Thursday, 31 July 2025

हिंदी आलोचना का विकास और आचार्य शुक्ल की आलोचना दृष्टि

हिंदी आलोचना का जो रूप आज हमारे सामने है, वह केवल साहित्य की व्याख्या या सौंदर्यात्मक मूल्यांकन भर नहीं है, बल्कि यह साहित्य को सामाजिक, ऐतिहासिक, और वैचारिक धरातल पर जांचने-परखने की एक सघन प्रक्रिया है। आधुनिक काल से पहले हिंदी में जो आलोचनात्मक प्रवृत्तियाँ पाई जाती थीं, वे मुख्यतः संस्कृत काव्यशास्त्र के परंपरागत नियमों और लक्षणग्रंथों पर आधारित थीं, जैसे– भामह, दंडी, मम्मट, वामन, अभिनवगुप्त, आदि की काव्य-चर्चाएँ। इनका केंद्रबिंदु था – रस, अलंकार, रीति और ध्वनि

परंतु आधुनिक हिंदी आलोचना का स्वरूप साहित्य में आधुनिक दृष्टिकोण, मानवीय संवेदना, और सामाजिक सरोकारों की जागरूकता के साथ विकसित हुआ। भारतेंदु युग से प्रारंभ यह आलोचना धीरे-धीरे पश्चिमी विचारधाराओं, भारतीय लोक चेतना, तथा समसामयिक यथार्थ के प्रभाव में नए आलोचनात्मक प्रतिमानों की ओर अग्रसर हुई।

आलोचना के विकास में प्रमुख आलोचकों की भूमिका

आधुनिक हिंदी आलोचना को दिशा और विस्तार देने में जिन आलोचकों का योगदान निर्णायक रहा, उनमें विशेष रूप से आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नंद दुलारे वाजपेयी, प्रो. रामविलास शर्मा, डॉ. नामवर सिंह, और डॉ. निर्मला जैन के नाम उल्लेखनीय हैं। इन्होंने हिंदी आलोचना को केवल ‘अभिरुचि का विषय’ नहीं, बल्कि एक सैद्धांतिक और वैज्ञानिक अनुशासन के रूप में प्रतिष्ठित किया।

 हिंदी आलोचना के शलाका पुरुष: आचार्य रामचंद्र शुक्ल

हिंदी आलोचना के शास्त्रीय रूपांतरण का श्रेय सर्वप्रथम आचार्य रामचंद्र शुक्ल (1884–1941) को जाता है। उन्होंने हिंदी आलोचना को पहली बार एक विचारधारा-आधारित, वस्तुपरक और सामाजिक दृष्टिकोण से गढ़ा। शुक्लजी के लिए साहित्य मात्र सौंदर्य की वस्तु नहीं था, बल्कि वह उसे ‘मानव हृदय की मुक्तावस्था’, ‘लोकजीवन की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब’ मानते थे।

शुक्लजी ने हिंदी में आलोचना को एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में स्थापित किया और व्यक्तिनिष्ठता एवं सौंदर्य-चिंतन की सीमाओं से ऊपर उठकर साहित्य को जनसरोकारों, इतिहासबोध, समाजचिंतन, और लोकमंगल के संदर्भों से जोड़ा।

 प्रमुख आलोचनात्मक प्रतिमान

शुक्लजी की आलोचना में कई मौलिक और विचारोत्तेजक प्रतिमान उभरते हैं:

  • लोकधर्म एवं लोकमंगल: उन्होंने साहित्य को ‘लोकधर्म’ से जोड़ा और व्यक्ति धर्म के ऊपर लोक की चेतना को प्राथमिकता दी। साहित्यकार को ‘लोकहितकारी’ दृष्टिकोण से सृजन करने वाला बताया।

  • आनंद की साधनावस्था और सिद्धावस्था: उन्होंने काव्यानुभूति को ‘हृदय की मुक्तावस्था’ कहा और इसे दो अवस्थाओं में बाँटा:

