स्वतंत्रता, समानता
और न्याय को सामाजिक-राजनीतिक मूल्यों के रूप में देखा जाता है, जिसकी प्राप्ति के
लिए हमें प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि इसकी प्राप्ति से समाज में सुधार होता है | इसलिए जब हम कहते है कि स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व भावना सामाजिक मूल्य
है तो इसका अर्थ है कि इनकी प्राप्ति के लिए समाज को प्रयत्नशील होना चाहिए |
स्वतंत्रता- स्वतंत्रता दो अतिवादी स्थितियों अतंत्रता और परतंत्रता के मध्य का मार्ग है | अतंत्रता वह स्थिति है जिसपर कोई नियंत्रण न हो | जो पूर्णतः अनियंत्रित होता है | किसी अन्य के द्वारा नियंत्रित स्थिति परतंत्रता है | इन दोनों के मध्य स्वतंत्रता वह स्थिति है जिस पर कुछ नियंत्रण होता है, किन्तु वह नियंत्रण स्वयं द्वारा स्थापित नियंत्रण है | इसलिए नियंत्रित होने के बाद भी इसे स्वतंत्रता कहा जाता है | परन्तु जब हम अपना नियंत्रण स्वयं कर रहे होते है तो उस नियंत्रण के स्वच्छंदता में परिवर्तित होने का भय बना रहता है |
निश्चित रूप से स्वतंत्रता व्यक्ति का एक नैतिक अधिकार है | लेकिन यह
अधिकार नितांत साध्य नहीं है | वास्तव में इस अधिकार के साथ कुछ कर्त्तव्य भी जुड़े
होते है | प्राचीन यूनानी विचारकों का कहना था कि व्यक्ति को स्वतंत्र इसलिए होना
चाहिए, जिससे वह अपने अन्दर निहित समस्त संभावनाओं का विकास कर सके | इसप्रकार
यहाँ पर स्वतंत्र होने का अर्थ स्वच्छंद होना नहीं है | यह किसी आदर्श के साथ बंधा
हुआ होता है, इसलिए यह अतंत्रता से अलग है |
स्वतंत्रता की सबसे अच्छी परिभाषा जॉन लॉक के विचारों में दिखाई देती
है जिसके अनुसार स्वतंत्रता मनुष्य का अधिकार है | क्या करें और क्या न करें? इस
बात का निर्णय करने के लिए व्यक्ति का जो अधिकार है वहीँ स्वतंत्रता है, बशर्ते कि
मनुष्य इसी प्रकार का अधिकार अन्य व्यक्तियों को भी प्रदान करने के लिए तैयार रहे
| इस परिभाषा का प्रथम अंश स्वतंत्रता को और दूसरा अंश समता को परिभाषित करता है |
समता- समता का मूल्य केवल इस बात की मांग करता है कि प्रत्येक
व्यक्ति के अधिकारों में समता होनी चाहिए | समता का संप्रत्यय आरंभिक यूनानी दर्शन
में नहीं दिखाई देता है | तब समानता का एक सीमित अर्थ था | प्लेटो का कहना है कि
समता की स्थिति में समान लोगों के अधिकार समान होने चाहिए | यद्यपि विभिन्न
समुदायों के अधिकार में अन्तर हो सकता है, लेकिन एक ही समुदाय के विभिन्न
व्यक्तियों के अधिकारों में अंतर नहीं होना चाहिए |
व्यापक अर्थ में समानता का संप्रत्यय आधुनिक युग की देन है | विशेष
रूप से समाजवादी आन्दोलन के दौर में इसका पूर्ण विकास हुआ |
राजनीतिक विचारों का इतिहास दो युगों में विभाजित है-
1. समाजवाद के उद्भव के पूर्व का युग- इसे
व्यक्तिवादी युग कहा जाता है क्योंकि इस युग में व्यक्ति की स्वतंत्रता को
सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता था | यद्यपि समानता के बिना स्वतंत्रता अर्थहीन है
क्योंकि एक व्यक्ति की स्वतंत्रता अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता के सापेक्ष होती है
| कोई व्यक्ति अकेले अपनी स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकता है | इसलिए लॉक का
मानना है कि ‘एक स्वतंत्र व्यक्ति का
अधिकार तभी तक सुरक्षित रह सकता है, जब तक वह अन्य व्यक्तिओं को स्वतंत्रता का
अधिकार देने के लिए तैयार रहे |
2.
