हिंदी आलोचना का जो रूप आज हमारे सामने है, वह केवल साहित्य की व्याख्या या सौंदर्यात्मक मूल्यांकन भर नहीं है, बल्कि यह साहित्य को सामाजिक, ऐतिहासिक, और वैचारिक धरातल पर जांचने-परखने की एक सघन प्रक्रिया है। आधुनिक काल से पहले हिंदी में जो आलोचनात्मक प्रवृत्तियाँ पाई जाती थीं, वे मुख्यतः संस्कृत काव्यशास्त्र के परंपरागत नियमों और लक्षणग्रंथों पर आधारित थीं, जैसे– भामह, दंडी, मम्मट, वामन, अभिनवगुप्त, आदि की काव्य-चर्चाएँ। इनका केंद्रबिंदु था – रस, अलंकार, रीति और ध्वनि।
परंतु आधुनिक हिंदी आलोचना का स्वरूप साहित्य में आधुनिक दृष्टिकोण, मानवीय संवेदना, और सामाजिक सरोकारों की जागरूकता के साथ विकसित हुआ। भारतेंदु युग से प्रारंभ यह आलोचना धीरे-धीरे पश्चिमी विचारधाराओं, भारतीय लोक चेतना, तथा समसामयिक यथार्थ के प्रभाव में नए आलोचनात्मक प्रतिमानों की ओर अग्रसर हुई।
आलोचना के विकास में प्रमुख आलोचकों की भूमिका
आधुनिक हिंदी आलोचना को दिशा और विस्तार देने में जिन आलोचकों का योगदान निर्णायक रहा, उनमें विशेष रूप से आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नंद दुलारे वाजपेयी, प्रो. रामविलास शर्मा, डॉ. नामवर सिंह, और डॉ. निर्मला जैन के नाम उल्लेखनीय हैं। इन्होंने हिंदी आलोचना को केवल ‘अभिरुचि का विषय’ नहीं, बल्कि एक सैद्धांतिक और वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में प्रतिष्ठित किया।
हिंदी आलोचना के शलाका पुरुष: आचार्य रामचंद्र शुक्ल
हिंदी आलोचना के शास्त्रीय रूपांतरण का श्रेय सर्वप्रथम आचार्य रामचंद्र शुक्ल (1884–1941) को जाता है। उन्होंने हिंदी आलोचना को पहली बार एक विचारधारा-आधारित, वस्तुपरक और सामाजिक दृष्टिकोण से गढ़ा। शुक्लजी के लिए साहित्य मात्र सौंदर्य की वस्तु नहीं था, बल्कि वह उसे ‘मानव हृदय की मुक्तावस्था’, ‘लोकजीवन की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब’ मानते थे।
शुक्लजी ने हिंदी में आलोचना को एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में स्थापित किया और व्यक्तिनिष्ठता एवं सौंदर्य-चिंतन की सीमाओं से ऊपर उठकर साहित्य को जनसरोकारों, इतिहासबोध, समाजचिंतन, और लोकमंगल के संदर्भों से जोड़ा।
प्रमुख आलोचनात्मक प्रतिमान
शुक्लजी की आलोचना में कई मौलिक और विचारोत्तेजक प्रतिमान उभरते हैं:
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लोकधर्म एवं लोकमंगल: उन्होंने साहित्य को ‘लोकधर्म’ से जोड़ा और व्यक्ति धर्म के ऊपर लोक की चेतना को प्राथमिकता दी। साहित्यकार को ‘लोकहितकारी’ दृष्टिकोण से सृजन करने वाला बताया।
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आनंद की साधनावस्था और सिद्धावस्था: उन्होंने काव्यानुभूति को ‘हृदय की मुक्तावस्था’ कहा और इसे दो अवस्थाओं में बाँटा:
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साधनावस्था (करुणा) – तुलसीदास का काव्य
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सिद्धावस्था (प्रेम) – सूरदास का काव्य
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रस और करुणा: वे करुणा को काव्य का मूल बीजभाव मानते हैं जो लोकहित की रक्षा करता है।
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प्रबंधात्मकता: उन्होंने काव्य में प्रबंध को अधिक महत्व दिया क्योंकि यह जीवन की समग्रता को पकड़ता है। तुलसीदास इस दृष्टि से उनके आदर्श कवि हैं।
तुलसी, सूर, जायसी का विश्लेषण
शुक्लजी का आलोचना कार्य उनकी प्रिय कवि त्रयी – तुलसी, सूर और जायसी – पर आधारित है:
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तुलसीदास को उन्होंने ‘साधनावस्था’ का कवि बताया जो करुणा और लोकहित के भाव से भरपूर है। तुलसी में ‘नायक’ राम ‘लोकरक्षक’ के रूप में चित्रित हैं।
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सूरदास को ‘सिद्धावस्था’ का कवि माना और उनके काव्य को प्रेम का जीवनोत्सव कहा। सूर के कृष्ण ‘लोकरंजक’ हैं। गोपियों के प्रेम को उन्होंने सहज-साहचर्यजनित प्रेम कहा।
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जायसी में उन्होंने ‘प्रेम की पीर’ की सूक्ष्म व्यंजना देखी, किंतु उनके सूफी प्रेम की अपेक्षा भारतीय प्रेम परंपरा को अधिक महत्व दिया।
आलोचना और इतिहास लेखन की दृष्टि
शुक्लजी ने हिंदी साहित्य के इतिहास को भी आलोचना के ही एक अंग के रूप में व्यवस्थित किया। उनका ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1928) इस दृष्टिकोण से मील का पत्थर है, जिसमें उन्होंने साहित्य को कालगत सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों से जोड़ा।
वे रीतिकाल की सामंती प्रवृत्तियों की आलोचना करते हुए भारतेंदु युग को साहित्य और समाज के यथार्थ से जुड़ाव का युग मानते हैं।
रहस्यवाद, अध्यात्म और विचारधारा
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उन्होंने छायावादी रहस्यवाद, निर्गुण संतों का रहस्यवाद, बौद्ध एवं जैन साहित्य को हिंदी साहित्य के प्रामाणिक इतिहास में स्थान नहीं दिया, क्योंकि ये उनकी दृष्टि में जनजीवन से कटी हुई आध्यात्मिक-अधिभौतिक प्रवृत्तियाँ थीं।
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छायावाद को वे काल्पनिक आत्मसंलाप और व्यक्तिगत अनुभवों की परंपरा मानते हैं जो सामाजिक यथार्थ से कटे हुए हैं।
समाज और साहित्य
शुक्लजी ने साहित्य को आत्मनुभूति नहीं, सामाजिक अनुभूति का माध्यम माना। उन्होंने कहानी और उपन्यास जैसे आधुनिक गद्य रूपों के संदर्भ में भी यही आग्रह किया कि रचनाकार देश के सर्वमान्य जीवन का चित्रण करे।
आचार्य शुक्ल की आलोचना दृष्टि न केवल हिंदी आलोचना का प्रारंभ बिंदु है, बल्कि उसकी वैचारिक रीढ़ भी है। उन्होंने एक ऐसा आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित किया जो वस्तुनिष्ठ है, ऐतिहासिक चेतना से संपन्न है, लोकमंगल को मूल में रखता है और भारतीय समाज की जटिलताओं से संवाद करता है|
उनकी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए आलोचकों की नई पीढ़ी (जैसे – द्विवेदी, रामविलास, नामवर, निर्मला जैन) हिंदी आलोचना को विविध वैचारिक विमर्शों (मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, स्त्रीवाद, उत्तर आधुनिकता आदि) से समृद्ध करती है।