    • साधनावस्था (करुणा) – तुलसीदास का काव्य

    • सिद्धावस्था (प्रेम) – सूरदास का काव्य

  • रस और करुणा: वे करुणा को काव्य का मूल बीजभाव मानते हैं जो लोकहित की रक्षा करता है।

  • प्रबंधात्मकता: उन्होंने काव्य में प्रबंध को अधिक महत्व दिया क्योंकि यह जीवन की समग्रता को पकड़ता है। तुलसीदास इस दृष्टि से उनके आदर्श कवि हैं।

तुलसी, सूर, जायसी का विश्लेषण

शुक्लजी का आलोचना कार्य उनकी प्रिय कवि त्रयी – तुलसी, सूर और जायसी – पर आधारित है:

  • तुलसीदास को उन्होंने ‘साधनावस्था’ का कवि बताया जो करुणा और लोकहित के भाव से भरपूर है। तुलसी में ‘नायक’ राम ‘लोकरक्षक’ के रूप में चित्रित हैं।

  • सूरदास को ‘सिद्धावस्था’ का कवि माना और उनके काव्य को प्रेम का जीवनोत्सव कहा। सूर के कृष्ण ‘लोकरंजक’ हैं। गोपियों के प्रेम को उन्होंने सहज-साहचर्यजनित प्रेम कहा।

  • जायसी में उन्होंने ‘प्रेम की पीर’ की सूक्ष्म व्यंजना देखी, किंतु उनके सूफी प्रेम की अपेक्षा भारतीय प्रेम परंपरा को अधिक महत्व दिया।

आलोचना और इतिहास लेखन की दृष्टि

शुक्लजी ने हिंदी साहित्य के इतिहास को भी आलोचना के ही एक अंग के रूप में व्यवस्थित किया। उनका ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1928) इस दृष्टिकोण से मील का पत्थर है, जिसमें उन्होंने साहित्य को कालगत सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों से जोड़ा।

वे रीतिकाल की सामंती प्रवृत्तियों की आलोचना करते हुए भारतेंदु युग को साहित्य और समाज के यथार्थ से जुड़ाव का युग मानते हैं।

 रहस्यवाद, अध्यात्म और विचारधारा

  • उन्होंने छायावादी रहस्यवाद, निर्गुण संतों का रहस्यवाद, बौद्ध एवं जैन साहित्य को हिंदी साहित्य के प्रामाणिक इतिहास में स्थान नहीं दिया, क्योंकि ये उनकी दृष्टि में जनजीवन से कटी हुई आध्यात्मिक-अधिभौतिक प्रवृत्तियाँ थीं।

  • छायावाद को वे काल्पनिक आत्मसंलाप और व्यक्तिगत अनुभवों की परंपरा मानते हैं जो सामाजिक यथार्थ से कटे हुए हैं।

 समाज और साहित्य

शुक्लजी ने साहित्य को आत्मनुभूति नहीं, सामाजिक अनुभूति का माध्यम माना। उन्होंने कहानी और उपन्यास जैसे आधुनिक गद्य रूपों के संदर्भ में भी यही आग्रह किया कि रचनाकार देश के सर्वमान्य जीवन का चित्रण करे।

आचार्य शुक्ल की आलोचना दृष्टि न केवल हिंदी आलोचना का प्रारंभ बिंदु है, बल्कि उसकी वैचारिक रीढ़ भी है। उन्होंने एक ऐसा आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित किया जो वस्तुनिष्ठ है, ऐतिहासिक चेतना से संपन्न है, लोकमंगल को मूल में रखता है और भारतीय समाज की जटिलताओं से संवाद करता है| 

उनकी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए आलोचकों की नई पीढ़ी (जैसे – द्विवेदी, रामविलास, नामवर, निर्मला जैन) हिंदी आलोचना को विविध वैचारिक विमर्शों (मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, स्त्रीवाद, उत्तर आधुनिकता आदि) से समृद्ध करती है।

