Tuesday, 26 August 2025

संस्कृत काव्यशास्त्र

 1. अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य है =भामह

2. भरत मुनि ने कितने अलंकारों का उल्लेख किया है ?=4 1. उपमा 2. रूपक 3. दीपक 4. यमक

3. अलंकार रत्नाकर नामक ग्रंथ के रचयिता है =शोभाकर मित्र

4. दण्डी ने  गुणों की संख्या कितनी मानी है =10

5. आचार्य भोज ने  अनुसार गुणों की संख्या है =24

6. वामन ने  गुणों की संख्या मानी है =20

7. मम्मट,, भामह तथा आनंद वर्धन ने  गुणों  के भेद माने है =3

8. गुणों के प्रमुख भेद है =3 1. माधुर्य 2. ओज 3. प्रसाद

9. वृत्ति का सर्वप्रथम वर्णन किस ग्रंथ में मिलता है=नाट्यशास्त्र में

10. भारतीय काव्यशास्त्र में कितनी काव्य वृत्तियां मानी ग मानी गई है =3  1. परुषा 2. कोमल 3. उपनागरी

11. सर्वप्रथम दोष की परिभाषा किस आचार्य ने प्रस्तुत की=वामन ने

12. दंडी में कितने काव्य दोषों का वर्णन किया है =10

13. वामन ने कितने काव्य दोषों का वर्णन किया है =20

14. विश्वनाथ ने कितने दोषों का वर्णन किया है =70

15. काव्य दोषो का सर्वप्रथम निरुपण किस ग्रंथ में मिलता है =भारत कृत नाट्य शास्त्र में

16 दस के स्थान पर तीन काव्य गुणों की स्वीकृति प्रथम किस आचार्य ने की==भामह ने

17. प्रेयान नामक नवीन रस की उद्भावना किस आचार्य ने की।=रुद्रट

18. आलोक का हिंदी भाष्य किसने लिखा= आचार्य विश्वेश्वर ने

19. भावप्रकाश नामक ग्रंथ के रचयिता है=शारदातनय

20. दण्डी ने कितने काव्य हेतु माने है =3  1.  नैसर्गिकी प्रतिभा            2. निर्मल शास्त्र ज्ञान           3. अमंद अभियोग[अभ्यास]

21. रुद्रट और कुंतक ने कितने काव्य हेतु माने है =3 1. शक्ति           2. व्युत्तपत्ति           3.  अभ्यास

22. वामन ने कितने काव्य हेतु माने है =3                 1.  लोक, 2. विद्या 3. प्रकीर्ण

23. व्यंग के तारत्मय के आधार पर काव्य के कितने भेद माने जाते है  =3      1. ध्वनि  2.  गुणीभूत व्यंगचित्र 3.  चित्र

24. काव्यरुप(इंद्रियगम्यता) के आधार पर काव्य के कितने भेद है =2                   1.  दृश्य काव्य   2. श्रव्यकाव्य

25. दृश्यकाव्य[ रूपक] के कितने प्रमुख भेद है =10

26. श्रव्यकाव्य के कितने भेद हैं =3               1. गद्य, 2. पद्य 3. चंपू [ गद्य- पद्यमय काव्य]

27. लक्षणा के कुल कितने भेद माने जाते हैं =12

28. किस लक्षणा को अभिधा पुच्छभूता कहते है= रूढ़ि लक्षणा को

29. किस आचार्य ने लक्षणा के 80 भेदों का उल्लेख किया है =विश्वनाथ  ने

30. मम्मट ने लक्षणा के कितने भेदों का उल्लेख किया है =12

31. किस काव्य को चित्रकाव्य कहा जाता है =अधम काव्य को

32. बंध के आधार पर काव्य के कितने भेद हैं =2                     1.  प्रबंध, 2.  मुक्त्तक

33. पूर्वापर सम्बन्ध निरपेक्ष काव्य -रचना को कहते हैं=मुक्त्तक

34. पूर्वापर सम्बन्ध  निर्वाह -सापेक्ष रचना को कहते है =प्रबंध

35. संस्कृत में साहित्य के लिए किस शब्द का प्रयोग होता है =वाङ्मय

36. तात्पर्य  क्या है ==अभिधा,  लक्षणा, व्यंजना की तरह चौथे प्रकार की नई शब्द-शक्ति