लोकतंत्र में व्यक्ति की स्वतंत्रता को
सर्वोत्तम मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है और इसलिए लोकतंत्र का विकास
पूंजीवादी लोकतंत्र के रूप में हुआ | अतः जिनके अंदर बौद्धिक और शारीरिक क्षमता
अधिक थी, उनका विकास अधिक हुआ और जिनमें ये क्षमता कम थी उनका विकास कम होने के
कारण समाज में विषमता उत्पन्न हुई | इसका निराकरण करने के लिए लोकतंत्र में समानता
की स्थापना का प्रयत्न किया गया | इसमें तीन मूल्य स्वीकार किए गए- स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व भाव| फिर भी स्वतंत्रता को
सर्वोच्च मूल्य के रूप स्वीकार किया जाता रहा है | इन तीन मूल्यों में से
स्वतंत्रता और समानता को परस्पर विरोधी मूल्य माना जाता रहा है | इसप्रकार
लोकतंत्र की अवधारणा ही विरोधाभासी हो गई | स्वतंत्रता को स्वीकार कर लेने पर
समानता बाधित होती है और समानता को स्वीकार कर लेने पर स्वतंत्रता बाधित होती है|
इस विरोधाभास को दूर करने के लिए
समाजवाद का संप्रत्यय विकसित हुआ, जिसमें स्वतंत्रता और समानता के संपूर्ण
सामंजस्य का प्रयत्न किया गया, जो अलग-अलग दार्शनिक धारणाओं में अलग-अलग ढंग से
व्यक्त हुआ|
जहाँ व्यक्तिवादी अवधारणा में
स्वतंत्रता को अधिक महत्व है, वहीँ समाजवादी अवधारणा में समानता को सर्वोच्च
महत्त्व दिया गया है | समाजवादी अवधारणा में वे सभी सिद्धांत सम्मिलित हैं जो
व्यक्ति का साधन और समष्टि को साध्य मानते हैं और इसके व्यापक अर्थ में फासीवाद को
भी समाजवादी विचारधारा के अंतर्गत शामिल किया जाता है क्योंकि वह समष्टिवाद का
समर्थक है | वह व्यक्ति की स्वतंत्रता को निरर्थक मानता है | मुसोलिनी का मानना है
कि स्वतंत्रता नाम का जो विशेषण है उसका प्रयोग केवल राज्य के साथ किया जा सकता है
| स्वतंत्रता का अर्थ है राष्ट्र या समष्टि की स्वतंत्रता| व्यक्ति के साथ
स्वतंत्रता का प्रयोग नहीं करना चाहिए | वे समानता को भी मूल्य नहीं मानते हैं |
उनका मत है कि प्रकृति में विषमता है |
इसलिए समानता का भाव वास्तविक नहीं है | नीत्शे का कहना है कि कुछ लोग शासन
करने के लिए और कुछ लोग शासित होने के लिए पैदा होते है | अतः समानता की बात करना
निरर्थक है |
लेकिन जब हम खुले मष्तिष्क से विचार करते है तो पाते है कि दो व्यक्तियों के बीच समानता होनी चाहिए | यदि प्रकृति ने हमें विषम पैदा किया है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि जो कुछ भी प्राकृतिक है, उसका हम विरोध नहीं कर सकते | प्रकृति के उचित पक्ष को स्वीकार करके तथा अनुचित पक्ष को अस्वीकार करके सुसंस्कृत समाज की स्थापना करते है | यह संभव है कि पूर्ण सामंजस्य की स्थापना केवल एक आदर्श हो किन्तु साम्य के अधिक निकट पहुंचना असंभव नहीं है और यह समाज व्यवस्था का दायित्व भी है |
समता और सर्वांगसमता में अंतर है |
दोनों अलग-अलग अवधारणा है| जब कभी समानता की बात करते है तो इसकी यह कहकर आलोचना
की जाती है कि प्रकृति ने ही मनुष्य को विषम पैदा किया है, इसलिए वह समान नहीं हो
सकता | परन्तु जो लोग ऐसा कहकर समता की आलोचना करते है, वे समता और सर्वांगसमता
का अर्थ ठीक से नहीं जानते हैं|
समता का अर्थ सर्वांगसमता नहीं है |
समता का अर्थ एक मनुष्य के रूप में प्राप्त होने वाले अधिकारों की समता है |
अर्थात् विधान के द्वारा प्रदत्त अधिकारों में समता होनी चाहिए | परन्तु समानता का
अर्थ शारीरिक और बौद्धिक समानता नहीं है | समानता का अर्थ शक्ति को विकसित करने की
अवसर की समानता से है | कोई भी दो व्यक्ति एक-दूसरे से बिलकुल समान नहीं होते हैं
| प्रत्येक व्यक्ति की अलग-अलग क्षमताएं होती है | इसलिए सबको विकास का समान अवसर
मिलना चाहिए | भारतीय संविधान के अनुसार भाषा, लिंग, नस्ल और रंग आदि के आधार पर किसी
भी व्यक्तियों में भेद नहीं किया जाना समानता है | लेकिन कोई व्यक्ति अपने