उत्तर संरचनावाद

उत्तर संरचनावाद (Post-Structuralism) एक प्रमुख बौद्धिक आंदोलन है, जिसने 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भाषा, साहित्य, समाजशास्त्र, दर्शन, इतिहास तथा संस्कृति-अध्ययन की पारंपरिक मान्यताओं को गहराई से प्रभावित किया। यह संरचनावाद (Structuralism) की सीमाओं को चुनौती देने और उसके प्रतिपक्ष में विकसित हुआ दर्शन है। इसका मूल आधार यह है कि 'अर्थ कोई स्थिर और अंतिम अवधारणा नहीं है', बल्कि वह भाषा, संदर्भ, पाठ और पाठक के बीच एक निरंतर गतिशील प्रक्रिया है। 

जन्म और विकास: 1966 की ऐतिहासिक घटना

उत्तर संरचनावाद का औपचारिक आरंभ 1966 में अमेरिका की जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी (Johns Hopkins University) में आयोजित एक संगोष्ठी के दौरान हुआ, जहाँ फ्रांसीसी दार्शनिक जैक देरिदा (Jacques Derrida) ने अपना ऐतिहासिक व्याख्यान “Structure, Sign and Play in the Discourse of the Human Sciences” प्रस्तुत किया। यही व्याख्यान उत्तर संरचनावाद की विचारधारा का बीज बन गया, जिसने तत्कालीन बौद्धिक जगत में हलचल मचा दी।

 संरचनावाद बनाम उत्तर संरचनावाद

संरचनावाद का मुख्य दावा यह था कि भाषा संकेतों (Signs) का एक ऐसा सुव्यवस्थित तंत्र है, जिसमें अर्थ आपसी अंतर (Difference) के आधार पर उत्पन्न होता है। भाषा की संरचना में शब्दों का कोई स्वतंत्र अर्थ नहीं होता, बल्कि एक शब्द अपने आसपास के शब्दों के सापेक्ष ही अर्थ ग्रहण करता है। इसका प्रमुख प्रतिपादक फर्डिनान्द डी सॉश्योर (Ferdinand de Saussure) था, जिसने भाषा को एक बंद प्रणाली के रूप में देखा।

 इसके विपरीत, उत्तर संरचनावाद मानता है कि यह व्यवस्था वस्तुतः भ्रमात्मक है। देरिदा ने बताया कि अर्थ कभी स्थिर नहीं होता, वह निरंतर खिसकता रहता है जिसे उन्होंने "différance" (एक साथ भिन्नता और विलंबन) शब्द से अभिहित किया। किसी भी शब्द का अर्थ तय नहीं होता, बल्कि वह केवल एक संकेत को दूसरे संकेत से जोड़ता है, और यह श्रृंखला अंतहीन है।

मुख्य अवधारणाएँ

1. Différance (भिन्नता + विलंबन)

देरिदा ने ‘difference’ को फ्रांसीसी भाषा के एक विशेष प्रयोग ‘différance’ से स्पष्ट किया, जिसमें न केवल अंतर की प्रक्रिया है, बल्कि अर्थ का स्थगन भी है। किसी भी शब्द को तभी समझा जा सकता है जब वह 'क्या नहीं है' से परिभाषित हो जैसे "पंकज" तब समझा जा सकता है जब यह 'पंक' नहीं है। इसी तरह अर्थ कभी पूर्णतः प्रकट नहीं होता, बल्कि टलता रहता है।

2. Deconstruction (विखंडनवाद)

देरिदा का सबसे प्रसिद्ध सिद्धांत है विखंडन’, जिसमें किसी भी पाठ की स्थिर व्याख्या को अस्वीकार किया जाता है। वह कहते हैं कि कोई भी पाठ एक नहीं, अनेक अर्थों को जन्म देता है। इसलिए, आलोचक का कार्य किसी पाठ के "गोपित अर्थों" को खोजना नहीं, बल्कि उसके अंतर्विरोधों, विसंगतियों और अपूर्णताओं को उजागर करना है।