37. भामह अभाववादी, कहलाते है क्योंकि उन्होंने काव्य में ध्वनि की सत्ता स्वीकार नहीं की है

38. प्रतिभा मात्र को ही काव्य का हेतु आवश्यक सर्वप्रथम किसने माना ==हेमचंद्र ने

39. गुणिभूत व्यंग के कितने भेद होते हैं =8

40. वाच्यता असह,,का अन्य नाम है ==रस ध्वनि

41. भरत ने हास्य रस के कितने भेद माने हैं =6

42. कुंतक ने वक्रोति के भेद व् उपभेद माने है =       6 भेद व  41 उपभेद

रस निरुपण

 

1. रस निरुपण के प्रथम व्याख्याता और रस निरुपण का प्रथम ग्रंथ किसे माना जाता है =

भरत मुनि व्  उनके नाट्यशास्त्र को

2. भरत ने 8 स्थाई भाव, 8 सात्विक भाव, 33 संचारी भावों का उल्लेख किया है|

3. किस आचार्य ने रीती को काव्य की आत्मा मान कर रस के गुण के अंतर्गत स्थान दिया है और कांति गुण का वर्णन करते हुए रस से युक्त माना है =वामन

4. आचार्य रुद्रट ने शांत रस का स्थाई भाव किसे माना है ===सम्यक ज्ञान

5. रस को ध्वनि के साथ युक्त करने का श्रेय किसे है ==आनंद वर्धन को

6. भोज ने 12 रसों का विवेचन किया है जिनमें चार नवीन है =प्रेयस=शांत=उदात्त=उध्दत

7. भोज ने रस का मूल  किसे माना है= अहंकार को

8. वाक्य रसात्मक काव्यम् कथन किसका है =विश्वनाथ का

9. आचार्य शुक्ल ने काव्य की आत्मा किसे माना है=रस को

10. भट्टलोल्लक ने रस की अवस्थिति किसमें मानी है=अनुकार्य में

11. किस आचार्य ने रस सूत्र की व्याख्या के संधर्भ में काव्य में तीन शक्तियों की कल्पना की = भट्टनायक ने

अभिधा =भावक्त्व= भोजकत्व **

12. अभिनव गुप्त रस को मानते हैं =व्यंग

13. किस आलोचक के मतानुसार साधारणीकरण कवि की अनुभूति का होता है =नगेंद्र के अनुसार

14. भारतीय काव्यशास्त्र में भावक से अभिप्राय है =सहदय् या आलोचक से

15. भावक(सहदय्) के कितने प्रकार माने गए है = 4

1 अरोचकी [विवेकी]             2 सतृणाभ्यव्हारि [अविवेकी]               3 मत्सरी [पक्षपात पूर्ण आलोचना करने वाला]

4 तत्त्वाभिनिवेशी

16. विभाव के कितने भेद हैं =2 [आलम्बन और उद्दीपन ]

17. आलंबन विभाव के कितने भेद हैं =2  1.  आलंबन  2. आश्रय

18. सात्विक अनुभाव की संख्या कितनी मानी गई है =आठ

19. आचार्य शुक्ल ने विरोध और अविरोध के आधार पर संचारियों  के कितने वर्ग किये हैं =चार

1. सुखात्मक 2. दु:खात्मक 3. उभयात्मक 4. उदासीन

20. श्रृंगार को मूल रस किस आचार्य ने माना है=भामह ने

21. भक्ति रस को मूल रस किसने माना है=मधुसूदन सरस्वती एव रूप गोस्वामी ने

22. शंकुक के अनुसार भरतमुनि के रस सूत्र में आये संयोग शब्द का अर्थ है =अनुमान

23. रस सिद्धांत के संबंध में तन्मयतावाद के प्रतिष्ठापक है= अभिनव भरत

24. एक के बाद एनी अनेक भावों का उदय होता है तो उसे कहते है = भाव सबलता

25. अवहित्था  और अपस्मार क्या है ?==संचारी भाव का एक प्रकार

26. किस आलोचक के मतानुसार साधारणीकरण कवि भावना का होता है =नगेंद्र

27. अभिधा, भावकत्व और भोग काव्य के तीन व्यापार किस आचार्य ने माने हैं =भट्टनायक ने

