान और साधना जैसे विषयों पर भी विचार किया गया।
इस प्रकार, रीतिसिद्ध काव्य के विषय मुख्यतः छह भागों में वर्गीकृत किए जा सकते हैं—
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प्रशस्ति-गान
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श्रृंगार
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प्रकृति-चित्रण
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नीति
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भक्ति एवं दर्शन
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अन्य विषय
हालाँकि, शास्त्रीय नियमों के बंधन के कारण इन विषयों का वर्णन प्रायः निश्चित और सीमित ढाँचे में ही किया जाता था।
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