3. Adwriting (आद्य लेखन)

देरिदा ने लेखनको बोलनेसे अधिक प्राथमिकता दी। सॉश्योर तथा परंपरागत परिपाटी में उच्चारित भाषा को प्राथमिक माना गया, परन्तु देरिदा ने कहा कि लेखन अधिक मूल और गहन है क्योंकि वह स्वयं में अनुपस्थित अर्थ की खोज है। लेखन में उपस्थित चिह्न (traces) हमेशा किसी अप्रस्तुत अर्थ की ओर संकेत करते हैं।

उत्तर संरचनावाद और उत्तर आधुनिकता का संबंध

उत्तर संरचनावाद को उत्तर आधुनिकतावाद (Postmodernism) के साथ गहराई से जोड़ा जाता है क्योंकि दोनों ही स्थायित्व, मूल सत्य, केन्द्र और सार्वभौमिक व्याख्याओं को अस्वीकार करते हैं। उत्तर आधुनिकता का मूल विश्वास है — "सत्य एक नहीं, अनेक हैं; और सब कुछ संदिग्ध है।" उत्तर संरचनावाद इसी सिद्धांत को भाषा और पाठ के स्तर पर लागू करता है।

अन्य प्रमुख विचारक और योगदान

1. मिशेल फूको (Michel Foucault)

फूको ने देरिदा के अत्यधिक नकारात्मक एवं ध्वंसात्मक दृष्टिकोण को आलोचना का विषय बनाया। उनके अनुसार, अर्थ का निर्धारण केवल पाठ के अंदर से नहीं, बल्कि उस 'विमर्श प्रणाली (discourse system)' से होता है जिसमें वह पाठ लिखा गया। विमर्श वह सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और बौद्धिक ढांचा है, जो किसी विचार या ज्ञान को अर्थ देता है।

फूको का कथन था कि कोई भी विचारधारा या सिद्धांत तभी स्वीकृत होती है जब वह अपने समय के सत्ता केन्द्रों के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके। उन्होंने भाषा और ज्ञान के निर्माण में सत्ता के हस्तक्षेप को उजागर किया। उनके ग्रंथ "Discipline and Punish" और "The Archaeology of Knowledge" इस दिशा में महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

2. रोलां बार्थ (Roland Barthes)

बार्थ ने अपने प्रसिद्ध लेख "The Death of the Author" में यह प्रस्तावित किया कि लेखक का जीवन और मंशा किसी पाठ के अर्थ को तय नहीं करती। पाठ का अर्थ केवल पाठक की व्याख्या और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है। यह विचार उत्तर संरचनावाद की आलोचनात्मक शैली को और अधिक बल देता है।

साहित्य और आलोचना में प्रभाव

उत्तर संरचनावाद का साहित्यिक आलोचना पर गहरा प्रभाव पड़ा। परंपरागत आलोचना जहाँ रचना के अर्थ, उद्देश्य और नैतिकता की खोज करती थी, वहीं उत्तर संरचनावादी दृष्टिकोण ने रचना को "अनिर्णेयता (aporia)" के रूप में देखा एक ऐसा स्थान जहाँ किसी निश्चित व्याख्या की संभावना नहीं होती।

अब साहित्य का अर्थ वह नहीं रहा जो लेखक ने कहना चाहा, बल्कि वह है जिसे पाठक ने समझा या समझना चाहा। इसने साहित्य को अनंत पाठों की श्रृंखलामें बदल दिया, जहाँ हर पाठ में असंख्य निर्वचन (interpretations) संभव हैं।

उत्तर संरचनावाद पर सबसे बड़ी आलोचना यही है कि यह साहित्य, संस्कृति और समाज के स्थायी मूल्यों को अस्वीकार करता है। देरिदा की दृष्टि में न कोई 'सत्य' है, न कोई 'मूल्य' — बस अंतहीन चिह्नों की श्रृंखला है जिसमें हम अर्थ की खोज तो करते हैं, पर वह कभी प्राप्त नहीं होता।