28. भाव-सन्धि, भाव सबलता तथा भाव -शांति किस भाव की प्रमुख स्थितियां है =संचारी भाव की

संस्कृत काव्यशास्त्र

 

1. वास्तविक काव्यलक्षण का प्रारंभ किस आचार्य से होता है जिन्होंने शब्द और अर्थ के सहभाव

(शब्दार्थो सहितौ  काव्यम )को काव्य की संज्ञा दी है == भामह से

2. शब्द अर्थ संगम सहित भरे चमत्कृत भाय।

 जग अद्भुत में अद्भुतहिँ ,सुखदा काव्य बनाए ||” पंक्ति है =ग्वाल कवि( रसिकानंद)

3. प्रतिभा के दो भेद (सहजा और उत्पाद्या ) किसने किये==रुद्रट ने

4. प्रतिभा को काव्य निर्माण का एकमात्र हेतु मानने  के कारण  किस आचार्य के प्रतिभावादी कहा जाता है =पंडितराज जगन्नाथ को

5. प्रतिभा के दो भेद कारयित्री और भावयित्री किस आचार्य ने किए हैं = राजशेखर ने

6. भावयित्री प्रतिभा किसमे होती है==सहदय् में

7. भारतीय काव्यशात्र में भावक, से अभिप्राय है?===सहदय् या आलोचक से

8. शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावलीकथन किसका है==दण्डी का

9. रीति सिद्धांत की उपलब्धि है ==शैली तत्वों को महत्व देना

10. वामन के अनुसार गुण और रिति का संबंध है =अभेद

11. आचार्य कुंतक के अनुसार वक्रोक्ति के कितने भेद हैे =6

12. व्क्रोक्ति सिद्धांत की महत्वपूर्ण उपलब्धि है===कलावाद की प्रतिष्ठा

13. कव: कर्म काव्यम् , (कवि का कर्म ही काव्य है ) कथन कुन्तक  का है

14. औचित्य विचार चर्चा ,ग्रंथ किस आचार्य का है =क्षेमेंद्र का

15.  क्षेमेंद्र के अनुसार औचित्य  के प्रधान भेद हैं===27

16. क्षेमेंद्र ने रस का प्राण किसे माना है = औचित्य को

17. ध्वन्यालोक, की टीका  ध्वन्यालोक लोचन किसने लिखी ==अभिनवगुप्त ने

18. ध्वनि सिद्धांत का प्रादुर्भाव व्याकरण के  स्पोट सिद्धांत से हुआ है

19. वैयाकरण ने वाक् (वाणी) के कितने प्रकार माने है?= 4       1परा, 2. पश्यंती, 3. मध्यम, 4. बैखरी

20. आनन्दवर्धन का समय है =नवीं शती का मध्य

21. आनन्दवर्धन ने व्यंग्यार्थ के तारतम्य के आधार पर काव्य के कितने भेद किये है==3

ध्वनि, गुणिभूत व्यंग,  चित्र

22. आनन्दवर्धन ने ध्वनि के कितने प्रकार माने है=3               वस्तु ध्वनि, अलंकार ध्वनि,रसध्वनि

23. आनंद वर्धन के अनुसार रीति के चार नियामक है =          वक्त्रोचित्य , वाच्योचित्य , विषयोचित्य , रसोचित्य

24. अभिनव गुप्त ने ध्वनि के कितने भेद किए हैं ==35

25. मम्मट ने  के ध्वनि के  शुद्ध भेदों की संख्या स्वीकार की है ==51

26. पंडित राज जगन्नाथ काव्य के कितने भेद किए हैं =4 उत्तमोत्तम=उत्तम=मध्यम=अधम

27. आचार्यो  ने व्यंग्यार्थ की प्रधानता गौणता एवं अभाव के आधार पर काव्य के कितने भेद किए हैं =3

उत्तम =मध्यम=अधम

28. आधुनिक काल के प्रारंभिक समय में से सेठ कन्हैयालाल पौद्दार ने काव्यकल्पद्रुम नामक ग्रंथ की रचना की जो आगे चलकर रसमंजरी और अलंकार मंजरी के रुप में प्रकाशित हुआ