अधिकारों का पूर्ण उपयोग कर लेता है और दूसरा नहीं कर पाता है | परिणामस्वरूप
विषमता हो सकता है या होती है | कुछ दार्शनिक या विचारक ऐसे भी है, जिन्होंने
समानता को सर्वोच्च आदर्श के रूप में स्वीकार किया है | साम्यवादी समानता को
सर्वाधिक महत्वपूर्ण मूल्य मानते है | लेकिन यहाँ समानता से तात्पर्य आर्थिक,
सामाजिक, राजनीतिक और आचरण की समानता आदि से है | किन्तु इतनी समानता के बावजूद
साम्यवादी और सभ्य समाजों में प्राकृतिक विषमता समाप्त नहीं की जा सकती है |
कुछ लोग समानता और स्वतंत्रता को
परस्पर विरोधी मानते है | इसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता
की रक्षा तबतक नहीं की जा सकती है, जबतक समानता को सर्वोच्च मूल्य के रूप में
स्वीकार न किया जाय | यहाँ समानता को सर्वोच्च मूल्य मानकर स्वतंत्रता का निषेध
किया गया है | यहाँ स्वतंत्रता का अर्थ केवल इतना ही है कि लोकहित को दृष्टि में
रखते हुए अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग | साम्यवादी समाज में व्यक्तिगत सम्पति और
स्वतंत्रता का निषेध किया गया है | लेकिन स्वतंत्रता के ऐसे भी पक्ष है जिन्हें
मानव व्यक्तित्व का केंद्र माना जाता है | जैसे-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता | स्व+तंत्र का शाब्दिक अर्थ ही है अपने अधीन
होना | यदि व्यक्ति ने अपने को ठीक से पहचान लिया है तो उसके
विचार और कर्म कभी भी लोकहित या समाज के व्यापक हितों के विरोध में नहीं हो सकते।
समानता पर अधिक जोर देने वाले सिद्धांत और समाज में स्वतंत्रता का निषेध हुआ है |
साम्यवादी समाज में संपत्ति का अधिकार या संपत्ति-स्वामित्व का निषेध किया गया है
जबकि संपत्ति का अधिकार या संपत्ति-स्वामित्व मानव-व्यक्तित्व के लिए आवश्यक होता
है | संपत्ति-स्वामित्व व्यक्ति को समाज में कर्मशील रहने और समाज के कुछ करने या
समाज में कुछ जोड़ने के लिए प्रेरित करता है |
अतः स्वतंत्रता का निषेध मानव-व्यक्तित्व के लिए घातक होता है और
समानता का निषेध समाज के लिए घातक होता है | इसलिए इन दोनों संप्रत्ययों के बीच
सामंजस्य स्थापित किया जाना चाहिए, जिससे व्यक्ति और समाज दोनों का समुचित विकास
हो सके |
फासीवाद में समानता और स्वतंत्रता दोनों का निषेध किया गया है | यहाँ
स्वतंत्रता का प्रयोग एक विशेष अर्थ में किया गया है | यह राष्ट्र की स्वतंत्रता
है, व्यक्ति की नहीं | फासीवाद में शक्ति का अर्थ है राष्ट्र की शक्ति | जितने भी
सामाजिक और राजनीतिक मूल्य है वे सभी राष्ट्र सापेक्ष हैं | यहाँ तक कि न्याय का
अर्थ राष्ट्र के प्रति न्यायपूर्ण आचरण करना है | जिसे अरस्तू corrective justice
कहता है, उसे फासीवाद अर्थहीन मानता है | राज्य से किसी प्रकार के अधिकार की मांग
करना अन्यायपूर्ण है | मुसोलिनी का मानना था कि व्यक्ति का केवल इतना ही अधिकार है
कि वह राष्ट्र के प्रति अपने जीवन का बलिदान कर दे |
उपयोगितावादी समानता और स्वतंत्रता दोनों का मूल्यांकन अपने मूल सिद्धांत अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख के आधार पर करते है | उपयोगितावादी जॉन ऑस्टिन का मानना है कि वास्तव में सारे मूल्य इस महामूल्य की दृष्टि से अर्थ ग्रहण करते है | कोई भी मूल्य इस सर्वोच्च मूल्य की प्राप्ति में सहायक है तो मूल्य हैं, अन्यथा नहीं |
अर्थक्रियावादी विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता अपने आप में कोई मूल्य
नहीं है | यह मूल्य तब बनती है जब उसे मानव इच्छा की संतुष्टि के पैमाने पर मापते
हैं | इसीप्रकार समता तभी मूल्य कही जाएगी, जब वह मानव इच्छा की संतुष्टि में
सहायक हो |
क्या स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों
को कोई भी समाज एक साथ प्राप्त कर सकता है ? क्या इन दोनों में सामंजस्य हो सकता
है ?