इस दृष्टिकोण से यह आरोप भी लगाया गया कि यह साहित्य और भाषा की आत्मा-हत्याहै, जिसमें हर रचना का कोई निश्चित संदेश, सौंदर्य या सामाजिक उपयोगिता नहीं रह जाती। पारंपरिक दृष्टिकोण से यह एक प्रकार का सांस्कृतिक आतंकवाद प्रतीत होता है।

उत्तर संरचनावाद ने भाषा और साहित्य की अवधारणाओं को जड़ से बदल दिया। जहाँ पहले रचना को एक स्थिर, पूर्ण और मूल्यनिष्ठ कृति माना जाता था, वहीं उत्तर संरचनावाद ने उसे एक गतिशील, बहुस्तरीय और संदिग्ध पाठ के रूप में पुनर्परिभाषित किया। इसने आलोचना की दिशा को लेखक-केंद्र से हटाकर पाठ और पाठक-केंद्रित बना दिया।

हालाँकि, इसकी ध्वंसात्मक प्रकृति के कारण यह बहस का विषय भी रहा है। साहित्यिक परंपराएँ, सांस्कृतिक मूल्य और सामाजिक संदर्भों से इसके कटाव को लेकर गहरी चिंताएँ भी उठाई गई हैं। फिर भी, उत्तर संरचनावाद ने आधुनिक आलोचना और चिंतन को नई दिशा दी है और यह समकालीन बौद्धिक विमर्श का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा बना हुआ है।

देवनागरी लिपि : एक वैज्ञानिक और समृद्ध लिपि

देवनागरी लिपि का इतिहास अत्यंत प्राचीन और गौरवशाली है। डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार, देवनागरी लिपि का प्राचीनतम उपयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट (700–800 ई.) के शिलालेखों में प्राप्त होता है। आठवीं शताब्दी में चित्रकूट तथा नौवीं शताब्दी में बड़ौदा के शासक ध्रुवराज द्वारा भी अपने शासकीय आदेशों में इस लिपि का प्रयोग किया गया था। यह प्रमाण दर्शाते हैं कि देवनागरी लिपि का प्रयोग उस समय एक सुगठित लिपिक व्यवस्था के रूप में हो रहा था।

विश्व की प्रमुख लिपियों की तुलना में देवनागरी लिपि की विशेषताएँ इसे अन्य लिपियों से अलग और अधिक वैज्ञानिक बनाती हैं। यदि हम रोमन तथा उर्दू लिपियों से इसकी तुलना करें तो पाएंगे कि जहाँ रोमन एवं उर्दू लिपियों में स्वर एवं व्यंजन अव्यवस्थित ढंग से सम्मिलित होते हैं, वहीं देवनागरी लिपि में यह विभाजन स्पष्ट और तार्किक है। उदाहरणस्वरूप, देवनागरी में स्वरों को हृस्व और दीर्घ के युग्मों में क्रमबद्ध किया गया है – अ-आ, इ-ई, उ-ऊ, तथा ए, ऐ, ओ, औ जैसे संयुक्त स्वर स्वतंत्र रूप से चिन्हित होते हैं।

व्यंजन वर्गीकरण की वैज्ञानिकता

देवनागरी लिपि में व्यंजनों का वर्गीकरण ध्वनि-स्थान (place of articulation) और घोषत्व (voicing) के आधार पर किया गया है। प्रत्येक वर्ग – क, च, ट, त, प – एक निश्चित उच्चारण स्थान को दर्शाता है, और हर वर्ग में प्रथम दो व्यंजन अघोष तथा शेष तीन घोष होते हैं। उदाहरणतः च, छ अघोष हैं, जबकि ज, झ, ञ घोष स्वर वाले व्यंजन हैं।

साथ ही, यह लिपि प्राणत्व के आधार पर भी व्यंजनों का वर्गीकरण प्रस्तुत करती है – प्रथम, तृतीय और पंचम व्यंजन अल्पप्राण होते हैं जबकि द्वितीय एवं चतुर्थ महाप्राण होते हैं। ऐसी व्यवस्था अन्य लिपियों में दृष्टिगोचर नहीं होती।