29. ह्दय दर्पण नामक ग्रंथ की रचना किसने की =भट्टनायक ने

30. हिंदी वक्रोक्ति जीवित् की भूमिका किसने लिखी =नगेंद्र ने

Wednesday, 13 August 2025

हिंदी आलोचना पर प्लेटो का प्रभाव

प्लेटो (427–347 ई.पू.) पाश्चात्य दर्शन के महानतम आदर्शवादी विचारकों में से एक माने जाते हैं। वे सुकरात के शिष्य और अरस्तू के गुरु थे। उनकी दार्शनिक दृष्टि का केंद्र आदर्श राज्य, न्याय, नैतिकता और लोकमंगल की अवधारणा थी। प्लेटो ने साहित्य और कला को केवल आनंद अथवा सौंदर्य की वस्तु मानने के बजाय, समाज-निर्माण और नैतिक उत्थान का साधन माना। इस दृष्टि से उनका दृष्टिकोण भारतीय साहित्यिक चिंतन, विशेषकर लोकमंगलवाद से अत्यंत निकट है।

प्लेटो का काव्य-दर्शन और लोकमंगल सिद्धांत

प्लेटो के अनुसार साहित्य का प्रमुख उद्देश्य केवल सौंदर्य-बोध कराना नहीं है, बल्कि वह समाज के लिए उपयोगी होना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि—

"कला और साहित्य की कसौटी 'आनंद' या 'सौंदर्य' नहीं, बल्कि 'उपयोगिता' है।"

उनके मत में, काव्य का प्रयोजन मानव-स्वभाव में जो महान, शुभ, नैतिक और न्यायपरायण है, उसका उद्घाटन करना है। यह उद्घाटन न केवल व्यक्तिगत चरित्र-निर्माण में सहायक हो, बल्कि राष्ट्रोत्थान और मानव कल्याण का भी साधन बने।
प्लेटो के इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए उनका प्रसिद्ध उदाहरण उल्लेखनीय है—

"चमचमाती हुई स्वर्णजटित अनुपयोगी ढाल से गोबर की उपयोगी टोकरी अधिक सुंदर है।"
अर्थात्, जो वस्तु समाज के लिए उपयोगी है, वही वास्तव में सुंदर है।

प्लेटो की दो प्रमुख स्थापनाएँ

प्लेटो के काव्य-दर्शन की नींव दो महत्त्वपूर्ण स्थापनाओं पर आधारित है—

  1. कला प्रकृति की अनुकृति है

    • प्लेटो ने कला को "अनुकरण" (Imitation) की प्रक्रिया माना।

    • उनके अनुसार अनुकरण वस्तुओं को उनके यथार्थ रूप में नहीं, बल्कि आदर्श रूप में प्रस्तुत करता है।

    • चूँकि यह जगत स्वयं "आदर्श जगत" (World of Ideas) की प्रतिलिपि है, अतः कला (जो जगत का अनुकरण है) सत्य से तीन गुना दूर होती है।

    • उदाहरणस्वरूप, बच्चों को सुनाई जाने वाली कहानियाँ प्रायः कल्पित होती हैं, अतः वे वास्तविक सत्य का अनुकरण नहीं कर पातीं।

  2. काव्य हमारी भावनाओं को उद्वेलित करता है

    • प्लेटो का मानना था कि कवि और कलाकार अपनी रचनाओं से भावनाओं और वासनाओं को उत्तेजित कर सकते हैं।

    • यदि यह उत्तेजना अनैतिक या विवेकहीन हो, तो समाज में दुर्बलता, अनाचार और अव्यवस्था फैल सकती है।

काव्य-वस्तु पर प्लेटो की आपत्तियाँ

प्लेटो ने काव्य की विषय-वस्तु पर गंभीर आपत्तियाँ उठाईं—

  • कवि को सद्गुणों और नैतिक मूल्यों पर आधारित विषयों का चयन करना चाहिए।

  • ऐसे साहित्य का निषेध होना चाहिए, जो असत्य, असंगत, अनैतिक या मानसिक रूप से हानिकारक हो।

  • उन्होंने विशेष रूप से वीर पुरुषों के गुणों और देवताओं के स्तोत्रों को काव्य में स्थान देने की अनुशंसा की।