अनेक चिंतकों ने इसका सकारात्मक उत्तर
दिया है क्योंकि जब भी हम स्वतंत्रता की बात करते है तो उसकी कुछ सीमाएँ अवश्य
होती है और स्वतंत्रता की यहीं सीमा समता की स्थापना में सहायक होती है | एक
प्रचलित उक्ति है कि ‘हमारी स्वतंत्रता वहीँ समाप्त हो जाती है, जहाँ से दूसरे की
स्वतंत्रता आरम्भ होती है|’
स्वतंत्रता के संप्रत्यय में नियंत्रण
का तत्व अपने आप जुड़ा हुआ है और जिसे हम परम स्वतंत्रता समझते है, वह वास्तविक
स्वतंत्रता नहीं है | संकल्प की स्वतंत्रता का अर्थ स्वयं अपने नियंत्रण में होना
है | अतः नैतिक और राजनीतिक दृष्टियों से स्वतंत्रता एक सीमित अधिकार है | लॉक ने
स्वतंत्रता को सीमित माना है | लॉक के अनुसार स्वतंत्रता व्यक्ति का वह अधिकार
है, जिससे वह कुछ करने और नहीं करने का निर्णय लेता है, बशर्ते वह यही अधिकार अन्य
लोगों को भी दे रहा है | लॉक का स्पष्टिकरण है कि एक व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे
व्यक्ति की स्वतंत्रता से अधिक या कम मूल्यवान नहीं होती | सभी मनुष्यों की
स्वतंत्रता का मूल्य समान है | इसलिए समानता का मूल्य स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है |
एक उक्ति है कि ‘एक स्थान की गरीबी प्रत्येक अन्य स्थान की समृद्धि के लिए खतरा है
| ठीक यही स्थिति स्वतंत्रता और समता के प्रत्यय के संबंध में भी सत्य है |
अर्थात् यदि कहीं असमानता है तो वह व्यापक स्वतंत्रता के लिए खतरा है | अतः
स्वतंत्रता की स्थापना के लिए समता की स्थापना आवश्यक है |
प्रश्न है कि स्वतंत्रता और समता में
से कौन सा मूल्य मनुष्य के व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है ? स्वतंत्रता मनुष्य का स्वरुप लक्षण है, इसलिए
सर्वाधिक प्रिय है | यह व्यक्ति स्वरुप लक्षण है | यह ने केवल सभ्य और सुसंस्कृत समाज की चीज है, बल्कि प्राकृतिक भी है, क्योंकि यदि कोई मूल्य
केवल मनुष्य के लिए है तो उसे मानवकृत कह सकते है | लेकिन मानवेत्तर प्राणियों में
भी स्वतंत्रता किसी न किसी रूप में दिखाई देती है | यद्यपि वहाँ यह स्वतंत्रता
स्वच्छंदता के रूप में होती है | स्वच्छंद होना एक सहज प्रवृति है और इसी
स्वच्छंदता के संप्रत्यय से स्वतंत्रता के संप्रत्यय को गढ़ा गया है | वेदांत
दर्शन स्वतंत्रता को जीव का लक्षण मानता है | मोक्ष का व्यावहारिक रूप स्वतंत्रता
है | यह स्वतंत्रता एक ओर बाह्य बंधन के निषेध की बात
करती है तो दूसरी ओर आत्मनियंत्रण की बात करती है और यहीं आत्मनियंत्रण समता की
स्थापना करती है | सच्ची स्वतंत्रता के लिए समानता अनिवार्य है | मनुस्मृति में
कहा गया है कि जो मनुष्य सभी प्राणियों में स्वयं को देखता है और सभी प्राणियों को
स्वयं में देखने लगता है, वही सच्चा स्वराज्य प्राप्त करता है | स्वराज्य का आदर्श
स्वतंत्रता की भावना को प्रकट करता है |
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