देवनागरी लिपि की प्रमुख विशेषताएँ

  1. ध्वन्यात्मक नामकरण
    देवनागरी लिपि में अक्षरों के नाम उसी ध्वनि के आधार पर रखे गए हैं जिन्हें वे व्यक्त करते हैं, जैसे – अ, आ, क, ख आदि। इसके विपरीत, रोमन लिपि वर्णात्मक है, जिसमें अक्षरों के नाम और उनके द्वारा दर्शाई जाने वाली ध्वनि में स्पष्ट साम्यता नहीं पाई जाती।

  2. लिपि चिह्नों की पर्याप्तता
    देवनागरी लिपि में वर्णों की संख्या और ध्वनियों की अभिव्यक्ति की क्षमता अन्य लिपियों की तुलना में अधिक है। जहाँ अंग्रेजी में लगभग 40 ध्वनियों को केवल 26 अक्षरों से व्यक्त किया जाता है, वहीं देवनागरी में प्रत्येक ध्वनि के लिए विशिष्ट प्रतीक चिह्न उपलब्ध हैं। उर्दू में कई ध्वनियों जैसे- ठ, ढ, थ, ध, फ, भ आदि को दर्शाने के लिए कोई स्वतंत्र चिह्न नहीं है, जो उसकी सीमा को दर्शाता है।

  3. स्वरों की स्वतंत्रता
    देवनागरी में ह्रस्व और दीर्घ स्वरों के लिए अलग-अलग प्रतीक चिह्न निर्धारित हैं, जबकि रोमन लिपि में 'a' एक ही समय में 'अ' और 'आ' की ध्वनि को भी दर्शा सकता है, जिससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है।

  4. आक्षरिकता (Syllabic Nature)
    देवनागरी लिपि में प्रत्येक व्यंजन के साथ अंतर्निहित स्वर 'अ' जुड़ा होता है, जैसे – 'च्' + 'अ' = 'च'। इसे तोड़कर देखा जाए तो यह लिपि अक्षरों के संयोग पर आधारित है। यह विशेषता जहाँ एक ओर इसे कम स्थान में अधिक अभिव्यक्ति वाली बनाती है, वहीं दूसरी ओर इस 'अवगुण' के चलते कुछ शब्दों की स्पष्टता बाधित हो सकती है।

  5. सुपाठ्यता और लेखन में स्पष्टता
    देवनागरी लिपि अपनी संरचना के कारण सुपाठ्य और सुलेखनीय है। उर्दू जैसे लिपियों में एक ही शब्द को कई तरीकों से पढ़ने की संभावना रहती है – जैसे ‘जूता’ को ‘जोता’ या ‘जौता’ पढ़ने की त्रुटि होती है, जो देवनागरी में प्रायः नहीं होती।

देवनागरी लिपि की सीमाएँ

हालाँकि देवनागरी लिपि अनेक गुणों से सम्पन्न है, फिर भी इसमें कुछ व्यावहारिक कठिनाइयाँ देखी जाती हैं:

  • लिपि के चारों ओर मात्राएँ लगाना तथा उसके पश्चात शिरोरेखा खींचना लेखन को अपेक्षाकृत धीमा बना देता है, जो रोमन या उर्दू में नहीं होता।

  • ‘र’ के विविध रूपों (रात, प्रकार, राष्ट्र, कर्म) के कारण लेखन और पठन में सावधानी की आवश्यकता रहती है।

  • आधुनिक लेखन में कुछ अक्षरों की बनावट में असंगति देखी जा सकती है, जैसे – ‘रवाना’ की पारंपरिक बनावट अब 'खाना' की भांति हो गई है, जिससे स्पष्टता प्रभावित हो सकती है।

  • शिरोरेखा के प्रति असावधानी से शब्द का अर्थ ही बदल सकता है, जैसे – ‘भर’ की शिरोरेखा ठीक से न लगे तो ‘मर’ पढ़ा जा सकता है।