आदर्श काव्य-कृति की कसौटी

प्लेटो के अनुसार एक उत्तम काव्य-कृति के निर्माण के लिए—

  1. कवि को अपने विषय का पूर्ण और स्पष्ट बोध होना चाहिए।

  2. कृति के समस्त अंगों का विन्यास निश्चित क्रम और पूर्ण संगति के साथ होना चाहिए।

  3. रचना में नैतिक उत्थान, लोकमंगल, और ज्ञान-वृद्धि का उद्देश्य निहित होना चाहिए।

 हिंदी आलोचना पर प्रभाव

प्लेटो का यह दृष्टिकोण हिंदी आलोचना में प्रत्यक्षतः लोकमंगलवादी साहित्य की धारणा में देखा जा सकता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और बाद के आलोचकों ने साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन न मानकर समाज-सुधार और राष्ट्रोत्थान का उपकरण माना। प्लेटो की उपयोगिता-केंद्रित सौंदर्य दृष्टि ने हिंदी आलोचना को नैतिकता और लोकहित के आदर्शों से जोड़े रखा, जिससे वह केवल कलात्मक विमर्श तक सीमित न रहकर सामाजिक चेतना का वाहक बनी।

इस प्रकार प्लेटो ने साहित्य को केवल सौंदर्य और आनंद का माध्यम न मानकर, उसे नैतिक और सामाजिक दायित्व से जोड़ा। उनका यह दृष्टिकोण न केवल पाश्चात्य साहित्यिक आलोचना में, बल्कि हिंदी आलोचना में भी गहरे तक रचा-बसा है। उनकी आदर्शवादी विचारधारा ने हिंदी साहित्य में लोकमंगल, नैतिकता और उपयोगिता को केंद्र में रखने की परंपरा को प्रेरित किया।

 

हिंदी आलोचना पर पाश्चात्य प्रभाव

वर्तमान समय में हिंदी आलोचना के स्वरूप के निर्माण में पाश्चात्य प्रभाव की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस प्रभाव का प्रारंभ भारतेंदु युग के ‘नाटक’ संबंधी विचारों से हो जाता है, किंतु इसे व्यवस्थित रूप देने का श्रेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल को जाता है, जिन्होंने पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय चिंतन को साधिकार अपनाया। यद्यपि उनका आलोचनात्मक आधार मुख्यतः संस्कृत काव्यशास्त्र रहा, जिसके केंद्र में कविता ही थी, तथापि पाश्चात्य साहित्य में भी काव्यशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र के समानांतर सिद्धांत मौजूद थे।

पश्चिम में सृजन, सौंदर्य और विचार के क्षेत्र में हुए विविध कलात्मक एवं बौद्धिक आंदोलनों ने वहां की साहित्यिक आलोचना को निरंतर परिवर्तित किया, जिसका प्रभाव हिंदी आलोचना पर भी पड़ा। इस संदर्भ में प्लेटो, अरस्तू, लोंजाइनस, क्रोचे, टी.एस. एलियट, वर्ड्सवर्थ, तथा अस्तित्ववादी चिंतकों सार्त्र और कामू के विचार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का केंद्र यूनान था और पाश्चात्य साहित्यिक चिंतन का मूल स्रोत प्लेटो माने जाते हैं। प्लेटो से प्रारंभ होकर यह धारा यूनान, रोम और मध्यकालीन यूरोप से होते हुए आधुनिक यूरोपीय भाषाओं तक पहुंची। प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने अपने गुरु के कई सिद्धांतों का खंडन करते हुए उनके तार्किक समाधान प्रस्तुत किए। यूनान के एक अन्य महत्त्वपूर्ण चिंतक लोंजाइनस ने काव्य में औदात्य के सिद्धांत को स्थापित किया, जिससे पश्चिम में स्वच्छंदतावाद और सौंदर्यवाद को नया आयाम मिला।

उन्नीसवीं शताब्दी में वर्ड्सवर्थ के विचारों ने स्वच्छंदतावादी काव्य-प्रतिमानों को दृढ़ आधार प्रदान किया। वहीं बीसवीं शताब्दी में, विश्व-युद्धोत्तर परिस्थितियों में, अस्तित्ववादी चिंतन ने साहित्यिक प्रतिमानों और मूल्यों को व्यापक रूप से प्रभावित किया। हिंदी आलोचना ने इन पाश्चात्य साहित्यिक अवधारणाओं से निरंतर संवाद किया और अपने स्वरूप का विस्तार किया।

हिंदी आलोचना पर पाश्चात्य प्रभाव : प्रमुख प्रवृत्तियाँ

हिंदी आलोचना के विकास में पाश्चात्य प्रभाव की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। इस प्रभाव के कारण हिंदी आलोचना का स्वरूप अधिक वस्तुपरक, विवेचनात्मक और विचार-समृद्ध हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पाश्चात्य आलोचनात्मक दृष्टियों को अपनाते हुए परंपरागत साहित्यशास्त्र को एक नए ढाँचे में प्रस्तुत किया। उन्होंने ‘आनंद की साधनावस्था’ की तुलना डंटन द्वारा परिभाषित ‘शक्ति-काव्य’ से की। उनके द्वारा प्रशस्त मार्ग पर चलते हुए बाबू गुलाब राय, नंद दुलारे वाजपेयी और डॉ. नगेंद्र ने भारतीय और पाश्चात्य साहित्यशास्त्र को समीप लाने का संगठित एवं सराहनीय प्रयास किया।

हिंदी आलोचना का पाश्चात्य प्रभाव चार प्रमुख आलोचनात्मक अवधारणाओं में विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है—

1. स्वच्छंदतावादी आलोचना

  • यह प्रवृत्ति सर्वप्रथम हिंदी आलोचना को प्रभावित करने वाली पाश्चात्य धारा है।

  • आचार्य शुक्ल को भी कुछ आधारों पर स्वच्छंदतावादी माना जाता है।

  • इस दृष्टि ने छायावादी साहित्य के मूल्यांकन और विश्लेषण के लिए नई बौद्धिक रूपरेखा प्रदान की।

  • नंद दुलारे वाजपेयी ने हिंदी आलोचना में स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियों को सशक्त रूप से विकसित किया।

2. मार्क्सवादी आलोचना

  • मार्क्सवादी दृष्टिकोण ने साहित्य के सामाजिक संदर्भों और यथार्थ की पहचान पर बल दिया।

  • इस धारा के प्रमुख संवाहक रहे — प्रकाशचंद्र गुप्त, शिवदान सिंह चौहान, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, और नामवर सिंह

  • इस दृष्टि ने साहित्य को वर्ग-संघर्ष, उत्पादन संबंधों और ऐतिहासिक भौतिकवाद के आलोक में परखने की दिशा दी।

3. मनोवैज्ञानिक एवं मनोविश्लेषणात्मक आलोचना

  • इस दृष्टिकोण के अंतर्गत लेखक के अंतर्मन, उसकी सृजन-प्रक्रिया और अवचेतन मन की पड़ताल की जाती है।

  • हिंदी में अज्ञेय पर आधुनिक मनोविज्ञान और टी.एस. एलियट का गहरा प्रभाव देखा जाता है।

  • डॉ. नगेंद्र पाश्चात्य अवधारणाओं के प्रति अत्यधिक आग्रहशील रहे; वे फ्रायड के विचारों से प्रभावित होते हुए भी मूलतः रसवादी दृष्टिकोण के समर्थक रहे।

  • डॉ. देवराज ने विशेष रूप से कथाकारों के अंतर्मन के स्वरूप के अन्वेषण पर बल दिया।

4. अस्तित्ववादी आलोचना

  • द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल में अस्तित्ववाद का प्रभाव विश्व साहित्य के साथ हिंदी आलोचना में भी दृष्टिगोचर हुआ।

  • इस दृष्टि ने व्यक्ति की स्वतंत्रता, विकल्प, दायित्व और अस्तित्वगत संकट पर विमर्श को केंद्र में रखा।

  • स्वातंत्र्योत्तर हिंदी आलोचना में आधुनिकतावाद, उत्तर-आधुनिकतावाद, संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद जैसी अनेक पाश्चात्य अवधारणाओं का समावेश हुआ, जिससे आलोचना की बौद्धिक सीमा का व्यापक विस्तार हुआ।