निष्कर्ष

देवनागरी लिपि अपनी वैज्ञानिक रचना, ध्वन्यात्मकता, पर्याप्तता और सुव्यवस्थित संरचना के कारण रोमन एवं उर्दू लिपियों की तुलना में कहीं अधिक सक्षम, समृद्ध और शुद्ध रूप से अभिव्यक्तिपूर्ण लिपि है। हालांकि इसमें कुछ व्यावहारिक सुधारों की आवश्यकता बनी रहती है, विशेष रूप से लेखन शैली और वर्णरचना की एकरूपता के क्षेत्र में, फिर भी इसे विश्व की सबसे वैज्ञानिक लिपियों में स्थान देना पूर्णतः उचित है।

Wednesday, 30 July 2025

हिंदी साहित्य की प्रमुख त्रयी

रीतिकालीन कवि त्रयी____:- केशव, बिहारी, भूषण

प्रगतिशील त्रयी___:- शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, त्रिलोचन

छायावाद की वृहद त्रयी:-

  • जयशंकर प्रसाद(ब्रह्मा
  • सुमित्रानंदन पंत (विष्णु
  • सूर्यकांत त्रिपाठी निराला) महेश

छायावाद की लघुत्रयी या वर्मा त्रयी:-
  •  महादेवी वर्मा
  • रामकुमार वर्मा
  • भगवतीचरण वर्मा
मिश्रबंधु की वृहदत्रयी:-
  • तुलसीदास
  • सूरदास
  •  देव

मिश्र बंधु की मध्य त्रयी
  • बिहारी
  • भूषण
  • केशव
मिश्रबंधु की लघुत्रयी:-
  • मतिराम
  • चंद्रवरदाई
  • हरिश्चंद्र
शतक त्रयी:-
  • नीतिशतक
  • श्रंगार शतक
  • वैराग्य शतक
नई कहानी आंदोलन की यशस्वी त्रयी:-
  • राजेंद्र यादव
  • कमलेश्वर
  • मोहन राकेश
भारतीय पत्रकारीता त्रयी:-
  • राजेंद्र माथुर
  • मनोहर श्याम जोशी
  • अज्ञेय
  • त्रयी पुस्तक के लेखक आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री है!!

हिन्दी साहित्य के लेखक और उनके ग्रन्थ

रेती के फूल________ :-रामधारी सिंह दिनकर

अशोक के फूल________:- हजारी प्रसाद द्विवेदी

कमल के फूल________ :-भवानी प्रसाद मिश्र

शिरीष के फूल________:- हजारी प्रसाद द्विवेदी

कागज के फूल________ :-भारत भूषण अग्रवाल

जूही के फूल__________:- रामकुमार वर्मा

गुलाब के फूल ________:-उषा प्रियवंदा

नीम के फूल___________:- गिरिराज किशोर

खादी के फूल_________:- हरिवंशरायबच्चन

जंगल के फूल__________:- राजेंद्र अवस्थी

दुपहरिया के फूल_______:- दुर्गेश नंदिनी डालमिया

चिता के फूल__________ :-रामवृक्ष बेनीपुरी

सेमल के फूल __________:-मारकंडे

सुबह के फूल__________:- महीप सिंह

रक्त के फूल____________ :-योगेश कुमार

खादी के गीत_________:-सोहनलाल

उसने कहा था_________ :-चंद्रधर शर्मा गुलेरी

उसने नहीं कहा था ______:-शैलेश मटियानी

तुमने कहा था _________:-नागार्जुन

मैंने कब कहा_________ :-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

तुमने क्यों कहा कि मैं सुंदर हूँ_______यशपाल

उसकी कहानी _________:-महेंद्र वशिष्ट

उसका विद्रोह_________:- मृदुला गर्ग

उस रात की गंध________ :-धीरेंद्र अस्थाना

नव भक्तमाल__________:- राधाचरण गोस्वामी

उत्तरार्द्ध भक्तमाल_______:- भारतेंदु

भक्तमाल_____________:- नाभा दास

भक्त नामावली _________:-ध्रुवदास