पाश्चात्य प्रभाव ने हिंदी आलोचना को पारंपरिक संस्कृत काव्यशास्त्र की सीमाओं से निकालकर एक बहुआयामी, विज्ञानसम्मत और वैश्विक दृष्टि संपन्न स्वरूप प्रदान किया। इससे न केवल आलोचना में विश्लेषणात्मक गहराई आई, बल्कि साहित्य को सामाजिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक संदर्भों में परखने की नई दृष्टियाँ भी विकसित हुईं।

Tuesday, 12 August 2025

स्वच्छंदतावाद

 स्वच्छंदतावाद साहित्यिक और कलात्मक अभिव्यक्ति की वह प्रवृत्ति है, जिसमें रचनाकार किसी भी पूर्व निर्धारित वाद, विचारधारा या सिद्धांत की बंधन-रेखाओं से मुक्त होकर अपनी व्यक्तिगत दृष्टि, अनुभव और कल्पनाशक्ति के आधार पर रचना करता है। इसका मूल आधार रचनाकार की पूर्ण मानसिक स्वतंत्रता है—जहाँ वह सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक मान्यताओं की कठोर मर्यादाओं से ऊपर उठकर अपने अंतःकरण की पुकार को स्वर देता है।

पाश्चात्य साहित्य में इसका समानांतर रूप ‘रोमांटिसिज्म’ (Romanticism) के रूप में देखा जाता है। रोमांटिसिज्म अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में यूरोप में एक व्यापक कलात्मक एवं साहित्यिक आंदोलन के रूप में उभरा। यह आंदोलन विशेष रूप से क्लासिसिज्म’ (Classicism) अथवा ‘अभिजात्यवाद’ (Aristocratism) की रूढ़, कृत्रिम और निर्जीव कलात्मक परंपराओं की प्रतिक्रिया स्वरूप विकसित हुआ।
क्लासिसिज्म में नियमबद्धता, आदर्शरूप, और शास्त्रीय अनुशासन को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था, जिसके कारण रचना में भावनात्मक जीवन्तता और नवीनता का अभाव हो गया था। इसी जड़ता के विरुद्ध रोमांटिसिज्म ने मानवीय संवेदनाओं, व्यक्तिगत अनुभवों, प्रकृति-प्रेम और मुक्त कल्पना को महत्व देकर रचनात्मकता में एक नई चेतना और ऊर्जा का संचार किया।

साहित्य और कलाओं के प्रति ‘स्वच्छंदतावादी’ दृष्टिकोण के पीछे एक महत्त्वपूर्ण प्रेरक राजनीतिक घटना फ़्रांस की महान क्रांति (French Revolution) रही। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुई इस क्रांति ने न केवल राजनीतिक परिदृश्य को बदला, बल्कि यूरोप के सांस्कृतिक और साहित्यिक चिंतन पर भी गहरा प्रभाव डाला। इस क्रांति में दार्शनिक ज्यां जाक रूसो (Jean-Jacques Rousseau) ने “स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व” का नारा देकर व्यक्ति की स्वाधीनता और मानवीय गरिमा के अधिकार की जोरदार वकालत की। यह मूलतः बंधनों से मुक्ति और जड़ संस्थागत व्यवस्थाओं के विरुद्ध जन-आन्दोलन था, जिसने रचनाकारों और कलाकारों को मानसिक तथा सृजनात्मक स्वतंत्रता के नए क्षितिज प्रदान किए।

इसी कारण स्वच्छंदतावाद किसी एक तयशुदा साँचे या कठोर नियमों में सीमित नहीं रहा; वह विविध रूपों और शैलियों में अभिव्यक्त हुआ। इस प्रवृत्ति की कलात्मक विशेषताएँ अंग्रेज़ी कविता में वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, शेली, कीट्स और बायरन जैसे कवियों के कार्यों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं।

विशेष रूप से विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को “प्रबल मनोवेगों का सहज उच्छलन” (spontaneous overflow of powerful feelings) कहा, और इस प्रकार भाव-प्रधानता तथा अंतःकरण की सच्ची अभिव्यक्ति को साहित्य का मूल माना। उनके अनुसार यह भावोच्छलन अराजक या अनुशासनहीन नहीं होता; बल्कि इसके पीछे एक गहरी सूक्ष्म संवेदनशीलता का आग्रह होता है, जो कल्पना के साथ मिलकर रचनाकार की आंतरिक अनुभूतियों को ईमानदारी और निष्ठा से उद्घाटित करता है।

इस प्रकार, फ़्रांस की क्रांति ने जिस स्वतंत्रता की चेतना को जन्म दिया, उसी ने साहित्य और कलाओं में स्वच्छंदतावाद के रूप में एक ऐसी धारा को प्रवाहित किया, जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्र सोच, गहन संवेदनशीलता और मौलिक कल्पना को सर्वाधिक महत्व मिला।

भाव-प्रवणता के प्रभाव से स्वच्छंदतावादी आलोचना में वैयक्तिकता, आत्म-सृजन, कल्पनाशीलता और स्वानुभूति को स्वतंत्र एवं महत्वपूर्ण साहित्यिक मूल्यों के रूप में स्वीकार किया गया। इस दृष्टिकोण में रचनाकार के अंतर-जगत को समझना, उसकी सृजन-प्रक्रिया का मूल आधार माना गया। कॉलरिज ने कवि-कल्पना के महत्व को विशेष रूप से रेखांकित करते हुए इसे सृजनकारिणी “आदि शक्ति” और मस्तिष्क की सबसे प्राणवान क्रिया की संज्ञा दी। इसलिए स्वच्छंदतावादी आलोचक मानते थे कि किसी भी रचना की व्याख्या के लिए रचनाकार की अंतर्वृत्तियों, निजी अनुभूतियों और मानसिक प्रवृत्तियों का अध्ययन अनिवार्य है।

स्वच्छंदतावाद की एक और मूलभूत विशेषता थी—जड़ता, कृत्रिमता, रूढ़ियों और अप्रासंगिक हो चुकी साहित्यिक परंपराओं के विरुद्ध विद्रोह। विषय-वस्तु के स्तर पर इन आलोचकों ने परंपरागत रूप से महिमामंडित उदात्त चरित्रों और असाधारण घटनाओं की कथाओं के स्थान पर साधारण मानव के सामान्य अनुभवों, सांस्कृतिक मूल्यों और अपने परिवेश को महत्व दिया। उनके लिए साहित्य का सौंदर्य जीवन के सहज और सजीव अनुभवों में निहित था।

शैली और शिल्प के स्तर पर उन्होंने प्रयोगशीलता और वैविध्यता को रचनात्मक स्वतंत्रता का प्रतीक माना—जो अभिजात्यवादी अनुशासन में संभव नहीं थी। भाषा के स्तर पर उन्होंने सूक्ष्म अर्थच्छायाओं को उभारने और भाव-संप्रेषण को प्रभावी बनाने के लिए सहज, स्वाभाविक और जनजीवन से जुड़ी भाषा के प्रयोग को आवश्यक माना।

स्वच्छंदतावादी आलोचना का दृष्टिकोण पूरी तरह रसवादी था, लेकिन उसमें वे रस को केवल सौंदर्य या भावोच्छलन तक सीमित नहीं रखते थे; बल्कि उसमें मानवतावादी यथार्थ को भी विशेष महत्व देते थे। उनकी सौंदर्य चेतना का मूल आधार था—प्रकृति के विविध रूपों में विद्यमान उन्मुक्त सौंदर्य के प्रति सहज आकर्षण और संवेदनशीलता।

हालाँकि, स्वच्छंदतावाद की लोकप्रियता और व्यापकता के वही कारक अंततः उसके अवसान का कारण भी बने। वैयक्तिकता और आत्मपरकता के अत्यधिक आग्रह ने कई रचनाकारों को विशुद्ध रूप से आत्मकेंद्रित बना दिया, जिसके परिणामस्वरूप वे बाह्य जीवन, समाज और परिवेश के प्रति धीरे-धीरे उदासीन होते गए। हिंदी साहित्य में भी छायावादी आंदोलन, जो स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियों का प्रमुख प्रतिनिधि था, “नाना अर्थभूमियों के संकोच” के कारण अपेक्षाकृत अल्पकालिक सिद्ध हुआ और अपने उत्कर्ष के कुछ ही वर्षों बाद मद्धिम पड़ गया।